महिला दिवस की पूर्व बेला में आज दिन भर सभी न्यूज़ चैनल एक नवजात शिशु को माँ की ममता की छाया मिल जाने की दास्तान दिखाते रहे । समाचार चैनलों के स्टूडियो में एंकर पर्सन से बातचीत का दौर चलता रहा । एक मासूम को माँ का प्यार दुलार मिले इससे अच्छी कोई और बात हो ही नहीं सकती । मगर एक प्रश्न अब तक अनुत्तरित है और इतने दिनों से माँ की ममता का सवाल खड़े करने वाले किसी पत्रकार ने भी यह मुद्दा नहीं उठाया ।
जबलपुर की रहने वाली पेशे से अध्यापिका पुष्पा पात्रे का कहना है कि वह पचमढी स्कूल ट्रिप लेकर गई थी । वहाँ उसने एक बच्ची को जन्म दिया और उसे मॄत समझ कर घने जंगल की गहरी खाई में फ़ेंक दिया । कहते हैं , फ़ानूस बनकर जिसकी हिफ़ाज़त हवा करे , वो शमा क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे । उस सुनसान इलाके में अचानक कुछ लोगों ने बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर पुलिस को इत्तला कर दी । ज़ख्मी और बेहद गंभीर हालत में उस नवजात बच्ची को भोपाल के अस्पताल दाखिल कराया गया ।
करीब दो - तीन दिन समाचार चैनलों पर इस बारे में खबर आती रही ,लेकिन माँ का कलेजा नहीं पसीजा । एकाएक पुष्पा पात्रे को एहसास हो गया अपनी भूल का और उन्होंने अस्पताल के चक्कर लगाना शुरु कर दिये । मगर प्रशासन ने कोई ठोस सबूत नहीं होने के कारण उसे बच्ची से नहीं मिलने दिया ।
महिला को भी मीडिया की ताकत का भरपूर अंदाज़ा था और वो बहुत अच्छी तरह जानती थी कि चटपटी और सनसनीखेज़ खबरों की तलाश में भटकने वाला मीडिया ही मददगार हो सकता है । बाइट और ममतामयी माँ के बेहतरीन शॉट के लिए खबरचियों ने महिला की भरपूर मदद की और आखिरकर वह बच्ची से मिलने में कामयाब भी हो गई ।
कोर्ट ने तीन महीने के लिए बच्ची कथित माँ को सौंपने के आदेश दे दिये हैं । लेकिन सरसरी नज़र से देखें या उस पर बारीकी से गौर करें तो मामला काफ़ी पेचीदा लगता है । आखिर एक शिक्षिका की ऎसी क्या मजबूरी थी जो उसने बच्ची को जाँच -पड़ताल कराये बिना मृत मान लिया । अगर भूलवश ऎसा मान भी लिया तो अपने जिगर के टुकड़े को चाहे मर ही क्यों ना चुका हो क्या कोई इस तरह खाई में फ़ेंक सकता है ?
महिला सरकारी नौकरी में है और रहन - सहन भी अच्छा है । इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह बच्ची को दफ़नाने में सक्षम नहीं थी । आज एक चैनल पर मैंने पुष्पा पात्रे को कहते सुना कि उनका बेटा इस बारे में सब कुछ जानता था । वह बच्ची के जन्म से लेकर उसे फ़ेंके जाने तक पूरे घटनाक्रम का गवाह रहा है । ऎसे में ये प्रश्न और भी गंभीर हो जाता है ।
टूर पर साथ गये अन्य सहकर्मियों को इतने बड़े हादसे के बारे में नहीं बताना , उनकी मदद नहीं लेना क्या कुछ अटपटा सा नहीं लगता ? एक विवाहित , आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर महिला ने ऎसा कदम क्यों उठाया ? उस पर ऎसा कोई सामाजिक और आर्थिक दबाव नज़र नहीं आता । समाचार चैनल इसे माँ की ममता के तौर पर पेश कर रहे हैं , लेकिन हालाते - हाज़िरा कुछ और ही कहानी कह रहे हैं ।
कहीं कुछ तो पेंच है , कुछ तो ऎसा है जो अनसुलझा है लेकिन किसी भी पत्रकार ने इन अनसुलझे सवालों को ना तो खड़ा किया और ना ही इनके जवाब तलाशने की ज़हमत उठाई । महिला की मदद से मीडिया को कुछ दिनों का मसाला मिल गया और मीडिया के ज़रिये महिला को बच्ची ......। तुम्हारी भी जय - जय ,हमारी भी जय - जय .......। ना तुम हारे ना हम हारे । लेकिन क्या बच्ची को सचमुच ममता का आँचल मिल गया....??????????
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शनिवार, 7 मार्च 2009
शुक्रवार, 6 मार्च 2009
औरत को दया नहीं अधिकार की दरकार
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का ज़िक्र आते ही पता नहीं क्यों विश्व हिंदी दिवस की याद आ ही जाती है । महिला दिवस के बहाने साल में एक दिन ही सही, क़म से क़म महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कुछ रोशनी तो पड़ती है । कुछ अलग की तलाश में भटकते मीडिया में भी महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होती है ।
महिला दिवस जहाँ एक मौका है महिला शक्ति को सलाम करने का, वहीं रुककर उन महिलाओं के बारे में सोचने का भी मौका है जो बुरी स्थिति में हैं । ये मौका है उन असमानताओं के बारे में सोचने का , जो आज भी समाज में है और हम उसके लिए क्या कर सकते हैं ?
समाज में कहने को क़ायदे-क़ानून ज़रूर हैं लेकिन जब तक महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वालों पर शिकंजा नहीं कसेगा , लोगों की ये मानसिकता नहीं बदलेगी कि आप अपराध कर सकते हैं और फिर बच कर निकल सकते हैं । मानसिकता बदलने के लिए क़ानून, राजनीतिक इच्छाशक्ति, घर का माहौल,मीडिया, फ़िल्म... , हर स्तर पर प्रयास ज़रुरी हैं ।
मैं दुनिया भर की सभी महिलाओं की प्रतिनिधि तो नहीं हूँ लेकिन मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है जब स्त्री पर 'दुखिया' 'बेचारी' 'वंचित' या फ़िर 'अबला' का ठप्पा लगाया जाता है । मन सवाल कर उठता है , आखिर क्यों मनाते हैं ये दिवस? क्यों नहीं 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' या 'विश्व अंग्रेज़ी दिवस' मनाए जाते ? क्या आज भी महिला और हिंदी "इतनी बेचारी" हैं कि उनकी तरफ़ ध्यान दिलाने के लिए खास मशक्कत की ज़रूरत है ? इसमें शक नहीं है कि आज भी अनगिनत महिलाएँ जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं । लेकिन दुखियारे पुरुषों की भी समाज में कमी नहीं । ग़रीबी और अशिक्षा सबसे बड़े अभिशाप हैं और वे लिंगभेद के अनुपात में नहीं उलझते ।
साल में एक बार महिला दिवस मनाने से बेहतर है कि साल के 365 दिन समाज के उन उपेक्षित वर्गों को समर्पित किए जाएँ जिनकी ओर न समाज का ध्यान जाता है और न ही व्यवस्था का । अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की उपलब्धि क्या है? जगह-जगह समारोह, भाषणबाज़ी, बड़े-बड़े संकल्प और वायदे.. ......आखिर में फिर स्थिति जस की तस ।
महिलाओं की स्थिति सुधारने में दो सबसे बड़ी बाधाएँ हैं - कन्या भ्रूण हत्या और दहेज प्रताड़ना । शुरुआत कन्या भ्रूण से की जाना चाहिए । पहले तो उसे जन्म लेने का, जीने का, साँस लेने का अधिकार हो । फिर उसे कुपोषण से बचाया जाए । इसके अलावा उसकी शिक्षा का पूरा इंतज़ाम हो ।
लड़कियों की शिक्षा पर बहुत ज़्यादा ध्यान न दिए जाने के बावजूद आँकड़े बताते हैं कि भारत में महिला डॉक्टरों, सर्जनों, वैज्ञानिकों और प्रोफ़ेसरों की तादाद अमरीका से ज़्यादा है । ज़रा सोच कर देखिए थोड़ा सा सहारा या सहायता महिला को किन ऊँचाइयों तक ले जा सकती है । लेकिन यह सहारा अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने से नहीं मिलेगा । यह मिलेगा आसपास के परिवेश से. घर-परिवार से.....।
भारत की पहली महिला पुलिस अधिकारी और जुझारूपन की मिसाल किरण बेदी ने समाज की कुछ वंचित महिलाओं के बारे में अपने एक लेख में ऐसी ही एक सलाह दी थी वे कहती हैं, "मैने उन तमाम स्त्रियों को समझाया कि जो चीज़ें उन्हें इतनी कोशिशों के बाद मिली हैं, मुझे वे सब मेरे माता-पिता ने जन्म से ही दिया था... इसलिए बेटियाँ वही बनती हैं जो उनके माता-पिता उन्हें बनाना चाहते हैं, और अगर उन महिलाओं के माता-पिता चाहते तो उन्हें भी ये सब मिल सकता था। "
महिलाओं को आरक्षण के खांचे में रखने की कतई ज़रुरत नहीं । उन्हें सामाजिक समानता चाहिए । देश और समाज में हर स्तर पर संतुलन कायम रखने के लिए स्त्रियों को दया की नहीं अधिकार की दरकार है । कन्या भ्रूण हत्या रोकने में भी स्त्रियों को ही दृढता दिखाना होगी । माँ के मज़बूत इरादों से टकराकर कोई भी बेटी की नन्हीं जान को धड़कने से नहीं रोक सकता । औरतों के वजूद को समझने और उन्हें आगे बढने के पर्याप्त अवसर देकर ही महिला दिवस को सार्थक बनाया जा सकता है ।
क़ैफ़ी आज़मी साहब की नज़्म ’औरत’ के कुछ हिस्से -
तू फ़लातूनो-अरस्तू है तू ज़ुहरा परवीं
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं , तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा ,जल्द उठा पाए - मुकद्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं ,वक्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि सम्हलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।
महिला दिवस जहाँ एक मौका है महिला शक्ति को सलाम करने का, वहीं रुककर उन महिलाओं के बारे में सोचने का भी मौका है जो बुरी स्थिति में हैं । ये मौका है उन असमानताओं के बारे में सोचने का , जो आज भी समाज में है और हम उसके लिए क्या कर सकते हैं ?
समाज में कहने को क़ायदे-क़ानून ज़रूर हैं लेकिन जब तक महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वालों पर शिकंजा नहीं कसेगा , लोगों की ये मानसिकता नहीं बदलेगी कि आप अपराध कर सकते हैं और फिर बच कर निकल सकते हैं । मानसिकता बदलने के लिए क़ानून, राजनीतिक इच्छाशक्ति, घर का माहौल,मीडिया, फ़िल्म... , हर स्तर पर प्रयास ज़रुरी हैं ।
मैं दुनिया भर की सभी महिलाओं की प्रतिनिधि तो नहीं हूँ लेकिन मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है जब स्त्री पर 'दुखिया' 'बेचारी' 'वंचित' या फ़िर 'अबला' का ठप्पा लगाया जाता है । मन सवाल कर उठता है , आखिर क्यों मनाते हैं ये दिवस? क्यों नहीं 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' या 'विश्व अंग्रेज़ी दिवस' मनाए जाते ? क्या आज भी महिला और हिंदी "इतनी बेचारी" हैं कि उनकी तरफ़ ध्यान दिलाने के लिए खास मशक्कत की ज़रूरत है ? इसमें शक नहीं है कि आज भी अनगिनत महिलाएँ जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं । लेकिन दुखियारे पुरुषों की भी समाज में कमी नहीं । ग़रीबी और अशिक्षा सबसे बड़े अभिशाप हैं और वे लिंगभेद के अनुपात में नहीं उलझते ।
साल में एक बार महिला दिवस मनाने से बेहतर है कि साल के 365 दिन समाज के उन उपेक्षित वर्गों को समर्पित किए जाएँ जिनकी ओर न समाज का ध्यान जाता है और न ही व्यवस्था का । अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की उपलब्धि क्या है? जगह-जगह समारोह, भाषणबाज़ी, बड़े-बड़े संकल्प और वायदे.. ......आखिर में फिर स्थिति जस की तस ।
महिलाओं की स्थिति सुधारने में दो सबसे बड़ी बाधाएँ हैं - कन्या भ्रूण हत्या और दहेज प्रताड़ना । शुरुआत कन्या भ्रूण से की जाना चाहिए । पहले तो उसे जन्म लेने का, जीने का, साँस लेने का अधिकार हो । फिर उसे कुपोषण से बचाया जाए । इसके अलावा उसकी शिक्षा का पूरा इंतज़ाम हो ।
लड़कियों की शिक्षा पर बहुत ज़्यादा ध्यान न दिए जाने के बावजूद आँकड़े बताते हैं कि भारत में महिला डॉक्टरों, सर्जनों, वैज्ञानिकों और प्रोफ़ेसरों की तादाद अमरीका से ज़्यादा है । ज़रा सोच कर देखिए थोड़ा सा सहारा या सहायता महिला को किन ऊँचाइयों तक ले जा सकती है । लेकिन यह सहारा अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने से नहीं मिलेगा । यह मिलेगा आसपास के परिवेश से. घर-परिवार से.....।
भारत की पहली महिला पुलिस अधिकारी और जुझारूपन की मिसाल किरण बेदी ने समाज की कुछ वंचित महिलाओं के बारे में अपने एक लेख में ऐसी ही एक सलाह दी थी वे कहती हैं, "मैने उन तमाम स्त्रियों को समझाया कि जो चीज़ें उन्हें इतनी कोशिशों के बाद मिली हैं, मुझे वे सब मेरे माता-पिता ने जन्म से ही दिया था... इसलिए बेटियाँ वही बनती हैं जो उनके माता-पिता उन्हें बनाना चाहते हैं, और अगर उन महिलाओं के माता-पिता चाहते तो उन्हें भी ये सब मिल सकता था। "
महिलाओं को आरक्षण के खांचे में रखने की कतई ज़रुरत नहीं । उन्हें सामाजिक समानता चाहिए । देश और समाज में हर स्तर पर संतुलन कायम रखने के लिए स्त्रियों को दया की नहीं अधिकार की दरकार है । कन्या भ्रूण हत्या रोकने में भी स्त्रियों को ही दृढता दिखाना होगी । माँ के मज़बूत इरादों से टकराकर कोई भी बेटी की नन्हीं जान को धड़कने से नहीं रोक सकता । औरतों के वजूद को समझने और उन्हें आगे बढने के पर्याप्त अवसर देकर ही महिला दिवस को सार्थक बनाया जा सकता है ।
क़ैफ़ी आज़मी साहब की नज़्म ’औरत’ के कुछ हिस्से -
तू फ़लातूनो-अरस्तू है तू ज़ुहरा परवीं
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं , तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा ,जल्द उठा पाए - मुकद्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं ,वक्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि सम्हलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।
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