गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

बदलाव चाहिए तो मोमबती नहीं मशाल जलाओ

मुम्बई हमला अंधों का हाथी बन गया है । सभी अपनी सहूलियत और ज़रुरत के हिसाब से इसकी व्याख्या में व्यस्त हैं । ताज पर हुए हमले ने चिंतकों और विश्लेषकों को भी काम पर लगा दिया है । खुफ़िया तंत्र की नाकामी और राजनेताओं की बदमिजाज़ी के आम हो चले किस्सों के बीच मनीषी नए किस्म का मनन - चिंतन करने में जुट गये हैं । कहीं मीडिया की भूमिका को लेकर वाल उठाए जा रहे हैं , तो कहीं उसकी नीयत में उपजी खोट का खुलासा हो रहा है । जाने माने खबरनवीस ताज में एक छोटे परिवार के चाय के खर्चे का आकलन कर देश के विकास की गाथा पर गह- गंभीर चिंतन में मशगूल हैं ।

खबरिया चैनलों की बदौलत आई राष्ट्र प्रेम की सुनामी का असर कमज़ोर पडने लगा है । चैनलों को देखकर मन बल्लियों उछल रहा था कि इस बार तो बस .... ’आर या पार ..।’ सारी व्यवस्था बदल कर ही दम लेंगे हम ..। लेकिन आज सुबह अखबार के पन्ने पलटते ही ये खुशफ़हमी भी जाती रही । भोपाल के न्यू मार्केट , राजभवन और भेल में बम की खबर से मचे हडकंप की खबर को पढते - पढते आखिरी पैरा ने सारे मुगालते एक ही बार में मिटा दिए । बम की सूचना के बाद इलाके की सारी दुकानें बंद हो गई , लेकिन आइसक्रीम की मशहूर दुकान पुलिस के कहने के बावजूद खुली रही । आखिर व्यापारी ने पार्लर बंद क्यों नहीं किया ,क्या उसे अपने कर्मचारियों और संस्थान की फ़िक्र नहीं थी ? दरअसल बेहद गोपनीय तरीके से की गई पुलिस की माक ड्रिल की खबर से व्यापारी बखूबी वाकिफ़ था । यानी सुरक्षा व्यवस्था में कहीं ना कहीं छेद ...।

मुंबई में हुए हमलों के दूसरे दिन भारत के एक प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' की सुर्खी थी 'ऑवर नाइटमेयर, ऑवर वेक अप काल' यानी 'हमारा दुखद सपना, हमे जगाने वाली घंटी ।'
लेकिन क्या इससे भारत जागेगा ? अगर हम पिछले दिनों हुई घटनाओं को देखें तो उत्तर होगा नहीं । भारत एक विशालकाय समुद्री जहाज जैसा है , जो हिलता डुलता हुआ पानी को चीरता चलता है और ऐसे आंधी तूफ़ान में भी डूबता नहीं जिसमें छोटी नौकाएं या अस्थायी जहाज़ डूब जाते हैं ।
भारत ने कई युद्ध, दंगे, क़त्ल और आतंकवादी घटनाएं देखी हैं लेकिन ये जहाज़ सभी मुसीबतों को आराम से झेलता हुआ निकल जाता है । यहां के लोगों में तनाव तेज़ी से बढ़ता है और उसी तेज़ी से ख़त्म भी हो जाता है । इसका सबसे निराशाजनक और नकारात्मक पक्ष यह है कि भारतीय अगर एक बार शांत हो जाते हैं तो उनमें समस्या को नज़रअंदाज करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है । नतीजतन वे समस्या के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की बजाय हालात से समझौता करने लगते हैं ।

आक्रोश जताने के लिए हाथों में मशाल थामने की बजाय मोमबत्तियां जलाना भी इसी सहूलियत का हिस्सा जान पडता है । सांकेतिक भाषा का भी अपना महत्व होता है । मशाल की धधकती ज्वाला हमारे इरादे की मज़बूती को अभिव्यक्ति देती है । तेज़ हवा का झोंका तो क्या ज़रा सी फ़ूंक का प्रतिरोध भी ना सह पाने वाली , हर पल अपना अस्तित्व खोने वाली मोमबत्ती शायद कभी भी हमारे संकल्प की दृढता की प्रतीक हो ही नहीं सकती ।

हाल के दिनों के घटनाक्रम पर नज़र डालें , तो उत्तेजना से भरे लोगों का हुजूम चारों तरफ़ दिखाई देने लगा । लेकिन इनमें मुद्दों की समझ और जोश कहीं नज़र नहीं आती । दिशाहीन लोगों का जमावडा अक्सर भीड की शक्ल अख्तियार कर लेता है । ऎसे में भीड और भेड का फ़र्क खत्म हो जाता है । भेडों को हांकने वाला चरवाहा ही अंत में रेवड की दिशा तय करने लगता है । बहरहाल ऎसा कुछ फ़िलहाल होता दिखाई नहीं देता , क्योंकि मोमबत्तियां उठाकर नारे लगाने के श्रम से थक चुके लोग अगले किसी हादसे [वह भी पांच सितारा] पर ही ऊर्जावान हो पाएंगे ।

देश को क्रांति की प्रतीक मानी जाने वाली मशाल थामने वाले हाथों की ज़रुरत है । पुतले जलाने , शवयात्रा निकालने , सिर मुडाने , दौड लगाने या फ़िर रंगबिरंगी टी शर्ट धारण करके सडकों पर पेट्रोल फ़ूंकने से व्यवस्था ना तो कभी बदली है और ना ही आगे बदली जा सकेगी । व्यवस्था बदलना है तो वैचारिक परिवर्तन लाना होगा । भोगवादी संसकृ्ति से तौबा किए बिना अब भारत के हालात बदलने की बात करना महज़ छलावा है ।

कुछ लोग जो सवार हैं कागज़ की नाव पर
तोहमत तराशते हैं हवा के दबाव पर ।
चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

दो - तीन दिसम्बर की दरमियानी रात का खौफ़नाक मंज़र

पिछले २३ सालों से हर बार आज के दिन लगता है कि कैलेंडर में २-३ दिसंबर की तारीख आती ही क्यों है ? आज शाम से मन कुछ उदास है । ३ दिसंबर १९८४ की सुबह का खौफ़नाक मंज़र अपनी चपेट में लेने लगता है और एकाएक सब कुछ बिखर सा जाता है ।
आगे की पढाई से छुटकारा पाने की गरज और अपने पैरों पर खडे होने की ललक से शुरु की गई नौकरी के नियम बडे सख्त थे । कडाके की ठंड में भी सात बजे तक स्कूल में हाज़िरी ज़रुरी थी , तय समय से पांच मिनट की देरी यानी आधे दिन की तनख्वाह का सफ़ाया ।

शिवाजी नगर से लखेरापुरा तक करीब ८-९ किलोमीटर का फ़ासला है । रास्ते भर लोगों की बदहवास भीड का सबब समझ से बाहर था ।{ खबरिया चैनल जो नहीं थे पल -पल की हलचल बयान करने के लिए , काश होते ....] लोग रजाई - कंबल लिए टी टी नगर का रूख किए थे । लग रहा था मानो किसी जुलूस या मेले में शिरकत करने जा रहे हैं इक्ट्ठा होकर । स्कूल पहुंचने प् देखा वहां भी सभी कुछ बातें कर रहे हैं । वातावरण में अजीब सी गंध समाई है । सब एक - दूसरे को अपनी आप बीती सुना रहे हैं । हालांकि तब तक किसी को हालात की गंभीरता का ज़्यादा अंदाज़ा नहीं था ।
पुराने शहर की तंग गली में चलने वाले स्कूल के बाहर एकाएक शोरगुल सुनाई देने लगा । लोग एक ही दिशा में बिना कुछ सुने भागे जा रहे थे । और हमें भी कुछ ऎसा ही करने का मशविरा दे रहे थे । लोग चिल्ला रहे थे कि भागो टंकी फ़ट गई है । आधी रात में गैस की रिसन के पीडादायी अनुभ से गुज़र चुके लोगों के लिए ये खबर मौत से रुबरु होने के समान थी ।
हर शख्स की आखें सुर्ख ,सूजी हुईं । जलन करती आंखॆं खोल पाना भी नामुमकिन ,लेकिन जान से ज़्यादा कीमती भला क्या ..। मांएं अपने बच्चों को छाती से चिपकाए , अंगुली पकडे दूर चली जाना चाहती थीं किसी महफ़ूज़ ठिकाने की तलाश में । बाद में पता चला कि ये महज़ अफ़वाह थी । तूफ़ान तो रात में ही अपना काम कर गया था ।
दोपहर बाद हालात को समझने के लिए मैं अपने पिता के साथ जेपी नगर ,कैंची छोला ,चांदबड इलाके मे गई । इतना भयावह मंज़र मैंने आज तक नहीं देखा । चारों तरफ़ पसरा सन्नाटा मौत के तांडव को बयान कर रहा था । सभी तरह के पालतू और आवारा जानवरों की फ़ूली हुई लाशें ,
सांय - सांय करती सडकें और सूने पडे मकान ....। हमीदिया अस्पताल ,काटजू और जेपी हास्पिटल में चारों तरफ़ हाहाकार ।
हादसे के कुछ घंटे बाद से शुरु हुई राजनीति का दौर अब भी बदस्तूर जारी है । पहले हादसे में हुई मौतों के आंकडे पर राजनीति ,फ़िर मुआवज़े पर और फ़िर पूरे शहर को मुआवज़ा दिलाने पर ।कई संगठन न्याय दिलाने के लिए आगे आए । कुछ नदारद हो गये । जो शेष हैं उनकी आपसी खींचतान बरकरार है । गैस पीडितों के बेहतर और मुफ़्त इलाज के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनाए गए अस्पताल में पीडितों की कोई सुनवाई नहीं । इस पांच सितारा अस्पताल में उच्च वर्ग को ही अच्छा इलाज नसीब है । सरकारी अस्पतालों की बेरुखी के चलते पुराने भोपाल के डाक्टरों की प्रेक्टिस भी खूब चली ।
मुआवज़ा मिलने से गैस पीडितों की समस्याएं कम नहीं हुईं । पैसा मिला , लेकिन भोपालियों की तबियत ही कुछ ऎसी है कि रुपया देखते ही हथेली खुजाने लगती है । आज पैसा है तो सैर सपाटा , सौदा सुलफ़ ,किर भले ही कल फ़ाकाकशी की नौबत ..। मुआवज़ा बंटने का असली फ़ायदा तो मिला शहर के सोने - चांदी और कपडों के व्यापारियों को ।
हज़ारों गैस पीडित आज भी हर रोज़ तिल -तिल कर मर रहे हैं । लाइलाज बीमारियों की चपेट में हैं । गैस कांड की बरसी पर सर्व धर्म प्रार्थना सभा और श्रद्धांजलि की औपचारिकता निभाने के बाद सब पहले सा हो जाता है । आज के अखबार ने खबर दी है कि गैस पीडितों की बीमारियों का इंडियन कौंसिल आफ़ मेडिकल रिसर्च २४ साल बाद एक बार फ़िर अध्ययन कराने जा रही है । कभी कभी तो लगता है कि भोपाल वासी इस तरह के अध्ययनों के लिए महज़ ’ गिनी पिग ’ होकर रह गए हैं ।
दुनिया ने किसका राहे फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूं ही जब तक चली चले ।

चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

सरकार को मैडम सोनिया की फ़टकार

मुम्बई में दहशतगर्दी पर केन्द्र और राज्य सरकार की नाकामी ने मैडम सोनिया की पेशानी पर बल ला दिए है । प्रियंका राबर्ट वाड्रा के तल्ख तेवरों के बाद सीपीसी की मीटिंग में राहुल बाबा के भडकने ने देश के राजनीतिक गलियारों में सरगर्मी बढा दी । कांग्रेस के भावी कर्णधारों के कडे तेवरों के आगे कई दिग्गज नेताओं की घिग्गी बंध गई लगती है ।

सोनिया ने भी बच्चों की ज़िद के आगे घुटने टेक दिए और गुस्से में ऎसे कठोर अल्फ़ाज़ कह डाले , जो यूपीए सरकार के अब तक के कार्यकाल पर ही सवालिया निशान लगाते हैं । बैठक में सरकार को दी गई हिदायतों पर गौर किया जाए , तो उसका लब्बो लुआब कुछ ऎसा ही निकलता है । चैनलों पर प्रसारित ब्रेकिंग न्यूज़ की एक बानगी -

- आतंकवाद पर सोनिया सख्त

- सोनिया का सरकार को दो टूक संदेश

- द्रढ इच्छा शक्ति वाले नेतृत्व की ज़रुरत

- निर्णायक कार्रवाई की ज़रुरत

- लोगों को लगे कि सरकार है

- सोच विचार का समय गया

मोहतरमा सोनिया के
इस बदले रुख पर बस यही कहा जा सकता है - बडी देर कर दी मेहरबां आते आते........... ।

इन सभी बातों को पलट कर देखें या यूं कहें कि गूढ अर्थ ढूंढें , तो लगता है कि अब तक केंद्र सरकार जनता के पैसों पर , जनता की मर्ज़ी से , जनता के लिए मसखरी कर रही थी । हर मोर्चे पर नाकामी की ऎसी ईमानदार स्वीकारोक्ति के बाद तो पूरी सरकार को ही अलविदा कह देना चाहिए ।

इस्तीफ़ों की नौटंकी " डैमेज कंट्रोल एक्सरसाइज़ ’ से ज़्यादा कुछ नहीं । लगातार अपनी चमडी बचाने में लगे नेताओं को ऊपर से फ़टकार पडी , तो बेशर्मी ने नैतिकता का लबादा ओढ लिया ....! खैर इन बेचारों को दोष देने का कोई मतलब नहीं । बात की तह में जाएं , तो पाएंगे कि असली गुनहगार हम हैं । और अपनी बेवकूफ़ियों की ठीकरा नेताओं पर फ़ोडकर असलियत से मुंह छिपाने की पुरज़ोर कोशिश से बाज़ नहीं आ रहे ।

जनसेवक ना जाने कब जन प्रतिनिधि बन बैठे । जिन्हें जनता की सेवा दायित्व निभाना था , सत्ता के मालिक बन बैठे । यानी प्रजातंत्र की असली सूत्रधार जनता अपने अधिकारों को आज तक समझ ही नहीं सकी है । गलत लोग चुनें भी हमने हैं ,तो फ़िर शिकवा - शिकायत कैसी ? अच्छे लोगों को आगे लाने की मुहिम चलाना होगी ,जनता को मानसिकता बदलना पडेगी , सही - गलत का फ़र्क समझना होगा और देशहित में निज हितों को दरकिनार करना होगा । चांदी के चंद टुकडों के लिए ईमान की तिजारत बंद करके ही देश को बचाया जा सकता है ...।

नयी दुनिया की पड रही है नींव
खैर उजडी तो उजडी आबादी
फ़ैसला हो गया सरे मैदां
ज़िंदगी है गरां कि आज़ादी

रविवार, 30 नवंबर 2008

हमलों पर उर्दू अखबारों का नज़रिया

मुम्बई के आतंकी हमले पर एक नज़रिया ये भी ........। देश को सावधान और एकजुट रहने की सख्त ज़रुरत है ।



हमलों पर क्या कहते हैं उर्दू अख़बार?

अविनाश दत्त बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
उर्दू अख़बारों ने हमलों से उठ रहे कुछ अनसुलझे सवालों पर टिप्पणियाँ की हैं
भारत के हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की तरह उर्दू के तमाम दैनिक अख़बार भी केवल मुंबई में हुए हमलों की ख़बर से भरे हैं.
दिल्ली से छपने वाले राष्ट्रीय सहारा उर्दू में पहले पन्ने पर दिल्ली चुनावों के विज्ञापनों के अतिरिक्त केवल एक ही ख़बर है.. " मुंबई पर आग और खून की बारिश"
हैदराबाद से छपने वाले दैनिक अखबार 'मुंसिफ़' की पहली सुर्खी रही," मुंबई में दहशतगर्दों के साथ कमांडो की खूनी जंग जारी. "
इसी शहर से निकलने वाले उर्दू के दूसरे अख़बार 'सियासत' की पहली हेड लाइन है मुंबई के दो होटलों पर आतंकवादियों का कब्जा बरक़रार.'
इस ख़बर के साथ एक कथित चरमपंथी की तस्वीर छपी है जिस पर उसके एक हाथ पर बंधे लाल धागों पर गोला लगाया गया है, ठीक उसी तरह जिस तरह दिल्ली से छपने वाले अंग्रेज़ी के अख़बार मेल टुडे ने एक दिन पहले लगाया था.
'मुल्क़ भर में हाहाकार'
मुंबई से प्रकाशित अख़बार 'इंकलाब' की हेडलाइन है, 'ताज होटल के हमलावर ढेर ऑबराय होटल में ऑपरेशन जारी , मुल्क भर में हाहाकार."
अगर संपादकीयों पर नज़र डालें तो मुंसिफ़ ने इस घटना से सख्ती से निपटने की ज़रूरत पर बल दिया है.
इस तरह की घटना के पीछे जिस डेकन मुजाहिदीन का नाम आ रहा है वो शंका पैदा करने वाला है. अगर इस तरह की घटना मोसाद, सीआईए या आईएसआई द्वारा अंज़ाम दी गई होती तो सोचा जा सकता था. पर जिस संस्था का नाम किसी ने सुना नहीं वो कैसे इतना बड़ा आतंकवादी हमला करने में सफल हुई

इस अख़बार के संपादकीय की हेडलाइन है " मुंबई में दहशतगर्दी का नज़ारा". नीचे विस्तार से पूरी घटना के बारे में बताने के साथ ही बीते दिनों में "हिंदू दहशतगर्दों" के पकड़े जाने की बात पर पलट कर देखा है.
अख़बार ने ध्यान दिलाया है की मारे गए सभी अफसर ऐटीएस के थे.
अख़बार कहता है कि मालेगाँव बम धमाकों के सिलसिले में यह भी पता चला था की लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित के अलावा कुछ और पूर्व फौजी अफसरों ने 'हिंदू चरमपंथियों' को ख़ास ट्रेनिंग दी थी.
फ़िर आरएसएस, शिव सेना और अन्य हिंदूवादी संगठनों द्वारा साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बचने के लिए एकजुट होने की बात है.
अख़बार का कहना है की ऐसे कुछ तत्व मुंबई के हमलों के पीछे हो सकते हैं और अख़बार इस पक्ष पर गौर करने को भी कहता है.
ख़ुफ़िया विफलता
अख़बार ये भी कहता है की इंटेलिजेंस एजेंसियों की विफलता पर ध्यान दिया जाना चाहिए और अगर इन हमलों के पीछे अगर बाहरी हाथ है तो उससे सख्ती से निपटना चाहिए.
दिल्ली से छपने वाले उर्दू के बड़े अखबार राष्ट्रीय सहारा उर्दू के संपादक अज़ीज़ बरनी ने लिखा है, "इस तरह की घटना के पीछे जिस डेकन मुजाहिदीन का नाम आ रहा है वो शंका पैदा करने वाला है. अगर इस तरह की घटना मोसाद, सीआईए या आईएसआई द्वारा अंज़ाम दी गई होती तो सोचा जा सकता था. पर जिस संस्था का नाम किसी ने सुना नहीं वो कैसे इतना बड़ा आतंकवादी हमला करने में सफल हुई".
संपादक इस आलेख में ये भी कह रहे हैं की कोई मुसलमान ऐटीएस के प्रमुख हेमंत करकरे को क्यों मारेगा.
वो कहते हैं, "सोचना होगा की इस आतंकवादी घटना से किसको लाभ होगा और अगर ऐटीएस की जाँच में कोई रुकावट पैदा होती है, जिसकी संभावनाए पैदा हो गई हैं तो किसको क्षति होगी".
हैदराबाद के एक और बड़े अख़बार सियासत ने अपने संपादकीय ने एक संघीय गुप्तचर एजेंसी कायम करने की ज़रूरत पर बल दिया है.
बीबीसी डाट्काम से साभार

इस्तीफ़ों से नाकाम सरकार बचाने की कोशिश

मुम्बई में हुए युद्ध ने देश के लोगों को हिला कर रख दिया है । बरसों से दबे कुचले लोगों का खून एकाएक उबाल मारने लगा । ऎसा मोबाइल एसएमएस और समाचार चैनलों का कहना है । श्मशान वैराग्य की तरह जागे इस सतही जोश की सूचना ने सरकार चला रहे कांग्रेसी खॆमे में खलबली मचा दी है ।

सता से उखाड फ़ेंकने की निरीह जनता की गीदड भभकी ने सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को परेशान कर दिया है । सो सरकार ने आनन फ़ानन में अंगुली कटा कर शहीद होने का फ़ार्मूला तलाश ही लिया । साढे चार साल से ज़्यादा वक्त तक देश को आतंक की भट्टी में झोंकने का दुष्कर्म करने के बाद शिवराज पाटिल से इस्तीफ़ा लिखवा लिया गया । चोरी और सीनाज़ोरी का आलम ये कि अपनी कारगुज़ारियों पर शर्मिंदा होने की बजाय नेता बेहूदा बयानबाज़ी से बाज़ नहीं आ रहे ।

आर आर पाटिल की मानें तो बडे-बडे शहरों में ऎसे छॊटॆ- छोटे हादसे तो होते ही रहते हैं । राजीव शुक्ला साहब अपनी गिरेबान में झांकने की बजाय संकट के इस दौर में भी बीजेपी की गल्तियां ढूंढने में वक्त ज़ाया कर रहे हैं । असलियत तो ये है कि इस्तीफ़ा देकर ये कोई मिसाल कायम नहीं कर रहे बल्कि इस्तीफ़े की राजनीति का घिनौना खेल खेलकर देश की जनता को मूर्ख बनाना चाहते हैं ।

जब केन्द्र सरकार की कुल जमा उम्र ही गिनती की बची हो ,तब इस्तीफ़े के इस नाटक का औचित्य क्या है ...? वैसे भी सरकार का ये गुनाह काबिले माफ़ी कतई नहीं । राजनेताओं की आपसी खींचतान और ढुलमुल रवैए से जनता आज़िज़ आ चुकी है ।

लोगों के सडकों पर आने की सुगबुगाह्ट से नेताओं के हाथ पांव फ़ूल रहे हैं और वे अपनी मक्कारी भरी चालों से जनता को बरगलाने ,बहलाने फ़ुसलाने की कोशिश में लग गये हैं । लेकिन अब देश की अवाम किसी झांसे में ना आने पाए , इसके पुख्ता इंतज़ाम की ज़रुरत है ।

एक कहावत है - ’पीसन वाली पीस गई ,सकेलन वाली जस ले गई ।’ सेना , आरएएफ़ और एनएसजी के संयुक्त प्रयासों की बदौलत मिली कामयाबी का सेहरा महाराष्ट्र सरकार खुद अपने सिर बांध लेना चाहती है । बात होती है आतंकवाद से लडने की और नवाज़े जाते हैं बेइमान ,भ्रष्टाचारी और देश के गद्दार । और तो और आमने सामने की लडाई में शहीद हुए जांबाज़ों की बजाय हादसे के शिकार अफ़सरान को मीडिया की मदद से अभियान का हीरो बना कर पेश किया जा रहा है । ऎसा लगता है बचे खुचे देशभक्तों के मनोबल को तोडकर देश को खोखला करने की कोई गहरी साज़िश रची जा रही है । देश मे ऎसे ही हालात रहे , तो कौन लडेगा भारत मां की हिफ़ाज़त की लडाई ।

इक बात और , हाल के दिनों के घटनाक्रम ने मेरा सामान्य ज्ञान गडबडा दिया है । सब कुछ गड्डमड्ड सा लगता है । आप सभी महानुभाव मेरी मदद करें । मैं शहादत की परिभाषा जानना चाहती हूं । भारत में शहीदों की पहचान का मापदंड क्या है और क्या होना चाहिए ?

क्यों हिंन्द का ज़िन्दा कांप रहा है , गूंज रही हैं तकबीरें
उकताए हैं शायद कुछ कैदी , और तोड रहे हैं जंज़ीरें

शनिवार, 29 नवंबर 2008

अमीरी - गरीबी के खांचे में बंटा आतंकवाद


समझ नहीं आ रहा कि इस वक्त ये कहना ठीक है या नहीं , लेकिन चुप रहकर अकेले घुटने से तो यही बेहतर है कि कह कर अपना मन हल्का कर लिया जाए । फ़िर भले ही लोग चाहे जितना गरिया लें । वैसे भी देश में सभी लोग सिर्फ़ अपने लिए ही तो जी रहे हैं । उनमें एक मैं भी शामिल हो जाऊं तो हर्ज़ ही क्या है ?
देश की सडकों पर बहने वाले खून की कीमत टेंकर के पानी से भी सस्ती है । लेकिन पहली मर्तबा अमीरों को भी एहसास हुआ है कि लहू का रंग सिर्फ़ लाल ही होता है फ़िर चाहे वो गरीबों का ही क्यों ना हो ।
इसमें कोई शक नहीं कि पांच सितारा होटलों में हुए आतंकी हमले बेहद वीभत्स थे । लेकिन क्या ऎसे धमाके देश में पहले कभी नहीं हुए । २६ नवंबर को ही ठीक उसी वक्त सीएसटी में भी लोगों ने अपने परिजनों को खोया ,लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था । मारे गये लोगों की लाश लेने के लिए भटकते परिजनों को सांत्वना देना तो दूर की बात मदद करने वाला तक कोई नहीं था ।
अमीरों की मौत पर स्यापा करने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया के अंग्रेजीदां पत्रकार भी छातियां पीटने लगते हैं । मगर गरीब की मौत का कैसा मातम ......? वह तो पैदा ही मरने के लिए होता है । चाहे फ़िर वह मौत तिल तिल कर आए या धमाके की शक्ल में ।
हमें उम्मीद करना चाहिए कि जल्दी ही सरकार आतंकियों से निपटने के लिए ठोस कदम उठाएगी ,क्योंकि अब की बार अमेरिका ,ब्रिटेन सरीखे आकाओं के नागरिकों का जीवन भारत में खतरे में पडा है । सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की रातों की नींद में खलल पडने लगा है । रुपहले पर्दे पर गरीबों के मसीहा का किरदार निबाहने वाले इस महानायक ने बरसों लोगों की जेबें खाली कर अपनी तिजोरियां भरीं हैं । लेकिन इनकी आंखें आम आदमी के आतंक के शिकार होने पर कभी भी नम नहीं हुईं ।
दिल्ली के धमाकों में अपने बेटे के बच जाने {हालांकि वो घटना स्थल से मीलों दूर थे] पर खुशी का इज़हार करने वाले बिग बी को हादसे के शिकार लोगों की याद तक नहीं आई । धिक्कार है ऎसे स्वार्थी लोगों पर , जो देश के आम लोगों के जज़्बात से खेलते हैं और विदेशों में साम्राज्य खडा करते हैं ।
अमीरों की फ़िक्रमंद सरकारों को अपनी अहमियत का एहसास कराना कब सीखेगा भारत का आम आदमी ? वह सडकों पर रौंदा जाता है । अस्पतालों में कीडे - मकौडों सी ज़िल्लत झेलता है । धमाकों में कागज़ के पुर्ज़ों की मानिंद चीथडों में तब्दील हो जाता है । लेकिन कब वह जानेगा कि उसमें भी जान है , वह भी एक इंसान है ,खास ना सही आम ही सही ....।
बिठा रखे हैं पहरे बेकसी ने
खज़ानों के फ़टे जाते हैं सीने
ज़मीं दहली , उभर आये दफ़ीने
दफ़ीनों को हवा ठुकरा रही है
उठो , देखो वो आंधी आ रही है ।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

दक्केन मुजाहिद्दीन की हकीकत

आतंकी ग्रुप रिवेंज ही दक्केन मुजाहिद्दीन के नए नाम के साथ दुनिया के सामने है । जाने इसकी हकीकत -