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गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

बदलाव चाहिए तो मोमबती नहीं मशाल जलाओ

मुम्बई हमला अंधों का हाथी बन गया है । सभी अपनी सहूलियत और ज़रुरत के हिसाब से इसकी व्याख्या में व्यस्त हैं । ताज पर हुए हमले ने चिंतकों और विश्लेषकों को भी काम पर लगा दिया है । खुफ़िया तंत्र की नाकामी और राजनेताओं की बदमिजाज़ी के आम हो चले किस्सों के बीच मनीषी नए किस्म का मनन - चिंतन करने में जुट गये हैं । कहीं मीडिया की भूमिका को लेकर वाल उठाए जा रहे हैं , तो कहीं उसकी नीयत में उपजी खोट का खुलासा हो रहा है । जाने माने खबरनवीस ताज में एक छोटे परिवार के चाय के खर्चे का आकलन कर देश के विकास की गाथा पर गह- गंभीर चिंतन में मशगूल हैं ।

खबरिया चैनलों की बदौलत आई राष्ट्र प्रेम की सुनामी का असर कमज़ोर पडने लगा है । चैनलों को देखकर मन बल्लियों उछल रहा था कि इस बार तो बस .... ’आर या पार ..।’ सारी व्यवस्था बदल कर ही दम लेंगे हम ..। लेकिन आज सुबह अखबार के पन्ने पलटते ही ये खुशफ़हमी भी जाती रही । भोपाल के न्यू मार्केट , राजभवन और भेल में बम की खबर से मचे हडकंप की खबर को पढते - पढते आखिरी पैरा ने सारे मुगालते एक ही बार में मिटा दिए । बम की सूचना के बाद इलाके की सारी दुकानें बंद हो गई , लेकिन आइसक्रीम की मशहूर दुकान पुलिस के कहने के बावजूद खुली रही । आखिर व्यापारी ने पार्लर बंद क्यों नहीं किया ,क्या उसे अपने कर्मचारियों और संस्थान की फ़िक्र नहीं थी ? दरअसल बेहद गोपनीय तरीके से की गई पुलिस की माक ड्रिल की खबर से व्यापारी बखूबी वाकिफ़ था । यानी सुरक्षा व्यवस्था में कहीं ना कहीं छेद ...।

मुंबई में हुए हमलों के दूसरे दिन भारत के एक प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' की सुर्खी थी 'ऑवर नाइटमेयर, ऑवर वेक अप काल' यानी 'हमारा दुखद सपना, हमे जगाने वाली घंटी ।'
लेकिन क्या इससे भारत जागेगा ? अगर हम पिछले दिनों हुई घटनाओं को देखें तो उत्तर होगा नहीं । भारत एक विशालकाय समुद्री जहाज जैसा है , जो हिलता डुलता हुआ पानी को चीरता चलता है और ऐसे आंधी तूफ़ान में भी डूबता नहीं जिसमें छोटी नौकाएं या अस्थायी जहाज़ डूब जाते हैं ।
भारत ने कई युद्ध, दंगे, क़त्ल और आतंकवादी घटनाएं देखी हैं लेकिन ये जहाज़ सभी मुसीबतों को आराम से झेलता हुआ निकल जाता है । यहां के लोगों में तनाव तेज़ी से बढ़ता है और उसी तेज़ी से ख़त्म भी हो जाता है । इसका सबसे निराशाजनक और नकारात्मक पक्ष यह है कि भारतीय अगर एक बार शांत हो जाते हैं तो उनमें समस्या को नज़रअंदाज करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है । नतीजतन वे समस्या के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की बजाय हालात से समझौता करने लगते हैं ।

आक्रोश जताने के लिए हाथों में मशाल थामने की बजाय मोमबत्तियां जलाना भी इसी सहूलियत का हिस्सा जान पडता है । सांकेतिक भाषा का भी अपना महत्व होता है । मशाल की धधकती ज्वाला हमारे इरादे की मज़बूती को अभिव्यक्ति देती है । तेज़ हवा का झोंका तो क्या ज़रा सी फ़ूंक का प्रतिरोध भी ना सह पाने वाली , हर पल अपना अस्तित्व खोने वाली मोमबत्ती शायद कभी भी हमारे संकल्प की दृढता की प्रतीक हो ही नहीं सकती ।

हाल के दिनों के घटनाक्रम पर नज़र डालें , तो उत्तेजना से भरे लोगों का हुजूम चारों तरफ़ दिखाई देने लगा । लेकिन इनमें मुद्दों की समझ और जोश कहीं नज़र नहीं आती । दिशाहीन लोगों का जमावडा अक्सर भीड की शक्ल अख्तियार कर लेता है । ऎसे में भीड और भेड का फ़र्क खत्म हो जाता है । भेडों को हांकने वाला चरवाहा ही अंत में रेवड की दिशा तय करने लगता है । बहरहाल ऎसा कुछ फ़िलहाल होता दिखाई नहीं देता , क्योंकि मोमबत्तियां उठाकर नारे लगाने के श्रम से थक चुके लोग अगले किसी हादसे [वह भी पांच सितारा] पर ही ऊर्जावान हो पाएंगे ।

देश को क्रांति की प्रतीक मानी जाने वाली मशाल थामने वाले हाथों की ज़रुरत है । पुतले जलाने , शवयात्रा निकालने , सिर मुडाने , दौड लगाने या फ़िर रंगबिरंगी टी शर्ट धारण करके सडकों पर पेट्रोल फ़ूंकने से व्यवस्था ना तो कभी बदली है और ना ही आगे बदली जा सकेगी । व्यवस्था बदलना है तो वैचारिक परिवर्तन लाना होगा । भोगवादी संसकृ्ति से तौबा किए बिना अब भारत के हालात बदलने की बात करना महज़ छलावा है ।

कुछ लोग जो सवार हैं कागज़ की नाव पर
तोहमत तराशते हैं हवा के दबाव पर ।
चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार