बुधवार, 12 नवंबर 2008

हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ...........


दौडती - भागती ज़िंदगी की आपाधापी को धता बताती बैलगाडियों की लंबी कतार .........बैलों के गले में पडे घुंघरुओं की रुनझुन ........ चटख लाल , गहरे धानी , सरसों पीले और ना जाने कितने ही रंगों के लंहगे - लुगडों में सजी औरतें ,नई बुश्शर्ट - निक्कर और झबले पहने काजल का डिठौना लगाए बच्चों की किलकारियां ..... लोकगीत की सामूहिक स्वर लहरियों से रस में भीगता माहौल और जय सिया राम की जुहार ........।

ये नज़ारा है नर्मदा तीरे लगने वाले कार्तिक पूर्णिमा के मेले का , जहां उत्साह और उमंग के ऎसे काफ़िले इन दिनों आम हैं । भला कौन होगा जो इन मेलों का आमंत्रण ठुकरा सके । लोक परंपराओं को ज़िंदा रखने वाले मेलों का लुभावना नज़ारा बरसों तक यूं ही आंखॊं में बसा रहता है । जो भी इन मेलों का एक बार भी हिस्सा बना है वो जानता है कि मन ना जाने कब फ़ुर्र से उडकर मेलों में पहुंच जाता है ।

मेले विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को एक सूत्र में पिरोने का अनूठा माध्यम हैं । कई मेले धार्मिक आस्था और विश्वास पर केंद्रित हैं , तो कुछ मेलों के पीछे ऎतिहासिक , सामाजिक और राजनीतिक यादों की धरोहर संजोई गई है ।

नदियों का इन मेलों से बडा गहरा और आत्मीय रिश्ता है । मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे लगने वाले महत्वपूर्ण मेलों की कडी है । पुण्य सलिला नर्मदा के किनारे भरने वाले माटी की सोंधी गंध से लबरेज़ तमाम मेलों का लोगों को साल भर इंतज़ार रहता है । मेल -मिलाप के इन ठिकानों का अपना मौलिक आनंद है । इन के मूल में कोई अंर्तकथा है , संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है ,जो मेलों से जुडी लोक आस्था आज तक बरकरार है ।

ऎसे ही एक मेले का अंश बनने का मुझे भी कुछ साल पहले मौका मिला था । होशंगाबाद जिले का छोटा सा गांव है - बांद्राभान । धार्मिक महत्व के इस स्थान पर नर्मदा का तवा नदी से मिलन होता है. । होशंगाबाद नगर के पूर्व में करीब आठ किमी पर सांगाखेडा के नजदीक बांद्राभान है । तवा - नर्मदा के संगम के नजदीक हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर तीन दिन मेला भरता है ।

मेला क्या , बस यूं समझिए चारों तरफ़ जन सैलाब । जहां तक नज़र जाती है ,लोग ही लोग । लोगों का ऎसा रेला इससे पहले मैंने केवल कुंभ में ही देखा था । बिना किसी आमंत्रण ,बिना मुनादी , बगैर डोंडी पीटे स्फ़ूर्त प्रेरणा से लाखों लोगों का एकत्र होना मेरे लिए अचंभे की बात थी । इतना बडा मेला हर साल लगता है और करीब सौ - सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे भोपाल में इसकी कोई चर्चा नहीं ।

नदी किनारे असंख्य लोग अपने कुनबों के साथ सत्यनारायण की कथा की यजमानी करते दिखाई देते हैं । कदम - कदम पर छोटे - बडे झुंडों के बीच पंडित - पुरोहित कथा बांचते ,श्रद्धालुओं से पल -पल में नवग्रहों की प्रसन्नता के लिए दान का संकल्प दोहराने की मनुहार करते पंडे - पुजारियों के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक ग्रामीण दिखते हैं । घंटे - घडियाल और शंखनाद के साथ भजन - आरती करते हुऎ भक्ति भावमय वातावरण में आमोदित - प्रफ़ुल्लित होते लोग इन्हीं मेलों में ही नज़र आते हैं ।

टेंट तंबुओं में सजी ग्रामीण सौंदर्य प्रसाधन - रिबन , महावर , टिकुली ,बिंदी की खरीददारी में मशगूल युवतियों की बेलौस हंसी - ठिठौली मन में ईर्ष्या भाव पैदा कर देती है । आखिर क्या है इनके इस निश्छल आनंद का राज़ ......? मन सवाल करने लगता है खुद से ......? ये खुशी , ये उल्हास , ये उमंग हम शहरियों के चेहरों से क्यों कर गायब हो चला है । ग्रामीणों का बेबाक ,बिंदास अंदाज़ मेलों की आत्मा है ।

लकडी मिट्टी के खिलौनों की दुकानों पर भाव ताव में मशगू्ल लोगों को ताकने का अपना ही मज़ा है । हर छोटी - बडी दुकानों में जाकर बस यूं ही मोलभाव करने , दुकानदार को छकाने वालों की भी कोई कमी नहीं । चटखारे लेकर मिठाई और चाट - पकौडी उडाने वालों को कच्ची सडक के किनारे रखे थालों की धूल सनी रंग बिरंगी मिठाइयों से भी कोई गुरेज़ नहीं । रेत पर कंडों के ढेरों से उठते धुएं के गुबार के साथ बाटी की सोंधी - सोंधी महक मन ललचाती है । जी चाहता है कोई बस यूं ही मुंह छुलाने को ही कह दे और हम लपक कर चूरमा बाटी के ज़ायके का लुत्फ़ लेने बैठ जाएं ।

पालकी वाले झूले की चरमराहट और गुब्बारे वाले की चिल्लपौं वातावरण को अजीब सी रौनक से भर देते हैं । ठेठ गंवई अंदाज़ के इन मेलों में चाट पकौडे औए आइसक्रीम बेचने वालों की तीखी आवाज़ें माहौल में रस घोल देती हैं । ग्रामीण युवकों के अलगोजे से निकलती मादक आवाज़ और लोकगीतों की टेर लगाते महिला स्वर मेले की खनक में इज़ाफ़ा कर देते हैं ।

कार्तिक मास धर्म- कर्म के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण माना गया है । दान पुण्य के लिए मोक्श्दायिनी रेवा के सानिध्य से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है । लोग रात में नर्मदा की अविरल धारा में असंख्य दीपों का दान करते हैं । प्रवाह के साथ निरंतर आगे बढते ये ज्योति पुंज हमें जीवन को प्रकाशवान बनाने और संसार को रोशनी से भर देने की सीख देते हैं । कहते हैं आग पानी एक दूसरे के पूरक ना सही , अपने - अपने दायरे में रहकर भी बहुत कुछ सकारात्मक करने की गुंजाइश हर हाल में हो सकती है । नदी का प्रवाह और देदीप्यमान दीपमाला यही कहती है ..............।

देखिए तो है कारवां वर्ना.
हर मुसाफ़िर सफ़र में तन्हा है ।

रविवार, 9 नवंबर 2008

करोडपति बीडी मजदूर का राजनीतिक सफ़र

जनता की सेवकायी के लिए प्रदेश के धन कुबेर चुनावी मैदान में उतरे हैं । नामांकन दाखिल करते वक्त संपत्ति का ब्यौरा देने की मजबूरी ने जनसेवकों की माली हालत की जो तस्वीर पेश की है वह आंखें चुंधियाने के लिए काफ़ी है । ज़्यादातर नेता करोडपति हैं । कुछ तो ऎसे हैं , जो महज़ ५ - ७ साल पहले रोडपति थे अब करोडपति हैं । बचपन से सुनते आए हैं "सेवा करो , तो मेवा मिलेगा ।” शायद जनता की सेवकाई के वरदान स्वरुप ही नेताओं की माली हालत में रातों रात चमत्कारिक बदलाव आ जाता है ।

संपत्ति के खुलासे ने लोगों को चौंकाया है । कई नौजवान मुनाफ़े के इस व्यवसाय की ओर खिंचे चले आ रहे हैं । जनसेवा से मुनाफ़े की एक बानगी -
मुरियाखेडी में तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाला एक मजदूर महज़ दो साल में इतना पैसा कमा लेता है कि वह भोपाल में करोडों की जायदाद का मालिक बन जाता है । राजधानी की नरेला विधानसभा सीट से बीजेपी के उम्मीदवार की चुनाव आयोग को दी गई संपत्ति की जानकारी और उनके राजनीतिक सफ़र को मिलाकर देखने पर कुछ ऎसी ही सच्चाई नज़र आती है ।

अखबारों में छपे हर्फ़ों पर यकीन करें तो नामांकन पत्र के साथ अपनी सम्पत्ति की जानकारी देते हुए ’ गरीब बीडी मजदूर’ विश्वास सारंग ने जो शपथ-पत्र प्रस्तुत किया उसके अनुसार वे करोड़ों के कारोबार के स्वामी हैं । भोपाल, सीहोर व रायसेन में लाखों की जमीन है । भोपाल की निशात कालोनी में लगभग दो करोड़ साठ लाख की कीमत के आवासीय व व्यावसायिक भवन , अरण्यावली गृह निर्माण सहकारी समिति में ३२ लाख रुपए की जमीन, तीन गाँवों में सवा छह लाख की कृषि भूमि, मण्डीदीप स्थित विशाल पैकवेल इण्डस्ट्रीज में भागीदारी, कामदार काम्पलेक्स, दिल्ली के गोयला खुर्द में जमीन एग्रीमण्ट भी श्री सारंग के ही नाम पर है। नामांकन पत्र के साथ इन्होंने भोपाल नगरीय क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीबध्द होने के प्रमाण भी पेश किए हैं ।

अब मामले का दूसरा पहलू - विश्‍‍वास सारंग इन दिनों मध्य्प्रदेश लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष हैं । इस पद तक पहुंचने की पहली शर्त है - किसी प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति का नियमित सदस्य होना । इस समिति का सदस्य बनने के लिए दो शर्तें हैं । पहली - वह व्यक्ति उस सहकारी समिति के भौगोलिक क्षेत्राधिकार का स्थायी और नियमित निवासी हो । दूसरी - उस व्यक्ति के जीविकोपार्जन का आधार लघु वनोपज संग्रहण हो ।

श्री सारंग ने अध्यक्ष पद हासिल करने के लिए क्या - क्या पापड नहीं बेले । ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुरियाखेड़ी’ के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले ग्राम और फड़ साँकल के निवासी श्री सारंग ने वन - वन भटक कर तेंदूपत्ता इकट्ठा किया । उन्होंने वर्ष २००७ में तेंदू पत्ता की ६०० और वर्ष २००८ में १२०५ गड्डियाँ संग्रहित कर २४ हज़ार तथा ४८ हज़ार २०० रुपये कमाए ।

लगभग सभी नेताओं की कहानी कमोबेश इसी तरह की है । सामान्य परिवारों के इन होनहार खद्दरधारी नेताओं का राजनीतिक सफ़र ज़्यादा लंबा भी नहीं है और ना ही किसी बडे पद पर कभी आसीन रहे । ऎसे में सवाल उठता है कि आखिर इस छ्प्पर फ़ाड ऎश्वर्य का राज़ क्या है ? राजनीति के सिवाय देश का कोई भी हुनर या पेशा इस रफ़्तार से दौलत कमाने की गारंटी नहीं दे सकता ।

देश के मतदाताओं अपने नेताओं की दिन दोगुनी रात चौगुनी बढती आर्थिक हैसियत का राज़ जानने के लिए ही सही , अब तो नींद से जागो । देखो किसे वोट दे रहे हो ....। तुम्हारा वोट किन - किन नाकाराओं को नोट गिनने और तिजोरियां भरने की चाबी थमा रहा है । मेरी राय में यदि कोई भी प्रत्याशी चुनाव के लायक ना हो ,तो वोट को बेकार कर दो , मगर वोट ज़रुर दो ।

लहू में खौलन , ज़बीं पर पसीना
धडकती हैं नब्ज़ें , सुलगता है सीना
गरज ऎ बगावत कि तैयार हूं मैं ।

[ यह पोस्ट माननीय विष्णु बैरागी जी के ब्लाग ’एकोsहम’ के आलेख से प्रेरित होकर लिखी गयी है । कुछ तथ्य उनकी पोस्ट ’ समाचार ना छपने का समाचार ’ से लिए गये हैं । ]

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

नारों- वादों के शोर में मुद्दे हुए नदारद

मध्य प्रदेश में चुनाव सर पर हैं और प्रमुख पार्टियों में टिकट को लेकर मचे घमासान का नज़ारा जनता खूब चाव से देख रही है । हफ़्ते भर पहले तक उमा के तेवरों और कांग्रेस से कडी टक्कर मिलने की आशंका ने बीजेपी की बैचेनी बढा दी थी । मगर कांग्रेस ने चुके हुए नेताओं को टिकट देकर सत्तारुढ दल की मुश्किलें आसान कर दी हैं । रही बात उमा भारती की , तो वे अपनी दुश्मन खुद हैं । ह्फ़्ते भर पहले तक साध्वी मामले में खुलकर सामने आने के कारण उमा लीड लेती लग रही थीं ,लेकिन छिंदवाडा में पार्टी पदाधिकारी की सरेआम पिटाई ने किए कराए पर पानी फ़ेर दिया । उमा ने भगवा चोला भले ही धारण कर लिया हो ,मगर अब तक अपने स्वभाव को भी ठीक तरह से नहीं साध सकीं हैं।

मतदान को लगभग २० दिन बचे हैं । चुनावी माहौल ज़ोर पकडने लगा है । लेकिन इस बार के चुनाव कुछ अलग हैं । मैंने पहले भी चुनाव देखे हैं , रिर्पोटिंग भी की है । प्रदेश में पहली बार शायद ऎसा मौका आया है ,जब पार्टियों के पास जनता के बीच जाने के लिए कोई मुद्दा नहीं । प्रजातंत्र में इससे बुरा दौर और क्या हो सकता है ? मुद्दों का अकाल यानी लोकतंत्र के लिए संकट का काल । जनता रोज़मर्रा की दिक्कतों से बेज़ार है लेकिन नेता बेखबर । मुद्दाविहीन राजनीति नेताओं क्के लिए फ़ायदे का सौदा हो सकती है ,लेकिन लोकतंत्र के हित में ये संकेत शुभ नहीं ।

झंडे ,बैनर ,पोस्टर सज गये हैं । सडकों पर वाहन रैलियों और नारों का शोर है । मगर पिछले पांच सालों के कामकाज का लेखा जोखा मांगने की ना तो किसी को सुध है और ना ही हिसाब देने वालों को कोई परवाह । राजनीतिक दीवालिएपन का आलम ये है कि कांग्रेस और बीजेपी अब तक चुनावी घोषणा पत्र भी जनता के सामने नहीं रख सके हैं ।

मुझे लगता है कि प्रदेश की अवाम भी भ्रम की स्थिति में है । काग्रेसी उम्मीदवारों से किसी तरह की उम्मीद करना बेमानी है और बीजेपी की ओर से दागी मंत्रियों की लंबी फ़ेहरिस्त दोबारा चुनावी दंगल में भेजी गई है । टिकटों की खरीद फ़रोख्त की खबरें ज़ोरों पर रहीं । हर कोई विधायक पद का प्रबल दावेदार है । कोई धन के बूते , कोई धर्म के नाम पर । अब तो राजनीति कइयों के लिए खानदानी पेशा बन गया है । जातिगत गणित भी खूब काम कर रहा है । हमें चुनना है खराब में से कम खराब । यानी इधर नागनाथ , तो उधर सांपनाथ ।

मेरा नज़र में इस चुनाव में मुद्दों के साथ - साथ विकल्प का भी अकाल है ।, छोटे दलों के प्रत्याशी भी कुछ उम्मीद नहीं जगाते । टिकट ना मिलने से नाराज़ कई नेताओं ने बागी तेवर अपनाकर इन द्लों का रुख कर लिया है । ऎसे में प्रदेश के विकास की बात कौन करे ? राजनीति में धन बल , बाहुबल और जात -पांत के समीकरणों का तोड ढूंढने के की शुरुआत कब होगी और कैसे ? यह बुनियादी सवाल हर पांच साल बाद आ खडा होता है ...... जवाब की तलाश में....... ?

मुंह खुला है उधर खज़ाने का , मुड रहा है वरक ज़माने का
और इधर कहत दाने - दाने का , कस्द [निश्चय] फ़िर भी पहाड ढहाने का ।

बुधवार, 5 नवंबर 2008

भोपाल की मुस्लिम औरतें और तलाक

लगातार चार पीढ़ियों तक बेगमों की हुकूमत देख चुके भोपाल में मुसलमान महिलाओं के मिज़ाज बदल रहे हैं और इसका असर यह है कि इस समाज में अब मर्दों के मुकाबले औरतें आगे बढ़कर अपने शौहर से तलाक़ ले रही हैं आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष २००४ में तलाक़ के जितने मामले दर्ज हुए उनमें से तीन चौथाई यानी ७५ प्रतिशत से ज़्यादा औरतों की ओर से लिए गए तलाक़ थे ।

भोपाल और आसपास के इलाकों में मुस्लिम समुदाय में तलाक के बढते मामलों ने समाज के रहनुमाओं को भी चिंता में डाल रखा है । २००६ -२००७ में ४९८८ निकाह रजिस्टर्ड हुए और इसी साल ३२० तलाक हुए । इसी तरह साल २००७ - ८ में ५४१२निकाह पढे गये और शादी से बाहर आने वालों की तादाद रही - ३३२ । इस साल अक्टूबर आते तक २५३ जोडों ने अपनी राह जुदा कर लेने का फ़ैसला कर लिया , जबकि इस दौरान निकाह हुए ४५२५ । तलाक के ये आंकडॆ किसी भी लिहाज़ से काफ़ी चौंकाने वाले हैं ।

इस्लाम में इजाज़त दी गई चीज़ों में तलाक़ सबसे ज़्यादा नापसंद बताया गया है । इसके बावजूद तलाक का सिलसिला कहीं थमता दिखाई नहीं देता । लगता है लंबे समय से एकतरफा तलाक़ की तकलीफ सह रही महिलाएँ अब आज़िज़ आ चुकी हैं । भोपाल के कज़ीयात में मौजूद रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो लगता है औरतें अब मर्दों के जुल्म सहने के लिए तैयार नहीं । आँकड़ों के मुताबिक़ २००४ में हुए २४१ तलाक़ में से १८५ में महिलाओं ने अपनी मर्ज़ी से वैवाहिक रिश्ते को ख़त्म किया । यानी ७७ फ़ीसदी तलाक़ महिलाओं ने लिए । समाज में आया ये बदलाव मज़हबी गुरू, महिलाओं और मनोवैज्ञानिकों को भी हैरान करने वाला है । मुसलमान महिलाओं का बदलता स्वरूप इन सबकी निगाह में किसी भी तरह से अच्छा नहीं है ।

ज़्यादातर बुज़ुर्गों का मानना है कि परिवार टूटने का सबसे ज़्यादा खमियाज़ा बच्चे उठाते हैं । परिवारों के बिखराव को देखने का हर शख़्स का अपना नज़रिया है । किसी की निगाह में इसके लिए नैतिक मूल्यों में आई गिरावट ज़िम्मेदार है , तो कोई इसके पीछे महिलाओं की आर्थिक रुप से खुद मुख्तियारी देख रहा है । महिलाओँ के हक़ की लडाई लड़ने वाले संगठन भी महिलाओं में तलाक़ लेने की प्रव्रत्ति पर नाखुशी ज़ाहिर करते हैं । मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि इस्लाम तलाक़ को मान्यता और इजाज़त देता है. मगर अभी तक उसे एक हथियार के तौर पर ही आदमी अपनी ताकत दिखाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है ।

कुछ लोग इसे सामाजिक मूल्यों में आ रहे बदलाव और भोपाल में १२० साल तक औरतों की हुकूमत से जोड कर भी देखते हैं । भोपाल में नवाब शाहजहाँ बेगम, सिकंदरजहाँ बेगम और सुल्तानजहाँ बेगम ने समाज में भारी बदलाव किया और औरत को वो मुकाम दिया जो मुल्क में दूसरी जगह उन्हें हासिल नहीं था ।

सामाजिक और आर्थिक असमानता भी बहुत सी औरतों को अपने शौहर से अलग होने के लिए मजबूर कर रही है । कई मामलों में आर्थिक मज़बूती औरतों को दमघोटू रिश्ते को ख़त्म करने का हौसला दे रही है । आर्थिक मज़बूती और आत्मनिर्भरता का असर सिर्फ़ भोपाल में ही इस तरह दिखाई दे रहा है या फिर दूसरी जगह भी इसका असर वैसा ही है , इसका पता लगाना बेहद ज़रुरी है । तलाक के मामले में पहल मर्द करे या फ़िर औरत , टूटता हर हाल में परिवार ही है , जो ना उस घर सदस्यों के लिए अच्छा है और ना ही पूरे समाज के लिए ...... ।

झुक गयी होगी जवां - साल उमंगों की ज़बीं
मिट गयी होगी ललक , डूब गया होगा यकीं
छा गया होगा धुआं , घूम गयी होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरौंदे को जो ढहाया होगा ।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

सियासी दांव पेंचों में गुम अवाम की आवाज़

साध्वी प्रज्ञा सिंह की गिरफ़्तारी को लेकर उठ रहे सवालों की फ़ेहरिस्त हर गुज़रते दिन के साथ लंबी होती जा रही है । आज कैलाश सोलंकी ने इंदौर में मीडिया के सामने आकर बयान दिया कि उसने कोर्ट में कोई हलफ़नामा नहीं दिया है । उसने मामले के मोस्ट वांटेड आरोपी रामजी को जानने की बात त्तो मानी लेकिन साध्वी से जान पहचान की बात को सिरे से नकार दिया । कैलाश के मुताबिक प्रज्ञा सिंह और रामजी के बीच फ़ोन पर हुई बातचीत के बारे में उससे कुछ पूछा ही नहीं गया और ना ही वो इस बारे में कुछ जानता है ।

दूसरी तरफ़ मालेगांव धमाकों को लेकर एटीएस द्वारा हिरासत में लिए गए शिवनारायण और फ़रार रामजी के पिता गोपाल सिंह ने इंदैर में पत्रकारों के सामने अपने गायब होने की खबरों की हकीकत बयान कर एटीएस के दावों की हवा निकाल दी । उनका दावा है कि उनका परिवार अब भी शाजापुर ज़िले के गोपीपुर गांव में ही रहता है । ऎसे में पूरे मामले पर सवाल उठना लाज़मी है । पुलिस के आला अफ़सरान भी मानते हैं कि साध्वी प्रज्ञा सिंह के खिलाफ़ फ़िलहाल कोई ठोस सबूत नहीं । यही वजह है कि आरोप को पुख्ता बनाने के लिए नार्को टेस्ट का सहारा लेना पड रहा है ।

इस पूरे वाकये को कई दिन से टीवी चैनलों पर देखने के बाद एक बात जो मुझे लगातार परेशान कर रही है , वो है साध्वी के चेहरे का नकाब । हालांकि मेरे इस सवाल से की लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते हों । मगर मुझे लगता है कि प्रज्ञा सिंह बेकसूर हैं , तो चेहरा छुपाने की ज़रुरत उन्हें तो कतई नहीं । और अगर उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण इस घटना को वाकई अंजाम दिया है , तब भी यह मुंह छिपाने की नहीं गर्वोन्नत होने का मौका है । उनका इस तरह लोगों के बीच चेहरा ढंक कर आना क्या संकेत देता है , फ़िलहाल कह पाना बडा ही मुश्किल है ।

बहरहाल सवाल घूम फ़िर कर वही ? कहीं आतंकवाद का मुद्दा खत्म करने की रणनीति तो नहीं ? लेकिन क्या इसके नतीजों पर भी गौर किया गया है ? हिन्दुओं और मुसलमानों में खाई बढा देगी ये साज़िश । और अगर यह सच नहीं तो क्या सचमुच हिन्दुओं के सब्र का पैमाना छलकने लगा है ? क्या सीमा की हिफ़ाज़त के लिए कुर्बानी की कसम से बंधे जांबाज़ फ़ौजी सचमुच आतंकवादियों के प्रति सरकार के नरम रवैए से हताश हैं ? सेना से रिटायर अधिकारी क्या किसी नौसीखिए कथित राष्ट्र्वादी का साथ दे सकते हैं ? अगर पुलिस की थ्योरी में वाकई दम है तो ये साफ़ संकेत है देश के हुक्मरानों के लिए कि जनता का शासकों पर भ्ररोसा दिन ब दिन कम होता जा रहा है । सियासी दांव - पेंचों में अवाम की आवाज़ और दर्द कहीं पीछे छूटता जा रहा है

लेकिन अकेले सरकार को ही कसूरवार ठहराना काफ़ी नहीं । दरअसल आतंकवाद को मज़हबी चश्मे से देखना भी आतंकवाद से कम खतरनाक नहीं है । बल्कि एक तरह से दहशतगर्दी को खाद - पानी देने जैसा है । आतंकवाद संवेदनशील मुद्दा है । ये देश की इस दौर की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है । इस संजीदा मसले को फ़िरकापरस्ती का रंग देकर हल्का करना देश पर भारी पड सकता है । मज़हबी नज़रिए से जहां ये मुद्दा पेचीदा होता जा रहा है , वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे मध्यमार्गी दलों की तुष्टिकरण की नीति के चलते बेहद खतरनाक मोड पर आ पहुंचा है । इसे कानून व्यवस्था, शांति और सुरक्षा की समस्या मानकर ईमानदारी से हल करने की कोशिश होना चाहिए , क्योंकि आंतरिक सुरक्षा का मसला देश के विकास से सीधे तौर पर जुडा है ।

मेरे कांधे पे बैठा कोई
पढता रहता है इंजीलो-कुरानो-वेद
मक्खियां कान में भनभनाती हैं
ज़ख्मी हैं कान
अपनी आवाज़ कैसे सुनूं ।

सोमवार, 3 नवंबर 2008

.............. झील की मौत पर गिद्ध भोज की तैयारी !

ताल - तलैयों के शहर के तौर पर मशहूर भोपाल की पहचान खतरे में है । यहां की बडी झील शायद पूरे भारत की एकमात्र मानव निर्मित विशालकाय जल संरचना होगी । मुझे याद है वो दिन जब हम गर्मी की छुट्टियां बिताने इंदौर जाया करते थे और अप्रैल - मई की तपते दिनों में भी भोपाल से ४० किलोमीटर दूर सीहोर से कुछ किलोमीटर पहले तक बडा तालाब हमें बिदाई देने आया करता था । हिलोरें लेता तालाब बालमन में अथाह समुद्र की छबि साकार कर देता ।

बूंद - बूंद पानी के लिए जद्दोजहद करते इंदौरियों के बीच " हमारा बडा तालाब " हमें अजीब सी ठसक और फ़्ख्र से भर देता । लेकिन हमारा वही गुमान अब अंतिम सांसे गिन रहा है । तालाब दम तोड रहा है । लेकिन झील की मौत पर सोगवार होने वाले लोग ढूंढे से नहीं मिल रहे । हां ,जगह - जगह चील गिद्ध मृतयुभोज की तैयारियों में मसरुफ़ हैं । लोगों ने पोस्टर बैनर झाड - पोंछकर तैयार कर लिए हैं । मंहगा पेट्रोल फ़ूंक कर सडकों पर गाडियां दौडाते हुए पानी बचाने की सीख दी जा रही है ।

इस बीच एक बडे समूह को भी पानी की कीमत का एहसास हो ही गया । सो ’ जल है ,तो कल है ’ के नारे के साथ शहर में जल सैनिक बनाने की मुहिम छेड दी गई है । जल सत्याग्रह की ये कोशिश कितनी ईमानदार है , इसका खुलासा तो वक्त ही करेगा । भोज वेटलैंड परियोजना के नाम पर विदेशी मदद के अरबों रुपए पानी में बह गये ,मगर बडी झील का पानी नहीं बचाया जा सका ।

बेशर्मी का आलम ये है कि सूखी झील पर फ़सलें लहलहाने लगीं , तब कहीं प्रशासन को होश आया । यूं तो बडा तालाब ३१ वर्ग किलोमीटर में फ़ैला था लेकिन इस साल बारिश की कमी के कारण अब सिर्फ़ १० वर्ग किलोमीटर दायरे में सिमट कर रह गया है । भू माफ़िया ने १५० एकड से ज़्यादा हिस्से में खेती शुरु कर दी । बहरहाल देर से ही सही प्रशासन को होश तो आया । फ़िलहाल ज़मीन का बेज़ा कब्ज़ा हटा दिया गया है । आगे भगवान मालिक ........।

झील की लाश पर मौज उडाने वाले ये भूल बैठे हैं कि पानी कारखानों में बनने वाला प्राडक्ट नहीं है । कुदरत की इस नायाब नियामत की नाकद्री मंहगी पडेगी हमें भी और आने वाली नस्लों को भी । लोग पैसा बचा रहे हैं और पानी बहा रहे हैं । नल की टोंटी खोलते ही आसानी से मिल जाने वाला पानी आने वाले वक्त में इस लापरवाही की क्या कीमत वसूलेगा । इसके महज़ एहसास से रुह कांप उठती है ।

राजधानी के पुराने इलाके में नवाबी दौर की करीब २५० बावडियां और कुएं बदहाली के शिकार हैं । किसी ज़माने में ये पारंपरिक जल स्त्रोत लोगों की प्यास बुझाते थे । साथ ही उनके रोज़मर्रा के कामों के लिए भी भरपूर पानी मुहैया कराते थे । हैरानी है कि भारी उपेक्षा के बावजूद १०० से ज़्यादा बावडियों का वजूद अब भी कायम है । हम सभी को समझना होगा कि जल है तो जीवन है या जल है तो कल है जैसे लोक लुभावन नारों के उदघोष से काम नहीं बनने वाला । पानी की मित्तव्ययिता का संस्कार पैदा करना होगा । एक बार फ़िर लौटना होगा अपनी परंपराओं की ओर जो हमें प्रकृति से लेना ही नहीं वापस लौटाना और संरक्षण की सीख भी देती हैं । पानी की अहमियत को समझाने के लिए ये दोहा है -

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून ,
पानी गये ना उबरे मोती , मानस , चून ।

रविवार, 2 नवंबर 2008

लोक परंपराओं और वन संपदा के सौदागर

हमारे पौराणिक ग्रंथों में पाताललोक का ज़िक्र अक्सर आता है । पाताल कहते ही ज़ेहन में एक चित्र उभरता है , जो हमें धरती के नीचे सात पातालों की कल्पना में पहुंचा देते हैं । देश के ह्र्दय कहलाने वाले मध्य प्रदेश की धरती पर एक यथार्थ लोक है - पातालकोट । छिंदवाडा ज़िले के उत्तर में सतपुडा के पठार पर स्थित पातालकोट कुदरत की अदभुत रचना है । ८९ वर्ग किलोमीटर में फ़ैली पातालकोट की धरा को नज़दीक से निहारना अपने आप में कौतूहल से भरा अनूठा अनुभव है ।

यहां के किसी भी गांव तक पहुंचने के लिए १२०० से १५०० फ़ीट की गहराई तक उतरना पडता है । घाटियां इतनी नीचे चली गई हैं कि उनमें झांक कर देखना भी मुश्किल है । ऎसा लगता है यहां शिखरों और घाटियों में होड लगी है , कौन कितना गौरव के साथ ऊंचा जाता है और कौन कितना विनम्रता के साथ झुकता हुआ धरती के अंतिम छोर को छू सकता है । इस कोशिश के गवाह हैं तरह - तरह के पेड - पौधे , जो घाटियों के गर्भ में और शिखरों की फ़ुनगियों पर बिना किसी भेदभाव के फ़ैले हुए हैं । निर्मल झरने , झिरियों और सरिताओं ने पातालकोट को नया जीवन दिया है ।

राजाखोह , दूधी और गायनी नदियों के उदगम की गहरी खाइयों में सूरज की किरणें अलसाती हुईं दोपहर बारह बजे तक दस्तक देने पहुंचती हैं और किसी प्रेयसी की तरह जल्द से जल्द मुलाकात खत्म कर लौट जाने की फ़िराक में रहती हैं । शाम चार बजने तक अंधियारा पांव पसारने लगता है । पातालकोट में भारिया जनजाति के लोग सदियों से रहते हैं । बाहरी दुनिया से अनजान इन लोगों की ज़िन्दगी में देश - दुनिया की विकास की गौरव गाथा का भी कोई पहलू शामिल नज़र नहीं आता । यहां दो - ढाई हज़ार लोग अजूबे की ज़िंदगी जी रहे हैं ।

वन संपदा के धनी इस इलाके के विकास के लिए सरकार अब तक अरबों रुपए फ़ूंक चुकी है । भारिया जनजाति के विकास और उसकी संस्क्रति को सहेजने के लिए विशेष पैकेज बनाए गये लेकिन नताजा वही - ढाक के तीन पात । न तो भारिया अब तक समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सके और न ही आदिवासियों का पारंपारिक औषधीय ग्यान बाहरी लोगों तक पहुंच सका है ।

यहां के लोग भुमका और गुनिया पर सबसे ज़्यादा विश्वास करते हैं । गुनिया जडी - बूटी का अच्छा जानकार होता है , जबकि भुमका मारक - तारक तंत्र - मंत्र में माहिर माना जाता है । भुमका नाडी देखकर बीमारी का निदान करते हैं । उनका कहना है कि हम बगैर पढे - लिखे लोग दिल पढना जानते हैं और वही पढकर रोग की जड का पता लगा लेते हैं । भुमका कहते हैं - " नाडी देखकर भगवान के नाम पर पानी छोड देते हैं । इससे बीमारी ठीक हो जाती है ।" उनके मुताबिक दिल की गहराइयों से बोले गये मंत्र असर करते हैं । दी गई जडी - बूटियां फ़ौरन फ़ायदा पहुंचाती हैं ।

पातालकोट में ऎसी जडी - बूटियां पाई जाती हैं , जो भारत में कहीं और मिलना नामुमकिन है । शायद इसीलिए कई निजी कंपनियों ने विदेशी कंपनियों से हाथ मिलाकर यहां डेरा डाल दिया है । इंटरनेट के ज़रिए यहां की दुर्लभ जडी - बूटियां विदेशों में बेची जा रही है । वन संपदा के बेतरह दोहन से सरकार अनजान बनी हुई है । इलाके में एकाएक व्यापारिक गतिविधियां बढ जाने से बाहरी लोगों की आवाजाही भी तेज़ी से बढी है । अनमोल जडी बूटियों को बाज़ार में बेचकर तिजोरी भर रहे व्यापारियों ने कुदरत के बेशकीमती खज़ाने में सेंध लगा दी है । कई जडी बूटियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं । लेकिन वन विभाग इससे बेखबर है ।

बाहरी लोगों का भारिया जनजाति के रहन - सहन पर भी खासा असर साफ़ दिखाई देने लगा है । ढोल और मांदल की थाप पर थिरकने वाले ये वनवासी अब पाश्चात्य संगीत पर झूम रहे हैं । नई पीढी लोकगीत और लोकधुनों को बिसरा चुकी है । फ़िल्मी गीतों की दीवानगी इस कदर बढी कि अब ढोल - नगाडॆ नौजवानों के लिए गुज़रे ज़माने की बात हो चले हैं ।

बाहरी चमक दमक का असर इस हद तक बढ गया है कि भारिया जनजाति की लोक संस्क्रति और परंपराओं के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है । भोले भाले आदिवासियों को सस्ते म्यूज़िक प्लेयर थमाकर व्यापारी अनमोल जडी - बूटियों पर हाथ साफ़ कर रहे हैं । अब तो बुज़ुर्ग भारिया भी मानने लगे हैं कि पातालकोट की पहचान बचाने के लिए दुर्लभ जडी - बूटियों के बेजा इस्तेमाल पर पाबंदी लगाना ज़रुरी है । वे आदिवासी परंपराओं के शहरीकरण को लेकर भी चिंतित हैं ।

दुआ है दुश्मनों को , जो सरे आम बुरा करते हैं
उन दोस्तों से तौबा ,जो दोस्ती में क्त्लेआम करते हैं ।