प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कमज़ोर नेता और खुद को लौह पुरुष के तौर पर पेश करने वाले लालकृष्ण आडवाणी का तिलिस्म टूट रहा है । प्रधानमंत्री के रुप में देश का नेतृत्व सम्हालने का ख्वाब सँजोये बैठे आडवाणी सर्वमान्य नेता बनते नज़र नहीं आ रहे । एक-एक कर घटक दल छिटक रहे हैं और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन शीशे की मानिंद दरक रहा है । पिछली मर्तबा बाईस दलों के भरे पूरे कुनबे वाले एनडीए को अब छः घटकों को साथ रखने में भी पसीने छूट रहे हैं । लगता है कि एनडीए के सदस्य आडवाणी की रहनुमाई में अपना कोई भविष्य नहीं देख रहे हैं ।
आडवाणी के खैरख्वाह माने जाने वाले बालासाहेब ठाकरे ने जिस तरह बेरुखी अख्तियार की है , वो बीजेपी के लिए निराशाजनक और अन्य लोगों के लिए चौंकाने वाली है । हाल में ठाकरे ने मुम्बई आए आडवाणी को मिलने का वक्त नहीं देकर अपना रुख काफ़ी हद तक साफ़ कर दिया । शिवसेना ने मराठी मानुष शरद पवार को प्रधानमंत्री बनाने के मुद्दे पर कड़ा रवैया अपनाकर बीजेपी को तगड़ा झटका दिया है । आमची मुम्बई और मराठी मानुष का नारा उछालकर राजनीतिक पायदान चढी शिवसेना ने प्रधानमंत्री पद पर पवार का नाम बढा कर फ़िर प्रांतवाद का ओछा दाँव खेला है ।
उधर , गठबंधन के दूसरे बड़े दल बीजेडी ने सीटों के सवाल पर दोस्ती से किनारा कर लिया है । हालाँकि ऊपरी तौर पर महज़ सीटों के तालमेल का विवाद ही नज़र आता है , लेकिन पर्दे के पीछे कँधमाल की घटना सहित कई अन्य मामलों ने भी आपसी रिश्तों की खटास को कड़वाहट में बदल दिया है । करीब ग्यारह साल पुराना साथ छोड़कर नवीन पटनायक ने अब नये दोस्तों का हाथ थाम लिया है । दक्षिणपंथियों से मोहभंग के बाद पटनायक का झुकाव वामपंथी विचारधारा की ओर होता नज़र आ रहा है । बीजू जनता दल ने अब भगवा चोला उतार कर लाल सलाम की तैयारी कर ली है ।
ये सवाल उठाया जा सकता है कि आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेन्स को ज़िन्दा जलाये जाने से लेकर कँधमाल तक उड़ीसा में ईसाइयों पर ज़्यादती की वारदात बीजेडी के शासनकाल में लगातार होती रही हैं । ईसाइयों पर हमलों की बढती घटनाओं को लेकर पटनायक सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाले वामपंथी आज उनके हमराह बन गये हैं । इस नज़रिये से नवीन पटनायक का बीजेपी का दामन छोड़कर वामदलों से पींगें बढाना राजनीतिक अवसरवादिता का ताज़ातरीन उदाहरण लगता है ।
कभी नरेन्द्र मोदी तो कभी भैरोंसिंह शेखावत की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से भाजपा की अँदरुनी राजनीति में काफ़ी समय तक खलबली रही । लेकिन ऎन चुनाव के वक्त एनडीए में मची भगदड़ को महज़ सीटों के बँटवारे का विवाद कहकर खारिज नहीं किया जा सकता । ये केवल सीटों की सौदेबाज़ी से उपजी बौखलाहट नहीं है । भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सत्ता में पहुँचने और छाया प्रधानमंत्री रह चुके आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में कई अड़चनें साफ़ दिखाई देती हैं ।
वर्ष 2004 में जनता ने जब एनडीए को बाहर का रास्ता दिखाया तो अन्नाद्रमुक , तेलुगूदेशम , तृणमूल काँग्रेस ने भाजपा से किनारा कर लिया । इससे पहले नेशनल कॉन्फ़्रेंस ,एलजेपी, डीएमके , एमडीएमके और पीएमके जैसी पार्टियों ने भी बारी- बारी से बीजेपी का साथ छोड़कर नई राहें ढूँढ लीं । ऎसा मालूम होता है कि राष्ट्रीय पार्टियों पर क्षेत्रीय दलों के हावी होने की राजनीति का चलन बढ़ रहा है ।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिवसेना और बीजेडी के झटके के बाद जनता दल (यू) जैसे कई छोटे दलों की सीटों की सौदेबाज़ी की ताकत और बढ जाएगी । लेकिन इसके साथ ही बीजेपी को यह भी स्वीकार करना होगा कि लालकृष्ण आडवाणी तमाम क्षेत्रीय दलों के लिए वो नाम नहीं जिस पर वे अटल बिहारी वाजपेयी की तरह बिना किसी हीलाहवाले मंज़ूरी दे दें । लाख टके का सवाल है कि क्या एनडीए का बिखराव आडवाणी के बरसों पुराने ख्वाब की तामीर में खलल पैदा करेगा..... ? कहीं ऎसा ना हो कि प्रधानमंत्री पद के ख्वाहिशमंद आडवाणी को "प्यासा" फ़िल्म के मशहूर नग्मे " देखी ज़माने की यारी ,बिछड़े सभी बारी - बारी " से ही दिल बहलाना पड़े...........।
5 टिप्पणियां:
आपने सही कहा, आडवानी के लिए यह चुनाव आग का दरिया है और डूब के जाना है, जैसे है
बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और निराशाजनक स्थिति है, लेकिन इसके लिये भी जनता ही जिम्मेदार है, जिसका दृष्टिकोण "राष्ट्रीय" न होकर "क्षेत्रीय" रह गया है… और "हिन्दूवादी" न होकर "जातिवादी" हो गया है… इसलिये "गाँधी परिवार" को एक बार फ़िर से सत्ता में देखने को अभिशप्त हैं हम… सब कुछ वही रहने की उम्मीद लग रही है, वही "से्कुलरिज़्म", वही "बन्दरबाँट", सब कुछ वही… लगता नहीं कि आने वाले लोकसभा चुनाव में कुछ बदलेगा…
परिदृश्य पर उपस्थित स्थितियों के आधार पर सुन्दर आकलन और निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए और अधिक सुन्दर तार्किक विवेचन।
मेरा सुनिश्चित मत है कि देश की बेहतरी के लिए कांग्रेस और भाजपा का मजबूत होना अत्यवाश्यक है। किन्तु भाजपा के साथ कठिनाई यह है कि वह न तो अपने मित्रों पर विश्वास करती है और न ही धीरज रखती है। सदैव उतावली में रहती है। 'संघ' इसे राजनीतिक पार्टी कभी नहीं बनने देगा। भाजपा का संकट यही है कि वह संघ का हिन्दूवाद, गांधी की अहिंसा और भारतीय जनमानस के लोकतान्त्रिक ढांचे को एकसाथ कबल करना चाहती है जो नितान्त असम्भव है। वह अपना कोई एक लक्ष्य सुस्पष्ट करले और उसी पर चलने की ठान ले तो वह बेहतर स्थिति में आ जाएगी। इस समय तो वह सर्वाधिक झूठी तथा अविश्वसनीय पार्टी बनी हुई है।
और आडवाणी की बात क्या की जाए। वे तो 'पी एम इन वेटिग परमानेण्टटली' हैं। वैसे, यह उनके ही पक्ष में है। वर्ना 'छोटे सरदार' की कलई पहले ही क्षण में खुल जाएगी।
Good Sarita.Aapki tippadi mere jaise logon ke bahut kaam ki hai..aap ranaitik woh bhi current affairs per achchhi pakad rakhti hain.Badhaaee.Ummeed hai achchhe rajnaitik cartoos bhi dekhti hongi..Keep it up..
good but an earlier prediction things can change drimatically specialy looking at election of 2004 what happened in 04 could possily be repeated in 09 this time with less seats for congress...... who knows
rohit_1970@yahoo.com
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