पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देश के मतदाताओं से सही उम्मीदवार को वोट देने का आग्रह किया है । मतदान को सबसे बड़ा अवसर बताते हुए डॉ.कलाम ने कहा है कि हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि अगले पाँच साल के लिये देश के भाग्य का फ़ैसला लेने के हकदार होते हैं । उन्होंने मताधिकार को पवित्र और मातृभूमि के प्रति ज़िम्मेदारी बताया है ।
हममें से ज़्यादातर ने नागरिक शास्त्र की किताबों में मताधिकार के बारे में पढ़ा है । मतदान के प्रति पढ़े-लिखे तबके की उदासीनता के कारण राजनीति की तस्वीर बद से बदतर होती जा रही है । हर बार दागी उम्मीदवारों की तादाद पहले से ज़्यादा हो जाती है । भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेता पार्टी की अदला- बदली करते रहते हैं । राजनीतिक दलों में वंशवाद की बेल पुष्पित-पल्लवित हो रही है | आम नागरिक मुँह बाये सारा तमाशा देखता रहता है । प्रजातंत्र में मतदाता केवल एक दिन का "राजा" बनकर रह गया है । बाकी पाँच साल शोषण,दमन और अत्याचार सहना उसकी नियति बन चुकी है ।
यह राजनीति का कौन सा रुप है , जो चुनाव के बाद सिद्धांत , विचार , आचरण और आदर्शों को ताक पर रखकर केवल सत्ता पाने की लिप्सा में गठबंधन के नाम पर खुलेआम सौदेबाज़ी को जायज़ ठहराता है ? चुनाव मैदान में एक दूसरे के खिलाफ़ खड़े होने वाले दल सरकार बनाने के लिये एकजुट हो जाते हैं । क्या यह मतदाता के फ़ैसले का अपमान नहीं है ? चुनाव बाद होने वाले गठबंधन लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाते दिखाई देते हैं । सरसरी तौर पर प्रत्याशी तो कमोबेश सभी एक से हैं और आपको बस मशीन का बटन दबाना है । मतदाता मजबूर है राजनीतिक पार्टियों का थोपा उम्मीदवार चुनने को । जो लोग जीतने के बाद हमारे भाग्य विधाता बनते हैं , उनकी उम्मीदवारी तय करने में मतदाता की कोई भूमिका नहीं होती ।
राजनीतिक दलों को आम लोगों की पसंद - नापसंद से कोई सरोकार नहीं रहा । उन्हें तो चाहिए जिताऊ प्रत्याशी । वोट बटोरने के लिये योग्यता नहीं जातिगत और क्षेत्रीय समीकरणों को तरजीह दी जाती है । अब तो वोट हासिल करने के लिये बाहुबलियों और माफ़ियाओं को भी टिकट देने से गुरेज़ नहीं रहा । सरकार बनाने के लिये ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने की नहीं कबाड़ने की जुगाड़ लगाई जाती है । नतीजतन लाखों लगाकर करोड़ों कमाने वालों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है । सत्ता किसी भी दल के हाथ में रहे , हर दल का नेता मौज लूटता है । अराजकता का साम्राज्य फ़ैलने के लिये हमारी खामोशी भी कम ज़िम्मेदार नहीं ।
लाख टके का सवाल है कि इस समस्या से आखिर निजात कैसे मिले ? लेकिन आज के इन हालात के लिये कहीं ना कहीं हम भी ज़िम्मेदार हैं । हम गलत बातों की निंदा करते हैं लेकिन मुखर नहीं होते , आगे नहीं आते । चुनाव हो जाने के बाद से लेकर अगला चुनाव आने तक राजनीति में आ रही गिरावट पर आपसी बातचीत में चिन्ता जताते हैं , क्षुब्ध हो जाते हैं । मगर जब बदलाव के लिये आगे आने की बात होती है , तो सब पीछे हट जाते हैं । हमें याद रखना होगा कि लोकतंत्र में संख्या बल के मायने बहुत व्यापक और सशक्त हैं । इसे समझते हुए एकजुट होकर सही वक्त पर पुरज़ोर आवाज़ उठाने की ज़रुरत है । अपने राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्व को समझना ही होगा ।
सब जानते हैं और मानते भी हैं कि लोकतंत्र की कमजोरियाँ ही बेड़ियाँ बन गई हैं । यही समय है चेतने ,चेताने और चुनौतियों का डट कर मुकाबला करने का ...। प्रजातंत्र को सार्थक और समर्थ साबित करने के लिये हमें ही आगे आना होगा । इस राजनीतिक प्रपंच पर अपनी ऊब जताने का यही सही वक्त है । वोट की ताकत के बूते हम क्यों नहीं पार्टियों को योग्य प्रत्याशी खड़ा करने पर मजबूर कर देते ?
भोपाल के युवाओं ने बदलाव लाने की सीढ़ी पर पहला कदम रख दिया है । शहीद भगत सिंह की पुण्यतिथि पर आम चुनाव में मतदान और मुद्दों पर जनजागरण के लिए "यूथ फ़ॉर चेंज" अभियान की शुरुआत की गई । अभियान का सूत्र वाक्य है - ’वोट तो करो बदलेगा हिन्दुस्तान।’ इसमें वोट डालने से परहेज़ करने वाले युवाओं को स्वयंसेवी और सामाजिक संगठनों की मदद से मतदान की अहमियत समझाई जाएगी ।
व्यक्तिगत रुप से मैं दौड़ , हस्ताक्षर अभियान , मोमबत्ती जलाने जैसे अभियान की पक्षधर नहीं । मेरा मानना है कि हमें अपने आसपास के लोगों से निजी तौर पर इस मुद्दे पर बात करना चाहिये । इस मुहिम को आगे ले जाने के लिये लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए । उन्हें मतदान केन्द्र पर जत्थे बनाकर पहुँचने के लिये उत्साहित करना होगा ।
यहाँ यह बताना बेहद ज़रुरी है कि इस बार चुनाव आयोग ने मतदान केन्द्र पर रजिस्टर रखने की व्यवस्था की है , जिसमें वोट नहीं डालने वाले अपना नाम-पता दर्ज़ करा सकते हैं । याद रखिये बदलाव एक दिन में नहीं आता उसके लिये लगातार अनथक प्रयास ज़रुरी है । व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे इन प्रयासों को अब व्यापक आंदोलन की शक्ल देने का वक्त आ गया है । मौका है बदल डालो । हमारे जागने से ही जागेगा हिन्दुस्तान , तभी कहलायेगा लोकतंत्र महान ....।
13 टिप्पणियां:
पहले सही उम्मीदवार तो दें, फिर सोचें.
मैं तो इंतजार कर रहा हूं।
कब वह दिन आये और सारा जहां बदल जाए।
मैं बदलाव की शुरूआत अवश्य करूंगा।
सरिता जी
बदलाव की दरकार लिए "मौका है बदल डालो , अब नहीं तो कब ...????" आलेख अच्छा लगा.
हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर: क्या शीर्षस्थ नेता योग्य प्रत्याशी चुनने का माद्दा रखते हैं ?
आज की राजनीती में सही उम्मीदवार ढूंढना-- मतलब भूसे के ढेर में सूईं खोजना........
सारे के सारे बदल दो वाह बहुत ही सामयिक बात कहीं है . मौका पञ्च सालो के बाद ही मिलता है .
kaash ki ham sab ek saath ye sach samajh paayein, haan rahee apkee baat dohree jimmedaaree kee to koshish to yahee rahtee hai pata nahin kitnaa kaamyaab rah pata hoon.
मौका है समूल बदल डालो , ऐसे मौके बार-बार नहीं आते ..../
हम सब प्रयासरत हैं. बुजुर्गो को इकठ्ठा किया जायेगा जिससे युवाओं की पहल साकार हो.
यह सब केवल वाणी विलास है। यदि हम सब सचमुच में इस मुद्दे पर ईमानदार और गम्भीर हैं तो 'ब्लाग' को एक एनजीओ की तरह उपयोग में लेने पर विचार करें। चुनाव सुधारों को लेकर भारत निर्वाचन आयोग को सामूहिक प्रतिवेदन देने का क्रम शुरु करें। हमारी व्यवस्था 'लिखे' से चलती है, 'कहे' से नहीं। हम सब केवल कह कर और एक दूसरे की पीठ खुजला कर आत्म मुग्ध् हुए जा रहे हैं।
मैं गए चार दिनों से अपने कस्बे के कई परिचितों से सतत् सम्पर्क कर रहा हूं और स्थानीय स्तर पर व्यापक जन-अभियान की रूपरेखा बनवा रहा हूं। अभी अधिक कुछ कहना इसलिए उचित नहीं समझता क्योंकि मेरा नियन्त्रण केवल मुझ तक सीमित है। सामूहिक प्रायस जिस दिन साकार होगा, उस दिन आप सबको खबर करूंगा और अभियान की विस्तृत जानकारी भी दूंगा।
बन्द कमरों में बैठकर, शब्द बाणों से मैदानी लडाई नहीं जीती जा सकती। उसके लिए तो खुलकर ही मैदान में आना पडेगा।
आप सब ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि मेरी भाग दौड सफल हो।
'बदलाव एक दिन में नहीं आता उसके लिये लगातार अनथक प्रयास ज़रुरी है । व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे इन प्रयासों को अब व्यापक आंदोलन की शक्ल देने का वक्त आ गया है'
100% sahi baat kahi hai aap ne sareeta ji.
bhopal ke yuvaon ka prayaas bhi sarahniy hai..
achcha lekh hai.
1)निश्चित लोकतंत्र तानाशाही से बेहतर है . हिकारत तो नहीं पर सिस्टम की दशा और दुरुपयोग को देखकर उद्विग्न लोगों की संख्या बढती जा रही है . सचमुच अब इस कुकर्म में टिप्पीयाने वाले लोगों के साथ उच्चतम नयायालय भी शामिल हो चुका है .सुप्रीम कोर्ट आयेदिन नेतागण को उनकी अकर्मण्यता, दुराचरण, सीबीआई जैसे संस्थाओं के राजनैतिक दुरुपयोग और असम -पश्चिम बंगाल में वोट बैंक ग्रोथ के लिए बंगलादेशी घुसपैठियों का राशन और वोटर कार्ड देकर भारतीयकरण जैसे मुद्दों पर फटकार लगाकर विधायिका में टांग अडाने की जुर्रत करने लगा है .
सही भी है जरा जाकर देखिये पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में घुसपैठ से जनसँख्या का संतुलन इतना गडबडा गया है कि मूल देशवासी रोज के अवैध घुसपैठ के कारण अपने ही देश में घुसपैठीयों के रहम पर शरणार्थी जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
2)नेताओं के बिना तो कुछ भी नहीं चल सकता . पर किसी क्षेत्र से सारे प्रत्याशी बाहुबली,भ्रष्ट अयोग्य हो तो क्या करें ?क्या ऐसे ही नेता शेष रह गए हैं देश चलाने के लिए?
नेता ख़राब नहीं पर ख़राब नेता क्यों?अब जनसेवा के लिए शायद ही कोई आता हो सब राजनीती में दो और दो पांच करने आ रहे हैं . पहले की अपेक्षा कुछ भी तो नहीं बदला बल्कि ज्यादा बदतर और नंगा हो गया है . प्रत्याशिओं को उनके चरित्र और योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि मोटी रकम ,अभिनय,जात-धर्म ,और बाहूबल को देखकर टिकट दिया जा रहा है. अब ये लोग इन्वेस्ट कर रहे हैं तो multibagger रिटर्न की आश जरूर लगाये बैठे होंगे.इमानदार लोगों के पास तो न टिकट खरीदने के लिए कालाधन होता है न ही उसे छीनने के लिए बाहुबल इसलिए ऐसे लोगों का राजनीति में प्रवेश दुर्लभ सा हो गया है .
भारतीय राजनीति में घुसने वाले कूडों को प्रवेशद्वार पर ही रोक देना चाहिए . चुनाव में शामिल होने से पहले इनकी काबलीयत नापने के लिए इनकी बुद्धिजीविओं के समक्ष सार्वजनिक स्क्रीनिंग होनी चाहिए . अमेरिका में प्रत्याशिओं के बीच जिस तरह बहस होती है यहाँ क्यों नहीं होती?
3)जैसे सीमा चाक चौबंद न रख पहले हम आतंकवादियों को घुसने देते हैं और वारदात हो जाने के बाद चूहा-बिल्लीगिरी में परेशान रहते हैं . उसी प्रकार लोकतंत्र में विषाणुओं के अबाध प्रवेश और उस पर से सिस्टम के स्वतः ठीक हो जाने की आस कहीं भारत के मर्ज़ को लाइलाज न कर दे . भारतीय लोकतंत्र सिर्फ आकडों पर आधारित खेल है. देश की बहुसंख्यक गरीब जनता ,जो की धर्म-जात देखकर ,अभिनय पर ,ढोंग और बहकावे में आकार वोट कर देती है , में आत्मचिंतन की शक्ति नहीं है . हम मतदाताओं की सोच बदलते बदलते कहीं बहुत देर न हो जाए और हमे भारत के बिखरे पुर्जों को सँभालने के लिए लॉन्ग मार्च करना पड़े...
बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने ...
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
केवल वोट डालने से कुछ नहीं बदलेगा। सोच-समझकर वोट डालना होगा। मतदाताओं की भी अपनी संस्थाएं होनी चाहिए, जो पार्टी घोषणा-पत्रों, उम्मीदवारों की छवि और निष्पादन, पार्टियों की नीतियां आदि की छानबीन करेगी और रिपोर्ट जारी करेगी, जिन्हें पढ़कर मतदाता सही चयन कर सकेंगे। अभी चयन के लिए मतदाताओं के पास पार्टी भाषणबाजों, अखबारों, वेबसाइटों आदि ही उपलब्ध हैं, जहां सब मामले का एक पक्ष (पार्टी पक्ष) ही उजागर होता है। इस तरह के मतदाता सेल देशभर में हर मुहल्ले में होने चाहिए। इनका स्वरूप बरसाती मेंढ़कों का सा न होकर, जो केवल चुनावों के समय प्रकट होते हैं, स्थायी होना चाहिए और इन्हें साल भर काम करते रहना चाहिए, और पार्टियों और उम्मीदवारों के बारे में जानकारी निरंतर इकट्ठा करते जाना चाहिए और उन्हें लोगों तक पहुंचाते जाना चाहिए। मूल संविधान में प्रेस को यह काम दिया गया था, लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में, पर प्रेस को (जिसमें टीवी जैसे अन्य माध्यम भी शामिल हैं) अब व्यवसाय ने मोल ले लिया है।
ऐसे मतदाता सेल कौन स्थापित करेगा, उसके कर्माचरी कौन होंगे, उसे चलाने के लिए पैसा कहां से आएगा, ये सब विचारणीय मुद्दे हैं। मेरा सुझाव है कि इसे निर्वाचन आयोग की छत्र-छाया में लाया जा सकता है, और निर्वाचन आयोग इसके लिए पैसे जुटा सकता है। मतदाताओं से चंदे भी लिए जा सकते हैं।
संविधान में संशोधन करके इन मतदाता सेलों को कानूनी हैसियत प्रदान करने पर भी विचार किया जा सकता है।
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