आरएसएस के सरसंघ चालक के एस सुदर्शन ने अँग्रेज़ों और दूसरे देशों की मदद से बनाए गए भारतीय संविधान को नष्ट कर देने की पैरवी की है । कल भोपाल में भारतीय विचार संस्थान के बौद्धिक कार्यक्रम में सुदर्शन ने कहा कि कुछ लोगों के निजी स्वार्थों के लिए ही यह संविधान बनाया गया था । आँबेडकर भी इस से संतुष्ट नहीं थे , इसीलिए उन्होंने कहा था कि बस चले तो संविधान में आग लगा दूँ । इससे किसी का भला नहीं होने वाला ।
उनसठ साल पुराने संविधान पर गाहे - बगाहे सवाल उठते रहे हैं । लंबे समय से नए व्यावहारिक और मज़बूत संविधान की ज़रुरत महसूस की जा रही है । भारत रक्षा संगठन ने नया संविधान बनाने के लिए संघर्ष का रास्ता चुनने की घोषणा की है वहीं प्रज्ञा संस्थान और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन भी नए संविधान का पक्षधर है ।
गणराज्य के जिस संविधान को हमने 26 जनवरी 1950 को अँगीकार किया था , बदलते सामाजिक और आर्थिक दौर में उसकी प्रासंगिकता खत्म हो चली है । ऎसी आवाज़ उठाने वाले भारतीय संविधान के 59 साल के सफ़र को विफ़ल करार देते हुए नए संविधान की माँग कर रहे हैं ।इनमें कुछ संगठन शामिल हैं , तो कुछ संविधान विशेषज्ञ ।
सच तो यह भी है कि जो संविधान हमें मिला वह आज़ादी के आंदोलन के दौरान घोषित स्वतंत्र भारत के लक्ष्य के अनुरुप नहीं था । महात्मा गाँधी ने भी ग्राम स्वराज की ओर बढने की बात को संविधान में शामिल नहीं करने पर कड़ी आपत्ति की थी । वास्तव में संविधान समग्र रुप से भारतीय स्वभाव और तासीर से मेल नहीं खाने के कारण असहज हो गया और धीरे-धीरे पूरा तंत्र बीमार होता चला गया । आज हालत ये है कि जन और तंत्र के बीच की खाई दिन ब दिन चौड़ी होती जा रही है ।
गौर से देखा जाए तो आमजन को केवल मत डालने का अधिकार दिया गया है । शासन में उसे किसी भी तरह की भागीदारी नहीं दी गई और ना ही उसकी कोई भूमिका तय की गई । संविधान से जुड़े प्रश्नों की फ़ेहरिस्त लगातार लम्बी होती जा रही है , जिनका उत्तर हमारे संविधान में ढूँढ पाना नामुमकिन होता जा रहा है । इनके लिए या तो संशोधन करना पड़ता है या फ़िर कोई व्यवस्था देने के लिए न्यायालय को आगे आना पड़ता है । कई मर्तबा संसद अपने मन मुताबिक प्रक्रिया शुरु कर देती है । संविधान से स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं मिलने के कारण आज गणतंत्र पटरी से उतर गया है । चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री , अराजकता तथा अँधेरगर्दी का बोलबाला है ।
संविधान का पहला संशोधन 1951 में किया गया और अब तक 90 से ज़्यादा संशोधनों का विश्व कीर्तिमान बन गया है , जबकि सवा दो सौ साल पुराने अमेरिकी संविधान में अब तक महज़ 26 बदलाव किये गये हैं । दर असल जिस संविधान की दुहाई देते हम नहीं थकते , उसकी सच्चाई यही है कि यह ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर और उसके बाद अँग्रेज़ सरकार के कानूनों का ही विस्तारित रुप है । कुछ लोग इसे 1773 के रेग्युलेशन एक्ट से लेकर 1935 के भारतीय शासन अधिनियम तक का मिलाजुला रुप बताते हैं ।
राजनीति के अपराधीकरण , चाँद-फ़िज़ा जैसे मामलों से समाज में बढती अराजकता और आरक्षण से फ़ैलते सामाजिक विद्वेष के मूल में कहीं ना कहीं संविधान का लचीलापन और मौन ही ज़िम्मेदार है । शासन - प्रशासन में बढ़ते भ्रष्टाचार और देश में कानून का राज कायम कराने में नाकाम न्याय व्यवस्था से राष्ट्रीय चरित्र का संकट खड़ा हो गया है ।
अपना दायित्व भूलकर दूसरे के काम में दखलंदाज़ी के बढ़ते चलन ने देश में असंतुलन और निरंकुशता का माहौल बना दिया है । बदलते दौर में संविधान में छिटपुट बदलाव करते रहने की बजाय सख्त और सक्षम कानून बनाने की ज़रुरत है । यह काम वक्त रहते कर लिया जाए , तो देश की तस्वीर और तकदीर भी सुनहरे हर्फ़ों में लिखी जा सकेगी । "एक मुल्क -एक कानून" ही देश में समरसता का माहौल बना सकता है । सभी वर्गों को न्याय के तराज़ू पर बराबरी से रखकर ही सांप्रदायिकता के दानव से छुटकारा मिल सकता है ।
मैं तो बेचैन हक़ीक़त को ज़ुबाँ देता हूँ ।
आप कहते हैं बग़ावत को हवा देता हूँ ।
निज़ाम कैसा ये खूशबू को नहीं आज़ादी ?
सुर्ख फ़ूलों को दहकने की दुआ देता हूँ ।
7 टिप्पणियां:
'संविधान का पहला संशोधन 1951 में किया गया और अब तक 90 से ज़्यादा संशोधनों का विश्व कीर्तिमान बन गया है '
-यह तथ्य संविधान की कमी को उजागर करता है.
बहुत प्रभावकारी आलेख और रोचक जानकारी...
भारत जैसे विविधता वाले देश में 'त्रिशंकु सभाओं' का कोई कारगर हल हमारे संविधान ने सोचा ही नहीं है। इस कारण पूरा देश दलालों के द्वारा चलाये जाने को अभिशप्त है|
संविधान में छुटपुट बदलाव नहीं होते ,परिस्थितियों के मद्देनजर ,कानूनन और उपयोगी संशोधन किये जाते है यह बात जुदागाना है कि,संबिधान में संशोधन करने का जो अनुच्छेद है उसी को संशोधित कर दिया जाये (एक मर्तवा ऐसा ही हो चुका है ) आपका विचार नितांत स्वागत योग्य है ,एक ही देश में विभिन्न नियम क्यों ? मगर प्रेक्टिकली यह संभव नहीं है ,बहुत बातों का ध्यान रखना होता है ,कहीं धर्म है कहीं आस्था है ,कहीं रुडिये है,तो कहीं मान्यताएं है /जहाँ तक एक मुल्क एक कानून की बात है तो भारतीय दंड संहिता है ,और भी आपराधिक तत्वों के विरुद्ध एक्ट है वे सब सामान रूप से लागू होते है ,किन्तु परिवार की संपत्ति ,शादी ,इनके बाबत एक सा नियम कैसे लागू किया जा सकता है
आपकी पोस्ट का टाइटल पढ़ कर कुछ गलतफहमी हुई, पूरा पढ़ा तो मैटर कुछ और ही लिखा है. आपने बहुत ठीक मुद्दा उठाया है. लोकतंत्र भ्रष्टाचार, दलाली, कमीशन, लापरवाही, तथा unaccoutability के इर्द गिर्द घूम रही है.ठीक ही कहा गया है: Today the bureaucrat is a burden, politician is a parasite. लोक-आवाज़ ही एक रास्ता है, बदलाव लाने का.
अपकी पोस्ट 'विचारोत्तेजक' नहीं, भावोत्तेजक है। 'विचार' सदैव ही भूत, वर्तमान और भविष्य की 'समग्रता' को समाहित किए होता है जब कि 'भाव' वर्तमान की मात्र एक स्थिति को लेकर भी उपज सकता है।
गांधी का नाम लेना हम बन्द ही कर दें तो यह गांधी के साथ हमारे द्वारा किया गया सबसे बडा न्याय होगा। गांधी आचरण पर जोर देते थे और हम प्रदर्शन पर। गांधी तो उस शासन व्यवस्था को श्रेष्ठ मानते थे जो नागिरक के दैनन्दिन जीवन में कम से कम हस्तक्षेप करे। इसका एक ही अर्थ होता है कि नागरिक अपने कर्तव्य इस सीमा तक निभाएं कि शासन को नागकिर तक पहुंचने की आवश्यकता केवल आपात स्थितियों में ही हो। (अपने संविधान की चिन्ता करना भी नागरिकों का कर्तव्य ही है और चिन्ता केवल शब्दों से जताई जाए तो वह चिन्ता नहीं, 'फिक्र का जिक्र' मात्र होती है।)
जहां तक हमारे संविधान की बात है, वह निश्चय ही गांधी की कल्पना से दूर है किन्तु इतना दूर इतना अवास्तविक भी नहीं कि उसे निरस्त करने पर विचार करना पडे।
देश की राष्ट्रीयता और शासन व्यवस्था को लेकर 'संघ' की अपनी सोच और अवधारणा है जो सर्वज्ञात है। हमारा वर्तमान संविधान 'उस सोच और अवधारणा' के सर्वथा प्रतिकूल है। सो सुदर्शन का आग्रह अस्वाथाविक नहीं।
अपनी सुविधानुसार उध्दरणों को अन्यार्थों में उद्धृत करने में समूचा संघ परिवार विशेषज्ञ है, इसलिए यदि आम्बेडकर को भी अन्यथा प्रस्तुत किया जा रहा हो तो आश्चर्य नहीं। लोगों के अज्ञान का लाभ उठाने के मामले में 'संघ परिवार' सचमुच में श्रेष्ठ ज्ञानी और विशेषज्ञ है।
'एक मुल्क-एक कानून' का मुहावरा सुनने/पढने में आकर्षक और मोहित करने वाला लगता है। लेकिन इसकी सुस्पष्ट विस्तृत व्याख्या करने का जिम्मा आज तक किसी ने लेने का साहस नहीं किया है। उन्होंने ने भी नहीं जो इस मुहावरे को नारे के रूप में प्रयुक्त करते हैं।
संविधान बिलकुल वैसा ही है जैसे इसके घेरे में आने वाले हम नागरिक। जैसे हम, वैसी हमारी सरकार। जैसे हम, वैसा हमारा संविधान। वस्तुपरक भाव से बात करना बहुत ही आसान तथा सर्वाधिक सुविधाजनक है। आत्मपरकता से बात करना जोखिमभरा काम है। इससे हर कोई बचना चाहता है।
मैं भी, आप भी और टिपियाने वाले तमाम लोग भी।
मैं आपके इस विचार से पूर्ण सहमत हूं कि हमारा संविधान अब पुराना पड़ चुका है और हमें नए संविधान की जरूरत है। वर्तमान संविधान 1947 की परिस्थितियों को उजागर करता है, जो संपूर्णतः राष्ट्र हित के अनुरूप नहीं थीं। तब अंग्रेजों की कूटनीति से देश बंटा हुआ था, और संविधान को उसे स्वीकार करना पड़ा था।
संविधान में कुछ खामियां भी हैं। वह मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा गया है, जिससे वह देश की रग को ठीक से नहीं पकड़ता है।
आरक्षण के मुद्दे की ओर भी आपने ठीक ही इशारा किया है। संविधान देश को बांटनेवाले इस कार्यक्रम को प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन देता है।
सर्वशिक्षा के अधिकार का उसमें कहीं नाम नहीं है, और उन 90 संशोधनों में से भी किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है। इससे स्पष्ट पता चलता है कि यह संविधान और उसके आधार पर शासन कर रही सरकारों और उनके आकाओं की रुचियां कहां हैं, जनता के पक्ष में तो नहीं ही है। ये सरकारें अमरीका के साथ परमाणु करार करने के लिए तो भगीरथ प्रयत्न कर सकती हैं, पर सर्वशिक्षा जैसे अधिक जरूरी चीजों के लिए संसद में एक राय बनाने के लिए नहीं।
इतना होते हुए भी, नया संविधान आम राय से ही बनना चाहिए, तभी वह देश को नई ऊंचाइयों तक ले जा पाएगा।
सुदर्शन और रा.स्व.सं. के विचार नए संविधान पर हावी हो गए, तो यह हमारे लिए भारी विपत्ति होगी। उससे तो अच्छा वर्तमान संविधान ही है।
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