कहते हैं वक्त बदलते वक्त नहीं लगता। यह कहावत भारतीय राजनीति के मौजूदा दौर पर शब्दशः चरितार्थ हो रही है । कल तक जो नेता मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी से अपने समर्थन की भरपूर कीमत वसूलते थे और आये दिन आँखें भी तरेरते थे, वे ही आज बिन माँगा समर्थन देने के लिये ना सिर्फ़ उतावले हैं,बल्कि राष्ट्रपति को चिट्ठी देने के लिये दौड़े चले जा रहे हैं। मज़े की बात ये भी है कि जो काम वे खुद कर रहे हैं, वही काम करने वाले प्रतिद्वंद्वी उनकी नज़र में अवसरवादी और मौकापरस्त हैं।
परमाणु करार के बहाने सरकार के नीचे से ज़मीन खींच लेने का मुग़ालता पालने वाले वामपंथियों को राजनीति के महान दलाल ने करारी शिकस्त दे दी। गु़स्से से लाल हो रहे वामपंथियों को ममता बनर्जी की आड़ में जनता ने इस कदर धो डाला कि अब करात दंपति के साथ साथ सभी का चेहरा ज़र्द पड़ गया है। यूपीए गठबँधन में शामिल तीन तरह की काँग्रेस ने कुछ और सहयोगियों की मदद से विरोधी खेमे के सभी रंग उड़ा दिये हैं।
मायावती का हाथी भी सत्ता की चौखट पर हीला-हवाला किये बग़ैर बँधने को आतुर है। चार बार उत्तर प्रदेश की मुखिया की ज़िम्मेदारी सम्हालने वाली मायावती की निगाह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर लगी थी। हो भी क्यों ना आखिर वे एक दलित की बेटी हैं। इसी नाते हक़ है उनका ख्वाब देखने का। खैर हाल फ़िलहाल यह सपना टूट गया तो क्या, वो नहीं बड़ा भाई ही सही कुर्सी तो घर में ही है । माया मेम साब ने जनता को याद दिलाया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें अपनी छोटी बहन बता चुके हैं ।
ये सब वही लोग हैं जो कल तक कह रहे थे-हमारे सारे विकल्प खुले हुए हैं। हम काँग्रेस के साथ भी जा सकते हैं, भाजपा और तीसरे मोर्चे के साथ भी। सभी ने अजीब सी रहस्यमयी मुस्कुराहट पहन ली थी । हर कोई १६मई के इंतज़ार की बात कह अपने पत्ते खोलने से बच रहा था। यहाँ तक कि वामपंथी दल भी, जो तीसरा मोर्चा बनाए बैठे थे। नीतिश कुमार ने भी अपनी दुकान खूब सजाई और तख्ती टाँग दी कि बिहार को विशेष पैकेज दो और हमारा समर्थन ले जाओ । सब अपनी छोटी-छोटी दुकानें सजाए बैठे थे। १६ मई आए और मैं ग्राहक की जेब खाली कराऊँ......।
तय तारीख आई और चली गई। सजी हुई दुकानों पर किसी ने झूठमूठ भी भाव तक नहीं पूछा। शाम तक दुकानों पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगीं। दुकानदार में इतना उत्साह भी नहीं रहा कि उन्हें भगाए। रात होने से पहले-पहले दुकानों पर ताले जड़ गए। सारे विकल्प खोलकर बैठने वाले अब गली-गली फ़ेरी लगा रहे हैं । ठेले पर बिक रहे समर्थन का कोई खरीददार नहीं है। टेर लगाने वालों के गले सूख गये हैं और बिकाऊ माल सड़ने की आशंका में चेहरे मुरझा गये हैं । कल तक अपनी शर्तों पर साथ देने वाले आज बिना शर्त सत्ता के दरवाज़े खूँटे से बँधी गाय बनने को बेताब हैं,लेकिन खरीददार इतना बेरहम हो सकता है ये इन सबने कभी सोचा नहीं था ।
अब ये तो बेरहमी की इंतेहा हो गई । वे बेचारे इसके बदले कुछ माँग भी तो नहीं रहे। उन्हें मंत्री पद की चाहत भी नहीं । वे तो बस काँग्रेस का हाथ अपने साथ चाहते हैं। वे चाहते हैं तो बस इतना कि यूपीए में थोड़ी सी जगह मिल जाये। हम सत्ताधारी पार्टी कहलाएँ,बस इतना-सा संदेश पूँजीपतियों तक जाना चाहिए। बाकी हम अपना इंतजाम खुद कर लेंगे। वे समर्थन देना चाहते हैं और कांग्रेस है कि ले नहीं रही है। कोई धेले को पूछ नहीं रहा। बिहार के चतुर-सुजानों की सारी हेकड़ी धरी की धरी रह गई ।
उधर साइकल की हवा निकल चुकी है,लेकिन इससे क्या? पुराने रिश्ते यूँ पल में झटके से नहीं टूट जाया करते । दिग्विजय सिंह,कमलनाथ जैसे "छुटभैये नेता" अमरसिंह सरीखे महानतम राजनीतिज्ञ पर टीका-टिप्पणी करते हुए शोभा नहीं देते । अमरवाणी के मुताबिक तीसरे और चौथे दर्ज़े के नेताओं की छींटाकशी काँग्रेस से उनके एकतरफ़ा प्रेम की लौ को बुझा नहीं सकती । तभी तो निस्वार्थ भाव से राजनीति के ज़रिये देश सेवा पर उतारु "पॉवर ब्रोकर" महोदय देर किये बग़ैर मीडिया को दिखाते हुए समर्थन की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन पहुँच गये।
लालू की लालटेन की लौ क्या टिमटिमाने लगी,उनके चेहरे का तो मानो नूर ही चला गया । कल तक बिहार में काँग्रेस के लिये तीन सीटों से ज़्यादा नहीं छोड़ने की ज़िद पकड़े बैठे लालू आज अपना समर्थन देने पर आमादा हैं। बार-बार झिड़की खाकर भी पुराने संबंधों की दुहाई देकर लालू एक बार फ़िर सत्ता की मलाई खाने को उतावले हैं । हद तो ये है कि चुनाव के दौरान काँग्रेस पर दहाड़ने वाले लालू प्रसाद अब मिमिया रहे हैं। लेकिन फ़िर भी उनकी खिलाफ़त कर रहे काँग्रेस के दिग्गज नेताओं को दोयम दर्ज़े का बताने से बाज़ नहीं आ रहे। वे अपनी फ़रियाद सोनिया दरबार तक पहुँचाने के लिये उतावले हैं ।
आखिर सत्ता का नशा होता ही है मदमस्त कर देने वाला । जब तक कुर्सी की ताकत रहती है व्यक्ति रहता है मदहोश और जब वह हैसियत छिन जाती है तो वह बेबस और लाचार व्यक्ति " जल बिन मछली" की तरह छटपटाने लगता है । इसी लिये सत्ता सुंदरी के चारों ओर भँवरे से मँडराते ये नेता किसी कीमत पर काँग्रेस से जुदा नहीं होना चाहते । इन सभी नेताओं का दर्द और पीड़ा कमोबेश एक सी है । सितारों ने साथ छोड़ा तो सत्ता भी पकड़ से दूर चली गयी । कल तक जो अपने थे वो सब एकाएक पराये हो गये और इनमें से ज़्यादातर को डर है कि पुराने दिनों की ब्लैक मेलिंग का बदला कहीं अब गिन-गिन कर नहीं लिया जाये ।
नतीजे आने तक लालू, मुलायम,पासवान, करात,शरद पवार, लालकृष्ण आडवाणी, मायावती जैसे नेता दिन में भी प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने लगे थे । लेकिन रोज़-रोज़ की तू-तू मैं-मैं से आज़िज़ आ चुकी जनता ने ऎसा दाँव चला कि इन सभी के " दिल के अरमां आँसुओं में बह गये।" जो दल व्यक्तिवादी थे उन्हें हवा के बदले रुख के मुताबिक "शरणम गच्छामि" में ही समझदारी दिखाई दे रही है । इन मौकापरस्तों को एकतरफ़ा प्रेम से भी कोई गुरेज़ नहीं है । दरअसल इस बहाने ये सभी अपने आने वाले कल के अँधियारे को हरसंभव रोकना चाहते हैं । अब सुनहरे सपनों की बजाय अँधियारी काल कोठरी का डरावना ख्याल रातों की नींद उड़ाने लगा है ।
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मंगलवार, 19 मई 2009
बुधवार, 11 मार्च 2009
एनडीए के बिखराव से उलझन में आडवाणी
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कमज़ोर नेता और खुद को लौह पुरुष के तौर पर पेश करने वाले लालकृष्ण आडवाणी का तिलिस्म टूट रहा है । प्रधानमंत्री के रुप में देश का नेतृत्व सम्हालने का ख्वाब सँजोये बैठे आडवाणी सर्वमान्य नेता बनते नज़र नहीं आ रहे । एक-एक कर घटक दल छिटक रहे हैं और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन शीशे की मानिंद दरक रहा है । पिछली मर्तबा बाईस दलों के भरे पूरे कुनबे वाले एनडीए को अब छः घटकों को साथ रखने में भी पसीने छूट रहे हैं । लगता है कि एनडीए के सदस्य आडवाणी की रहनुमाई में अपना कोई भविष्य नहीं देख रहे हैं ।
आडवाणी के खैरख्वाह माने जाने वाले बालासाहेब ठाकरे ने जिस तरह बेरुखी अख्तियार की है , वो बीजेपी के लिए निराशाजनक और अन्य लोगों के लिए चौंकाने वाली है । हाल में ठाकरे ने मुम्बई आए आडवाणी को मिलने का वक्त नहीं देकर अपना रुख काफ़ी हद तक साफ़ कर दिया । शिवसेना ने मराठी मानुष शरद पवार को प्रधानमंत्री बनाने के मुद्दे पर कड़ा रवैया अपनाकर बीजेपी को तगड़ा झटका दिया है । आमची मुम्बई और मराठी मानुष का नारा उछालकर राजनीतिक पायदान चढी शिवसेना ने प्रधानमंत्री पद पर पवार का नाम बढा कर फ़िर प्रांतवाद का ओछा दाँव खेला है ।
उधर , गठबंधन के दूसरे बड़े दल बीजेडी ने सीटों के सवाल पर दोस्ती से किनारा कर लिया है । हालाँकि ऊपरी तौर पर महज़ सीटों के तालमेल का विवाद ही नज़र आता है , लेकिन पर्दे के पीछे कँधमाल की घटना सहित कई अन्य मामलों ने भी आपसी रिश्तों की खटास को कड़वाहट में बदल दिया है । करीब ग्यारह साल पुराना साथ छोड़कर नवीन पटनायक ने अब नये दोस्तों का हाथ थाम लिया है । दक्षिणपंथियों से मोहभंग के बाद पटनायक का झुकाव वामपंथी विचारधारा की ओर होता नज़र आ रहा है । बीजू जनता दल ने अब भगवा चोला उतार कर लाल सलाम की तैयारी कर ली है ।
ये सवाल उठाया जा सकता है कि आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेन्स को ज़िन्दा जलाये जाने से लेकर कँधमाल तक उड़ीसा में ईसाइयों पर ज़्यादती की वारदात बीजेडी के शासनकाल में लगातार होती रही हैं । ईसाइयों पर हमलों की बढती घटनाओं को लेकर पटनायक सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाले वामपंथी आज उनके हमराह बन गये हैं । इस नज़रिये से नवीन पटनायक का बीजेपी का दामन छोड़कर वामदलों से पींगें बढाना राजनीतिक अवसरवादिता का ताज़ातरीन उदाहरण लगता है ।
कभी नरेन्द्र मोदी तो कभी भैरोंसिंह शेखावत की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से भाजपा की अँदरुनी राजनीति में काफ़ी समय तक खलबली रही । लेकिन ऎन चुनाव के वक्त एनडीए में मची भगदड़ को महज़ सीटों के बँटवारे का विवाद कहकर खारिज नहीं किया जा सकता । ये केवल सीटों की सौदेबाज़ी से उपजी बौखलाहट नहीं है । भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सत्ता में पहुँचने और छाया प्रधानमंत्री रह चुके आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में कई अड़चनें साफ़ दिखाई देती हैं ।
वर्ष 2004 में जनता ने जब एनडीए को बाहर का रास्ता दिखाया तो अन्नाद्रमुक , तेलुगूदेशम , तृणमूल काँग्रेस ने भाजपा से किनारा कर लिया । इससे पहले नेशनल कॉन्फ़्रेंस ,एलजेपी, डीएमके , एमडीएमके और पीएमके जैसी पार्टियों ने भी बारी- बारी से बीजेपी का साथ छोड़कर नई राहें ढूँढ लीं । ऎसा मालूम होता है कि राष्ट्रीय पार्टियों पर क्षेत्रीय दलों के हावी होने की राजनीति का चलन बढ़ रहा है ।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिवसेना और बीजेडी के झटके के बाद जनता दल (यू) जैसे कई छोटे दलों की सीटों की सौदेबाज़ी की ताकत और बढ जाएगी । लेकिन इसके साथ ही बीजेपी को यह भी स्वीकार करना होगा कि लालकृष्ण आडवाणी तमाम क्षेत्रीय दलों के लिए वो नाम नहीं जिस पर वे अटल बिहारी वाजपेयी की तरह बिना किसी हीलाहवाले मंज़ूरी दे दें । लाख टके का सवाल है कि क्या एनडीए का बिखराव आडवाणी के बरसों पुराने ख्वाब की तामीर में खलल पैदा करेगा..... ? कहीं ऎसा ना हो कि प्रधानमंत्री पद के ख्वाहिशमंद आडवाणी को "प्यासा" फ़िल्म के मशहूर नग्मे " देखी ज़माने की यारी ,बिछड़े सभी बारी - बारी " से ही दिल बहलाना पड़े...........।
आडवाणी के खैरख्वाह माने जाने वाले बालासाहेब ठाकरे ने जिस तरह बेरुखी अख्तियार की है , वो बीजेपी के लिए निराशाजनक और अन्य लोगों के लिए चौंकाने वाली है । हाल में ठाकरे ने मुम्बई आए आडवाणी को मिलने का वक्त नहीं देकर अपना रुख काफ़ी हद तक साफ़ कर दिया । शिवसेना ने मराठी मानुष शरद पवार को प्रधानमंत्री बनाने के मुद्दे पर कड़ा रवैया अपनाकर बीजेपी को तगड़ा झटका दिया है । आमची मुम्बई और मराठी मानुष का नारा उछालकर राजनीतिक पायदान चढी शिवसेना ने प्रधानमंत्री पद पर पवार का नाम बढा कर फ़िर प्रांतवाद का ओछा दाँव खेला है ।
उधर , गठबंधन के दूसरे बड़े दल बीजेडी ने सीटों के सवाल पर दोस्ती से किनारा कर लिया है । हालाँकि ऊपरी तौर पर महज़ सीटों के तालमेल का विवाद ही नज़र आता है , लेकिन पर्दे के पीछे कँधमाल की घटना सहित कई अन्य मामलों ने भी आपसी रिश्तों की खटास को कड़वाहट में बदल दिया है । करीब ग्यारह साल पुराना साथ छोड़कर नवीन पटनायक ने अब नये दोस्तों का हाथ थाम लिया है । दक्षिणपंथियों से मोहभंग के बाद पटनायक का झुकाव वामपंथी विचारधारा की ओर होता नज़र आ रहा है । बीजू जनता दल ने अब भगवा चोला उतार कर लाल सलाम की तैयारी कर ली है ।
ये सवाल उठाया जा सकता है कि आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेन्स को ज़िन्दा जलाये जाने से लेकर कँधमाल तक उड़ीसा में ईसाइयों पर ज़्यादती की वारदात बीजेडी के शासनकाल में लगातार होती रही हैं । ईसाइयों पर हमलों की बढती घटनाओं को लेकर पटनायक सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाले वामपंथी आज उनके हमराह बन गये हैं । इस नज़रिये से नवीन पटनायक का बीजेपी का दामन छोड़कर वामदलों से पींगें बढाना राजनीतिक अवसरवादिता का ताज़ातरीन उदाहरण लगता है ।
कभी नरेन्द्र मोदी तो कभी भैरोंसिंह शेखावत की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से भाजपा की अँदरुनी राजनीति में काफ़ी समय तक खलबली रही । लेकिन ऎन चुनाव के वक्त एनडीए में मची भगदड़ को महज़ सीटों के बँटवारे का विवाद कहकर खारिज नहीं किया जा सकता । ये केवल सीटों की सौदेबाज़ी से उपजी बौखलाहट नहीं है । भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सत्ता में पहुँचने और छाया प्रधानमंत्री रह चुके आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में कई अड़चनें साफ़ दिखाई देती हैं ।
वर्ष 2004 में जनता ने जब एनडीए को बाहर का रास्ता दिखाया तो अन्नाद्रमुक , तेलुगूदेशम , तृणमूल काँग्रेस ने भाजपा से किनारा कर लिया । इससे पहले नेशनल कॉन्फ़्रेंस ,एलजेपी, डीएमके , एमडीएमके और पीएमके जैसी पार्टियों ने भी बारी- बारी से बीजेपी का साथ छोड़कर नई राहें ढूँढ लीं । ऎसा मालूम होता है कि राष्ट्रीय पार्टियों पर क्षेत्रीय दलों के हावी होने की राजनीति का चलन बढ़ रहा है ।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिवसेना और बीजेडी के झटके के बाद जनता दल (यू) जैसे कई छोटे दलों की सीटों की सौदेबाज़ी की ताकत और बढ जाएगी । लेकिन इसके साथ ही बीजेपी को यह भी स्वीकार करना होगा कि लालकृष्ण आडवाणी तमाम क्षेत्रीय दलों के लिए वो नाम नहीं जिस पर वे अटल बिहारी वाजपेयी की तरह बिना किसी हीलाहवाले मंज़ूरी दे दें । लाख टके का सवाल है कि क्या एनडीए का बिखराव आडवाणी के बरसों पुराने ख्वाब की तामीर में खलल पैदा करेगा..... ? कहीं ऎसा ना हो कि प्रधानमंत्री पद के ख्वाहिशमंद आडवाणी को "प्यासा" फ़िल्म के मशहूर नग्मे " देखी ज़माने की यारी ,बिछड़े सभी बारी - बारी " से ही दिल बहलाना पड़े...........।
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