शनिवार, 29 नवंबर 2008

अमीरी - गरीबी के खांचे में बंटा आतंकवाद


समझ नहीं आ रहा कि इस वक्त ये कहना ठीक है या नहीं , लेकिन चुप रहकर अकेले घुटने से तो यही बेहतर है कि कह कर अपना मन हल्का कर लिया जाए । फ़िर भले ही लोग चाहे जितना गरिया लें । वैसे भी देश में सभी लोग सिर्फ़ अपने लिए ही तो जी रहे हैं । उनमें एक मैं भी शामिल हो जाऊं तो हर्ज़ ही क्या है ?
देश की सडकों पर बहने वाले खून की कीमत टेंकर के पानी से भी सस्ती है । लेकिन पहली मर्तबा अमीरों को भी एहसास हुआ है कि लहू का रंग सिर्फ़ लाल ही होता है फ़िर चाहे वो गरीबों का ही क्यों ना हो ।
इसमें कोई शक नहीं कि पांच सितारा होटलों में हुए आतंकी हमले बेहद वीभत्स थे । लेकिन क्या ऎसे धमाके देश में पहले कभी नहीं हुए । २६ नवंबर को ही ठीक उसी वक्त सीएसटी में भी लोगों ने अपने परिजनों को खोया ,लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था । मारे गये लोगों की लाश लेने के लिए भटकते परिजनों को सांत्वना देना तो दूर की बात मदद करने वाला तक कोई नहीं था ।
अमीरों की मौत पर स्यापा करने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया के अंग्रेजीदां पत्रकार भी छातियां पीटने लगते हैं । मगर गरीब की मौत का कैसा मातम ......? वह तो पैदा ही मरने के लिए होता है । चाहे फ़िर वह मौत तिल तिल कर आए या धमाके की शक्ल में ।
हमें उम्मीद करना चाहिए कि जल्दी ही सरकार आतंकियों से निपटने के लिए ठोस कदम उठाएगी ,क्योंकि अब की बार अमेरिका ,ब्रिटेन सरीखे आकाओं के नागरिकों का जीवन भारत में खतरे में पडा है । सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की रातों की नींद में खलल पडने लगा है । रुपहले पर्दे पर गरीबों के मसीहा का किरदार निबाहने वाले इस महानायक ने बरसों लोगों की जेबें खाली कर अपनी तिजोरियां भरीं हैं । लेकिन इनकी आंखें आम आदमी के आतंक के शिकार होने पर कभी भी नम नहीं हुईं ।
दिल्ली के धमाकों में अपने बेटे के बच जाने {हालांकि वो घटना स्थल से मीलों दूर थे] पर खुशी का इज़हार करने वाले बिग बी को हादसे के शिकार लोगों की याद तक नहीं आई । धिक्कार है ऎसे स्वार्थी लोगों पर , जो देश के आम लोगों के जज़्बात से खेलते हैं और विदेशों में साम्राज्य खडा करते हैं ।
अमीरों की फ़िक्रमंद सरकारों को अपनी अहमियत का एहसास कराना कब सीखेगा भारत का आम आदमी ? वह सडकों पर रौंदा जाता है । अस्पतालों में कीडे - मकौडों सी ज़िल्लत झेलता है । धमाकों में कागज़ के पुर्ज़ों की मानिंद चीथडों में तब्दील हो जाता है । लेकिन कब वह जानेगा कि उसमें भी जान है , वह भी एक इंसान है ,खास ना सही आम ही सही ....।
बिठा रखे हैं पहरे बेकसी ने
खज़ानों के फ़टे जाते हैं सीने
ज़मीं दहली , उभर आये दफ़ीने
दफ़ीनों को हवा ठुकरा रही है
उठो , देखो वो आंधी आ रही है ।

7 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

बहुत सही विश्लेषण है, इस प्रकार के सैकड़ों धमाके हो चुके हैं भारत में, लेकिन सरकार तभी "कुछ" करती है जब किसी "अमीर" का नुकसान होता है, यह हमने कंधार के वक्त भी देखा है और रूबिया सईद के समय भी, वरना नक्सली इलाकों में रोजाना कई गरीब आदिवासी मारे जाते हैं, और सरकार ध्यान देना तो दूर, मुआवजा तक नहीं देती…

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

खून लाल होता है - चाहे वह अमीर का हो या गरीब का। इसीलिए जब कभी या कहीं मासूम का खून बहा, इन्सानियत रोती है।

Anil Pusadkar ने कहा…

सुरेश जी से सहमत हूं। छत्तीसगढ मे तो आये दिन लोग मर रहे नक्सलियों के हाथों।

मुंहफट ने कहा…

अमीरों की मौत पर सियापा. वाकई. टिप्पणी पर हम साथ-साथ. बधाई.

बेनामी ने कहा…

देखिये धमाका हुआ है. लोग मरे. कुछ शहीद हुए. आपको दुःख हुआ. हमको भी हुआ. बहुत से लोगों को हुआ.

तो क्या नेताओं की जात जानने के लिए आपको इन धमाकों की जरूरत है? क्या ये धमाके न होते तो आपको पता न चलता की अमीरों - गरीबों में अन्तर सिर्फ़ भारत में ही नहीं, दुनिया के हर कोने में है?

देखिये.. गुस्सा मत करिए.. सब ठीक हो जाएगा... आप भी - और हम जैसे सभी.. अगर सिर्फ़ अपने अगल बगल कुछ भी जो छोटा मोटा काम है, अगर कर सकें तो बड़ा भला होगा...

चलिए.. अगर आपको इस धमाके से बहुत दुःख पहुँचा तो एक काम करिए.. आज से किसी को कोसना बंद कर दीजिये.. बहुत लोगों का भला होगा.. और आप भी कुछ कर सकेंगी देश के लिए..

डॉ० दिलीप गर्ग ने कहा…

अंतरात्मा को छू लेने वाला प्रश्न....

बेनामी ने कहा…

बहुत सही विश्लेषण है