कभी ना थमने वाली मुम्बई की रफ़्तार पर २६ नवंबर की रात से लगा ब्रेक राष्ट्रीय शर्म का प्रतीक है । मुम्बई के आतंकी हमलों ने देश के सुरक्षा इंतज़ामात और खुफ़िया तंत्र के कामकाज की पोल खोलकर रख दी है । हर आतंकी हमले के बाद अगली मर्तबा कडा रुख अपनाने का रटा रटाया जुमला फ़ेंकने के बाद केंन्द्र भी फ़ारिग हो गया ।
आतंक से लडने की बजाय नेता फ़िर एक दूसरे पर कीचड उछालने में मसरुफ़ हो गये हैं । प्रधानमंत्री देश को मुश्किल घडी में एकजुट करने और जोश - जज़्बे से भरने की बजाय भविष्य की योजनाओं का पुलिंदा खोल कर क्या साबित करना चाहते थे । पोची बातों को सुनते - सुनते देश ने पिछले आठ महीनों में पैंसठ से ज़्यादा हमले अपने सीने पर झेले हैं ।
गृह मंत्री का तो कहना ही क्या । अपनी पोषाकों के प्रति सजग रहने वाले पाटिल साहब देश की सुरक्षा को लेकर भी इतने ही संजीदा होते ,तो शायद आज हालात कुछ और ही होते । गृह राज्य मंत्रियों को संकट की घडी में भी राजनीति करने की सूझ रही है । बयानबाज़ी के तीर एक दूसरे पर छोडने वाले नेताओं के लिए ये हमला वोटों के खज़ाने से ज़्यादा कुछ नहीं ।
सेना के तीनों अंगों ने नेशनल सिक्योरिटी गार्ड और रैपिड एक्शन फ़ोर्स की मदद से पूरे आपरेशन को अंजाम दिया और बयानबाज़ी करके वाहवाही लूट रहे हैं आर आर पाटिल । महाराष्ट्र पुलिस के मुखिया ए. एन राय तो इस मीडिया को ब्रीफ़ करते रहे , मानो सारा अभियान पुलिस ने ही सफ़लता से अंजाम दिया हो ।
सुना था कि मुसीबत के वक्त ही अपने पराए की पहचान होती है । लेकिन भारत मां को तो निश्चित ही अपने लाडले सपूतों [ नेताओं ] की करतूत पर शर्मिंदा ही होना पडा होगा । आतंकियों के गोला बारुद ने जितने ज़ख्म नहीं दिए उससे ज़्यादा तो इन कमज़र्फ़ों की कारगुज़ारियों ने सीना छलनी कर दिया ।
रही सही कसर कुछ छद्म देशप्रेमी पत्रकार और उनके भोंपू [चैनल] पूरी कर रहे हैं । सरकार से मिले सम्मानों का कर्ज़ उतारने के लिए खबरची किसी का कद और स्तर नापने की कोशिश में खुद किस हद तक गिर जाते हैं , उन्हें शायद खुद भी पता नहीं होता । दूसरे को बेनकाब कर वाहवाही लूटने की फ़िराक में ये खबरची अपने घिनौने चेहरे से लोगों को रुबरु करा बैठते हैं । इन्हें भी नेताओं की ही तरह देश की कोई फ़िक्र नहीं है । इन्हें बस चिंता है अपने रुतबे और रसूख की ।
प्रजातंत्र के नाम पर देश को खोखला कर रहे इन ढोंगियों को अब लोग बखुबी पहचान चुके हैं । इस हमले ने रहे सहे मुगालते भी दूर कर दिए हैं । नेताओं की असलियत भी खुलकर सामने आ चुकी है और सेना की मुस्तैदी को भी सारी दुनिया ने देखा है ।
ऎसा लगता है देश के सड गल चुके सिस्टम को बदलने के लिए अब लोगों को सडकों पर आना ही होगा । रक्त पिपासु नेताओं के चंगुल से भारत मां को आज़ाद कराने के लिए अब ठोस कार्रवाई का वक्त आ चुका है । इनके हाथ से सत्ता छीन कर नया रहनुमा तलाशना होगा , नई राह चुनना होगी , नई व्यवस्था लाना होगी । इस संकल्प के साथ हम सभी को एक साथ आगे बढना होगा ।
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात ना फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो , मैं भी उठूं , तुम भी उठो ,तुम भी उठो
कोई खिडकी इसी दीवार में खुल जाएगी ।
8 टिप्पणियां:
"रही सही कसर कुछ छद्म देशप्रेमी पत्रकार और उनके भोंपू [चैनल] पूरी कर रहे हैं । सरकार से मिले सम्मानों का कर्ज़ उतारने के लिए खबरची किसी का कद और स्तर नापने की कोशिश में खुद किस हद तक गिर जाते हैं , उन्हें शायद खुद भी पता नहीं होता "
सही कहा है
लेकिन कल तक जो पत्रकार भगवा आतंकवाद और बाटला हाउस की पैरवी कर रहे थे वो किस बिल में छिपे बैठे हैं?
To ab ki baar pehley in netaon ko hi rastey se hataya jaye. aur hum logon ko unki jagah leni chahiye
यह शोक का दिन नहीं,
यह आक्रोश का दिन भी नहीं है।
यह युद्ध का आरंभ है,
भारत और भारत-वासियों के विरुद्ध
हमला हुआ है।
समूचा भारत और भारत-वासी
हमलावरों के विरुद्ध
युद्ध पर हैं।
तब तक युद्ध पर हैं,
जब तक आतंकवाद के विरुद्ध
हासिल नहीं कर ली जाती
अंतिम विजय ।
जब युद्ध होता है
तब ड्यूटी पर होता है
पूरा देश ।
ड्यूटी में होता है
न कोई शोक और
न ही कोई हर्ष।
बस होता है अहसास
अपने कर्तव्य का।
यह कोई भावनात्मक बात नहीं है,
वास्तविकता है।
देश का एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री,
एक कवि, एक चित्रकार,
एक संवेदनशील व्यक्तित्व
विश्वनाथ प्रताप सिंह चला गया
लेकिन कहीं कोई शोक नही,
हम नहीं मना सकते शोक
कोई भी शोक
हम युद्ध पर हैं,
हम ड्यूटी पर हैं।
युद्ध में कोई हिन्दू नहीं है,
कोई मुसलमान नहीं है,
कोई मराठी, राजस्थानी,
बिहारी, तमिल या तेलुगू नहीं है।
हमारे अंदर बसे इन सभी
सज्जनों/दुर्जनों को
कत्ल कर दिया गया है।
हमें वक्त नहीं है
शोक का।
हम सिर्फ भारतीय हैं, और
युद्ध के मोर्चे पर हैं
तब तक हैं जब तक
विजय प्राप्त नहीं कर लेते
आतंकवाद पर।
एक बार जीत लें, युद्ध
विजय प्राप्त कर लें
शत्रु पर।
फिर देखेंगे
कौन बचा है? और
खेत रहा है कौन ?
कौन कौन इस बीच
कभी न आने के लिए चला गया
जीवन यात्रा छोड़ कर।
हम तभी याद करेंगे
हमारे शहीदों को,
हम तभी याद करेंगे
अपने बिछुड़ों को।
तभी मना लेंगे हम शोक,
एक साथ
विजय की खुशी के साथ।
याद रहे एक भी आंसू
छलके नहीं आँख से, तब तक
जब तक जारी है युद्ध।
आंसू जो गिरा एक भी, तो
शत्रु समझेगा, कमजोर हैं हम।
इसे कविता न समझें
यह कविता नहीं,
बयान है युद्ध की घोषणा का
युद्ध में कविता नहीं होती।
चिपकाया जाए इसे
हर चौराहा, नुक्कड़ पर
मोहल्ला और हर खंबे पर
हर ब्लाग पर
हर एक ब्लाग पर।
- कविता वाचक्नवी
साभार इस कविता को इस निवेदन के साथ कि मान्धाता सिंह के इन विचारों को आप भी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचकर ब्लॉग की एकता को देश की एकता बना दे.
saaradesh unhe dekh rahaa hai aur kisi ke bolne ki hammatnahi bahut badhiyaa post hai ,...vaise tumhaari sabhi post dekh -padh rahi hoon ,itni gambhirtaa se likhti ho, achchaa lagtaa hai ,..bahut dino se mulaakaat bhi nahi sab kushal mangal to hai ,vidhu
जो जैसा करेगा उसे वैसा ही भरना पड़ता है। पाकिस्तान आंतकवादियों का गढ रहा है आज आंतकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित पाकिस्तान है। अमेरिका जब चाहता है पाकिस्तान के इलाके में घुस कर जहाज से बम बार्ड करता है। आंतकवाद को बढावा देने वाले पाकिस्तान में आये दिन हमले हो रहै है।
धर्म का नाम लेकर जेहाद करने वालो को धर्मगुरू यह क्यों नहीं बता रहे है कि इस्लाम आतंकवाद का पर्याय बनता जा रहा है और उनका धर्म बदनाम हो रहा है!!!
बहुत कुछ बदलना ज़रुरी हो गया है इस देश में। आपसे सहमत हूं।
भारत के हि्न्दुओं की देशभक्ति "बासी कढ़ी का उबाल" है या पेशाब का झाग, जैसे कारगिल के समय झाग उठा था, वैसा ही अभी उठा है… जब कारगिल का ही एक जवान महीनों तक अस्पताल में एड़ियां रगड़ रहा था तब किसी को देशभक्ति याद नहीं आई थी… लद्दाख में जवानों के जूतों की खरीदी की फ़ाइल को लटकाने वाला अफ़सर आज भी मजे कर रहा है, पेट्रोल पंप पाने के लिये जवान के बूढ़े माँ-बाप आज भी चक्कर खा रहे हैं, किस देशभक्ति की बात कर रहे हो भाऊ, इस देश की जनता जूते खाते-खाते उसकी आदी हो चुकी है…
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