मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

अजगर करे ना चाकरी ....!

अजगर करे ना चाकरी , पंछी करे ना काम ।
दास मलूका कह गये , सबके दाता राम ।
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री की खातिरदारी का लुत्फ़ उठाने के बाद पंद्रह फ़ुटा अजगर निश्चित ही ये लाइनें गुनगुना रहा होगा । ८५ किलो वज़नी इन महाशय ने सिक्योरिटी के तमाम इंतज़ामात को धता बताते हुए श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री निवास में घुसपैठ कर ली थी । और तो और वहां एक पालतू कुत्ते की दावत उडाने की भी कोशिश की । अजगर की भूख शांत करने के लिए उसे मुर्गों का ज़ायका लेने का मौका भी मिला ।
अखबार की सुर्खियों में रहे इस आराम तलब जीव ने चुनावी माहौल में कई दिग्गज नेताओं को बहुत कुछ संकेत दे दिए हैं । सीधे -सादे नज़र आने वाले शिवराज सिंह को जब सत्ता सौंपी गई थी , तब उन्हें रबर स्टैंप मानते हुए घाघ नेताओं ने भी खास तवज्जो नहीं दी थी । कमज़ोर माने जाने वाले इस नेता ने धीरे धीरे कई धुरंधरों को उनकी हैसियत बता दी है ।
राजधानी में काफ़ी चर्चा है इस वाकये की । लोगों का कहना है कि शिव के घर नाग आया , लेकिन अब तक के शिवराज के राजनीतिक सफ़र को देखते हुए इसे दो दोस्तों की सौजन्य भेंट का नाम दिया जाए तो गलत ना होगा । ये अलग बात है कि पूर्व निर्धारित नहीं होने के कारण अजगर महाशय मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं कर पाए ।
वैसे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास में इससे पहले भी जंगल के कई नुमाइंदे अलग -अलग काल में मुख्यमंत्रियों से मेल मुलाकात का ख्वाब संजोये हुए ज़बरिया प्रवेश करते रहे हैं । मोतीलाल वोरा के शासनकाल में मगरमच्छ का आना चर्चा का मुद्दा बना ,तो एक तेंदुए ने दिग्विजय सिंह से मुलाकात की हसरत पाली । देखना दिलचस्प होगा कि अजगर नामा आने वाले चुनावों में क्या रंग दिखाएगा ।

रविवार, 12 अक्तूबर 2008

बाज़ार की गिरावट - निवेशकों की फ़जीहत

पिछले कुछ महीनों से शेयर बाज़ार की रोलर कोस्टर राइड ने सब के होश उडा दिए हैं । खबरिया चैनलों को वक्त गुज़ारने का अच्छा बहाना मिल गया है । हर नए दिन के साथ बाज़ार गिरावट के नए रिकार्ड बनाता है और अगले ही दिन ये , धूल चाटता नज़र आता है । लेकिन निवेशकों की तबाही का मंज़र खबरची चैनलों के लिए किसी लाटरी से कम नहीं होता । १० अक्टूबर का दिन एक मर्तबा फ़िर ब्लैक फ़्राइडे के तौर पर दर्ज हो गया । गिरावट और घबराहट के सैलाब में आंकडों के सभी बांध ढह गये वहीं एक एंकर लुट पिट चुके लोगों से सवाल कर रहा था कि आप कैसा महसूस कर रहे हैं ....? दुनिया भर के शेयर दलालों का दुलारा बुल एक झटके में सबसे बडा विलेन बन गया है । बाज़ार को उछाल मारता देखकर बुल को पूजने वालों में मुम्बई स्टाक एक्सचेंज के बाहर खडे सांड को जी भर कर कोसने वालों की भी अब कमी नहीं । ।
शेयर बाज़ार पर अर्थशास्त्रियों की राय शुमारी तो न जाने कब से खत्म हो चुकी है । लेकिन अब तो लगता है मार्केट एक्सपर्टस के दिन भी लद गए । लोगों को अंधविश्वास की गर्त में धकेलने वाले खबरिया चैनल ज्योतिषियों ओर वास्तुशास्त्रियों से मश्विरा करते नज़र आते हैं कि आने वाले दिनों में बाज़ार का रुख क्या रहेगा ? क्या यह आतंकवाद का एक नया चेहरा है ...? क्या आपको ऎसा नहीं लगता कि अनियंत्रित रफ़्तार से भाग रहे बाज़ार के ज़रिए जल्द से जल्द पैसा कमा कर अमीर बन जाने का ख्वाब दिखाकर करोडों लोगों को जीतेजी मारने की साज़िश रची जा रही है । बम विस्फ़ोट में तो कुछ ही लोग मारे जाते हैं लेकिन आतंकवाद क यह हथियार दोहरी मार कर सकता है देश पर। सेंसेक्स को अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर समझने वाले ये नेता क्या इस खतरे से अंजान है ......?
हाल के दिनों में देश में ऎसे कई मामले सामने आए हैं ,जहां स्टाक मार्केट में हाथ जला चुके लोगों ने परिवार के साथ खुदकुशी का रास्ता अखतियार कर लिया । कल ही एक चैनल पर इसी मुद्दे पर मनोचिकित्सक की राय ली जा रही थी । इसी प्रोग्राम के दौरान ये बात भी निकल कर आई कि बाज़ार की गिरावट ने कई जानें ही नहीं लीं ,बल्कि हज़ारों परिवारों को जीतेजी मार डाला है । गाढी कमाई पल भर में गवां बैठे कई लोग आने वाले कल की चिंता में सीज़ोफ़्रेनीया, डिप्रेशन आदि मनोरोगों के शिकार बन रहे हैं ।
अमेरिका की हिचकोले खाती इकानामी दुनिया भर के बाज़ारों के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है । कल तक सेंसेक्स को परवाज़ के पंख लगाकर आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाने वाले अब सब कुछ बेच कर बाज़ार से बाहर आने की सलाह देते नज़र आते हैं । लेकिन एक सवाल जो मेरे ज़ेहन में बार बार आता है कि कंपनियों का बाज़ार मूल्य आखिर किस आधार पर तय किया गया ..? साधारण परिस्थिति में इस तरह की बातें ठगी की श्रेणी में मानी जाती हैं । सेबी और छोटे निवेशकों के हितों के लिए काम करने वाली संस्थाएं इस मुद्दे पर खामोश क्यों रह्ती हैं ? किसी भी कंपनी के मूल्यांकन का आधार आखिर क्या है ? निवेशकों की मेहनत की कमाई क्या इसी तरह कुछ शातिर दिमाग लोग सरे आम लूटते रहेंगे । आफ़र डाक्यूमेंट में आसानी से ना पडे जा सकने वाले बेहद बारीक शब्दों में कुछ जरुरी बातों को छाप कर कानून के शिकंजे से बच निकलने वाले इन धनपतियों पर आखिर किस तरह लगाम कसी जा सकेगी ।
कब नज़र में आएगी , बेदाग सब्ज़े बहार
खून के धब्बे धुलेंगे ,कितनी बरसातों के बाद ।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

चुनावी मौसम में तांत्रिकों की पौ बारह

चुनावी साल में तांत्रिकों की पूछ - परख एकाएक बढ गई है । नवरात्रि में इस मर्तबा मध्य प्रदेश के कई नामी गिरामी तांत्रिकों से लेकर छोटे -मोटे गुनिया -ओझा तक सभी ने खूब चांदी काटी । प्रदेश में नवम्बर -दिसम्बर के दौरान होने वाले चुनावों के मद्देनज़र मतदाताओं को रिझाने से पहले नेता तांत्रिक क्रियाओं के ज़रिए चाक चौबंद हो जाना चाहते हैं । कोई शव साधना कर विरोधी को पटखनी देने की जुगत लगा रहा है ,तो कुछ नेता मां बगुलामुखी की आराधना में लीन होकर अपनी कुर्सी बचाना चाहते हैं ।

मतदाताओं के दिमाग फ़ेरने का ठेका तंत्र साधकों को सौंपकर नेता निश्चिंत हो गये हैं । लगता है सारा देश चंद ओझा मिलकर चला लेंगे । केन्द्र की सरकार बचाने से लेकर सरकार बनाने और सत्ता सुख हासिल करने के लिए तंत्र का इस्तेमाल इतने बडे पैमाने पर करने के बारे में पहले कभी पढा - सुना नहीं गया । उमा भारती जैसी धुरंधर नेता को कुछ वक्त पहले एक न्यूज़ चैनल पर कहते सुना कि उन्हें रास्ते से हटाने के लिए तंत्र की मदद ली जा रही है । हाल ही में जेल से चुनाव जीत कर पार्टी को बगावती तेवर दिखाने वाले एक नवोदित नेता की सूबे का मुखिया बनने की ख्वाहिश ने ऎसा ज़ोर मारा कि उन्हें भी कम समय में ज़्यादा पाने की चाहत ने इंस्टेंट मैगी नूडल फ़ार्मूला यानी तंत्र साधना की शरण में जाने के लिए मजबूर कर ही दिया ।

हम तो डूबेंगे सनम तुम को भी ले डूबेंगे की तर्ज़ पर राजनीतिक अखाडे के कई पहलवान अपने विरोधियों के तंबू उखाड फ़ेंकने पर आमादा हैं । कई महानुभाव तो ऎसे हैं जो खुद की जीत से ज़्यादा प्रतिद्वंद्वी की हार के लिए महाकाल और पीताम्बरा शक्तिपीठों में अपनी अर्ज़ी लगा चुके हैं । हालात यही रहे तो वो दिन भी दूर नहीं जब पर्यटन के नज़रिए से पिछडे माने जाने वाले इस प्रदेश को तंत्र पर्यटन केलिए देश विदेश में पहचाना जाए ।

महाकाल की नगरी उज्जैन ,दतिया का पीताम्बरा शक्तिपीठ ,नलखॆडा का द्वापर कालीन बगुलामुखी मंदिर ,मैहर का शारदापीठ आदि को पर्यटन मानचित्र पर नई पहचान दिलाकर पर्यटन विकास निगम को घाटे से उबारने की कवायद में भी कोई बुराई नहीं है । मेरी राय में राजस्थान राजे रजवाडों , केरल आयुर्वेदिक चिकित्सा और गोवा अपनी पुर्तगी पहचान के कारण सैलानियों को लुभा सकता है तो पराभौतिक विद्या के ज़रिए पर्यटकों को खींचने की कोशिश तो की ही जा सकती है ।

किरन है खाइफ़ [भयभीत ]

सियाही गालिब [शक्तिशाली ]

न जाने कब तीरगी कटेगी [अंधकार ]

न जाने कब रोशनी मिलेगी ।

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

रावण के बढे भाव ........ हे राम .... !

बधाई , दशानन के अनुयायियों को ।
रावण इन दिनों डिमांड में है । सुना है कैकसी के पुत्र और कुबेर के भाई , लंकापति की बाज़ार में खासी मांग है । शेयर बाज़ार निवेशकों को चाहे जितना रुला रहा हो , स्टाक एक्सचेंज के धन कुबेर भले ही कंगाल हो चुके हों लेकिन समाचार पत्रों की मानें तो रावण के भाव आसमान छू रहे हैं । रामलीला में राम पर लंकेश भारी पड रहे है । राम का किरदार निभाने वालों की भारी तादाद के कारण मर्यादा पुरुषोत्तम का मार्केट रेट नीचे आ गया है ।ये और बात है कि देश में ईमानदार चिराग लेकर ढूंढने से ही मिलें । खबर है कि रावण का किरदार निभाने वाले कलाकार बीस हज़ार रुपए में भी नहीं मिल रहे ।
रावण का बढता कद अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया की सुर्खियां बटोर रहा है । भोपाल के नामी गिरामी मठाधीश रावण की मार्केटिंग कर लोगों को पुतला फ़ूंक जलसे में खींचने की जुगाड में लगे हैं । लंकाधिपति रावण की पैकेजिंग से लेकर उसके दहन से निकलने वाले आतिशी शोलों तक की पत्रकारों की जमात को एक्सक्लूसिव खबर मुहैया कराई जा रही है ।
कहीं पचपन फ़ुटा रावण भीड जुटाएगा , कहीं अस्सी फ़ुटे दशानन का दहन आयोजन की सफ़लता की गारंटी बनेगा , तो कहीं उसकी आंखों और भेजे से निकलने वाली आतिशबाज़ी मजमा लगायेगी । होर्डिंग और लुभावने इश्तेहारों के ज़रिए भीड का रुख अपनी ओर खींचने की कवायद की जा रही है । अपने -अपने खेमे , अपना - अपना रावण । कहीं बेशकीमती ज़मीन पर हाथ साफ़ करने की मंशा है , तो कहीं विजयादशमी के बहाने राजनीति चमकाने की कोशिश ।
वैसे तो विजयादशमी बुराई पर अच्छाई और असत्य पर सत्य की जीत के तौर पर देखा जाता है ,लेकिन हर तरफ़ धूम तो रावण की ही है । इस जलसे की सालाना रस्म अदायगी के बाद हम इस खुशफ़हमी में जीते हैं कि पुतला फ़ूंकते ही बुराइयां काफ़ूर हो गईं ।
समाज में रावण की बढती हैसियत कई कैफ़ियत चाहती है । क्या रावण की लोकप्रियता सामाजिक मूल्यों के बदलाव का इशारा है .....? हाल ही में इस मुद्दे पर बहस के दौरान एक नए नज़रिए या यूं कहें , फ़लसफ़े ने चौंका दिया । लोग अब मानने लगे हैं किस अच्छाई की अपनी कोई हैसियत ही नहीं । मेहरबानी बुराई की कि उसकी वजह से आज भी अच्छाई सांसे ले पा रही है । कहा तो यहां तक जाने लगा है कि राम का वजूद ही रावण से है । एक बडा तबका ऎसा भी तैयार हो चुका है , जो मानता है कि रावण के एक अवगुण को रेखांकित करके समाज में राम को मर्यादा पुरु्षोत्तम के तौर पर प्रतिष्ठित कर दिया गया ।
चिंता इस बात की भी है कि रावण की पापुलरिटी समाज का बुनियादी ढांचा ही तहस - नहस ना कर दे .... ? दाउद , अबु सलेम , राज ठाकरे ,अमर सिंह , राखी सावंत , मोनिका बेदी जैसे किरदार यक ब यक कामयाबी की पायदान चढते हुए समाज के रहनुमा बनते नज़र आते हैं । ज़हीन तबका गाल बजाता है और पुराणों की बातों को मानते हुए इस उम्मीद पर ज़िंदा है कि कलि के पापों से निजात दिलाने के लिए जल्दी ही कल्कि का अवतरण होगा । बहरहाल फ़िलहाल तो आलम ये है ..........
गलत कामों का अब माहौल आदी हो गया शायद
किसी भी बात पर कोई हंगामा नहीं होता ।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

शायरी का सफ़र - फ़क्कड मिजाज़ , अलमस्त अंदाज़


भोपाल की शुरु से ही इल्म - अदब और शायरी के मैदानों मे खास हैसियत रही है । इस शहर ने कई बडे शायर पैदा किए और उर्दू शायरी की दुनिया में अपना अलग मकाम बनाया । यही वजह है कि भोपाल की शायरी को लखनऊ और दिल्ली की शायरी से बेहतर माना जाता है ।
" शहरे गज़ल " के नाम से मशाहूर इस शहर को शायरी से ही पहचाना गया । यहां शायरी का दौर गज़ल से ही शुरु हुआ । दरअसल भोपाल में कसीदा , मसनवी और मर्सिया वगैरह का रिवाज़ कभी रहा ही नहीं । भोपाल की मिट्टी से पैदा हुए मशहूर शायर सिराज मीर खां सहर भी गज़ल से ही पहचाने गयॆ । उनकी गज़ल का शेर - सीने में दिल है , दिल में दाग ;दाग में सोज़ो-साज़े इश्क ।पर्दा ब पर्दा निहां,पर्दानशीं का राज़े इश्क । पूरे देश में भोपाल की पहली शिनाख्त था ।
खैर भोपाल की शायरी पर तफ़सील स्र चर्चा फ़िर कभी । मरहूम अख्तर सईद खां कहा करते थे कि इस शहर का मिजाज़ और मौसम ही कुछ ऎसा है जो यहां आया वो यहीं का होकर रह गया । फ़िर गज़ल की परवरिश के लिए जिस शोले की तपिश और शबनम की ठन्डक चाहिए वो यहां के खुशगवार मौसम में भी मौजूद है । मौसम की कैफ़ियत कुछ ऎसी थी कि ना ज़्यादा गर्मी ,ना ज़्यादा सर्दी और शहर के बाशिंदों के मिजाज़ में भी मौसम की यही रुमानियत घुलमिल गयी ।
शायरों से जुडा एक दिलचस्प किस्सा भी उस दौर के भोपाल की खुशमिजाज़ तबियत की दास्तान बयां करता है । शहर के उर्दू अदब का कारवां अल्लामा इकबाल और जिगर मुरादाबादी के ज़िक्र के बगैर अधूरा है । जिगर साहब कुछ फ़क्कड और अलमस्त तबियत के शख्स थे । जिगर साह्ब का मानना था कि बेहतर शायर होने के लिए अच्छा इंसान होना ज़रुरी है । १९२८ - २९ में वो पहली मर्तबा हामिद सईद खां के बुलावे पर भोपाल आए और फ़िर तो वो अक्सर आने लगे । उसी दौर में फ़क्कड शायरों का एक अनोखा क्लब बना नाम रखा गया - दारुल काहिला
मज़े की बात ये थी कि चुनिदा शायरों की इस जमात ने क्लब के मेम्बरान के लिए कुछ कास किस्म के कायदे तय किए थे । मसलन - सबसे ज़रुरी शर्त तो ये कि हरेक सदस्य को अपना तकिया साथ लेकर आना होगा । नियमों में एक ये भी था कि लेटा हुआ बैठे हुए को ,बैठा हुआ खडे हुए को और खडा हुआ चलते हुए को हुक्म दे सकता था । इसका नतीजा ये हुआ कि काहिला क्लब का हरेक सदस्य लेटकर ही क्लब में दाखिल होने लगा ताकि उसे किसी का हुक्म बजाने की नौबत ही ना आ सके ।
और आखिर में जिगर साहब का ही इक शेर -
साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया ,
लहरों पे खेलता हुआ , लहरा के पी गया ।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

रहम नज़र करो अब मोरे सांईं

कल अचानक नए युग की एक धार्मिक पुस्तक हाथ लगी । कालोनी की किटियों { किटी पार्टी की मेम्बरान } के नए शगल का पता चला । मोहल्ले भर के बच्चों को दक्शिणा के तौर पर सांई बाबा के चमत्कारिक व्रत की पुस्तक बांटी गई । इस किताब में सांई बाबा के जीवन चरेत्र के बारे मॆं आगे से पीछे तक कुछ भी नहीं दिया । हां ये ज़रुर कहा गया है कि कोकिला बहन नौ गुरुवार व्रत रखकर अपने बिगडैल पति को रास्ते पर लाने में कामयाब हुई । पुस्तक मेंदी गई बातों पर यकीन करें तो ट्रांस्फ़र रुकवाने , नौकरी लगवाने और बिना पढे अच्छे नम्बरों से परीख्शा पास करने के लिए किसी छुटभैए नेता का दामन थामने की बजाय व्रत रखकर उद्यापन करं ,खासतौर पर इस बात का ध्यान रखें कि दान ज़रुर दें और इसके लिए सांई चरित्र की ५ , ११ और २१ पुस्तकें विशेष रुप से रिकमंड की गई हैं ।
भक्ति का ये गणित भी बडा निराला है । पहले एक पोस्टकार्ड डाक से आता था ,जिसमें लिखा होता था कि पढने वाले ने ऎसे ११ कार्ड नहीं डाले ,तो उस पर भगवान का कोप होगा । फ़िर आया ज़माना प्रीटिंग का ,सो आस्थावानों को डराकर भक्ति के मार्ग पर ठेलने के लिए पर्चों का सहारा लिया गया । सुबह -सुबह आने वाले अखबार के साथ चुपके से घर में आकर लोगों को धमकाने लगे पेमफ़लेट । जो बताते थे कि फ़लां ने इतने छपवाए , तो बंगला , गाडी , धन संपत्ति से लेकर इहलोक के सभी सुख पाए और अलां ने पर्चा फ़ाड कर फ़ेंक दिया तो अला ,बला बीमारी ,दुख ,पीडा ने उसे चुटकियों में घेर लिया । यानी पर्चा ना हुआ साक्षात शिवशंकर हो गए जो प्रसन्न हुए तो स्वर्ग का राजपाट यानी इंद्रलोक भी पल भर में आपका , वर्ना रुद्रदेव की तीसरी आंख खुलते ही सब कुछ स्वाहा ।
कौन कहता है कि ब्रहमा ही सृष्टि के रचयिता हैं । सृजन के मामले में भारतीय दिमाग किसी चतुरानन से कमतर नहीं । इसी उर्वरक दिमाग की उपज है - माता संतोषी । खट्टॆ से परहेज़ करने वाली इन देवीजी की एक दौर में बडी धूम थी । शोले की नामी गिरामी फ़िल्मी हस्तियों से बाज़ी मार कर संतोषी मां ने भक्तों को ये बता दिया कि भगवत सत्ता को चुनौती देना ठीक नहीं ,फ़िर चाहे वो देवी काल्पनिक ही क्यों ना हो ।
वक्त बदला ,भक्त बदले ,ज़रुरत बदली , तो भगवत सत्ता में तब्दीली आना भी लाज़मी हो गया । अब सत्ता की बागडोर संभाली वैभव लक्षमी ने । लोग मालामाल हुए या नही , मगर पुस्तक छापने वाले की समद्धि को लेकर मन में कोई शको शुबह नहीं है । हे देवी मां जैसे उस प्रकाशक के दिन फ़िरे ऎसे सबके फ़िरें ।
समय ने एक बार फ़िर करवट ली है और इलेक्ट्रानिक युग में सांई बाबा के चमत्कार योजनाबद्ध रुप से समाचार बुलेटिन की सुर्खियों में जगह पाने लगे हैं । ऎसे में निस्वार्थ भाव से मानव सेवा में
लगे लोग जीवन के कष्टों से निजात पाने का सीधा ,सस्ता और सरल उपाय ढूंढ लाते हैं ,तो इसमें हर्ज़ ही क्या है ..? मन करता है कि शनि महाराज को पटखनी देने के लिए मैं भी कोई नए देवता को भारत की पावन भूमि पर अवतरित कर ही दूं ।
{ टीका - इस पोस्ट को पढने के बाद कम से कम १०१ लोगों को पढाएं ,तो शेयर बाज़ार वारेन बफ़ेट की तरह आप पर भी मेहरबान होगा , इसे पढकर नज़रंदाज़ करने वालों ....... सावधान ...। }










बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

बेतकल्लुफ़ी का शहर

भोपाल शायद देश का ऎसा इकलौता शहर होगा , जिसकी ढेरो लेकिन परस्पर विरोधी छवियां एक साथ उभरती हैं । पटिएबाज़ों का ये शहर अपनी लतीफ़ेबाज़ी और बतोलेबाज़ी के लिए भी हमेशा चर्चा में रहा है । आज भी ठेठ भोपाली अपने बातूनीपन के लिए ही जाना जाता है । अरे खां मियां -हमारा नाम सूरमा भोपाली ऎसे ही थोडे ही है ।
भोपाल फ़िरकापरस्तों की नहीं , फ़िकरापरस्तों की नगरी है । फ़िकरापरस्ती यानी बेवजह की बातों पर बतियाना ,वाणी विलासिता । फ़िकराकशी में भोपालियों का कोई सानी नहीं । बेलौस तरीके से अपनी बात कहने का भोपा्ली अंदाज़ निराला है । लोगों के बातूनी मिजाज़ के पीछे फ़ुर्सत और बेफ़िक्री की वो संस्क्रति है , जो मुस्लिम शासनकाल में उपजी, पली और परवान चढी । पर्दा ,गर्दा , ज़र्दा और नामर्दा के लिए मशहूर इस शहर को आज भले ही गैस त्रासदी के लिए पहचाना जाने लगा हो ,लेकिन अपने हर अनूठे अंदाज़ की भोपाली पहचान यहां की झीलों की तरह कभी सूख नहीं सकती । झील धीरे - धीरे सिमट रही है , भोपाल की तस्वीर बदल रही है , लोगों के मिजाज़ बदल रहे हैं , लेकिन उम्मीद करना चाहिए कि शहर का पाक - साफ़ मिजाज़ सदियों तक यूं ही बरकरार रहेगा ....।
आमीन ........... ।

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

गरबा बनाम आस्था का बाज़ार


आज से नवरात्र शुरु हो गये । शक्ति की आराधना का पर्व रफ़्ता -रफ़्ता पूरी तरह बाज़ार की गिरफ़्त में आ चुका है । महीनों पहले से गरबा क्लास में पसीना बहा रहे युवाओं की इंतज़ार की घडियां आखिर अब जा कर खत्म हुईं । महानगरों और छोटे -बडे शहरों को लांघते हुए गरबे का क्रेज़ अब कस्बे के किशोरों और युवाओं को भी दीवाना बना रहा है ।
दुर्गा पूजा पर अब बाज़ार का रंग पूरी चढ चुका है । विशालकाय पूजा पंडालों में देवी मां की प्रतिमा नहीं झांकी की साज सज्जा को खास तरजीह दी जाती है । पंडालों में हर जगह कंपनियों के बैनर ,पोस्टर और स्टाल कुछ इस तरह सजे होते हैं कि लोग का मन दुर्गा मां की भक्ति में की बजाय आधुनिक सुख -सुविधाओं को हासिल करने के सपने बुनने में लग जाता है ।
खबरिया चैनलों के ज़रिए तैयार किए गए भक्तों के सैलाब को घेर कर पूजा पंडालों तक लाने का टारगेट तो अब पूरा हो चुका है । इस लिए कार्पोरेट जगत ने आस्था के बढते बाज़ार को हथियाने के लिये नवरात्र पर्व को अपनी गिरफ़्त में लेने के लिए कमर कस ली है । हफ़्तों से गरबे के लिए चनिया -चोली और मैचिंग के गहनों को हासिल करने की होड के समाचार ना सिर्फ़ न्यूज़ चैनल बल्कि अखबारों में भी खूब जगह पा रहे हैं । और पाएं भी क्यों नहीं , आखिर हर मीडिया घराना किसी न किसी रुप में इस उभरते बाज़ार का हिस्सेदार जो ठहरा ...।
लोगों का शक्ति की उपासना में डूब जाना शुभ संकेत है । आस्थावान होना , परम सत्ता में विश्वास करना किसी के लिए भी चिंता का सबब बने , ऎसी तो कोई वजह नज़र नहीं आती , मगर ज़रा सा गौर करने पर हालाते हाज़रा खुद ब खुद हकीकत बयान करने लगते हैं । आंकडों की ज़बानी आस्था की कहानी जब बयान होती है , तो समझते देर नहीं लगती कि दुर्गा पूजा तो इक बहाना है , दरअसल आपको हर हाल में बाज़ार तक लाना है ।

गरबा जो गुजरात की संस्क्रति का प्रतीक है ,वह व्यावसायिकता के जंजाल में उलझ कर अपने मूल स्वरुप को ही खोता जा रहा है । कभी देवी जगदम्बा को प्रसन्न करने के लिए गरबा किया जाता था ,लेकिन अब इसका आध्यात्मिक त्तत्व पूरी तरह नदारद हो चुका है । आराधना और भक्ति की जगह ले ली है फ़ूहडता ने । गरबा के ज़रिए अब मां अम्बा के चरणों में जगह पाने की इच्छा तो शायद ही किसी सिरफ़िरे की हो ,ज़्यादातर युवाओं के लिए ये मीटिंग पाइंट से अधिक नहीं है । नवरात्र युवाओं के लिए ऎसा मौका बन चुका है जो उन्हें देर रात तक बेरोकटॊक आज़ादी देता है । कई लोगों के लिए ये प्रेमालाप के ठिकाने हैं तो कुछ ने गरबे की धूम को अय्याशी का अड्डा समझ लिया है । हो भी क्यों नहीं ,साल के ३६५ दिनों में से ये ९ दिन ही तो हैं जब मां-बाप खुद बच्चो गरबा खेलने की आज़ादी देते हैं । आधुनिकता की दौड में पिछड जाने का डर जो ना कराए सो कम .........., आखिर अभिभावकों की भी मजबूरी है ..........?

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

शर्म हमको मगर नहीं आती




मध्य प्रदेश की सेहत इन दिनों काफ़ी खराब है इतनी ज़्यादा कि नौनिहालों का पेट भी नहीं भर पा रहा मज़बूत भविष्य का भरोसा दिला कर एक बार फ़िर सत्ता पर कब्ज़ा जमाने की जुगाड में लगी बीजेपी कार्यकर्ता महाकुंभ के ज़रिए शक्ति प्रदर्शन में लगी है वहीं दूसरे राजनीतिक दल बयानबाज़ी में मशगूल हैं



प्रदेश के सतना , छिंदवाडा , ग्वालियर ,इंदौर , धार और झाबुआ ज़िले में हालात बेकाबू हो चुके हैं पोषण आहार के अभाव में बच्चे कुपोषण का शिकार हो कर असमय ही मौत के आगोश में समा रहे हैं बच्चों को स्वस्थ रखना तो दूर सरकार इन कुपोषित बच्चों के इलाज का इंतज़ाम करने में भी नाकाम रही है

प्रदेश में बाल कल्याण और स्वास्थय सेवाओं का हाल इस कदर बिगड चुका है कि ऎन राजधानी में सरकार की नाक के नीचे ४० कुपोषित बच्चों को स्टाफ़ की कमी का रोना रोकर हमीदिया अस्पताल में दाखिल करने से इंकार कर दिया गया जब राजधानी के सूरते हाल इस कदर बिगड गये हैं तो दूर -दराज़ के इलाकों के हालात का अंदाज़ा लगा पाना कोई मुश्किल काम नहीं

इससे भी ज़्यादा गंभीर बात ये है कि सरकार ये मानने को तैयार ही नहीं कि कोई बच्चा कुपोषण का शिकार बना है अपनी खामियों पर पर्दा डालने में जुटे मंत्री इसे मौसमी बीमारी का नाम देकर अपना पल्ला झाड्ने की कोशिश में लगे है बेशर्मी की हद तो तब हो गई , जब एक मंत्री ने सतना में ४० और खंडवा में ५३ बच्चों की मौत को वायरल फ़ीवर और उल्टी - दस्त का मामला बता कर सरकार के नाकारापन को उजागर कर दिया


गरीबों की हितैषी होने का दम भरने वाली सरकार ने बच्चों की जान बचाने के लिए कोई कदम उठाने की बजाय मामले की लीपापोती की कवायद शुरु कर दी है अफ़सोसनाक है कि अपनी नाकामी छुपाने के लिए जनता के नुमाइंदों ने गरीब आदिवासियों को अंधविश्वासी बताने से भी गुरेज़ नहीं किया मंत्री जी ने राजधानी में पत्रकारों का मजमा जुटाकर फ़रमाया कि खंडवा के खालवा ब्लाक के कोरकू और सतना के कोल जनजाति के लोग इलाज के लिए आज भी झाड -फ़ूंक का सहारा लेते हैं और ये ही बच्चों की मौत की असली वजह है


ये तथ्य भी कम हैरान करने वाला नहीं कि किसी पत्रकार ने आखिर मंत्रीजी से ये जानने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई कि बुढा चुके देश में यदि अंधविश्वास की जडें मज़बूत बनी हुई हैं , तो जवाबदेही किसकी बनती है ...? किसी खबरनवीस ने ये सवाल खडा क्यों नहीं किया कि आखिर वो आंकडे कहां हैं जो मंत्रीजी के बयान को सही ठहरा सकें मौसमी बुखार हाल के दिनों में प्रदेश में इस हद तक जानलेवा कब और कैसे हुआ और सरकार अंजान ही रही ...? ऎसे मुद्दे जब भी सामने आते हैं ,सरकार के साथ -साथ पत्रकारों की भूंमिका भी संदेह के दायरे में जाती है सरकारी कामकाज पर नकेल कसने वाला तबका ही उसके साथ गलबहियां करने लगे तो इसे क्या नाम दें ?

रविवार, 21 सितंबर 2008

बाज़ार का गणित



तेज़ी से सफ़लता की पायदान लांघने का दावा करने वाला भोपाल का एक अखबार यूं तो हमेशा ही चर्चा में बना रहता है ,लेकिन इन दिनों एक खास तरह की खबर के लिए बहस का सबब बना हुआ है । भारतीय परंपराओं और शास्त्रों की नई व्याख्या के ज़रिए लोगों को बाज़ार की राह पकडने के लिए उकसाने के लिए अखबार ने पत्रकारिता के सभी मानदंडों को ताक पर
रख
दिया । उपभोक्तावाद
की तेज़ी से फ़ैलती पश्चिमी जीवन शैली को भारतीय जामा पहनाने के लिए अखबार ने पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों का भी जमकर मखौल उडाया है । देश में अखबार , रेडियो और विद्वानों के मत पर आज भी लोगों का पूरा भरोसा है । ऎसे लोगों की देश में कोई कमी नहीं है ,जो अखबार और ज्योतिष विद्वानों की कही बातों को ब्रह्म वाक्य से कम नहीं मानते हैं ।

कुछ दशक पहले तक बच्चे साइंस की किताब में पढते थे कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है लेकिन बदले दौर में ये जुमला उलट गया है । बाज़ार सामान से अटा पडा है और संचार माध्यमों ने उपभोक्ताओं को बाज़ार की ओर ठेलने का ज़िम्मा सम्हाल लिया है । सामाजिक सरोकारों से दूर हो चुकी पत्रकारिता बाज़ार के हाथॊ का खिलौना बन कर रह गई है । बाज़ार का अर्थशास्त्र लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के हर फ़ैसले में घुसपैठ कर चुका है ।

खैर , बात हो रही थी भरोसे की । तो आज सामाजिक सरोकारों से जुडी एक संस्था " दृष्टि " ने भोपाल में विचार गोष्ठी का आयोजन किया जिसके केन्द्र में था वो खबरनुमा इश्तेहार जो श्राद्ध
पक्ष में खरीददारी को शास्त्र सम्मत बताते हुए १६ दिनों में हर रोज़ अलग -अलग सामान खरीदने के शुभ मुहूर्त की जानकारी से भरा था ।


मज़े की बात ये है कि समाचार में जिन ज्योतिषाचार्य का हवाला दिया गया था वो ही कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे और जो खुलासा उन्होंने किया वह काफ़ी चौंकाने वाला था । उन्होंने दावा किया कि अखबार में उनके हवाले से छापी गई जानकारी का कोई आधार ही नहीं है ,क्योंकि समाचार पत्र ने इस बारे में उनसे कोई बात ही नहीं की । उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि वे पितृ पक्ष में खरीददारी के हिमायती कतई नहीं है ।

सवाल ये है कि समाचार पत्र अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहा वहां तक तो फ़िर भी माना जा सकता है कि व्यावसायिक मजबूरियां कई बार ऎसा करा देती हैं । पितृ पक्ष की परंपराओं को उचित ठहराना या उनको व्यवहार में लाना एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है , लेकिन किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के नाम का इस्तेमाल कर समाज में भ्रामक प्रचार करना कहां तक जायज़ है ? चिंता इस बात की भी है कि बाज़ार का गुणा - भाग कहीं लोगों की ज़िंदगी का गणित ना बिगाड दे ...।

शनिवार, 20 सितंबर 2008

शायद कोई मंज़र बदले




आतंकवादियों के साथ दिलेरी से मुकाबला करते हुए शहीद हुए मोहनचंद्र शर्मा का पार्थिव शरीर आज पंचतत्व में विलीन हो गया दिल्ली पुलिस के इस जांबाज़ की चिता की आग तो एक - दो दिन में शांत हो जाएगी लेकिन ये शहादत अपने पीछे कई सुलगते सवालात भी छोड गई है मीडिया में आज दिन भर श्री शर्मा की बहादुरी की खूब चर्चा रही ,लेकिन इस घटना ने मन में अजीब सी चुभन भी भर दी कि आखिर ये कुर्बानियां किसके लिए .....? क्यों दी जाएं ...?और आखिर कब तक ....?

मेरे एक मित्र इस मौके पर सेना में शामिल होकर दॆश के लिए अपनी सेवाएं नहीं दे पाने का अफ़सोस ज़ाहिर कर रहे थे देश के प्रति कुछ कर गुज़रने का ये जज़्बा काबिले तारीफ़ तो है लेकिन प्रश्न ये उठता है कि उद्योगपतियों और अधिकारियों की मदद से देश के खज़ाने को लूटकर अपनी तिजोरियां भरने वाले मदहोश नेताओं की स्वार्थ पूर्ति के लिए जान देने के क्या मायने ...?

देश में वोट बैंक को कब्ज़ाने की राजनीति इस हद तक पहुंच चुकी है कि लालू -मुलायम -पासवान जैसे नेता अल्पसंख्यकों को बरगला कर देश की सुरक्शा को भी दांव पर लगाने से नहीं चूक रहे देश के लगभग सभी हिस्सों में आज आम जनता का खून सड्कों पर पानी की तरह बह रहा है और सभी राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को मज़बूत करने के गुणा भाग में लगे हैं

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पदक लेने पहुंची सेना के एक शहीद अधिकारी की पत्नी का करुण विलाप ह्र्दय को छलनी कर गया देश के लिए जान देने वाले बहादुर जवानों के परिजनों पर क्या गुज़रती होगी , जब वे उन्के परिवर के सदस्यों की कुर्बानी को यूं ही ज़ाया होते देखते होंगे

सीमापार से रहे आतंकवाद का नाम ले- लेकर पाकिस्तान को कोसने वाले नेताओं का देश की आंतरिक सुरक्शा पर हो रहे सीधे हमलों की तरफ़ से आंखें मूंद लेना खौफ़ज़दा करता है आंकडे बताते हैं कि सीमा की हिफ़ाज़त के लिए अब तक जितने जवान शाहीद हुए हैं ,उससे कई गुना ज़्यादा देश के भीतर हो रहे आतंकवादी हमलों में आम लोग और सेना तथा पुलिस के जवानों की जानें गई हैं

देश के मौजूदा हालात ऎसे हो चुके हैं कि आपस में लड रहे इन नेताओं से किसी तरह की उम्मीद लगाने से बेहतर है कि प्रजातत्र के सूत्रधार यानी आम जनता को आगे आना होगा

दो चार कदम हर रस्ता,पहले मुश्किल लगता है ,
शायद कोई मंज़र बदले , कुछ दूर तो चल कर देखें

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

मैं टल्ली हो गई ...


और अब इंसानों के बाद मयखाने की राह पकडी है तितलियॊं ने , चंडीगढ की अमीर घरों की शहज़ादियों से सबक लेकर अब भोपाल की रंगबिरंगी तितलियों ने भी टल्ली होने की ठान ली है । और उनके इस शौक को पूरा करने का ज़िम्मा सम्हाला है वन विभाग ने ।
वन विहार में इन दिनों तितलियों को रिझाने के लिए शराब का सहारा लिया जा रहा है । तितलियों की तादाद बढाने के लिये किए जा रहे इस प्रयोग में रम के साथ केले और शहद का भी इस्तेमाल किया जा रहा है । प्रबंधन का कहना है कि प्रयोग के उत्साह्जनक नतीजे आने की उम्मीद है ।
लेकिन तितलियों की ब्रीडिंग्के लिए अपनाई जा रही इस अप्राक्रतिक तरीके ने कुछ बातों पर एक बार फ़िर से गौर करने की ओर इशारा भी किया है । नेचर के साथ खिलवाड के कारण पैदा हुई समस्याओं का समाधान भी अगर हम इसी तरह तात्कालिक तौर पर ही ढूंढ्ते रहे , तो ये छोटी समस्याएं एक दिन विकराल रुप लेकर हमारे सामने खडी होंगी ।
विश्व भर में पशु- पख्हियों की प्रजातियां बडी तेज़ी से खत्म होती जा रही हैं । बर्ड लाइफ़ इंटरनेशनल के मुताबिक पक्शियों की प्रजातियों का १२ प्रतिशात हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा ,यानी करीब १२१२ प्रजातियॊं के सर पर खतरा मंडरा रहा है । धरती पर जीवन को कायम रखने में योगदान देने वाले जीव -जंन्तुओं की सारी प्रजातियां जीवन चक्र की महत्वपूर्ण कडियां हैं । इस जंज़ीर की कोई एक कडी भी बीच से टूट जाए तो एक तरह से पूरी चेन बेकार हो जाती है । एक प्रजाति के विलुप्त होने से बहुत सी दूसरी प्रजातियां सीधे तौर पर प्रभावित होती हैं ।
विश्व में कई जगहों पर खास किस्म के पक्शियों के विलुप्त होने से बागवानी पर असर पडा है । पेडों और जंगल के सफ़ाए से चिडियां ,कीट - पतंगों और मधुमक्खियों का अस्तित्व ही खतरे में पड गया है ।
वर्ष १९९७ में भारत में गिद्धों की जनसंख्या में भारी कमी हो गई ,जिससे मरे हुए जानवरों को खा कर सफ़ाई करने के काम में हो रही देरी का फ़ायदा आवारा कुत्तों ने जम कर उठाया । नतीजतन कुत्तों और चूहों की तादाद बेतहाशा बढने लगी । पर्यावरण पर काम कर रही वाशिंगटन की संस्था वर्ल्ड वाच के अनुसार भारत में बौराए कुत्तों के शिकार लोगों की संख्या तेज़ी से बढ रही है ।
ये चेतावनी है ,हम सबके लिए कि प्रक्र्ति से छेड्छाड किसी भी कीमत पर जायज़ नहीं । वरना सडकों पर झूमती तितलियां गाती नज़र आयेंगी ....मैं टल्ली हो गई ।