मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

देश को ’राम’ नहीं रोटी चाहिए.......

लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर राम मुद्दे को हवा दी है नागपुर में राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर बनाने का शिगूफ़ा छोड कर मतदाताओं की नब्ज़ टटोलने की कोशिश की है । " कोई माँ का लाल भगवान राम में हमारी आस्था और निष्ठा को डिगा नहीं सकता "
राजनाथ सिंह ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार पर निशाना साधा कि पिछले पांच सालों में केंद्र सरकार ने राम जन्मभूमि विवाद सुलझाने के लिए पाँच मिनट का समय भी नहीं दिया । राजनाथ सिंह ने बडी ही चतुराई भरी चाल चली है । शब्दों पर गौर करें तो लगेगा कि उन्होंने काफ़ी सफ़ाई से मतदाताओं को भरमाने की कोशिश की है । बकौल राजनाथ "जिस दिन भाजपा को अपने बलबूते बहुमत मिलेगा, पार्टी इस मुद्दे पर एक क़ानून लाएगी ।" यानी ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी ।

मंदी की मार से बेहाल लोगों को रोज़गार के लाले पडे हैं और बीजेपी को कुर्सी की चाहत में राम याद आने लगे हैं । लोगों के मुंह से निवाले छिन रहे हैं और देश की दूसरी सबसे बडी पार्टी भव्य राम मंदिर बनाने का सपना जनता की आंखों में भर रही है । गरीब की दो वक्त की रोटी का जुगाड नहीं है और धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं को अपनी झोली में समेटने की जुगत भिडाई जा रही है । सही मायनों में इस देश को राम की नहीं रोज़ी की दरकार है ,रोटी की ज़रुरत है -"भूखे भजन ना होवे गोपाला , ये ले तेरी कंठी - माला ।" भूखे पेट राम नहीं रोटी याद आती है । गरीब के लिए ’राम’ रोटी में बसते हैं । अगर लोगों को रोटी देने का प्रबंध कर दिया जाए , तो भी बीजेपी को ’राम’ मिल ही जाएंगे ।

गौरतलब है कि 1998 में भारतीय जनता पार्टी ने जब केंद्र में अन्य पार्टियों के सहयोग से सरकार बनाई थी, उस समय उसने अयोध्या, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और समान आचार संहिता जैसे विवादित मुद्दों को दरकिनार कर दिया था । लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी ने एक बार फिर राम मुद्दे पर बयान देना शुरू किया है । राम मंदिर के निर्माण का मामला विवादास्पद रहा है और हर बार चुनावों के समय विवाद गहरा जाता है । दिलचस्प बात है कि अयोध्या के ज़्यादातर मतदाताओं की नज़र में चुनाव का मुख्य मुद्दा 'विकास' है, न कि 'मंदिर निर्माण' । राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि दरअसल अयोध्या का आम आदमी मंदिर मुद्दे से कभी जुड़ ही नहीं पाया ।

अयोध्या के साधु-संतों ने भी भाजपा नेताओं को जमकर लताडा है । वे मानते हैं कि चुनाव के वक्त भाजपा को राम मंदिर याद आने लगता है । लेकिन सत्ता में आने के बाद मंदिर तो दूर राम भी याद नहीं रहते । हनुमान गढ़ी के महंत भवनाथ दास ने तो नागपुर में राम मंदिर की बात करने वालों को "वोटों का सौंदागर" तक करार दे डाला । गुस्साये महंत कहते हैं कि वोटों के लिए अब ये भगवान श्रीराम का भी सौदा करने निकले हैं। अब चुनाव आते ही भगवान राम के नाम पर राजनैतिक सौदेबाजी में जुट गए हैं। इन्हीं लोगों के कारण मंदिर निर्माण का मुद्दा हाशिए पर चला गया। सत्ता में थे तो अयोध्या झांकने तक नहीं आए। अब सत्ता की चाहत में मंदिर के नाम पर ठगने आ रहे हैं।

राम लहर पर सवार होकर केन्द्र की सत्ता में आ चुकी भारतीय जनता पार्टी को रह-रहकर सत्ता सुंदरी की याद सताने लगाती है । ऎसे में रह - रह कर याद आते हैं भगवान श्रीराम और उनका भव्य मंदिर । उत्तर प्रदेश में सबसे बुरी स्थिति में भाजपा ही है। जिसे देखते हुए संभवत: पार्टी ने एक बार फिर मंदिर का मुद्दा उठाया है। पर यह मुद्दा न राजनैतिक दलों को रास आ रहा है , न ही साधु-संतों और आम जनता को । राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास ने कहा-यह तो राजनैतिक बयान है। अयोध्या में राम का मंदिर तो है ही और पूजा भी हो रही है। भव्य राम मंदिर बनने की बात का अब कोई महत्व नहीं रह गया है। जब हिन्दू मानस जगेगा तो भव्य राम मंदिर का निर्माण हो ही जाएगा।

सरयू कुंज मंदिर के महंत युगल किशोर शरण शास्त्री ने कहा-राजनाथ सिंह का यह बयान भ्रमित करने वाला और धोखा देने वाला है। यह अदालत की अवमानना भी है। पार्टी असली मुद्दों बेरोजगारी, गरीबी और किसानों की उपजाऊ जमीन के अधिग्रहण को लेकर कभी आगे नहीं आती।

दूसरी ओर अयोध्या की हनुमान गढ़ी के महंत ज्ञान दास भावुक हो कर कहते हैं कि उन्हें ख़ून से सना नहीं , बल्कि दूध से बना मंदिर चाहिए । मंदिर आम राय से बने तभी उचित होगा । मुसलिम समुदाय की सहमति से निर्माण हो तभी भव्य मंदिर बन पाएगा। किसी को भी दुखी करके बनाए गए पूजा स्थल में ईश्वर का वास नहीं हो सकता ।

भाकपा बीजेपी के इस बयान में वोटों की सियासत देखती है । उसका कहना है कि इस पार्टी के पास देश के विकास का कोई माडल नहीं है । ये लोग अपने फ़ायदे के लिए राम का नाम बदनाम करने में जुटे हैं।

देश इस समय एक साथ कई तरह के संकटों से दो - चार हो रहा है । ऎसे वक्त में नई और व्यापक सोच की आवश्यकता है , जो ना केवल देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सके ,बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों में वैमनस्य की खाई को पाट सके । प्रजातंत्र की नींव को मज़बूत करने के लिए भ्रष्टाचार जैसी लाइलाज बीमारी का इलाज ढूंढना ज़रुरी है ।

लोगों का भरोसा न्यायपालिका ,कार्यपालिका और विधायिका से जिस तेज़ी से उठ रहा है ,ये भी बेहद चिंता का विषय है । इस विश्वास को दोबारा कायम करना चुनौती भरा और दुरुह काम है । राजनीतिक दलों की पहली चिंता देश हित होना चाहिए । देश के नागरिकों की खुशहाली , सुशासन और ईमानदार समाज पार्टियों का एजेंडा होना चाहिए । नेताओं को ये याद रखना होगा कि देश है तभी तक उनकी सियासत है ।

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

मध्यप्रदेश में बीजेपी की "कॉर्पोरेट सरकार"

किसानों , गरीबों और कर्मचारियों का हितैषी होने का दावा करने वाली बीजेपी क्या बदल रही है ? प्रमोद महाजन जिस कॉर्पोरेट कल्चर को अपनाने का सपना लिए रुखसत हो गये क्या भाजपा ने उसे पूरी तरह अंगीकार करने का मन बना लिया है ? चाल ,चरित्र और चेहरे की बात करने वाला राजनीतिक दल क्या अब "कॉर्पोरेट गुरुओं" के इशारों पर चलेगा ? मध्यप्रदेश के मंत्रियों की पचमढी में आयोजित "पाठशाला" की खबर बताती है कि जननायक अब सीईओ संस्कृति के रंग में रंगने को बेताब हैं ।

प्रबंधन गुरुओं और प्रशासकों ने मंत्रियों को बेहतर नेतृत्व और कामकाज की कमान अपने हाथ में रखने के गुर सिखाये हैं । उबासी लेते नेताओं को इस अफ़लातूनी कवायद से वाकई कुछ हासिल हो सकेगा ...? आम जनता के लिए पैसे की तंगी का दुखडा सुनाने वाली सरकार ने दो दिन के लिए पचमढी की शानदार ग्लेन व्यू होटल को स्कूल में बदल दिया । मगर बुनियादी सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में मंत्री सीईओ हो सकता है ,जो उन्हें कॉर्पोरेट सेक्टर का एक्सपोज़र दिया जाए ? पब कल्चर को पाश्चात्य बताकर आसमान सिर पर उठाने वाली पार्टी कॉर्पोरेट कल्चर अपनाने के लिए इतनी उत्साहित क्यों है ?

विभाग अध्यक्ष ,सचिव ,सलाहकार बगैरह के रुप में बहुत से प्रबंधक मंत्रियों के अधीन रहते हैं । मंत्री का दायित्व नीति निर्धारण का है । कुशल प्रशासक के तौर पर प्रख्यात एम. एन. बुच की राय में मंत्री का काम नीति निर्धारण के बाद उसके क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी लेना है । वास्तव में मंत्रियों को सिर्फ़ यही पाठ पढाने की ज़रुरत है । नेतृत्व की कला मंत्री बखूबी जानते हैं । ये सभी राजनीति की रेलमपेल में टिकट लेने से लेकर चुनाव जीतने तक हर दांवपेंच आज़मा चुके हैं । केबिनेट में दाखिला पाना भी बच्चों का खेल नहीं ....। गलाकाट स्पर्धा में अव्वल नंबर हासिल करने के बाद ही मंत्री की कुर्सी मिल पाती है । उठापटक के बावजूद सियासी मैदान में "अंगद की तरह" जमे रहना हंसी मज़ाक नहीं है ।

राजनीति की खाक छानने वाले "गुरु घंटालों" को नई पीढी के सुविधाभोगी "कॉर्पोरेट गुरु" भला क्या पाठ पढा सकेंगे ?ये कहते "कागद की लेखी" , मंत्री कहता "आंखन की देखी "। नौंवी मर्तबा विधायक बने बाबूलाल गौर को भला ’कल का आया’ क्या नेतृत्व- कला सिखाएगा ?कई तरह की पंचायतों के ज़रिये अपनी "टारगेट-ऑडियंस" की पहचान कर अपनी सफ़ल मार्केटिंग करने वाले मुख्यमंत्री को एडवर्टाइज़िंग और मार्केटिंग की बारीकियां सीखने की क्या ज़रुरत है ।

यह पाठशाला सरकार की छबि गढने और जनता को भुलावे में रखने की कोशिश से इतर कुछ नहीं है । धोती - कुर्ते से सूट -टाई के सफ़र तक ही बात ठहरे तो कोई चिंता नहीं ,लेकिन पहनावे के साथ लोकतंत्र पर कॉर्पोरेट जगत का रंग चढने लगे तो ये चौकन्ना होने का सबब है ।

वैसे तो इस वक्त हर जगह घालमेल मचा है । अभिनेता सियासी गलियारों में चहल कदमी कर रहे हैं । नेता रुपहले पर्दे पर धूम मचाने को उतावले हैं । उद्योगपति प्रधानमंत्री पद का दावेदार तैयार करने में मसरुफ़ हैं । जिन्हें सीखचों के पीछे होना चाहिए वो कानून बनाने में भागीदारी निभा रहे हैं । अदालतों को न्याय देने की बजाय नालियों, सडकों और छोटे - मोटे मुद्दों पर नोटिस जारी करने से फ़ुर्सत नहीं है ।
कुल मिला कर हर चीज़ वहां ही नहीं है ,जहां उसे होना चाहिए । मुल्क की हालिया परिस्थितियों के सामने आम आदमी की बेबसी को दुष्यंत कुमार के शब्दों की चुभन ही बयान कर सकती है ।
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ

गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं
पेट भर कर गालियाँ दो आह भर कर बद-दुआ

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ
वैसे आदर्शवाद का सामान्य रूप से राजनीतिक क्षेत्र में क्षरण हुआ है तो भारतीय जनता पार्टी में भी वो क्षरण दिखाई पड़ता है । भाजपा को एक जनआधारित काडर संगठन बनना था मगर ये हुआ नहीं । सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि राजनीतिक दल मूल्यों और मुद्दों से भटक कर केवल सत्ता के निरंकुश खेल के हिस्से बन गए हैं । भाजपा भी इसकी अपवाद नहीं है । आज की तारीख़ में सभी पार्टियों में 19-20 का फ़र्क रह गया है । झंडे - बैनरों के फ़र्क के अलावा कांग्रेस - भाजपा में अंतर करना मुश्किल हो चला है । इस पार्टी में नेतृत्व और समर्थक के चिंतन और व्यवहार के स्तर पर बहुत अंतर आ चुका है ।

भाजपा की आज तक की यात्रा में हर मोड़ पर उसके फ़ैसलों को देखें तो उसमें एक ऐसा सूत्र है जो उसके मूल रोग को प्रगट करता है. वह है- तदर्थ या तात्कालिकता की राजनीति । इसी से भाजपा संचालित होती रही है । चाहे विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स मुद्दे का आंदोलन हो या अयोध्या का मसला या राजग के शासन का कार्यकाल या आजकल की घटनाएं हों उनमें भाजपा तात्कालिकता के चलते लोक लुभावन मुद्दों के पीछे भागने की राजनीति करती रही है ।

इसका नतीजा यह है कि सांप के केंचुली बदलने की तरह ही भाजपा ने विचारधारा को उतार फ़ेंकने में कभी गुरेज़ नहीं किया । गठबंधन के राजनीतिक धर्म का हवाला देकर सिद्धांतों से समझौता किया । जिससे भाजपा के विचारवान समझे जाने वाले नेताओं की कलई खुल गई और वैचारिक साख नष्ट हो गई । देखना दिलचस्प होगा कि मंदी के दौर में घोटालों और घपलों का कॉर्पोरेट कल्चर प्रदेश में क्या गुल खिलाता है........?

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

चोर - चोर मौसेरे भैय्या ....


राजधानी में बुधवार की सुबह हुई हृदय विदारक घटना ने झकझोर कर रख दिया । गरीबी के आगे बेबस पिता ने अपनी चार बेटियों को ज़हर देने के बाद चाकू से गला रेत दिया । उसने अपनी गर्भवती बीवी की जान लेने की कोशिश के बाद खुद के पेट में चाकू मार लिया । दो बच्चियॊ ने तो घटना स्थल पर ही दम तोड दिया । दो लडकियां गंभीर हालत में अस्पताल में हैं और कल महिला की सांसें भी थम गईं । करीब पचास साल के शफ़ीक मियां होश में आ गये हैं लेकिन सदमे के कारण फ़िलहाल कुछ बताने की हालत में नहीं हैं ।

पिंजरे बनाकर रोज़ाना करीब सत्तर रुपए कमाने वाला शफ़ीक सात बच्चों का पेट भरने में खुद को लाचार पा रहा था । मुफ़लिसी से जूझ रहे परिवार में आठवें मेहमान के आने की खबर ने भूचाल ला दिया । होश में आई एक बच्ची का बयान है कि पापा अक्सर कहते थे कि खाने - पीने का ठीक तरह से इंतज़ाम ना कर सका तो एक दिन सब को मार दूंगा । हैरानी की बात है कि उसने अपने तीनों बेटों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया ।

इस घटनाक्रम ने एक बार फ़िर कई सवालों पर पडी गर्द हटा दी है । सरकार बीपीएल कार्ड धारकों को साढे चार रुपए किलो चावल ,तीन रुपए किलो गेंहूं देती है । केवल भोपाल ज़िले में डेढ लाख कार्डधारी हैं । इसी तरह अंत्योदय योजना में दो रुपए किलो गेंहूं , तीन रुपए किलो चावल और साढे तेरह रुपए किलो शकर दी जाती है । गरीबी से बेज़ार लोगों के जान देने का सिलसिला सवाल खडा करता है कि इन योजनाओं का फ़ायदा किसे मिल रहा है ?

हालात बयान करते हैं कि महंगाई के दौर में शफ़ीक के लिए परिवार की परवरिश नामुमकिन होती जा रही थी । ऎसे में परिवार बढाने की नासमझी का औचित्य भी समझ से परे है ...? क्या परिवार का विस्तार अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने वाला कदम नहीं कहा जाएगा ? जब पढा - लिखा तबका परिवार की तरक्की के लिए दकियानूसी उसूलों को झटक कर अलग कर सकता हैं ,तो गरीब तबका क्यों नहीं इस दलदल से बाहर निकल आता ?

एक बडा और अहम सवाल ये भी है कि सरकार ने परिवार कल्याण के कई कार्यक्रम चलाये हैं । इस तरह के मामले इन योजनाओं का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देते हैं । योजना की विफ़लता पर क्या उस इलाके के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ,स्वास्थ्य कार्यकर्ता , अधिकारी और अन्य ज़िम्मेदार लोगों के खिलाफ़ सख्त कार्रवाही नहीं होना चाहिए ? गरीब भूखे पेट सोये और मजबूरन मौत को गले लगाये , तो गरीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं पर पुनर्विचार करने की ज़रुरत है । लोगों को दीन - ईमान और दुनियादारी का फ़र्क समझाना ज़रुरी है । ये बताना लाज़मी है कि पेट की आग बुझाने के लिए मज़हबी बातें काम नहीं आती । पेट भरने के लिए तो रोटी ही चाहिए । हकीकत से रुबरु होकर ही हालात का सामना किया जा सकता है । बात - बात पर फ़तवा जारी करने वाले धर्म गुरु इस मुद्दे पर सामने क्यों नहीं आते ...?

समाज को तरक्की पसंद बनाने के लिए उसकी आबादी बढाना ही काफ़ी नहीं होता । इंसान और जानवरों में फ़र्क होता है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कदम -कदम पर पैसे की दरकार होती है। "ज़्यादा हाथ ज़्यादा काम" का गणित आज के दौर में सही नहीं कहा जा सकता । वक्त बदला है ,तो सोच भी बदलना होगी ।

सरकारी मदद से चलने वाले तमाम एनजीओ के वजूद को लेकर भी ये घटना सवाल खडे करती है । राजधानी में ऎन सरकार की नाक के नीचे इतना दिल दहलाने वला हादसा हो जाना कोई मामूली बात नहीं है । यह घटना समाज के मुंह पर झन्नाटेदार चांटे के माफ़िक है । साथ ही उन नेताओं से भी कैफ़ियत मांगती है , जो गरीबों के हिमायती होने का दम भरते हैं । वोट की राजनीति में तादाद बढाने के लिए ज़ोर देने वाले नेता चुनाव के बाद इन बस्तियों का रुख भी नहीं करते । इन गरीबों को उनके हाल पर छोड देते हैं घुट घुट कर जीने के लिए या कहे तिल - तिल कर मरने के लिए ...। कौन सुनेगा इन मज़लूमों की आवाज़ ....।

धर्मगुरु मज़हबी किताबों का हवाला देकर आबादी बढाने का नारा तो देते हैं , मगर ये नहीं बताते कि इनका पालन - पोषण कैसे हो ? नेता वोट बैंक बनाते हैं पर बदले में क्या देते हैं ? गरीबों के लिए कागज़ों पर योजनाएं कई हैं और आंकडे बताते हैं कि बढिया तरीके से अंजाम भी दी जा रही हैं । लेकिन वास्तविकता इन कागज़ी बयानबाज़ी के कोसों दूर है । मध्याह्न भोजन के नाम पर कीडे - मकौडों से भरा दलिया या पंजीरी ....?

बीपीएल कार्ड पर सस्ते अनाज का कोई ठिकाना ही नहीं । राशन की दुकानों पर ताला । राशन का अनाज गोदामों से सीधा व्यापारियों की दुकानों पर उतारा जाता है । नेता , अधिकारी और ठेकेदार एक बार फ़िर यहां भी साथ - साथ ....। बचपन में इमरजेंसी के दौरान रेडियो पर ये गाना सुना था ,शायद उस वक्त इसके बोल समझ में नहीं आते थे ,लेकिन आज के दौर में एकदम सटीक है - "चोर - चोर मौसेरे भैय्या - इनका तो भगवान रुपैय्या ....।"

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

किसान की बदहाली पर विकास की इमारत

खेती को फ़ायदे का व्यवसाय बनाने का नारा लगाते हुए "किसान का बेटा शिवराज सिंह" दोबारा गद्दीनशीं हो गए लेकिन प्रदेश के किसानों के हालात ना पिछले पांच सालों में बदल सके और ना ही हाल फ़िलहाल इसकी कोई संभावना दिखाई देती है । सूखे और मौसम की मार से जूझते किसान बिजली के संकट से भी बेहाल हुए जा रहे हैं । कहीं खाद - बीज की किल्लत है , तो कभी नहरों में सिंचाई के लिए पानी और पंप चलाने के लिए बिजली की समस्या ।

खेती - किसानी को लाभकारी बनाने की लम्बी - चौडी बातें तो की जा रही हैं । ज़मीनी हकीकत एकदम अलग है । प्रदेश का अन्नदाता दाने - दाने को मोहताज है । फ़सल की वाजिब कीमत पाने के लिए किसानों को सडक पर आना पड रहा है । सरकारी महकमों में फ़ैले भ्रष्टाचार और कर्ज़ के बोझ तले दबे किसान खुदकुशी ले लिए मजबूर हैं ।

अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए हाल ही में सूबे के करीब दो लाख किसान भोपाल में जमा हुए । भूमिपुत्रों ने सरकार को चेताया कि प्रदेश की अस्सी फ़ीसदी आबादी किसानों की है । उनकी आवाज़ लम्बे वक्त तक अनसुनी नहीं की जा सकती । भारतीय किसान संघ ने सरकार की किसान विरोधी नीतियों को खेती की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है । संघ का कहना है कि फ़सल के वक्त बडी कंपनियां और व्यापारी कीमतें गिरा देते हैं । अक्टूबर - नवम्बर में जब सोयाबीन की फ़सल आई थी , तब भाव डेढ हज़ार रुपए क्विंटल था और अब सोयाबीन ढाई हज़ार रुपए क्विंटल तक जा पहुंचा है । न्यूनतम मूल्य पर कोई ठोस नीति नहीं होने से किसानों को उनकी मेहनत का औना - पौना दाम मिलता है ।

विधानसभा चुनाव के वक्त बढ - चढ कर घोषणाएं करने वाले मुख्यमंत्री अब खज़ाना खाली होने का रोना लेकर बैठ गये हैं । हालांकि उन्होंने गांवों के मास्टर प्लान बनाने जैसी बेतुकी और गैरज़रुरी मांग को तुरंत मान लिया । मगर इससे क्या किसान के हालात बदल जाएंगे ..? मास्टर प्लान बनाने से किसानों की ज़िंदगी सुधरेगी या नहीं नेता ,ठेकेदारों और अफ़सरों के दिन ज़रुर फ़िर जाएंगे । खेती को लेकर ना तो कोई गंभीर सोच और ना ही गंभीर प्रयास दिखाई देते हैं । जब तक समग्र नीति तैयार नहीं की जाती , तब तक देश मे अन्न का संकट भी दिनोंदिन विकराल होता जाएगा । साथ ही छोटे किसान खेती -बाडी के व्यवसाय से दूर होते रहेंगे ।

बेवजह सडकें नापने के शौक के कारण अक्सर मैं आसपास के ग्रामीण इलाकों का रुख कर लेती हूं । लेकिन चारों तरफ़ एक ही फ़सल देख कर बेहद अफ़सोस होता है । कभी प्याज़ का भाव तेज़ हुआ , तो अगले साल खेतों में प्याज़ ही प्याज़ ...। कभी फ़ूलगोभी ,कभी टमाटर तो कभी लहसुन । लोग देखादेखी में अच्छे दाम मिलने की उम्मीद में बुवाई कर देते हैं और यही उनकी जान का बवाल बन जाता है । भरपूर उत्पादन यानी कीमतों में गिरावट । नतीजतन कई बार किसान लागत मूल्य निकालने में भी नाकाम रहते हैं । क्या सरकार सालाना ऎसी योजना नहीं बना सकती , जिसमें हर इलाके के लिए फ़सलें तय कर ली जाएं और किसानों को बेहतर तकनीक सिखाई जाए ।

" बिना बिचारे जो करे , सो पाछे पछताए " का इससे बेहतर नमूना क्या हो सकता है कि इस बार प्रदेश की मंडियों में एक रुपए किलो आलू बिक रहा है । कैसा भद्दा मज़ाक है श्रम शक्ति का । खेतों में पसीना बहाने वाला , दिन - रात एक करने वाला किसान महज़ एक रुपया पा रहा है , जबकि रंगबिरंगे पैकेट और आकर्षक विज्ञापनों की बदौलत आलू चिप्स पांच सौ रुपए किलो तक बिक रहे हैं ।

भोपाल समेत कई अन्य ज़िलों में इस बार आलू की बम्पर पैदावार जी का जंजाल बन गई है । लागत की कौन कहे कोल्ड स्टोरेज का किराया निकाल पाना मुश्किल हो रहा है । साफ़ नज़र आता है कि सरकार की नीयत साफ़ नहीं है । मौजूदा नीतियां उद्योगपतियों के फ़ायदे और किसानों के शोषण का पर्याय बन गई हैं ।

औद्योगिक घरानों के लिए पलक पावडे बिछाने वाली सरकार उद्योग जगत को तमाम रियायतें , सेज़ के लिए मुफ़्त ज़मीन और करों में छूट का तोहफ़ा देने में ज़रा नहीं हिचकती । फ़िर किसानों के प्रति ऎसी बेरुखी क्यों ...? हीरे - मोती उगलने वाली धरती के सीने पर कांक्रीट का जंगल कुछ लोगों का जीवन चमक- दमक और चकाचौंध से भर सकता है लेकिन किस कीमत पर ...? भूखे पेट रात भर करवटें बदलने वाले लाखों मासूमों के आंसुओं से लिखी विकास की इबारत बेमानी है ।

हिन्दुस्तान की खुशहाली का रास्ता खेतों - खलिहानों की पगडंडी से होकर ही गुज़रता है । इसके रास्ते के कांटे और कंकड - पत्थर चुनना ज़रुरी है । किसान के चेहरे की चमक में छिपा है देश की तरक्की का राज़ .....। देश के रहनुमाओं , कब समझेंगे आप...........?

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

............प्यार के लिए मगर पैसा चाहिए !

दुनिया में आज तक सच्ची प्रेम कहानियों का दारुण अंत देखा गया है । लेकिन हाल ही में नये दौर के हीर -रांझा , शीरीं - फ़रहाद , लैला - मजनूं के तौर पर प्रचारित मोहब्बत की दास्तां के नए पहलू से रुबरु हुए । चांद के बादलों की ओट में जाते ही फ़िज़ा का रुख बदल गया । साथ जीने [ मरने नहीं...] की कसमें खाने वाली बला की खूबसूरत हसीना ने चार दिन भी प्रेमी के लौटने का इंतज़ार मुनासिब नहीं समझा और धर लिया चोट खाई नागिन सा रौद्र रुप ....।

फ़िज़ा के रवैये में एकाएक आये इस बदलाव को क्या समझा जाए ....? क्या प्रेम इतना छिछला होता है ...? या किसी खास मकसद के लिए इस शादी को अंजाम दिया गया था ? आखिर वो क्या
वजह रही होगी ,जिसके चलते शादी से लेकर खुदकुशी तक के घटनाक्रम का मीडिया गवाह बनाया गया ? कहीं ऎसा तो नहीं कि एक बार फ़िर टीआरपी का लालची "इलेक्ट्रानिक मीडिया" बेहद शातिराना तरीके से इस्तेमाल कर लिया गया । ऎसा मालूम होता है , मानो टाफ़ी -गोली का ईनाम पाने की चाहत में कोई अबोध बच्चा प्रेमी - प्रेमिका के बीच कासिद का किरदार निभा रहा हो ।

किसी ने गहराई से सोचा कि मुट्ठी भर नींद की गोलियां चबाने वाली महिला चौबीस घंटे भी नहीं गुज़रे और इतनी स्वस्थ कैसे हो गई ? दरअसल इस प्रेम कहानी में भरपूर मसाला है । मज़े की बात है कि इसमें भावनाएं कहां खत्म होती हैं ,राजनीति के पेंच कब उलझते हैं और पैसे की चमक कितना रंग दिखाती है, सब कुछ गड्ड्मड्ड है । सच पूछा जाए तो ये मेलोड्रामा पूरी तरह सोच समझ कर अंजाम तक पहुंचाया गया सा लगता है । मेरी इस आशंका की पुष्टि जाने माने पत्रकार आलोक तोमर की 30 जनवरी की पोस्ट करती है । इस आलेख के कुछ अंश यहां दिये गये हैं , जो बताते हैं कि " यार दिलदार तुझे कैसा चाहिए ,प्यार चाहिए या पैसा चाहिए ।" की तर्ज़ पर फ़िज़ा को वास्तव में चांद से क्या चाहिए था........

चंडीगढ़/मोहाली, 30 जनवरी- अनुराधा बाली उर्फ फिजा वास्तव में क्या विष कन्या हैं? चंद्र मोहन को चांद मोहम्मद बना कर उनसे शादी करने वाली अनुराधा के बहुत सारे प्रेमी और दोस्त सामने आए हैं जिन्होंने औपचारिक रूप से तो कुछ नहीं कहा लेकिन यह शिकायत जरूर की है कि अनुराधा ने उनके रिश्तों का फायदा उठा कर काफी आर्थिक लाभ उठाया और जब लाभ मिलना बंद हो गया तो उन्हें छोड़ दिया।
जो लोग अनुराधा बाली को आर्थिक लाभ पहुंचा सकते थे वे जाहिर है कि काफी बड़े आदमी रहे होंगे। इनमें हरियाणा के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री का भाई, एक मुख्य सचिव का बेटा और कई वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी बताए जाते हैं। बहुत खूबसूरत अनुराधा बाली के पति ने भी तलाक की अर्जी देते वक्त अनुराधा पर यही आरोप लगाया था कि वे चारित्रिक रूप से गड़बड़ है।

अनुराधा बाली उर्फ़ फ़िज़ा किसी भी लिहाज़ से हमदर्दी के काबिल नहीं हैं । किसी महिला का घर संसार उजाड कर अपने सपनों का महल खडा करना क्या महिला अधिकारों के नाम पर जायज़ ठहराया जा सकता है । चंद्रमोहन जैसे कमज़ोर मानसिकता वाले लोग भारतीय राजनीति के लिए चिंता के सबब हैं । उप मुख्यमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठा व्यक्ति चारित्रिक पतन की गिरफ़्त में आकर कल ना जाने क्या गुल खिला बैठे । ऎसे नेता देश के लिए खतरनाक हैं ।

इन लोगों का अपने नापाक इरादों को पूरा करने के लिए मुस्लिम धर्म कबूल करना भी बेहद गंभीर मसला है । नीयत के खोट को धार्मिक आस्था से जोडकर लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के गुनहगार हैं ये दोनों । इस्लाम के मानने वालों को भी इस घटना की जमकर मज़म्मत करना चाहिए ,ताकि आगे कोई मज़हब का मखौल ना बना सके ।

इस मसले पर एक टिप्पणी काबिले गौर है -
शादी-शुदा मर्द से ही नहीं औरत की गत हमेशा ही प्यार में बुरी होती है। रही बात फिजां की तो जब वे अपने चांद को ले कर दिल्ली पहुंची तो प्रेस क्लब में मैं भी मौजूद थी। मैंने सिर्फ एक सवाल पूछा, क्या आप हमारे लिए सुरह यासीन पढ़ देंगे। सुरह यासीन कुरान की पहली आयत है जो किसी नास्तिक हिंदू को गायत्री मंत्र याद रह जाने की तरह आसान है। सवाल चंद्रमोहन से पूछा गया था, लेकिन इस सामान्य सवाल पर वह ऐसे असामान्य तरीके से भड़की कि अगले दिन हर अखबार की सुर्खियों में यह खबर थी। उनका चलने का तरीका और बात करने का अंदाज ही बता रहा था कि उनके चेहरे पर उप मुख्यमंत्री पर फतह हासिल करने की चमक थी। अब यह चमक फीकी पड़ गई क्योंकि उनके मंसूबे कामयाब नहीं हो सके। नींद की दवाई खाने और फिर प्रेस कॉन्फेंस में एसएमएस पढ़ कर सुनाना ही बताता है कि वह अपने प्यार के मामले में कितनी गंभीर हैं। जिस व्यक्ति को प्यार किया जाता है, उसे सार्वजनिक तौर पर बेइज्जत को नहीं किया जाता। अनुराधा बाली ने अपने प्रेम को सार्वजनिक कर, चंद लम्हों की लोकप्रियता के लिए राष्ट्रीय मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं किया है।

वैसे चांद अपनी दुनिया में लौट भी गया ,तो इससे क्या ...? फ़िज़ा के पास खुश होने के लिए अब भी बहुत कुछ है । प्रेम की यादें तो अब भी उनके पास हैं । कहते हैं मरा हाथी भी सवा लाख का होता है । दिल टूटा तो क्या हुआ पर 24 करोड की ज़बरदस्त लॉटरी भी तो लग गई । कनाडा की कंपनी इंडिया पैसिफ़िक मीडिया एंड मूवीज़ ने उन्हें फ़िल्म बनाने के अधिकार बेचने के एवज़ में करीब 24 करोड रुपए देने की पेशकश की है । कंपनी के प्रवक्ता ने खुलासा किया है कि बेवफ़ाई की मारी फ़िज़ा को फ़िल्म में हिरोइन का किरदार भी ऑफ़र किया गया है । मस्त रहिए , खुश रहिए , दिल का क्या है ..? शीशा हो या दिल हो , आखिर टूट जाता है ........।

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

नर्मदा कब तक धो सकेगी गंगा के पाप

कैलेंडर की मानें , तो आज नर्मदा जयंती है । दरअसल हम लोगों की ज़िन्दगियां कैलेंडर के पन्नों पर दर्ज़ तारीखों में उलझकर रह गई हैं । हम किसी भी काम को मन से स्वीकर नहीं करते । दिखावे की संस्कृति इस कदर हावी है कि दूसरे को दिखाने की गरज़ से काम करने का निर्णय किया जाता है । इसीलिए पर्व- त्योहार भी महज़ दिखावा बन कर रह गये हैं ।

आज रेवा तटों पर मेले लगेंगे । बडी गहमा गहमी रहेगी । लोग पापनाशिनी सलिला में डुबकी लगाकर अपने तमाम पापों से पल भर में निजात पा लेने की जुगत लगायेंगे । मोक्ष की कामना में भजन - पूजन और नदी मे दीप प्रवाहित होंगे । नर्मदे हर , नर्मदे हर......का जयघोष कर अपनी आस्था को सार्वजनिक करेंगे । सतत प्रवाहमान नर्मदा के किनारे गोठ करेंगे ,पिकनिक मनाएंगे और लौट जाएंगे । लेकिन नदी को छोड जाएंगे प्रदूषित.....।

पुराने अखबार पलटते हुए एकाएक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट से जुडी खबर पर निगाह पडी । बोर्ड की जांच रिपोर्ट कहती है कि नर्मदा अपने उद्गम के पास ही प्रदूषण की चपेट में आ गई है । प्रदूषण की गंभीरता का अंदाज़ा पानी में मौजूद जीव - जंतुओं की प्रजातियों से लगाया जा सकता है । इसके लिए बायो मानिटरिंग तकनीक की मदद ली गई है । जिससे नर्मदा के पानी में पाए जाने वाले अलग - अलग प्रजातियों के कीडों का पता लगाया जा रहा है ।

जांच दल ने हाल ही में अमरकंटक ,मंडला ,जबलपुर ,डिंडौरी से नर्मदा जल के नमूने इकट्ठा किए हैं । अमरकंटक के पास रामघाट से जुटाए सैंपल में ऎसी प्रजाति के कीडे मिले हैं ,जो प्रदूषित पानी में ही पनप सकते हैं । आशंका है कि अवशिष्ट पदार्थों और कारखानों की गंदगी नदी में छोडने के दुष्परिणाम जल्दी ही विकराल रुप में सामने आने लगेंगे ।

बहरहाल तसल्ली की बात सिर्फ़ इतनी है कि बाकी जगह के नमूनों में चट्टानों के टुकडों से विशेष किस्म का कीडा मिला है । ट्राइकोप्टेरा प्रजाति का यह जीव केवल शुद्ध पानी में ही रहता है ।जांच दल का दावा है कि यह कीडा चट्टानों के बीच जाले की महीन चादर बना देता है ,जिससे छन कर पानी बिल्कुल निर्मल हो जाता है ।

" राम तेरी गंगा मैली हो गई ,पापियों के पाप धोते - धोते" राजकपूर की फ़िल्म के मशहूर गीत को सच मानें या लोक मान्यताओं की बात करें , दोनों ही इस बात पर एक राय मालूम देते हैं कि पापियों का उद्धार करते - करते गंगा भी मैली हो ही जाती है । वही पापनाशिनी गंगा साल में एक बार आज के दिन मोक्षदायिनी रेवा में इन पापों को धोने आती है । आज के संदर्भ में यह बात एकदम ठीक लगती है । लेकिन क्या होगा जब नर्मदा प्रदूषण की चपेट में अपना अस्तित्व ही खो बैठेगी ...? पौराणिक आख्यानों की मान्यताओं के अनुरुप गंगा के पाप अपने जल में समाहित करने के लिए कहां तलाशा जाएगा नर्मदा को .....?

नदियों का पानी मैला करने का दोष केवल उद्योगों के सिर मढने से काम नहीं चलने वाला । विडंबना ही है कि नर्मदा को मां के रुप में पूजने वाले भक्तों ने भी कोई कसर नहीं छोड रखी । भक्त पूजा सामग्री , फ़ूल - पत्ती के साथ पालिथिन की पन्नियों को भी नदी को भेंट चढा देते हैं । डुबकी लगाने तक तो ठीक है लेकिन साबुन से नहाने और कपडे धोने में भी उन्हें कोई हिचक नहीं होती । सवाल है कि जिस नदी की पवित्रता की हम बात - बात पर दुहाई देते नहीं थकते , उसे अशुद्धियों से भरने में हमारी आत्मा क्यों नहीं कचोटती ..?

हमें समझना होगा कि आबादी बढने के साथ ही नदी पर भी दबाव बढ गया है । रही सही कसर भक्ति के अतिरेक ने पूरी कर दी है । लोग आस्था के वशीभूत होकर नहीं , एक दूसरे की देखा देखी में नर्मदा स्नान की होड लगाने लगे हैं । आस्था होती है ,तो लगाव होता है , चिंता होती है सहेजने की ...। लेकिन जब भाव नहीं ,तो भावना कैसी ....?

पहले जनसंख्या कम होने से गंदगी भी थोडी होती थी और नदी अपने तरीके से उपचार भी कर लेती थी । लेकिन बेतहाशा बढ रही गंदगी के आगे नदियों ने भी हथियार डाल दिये हैं । हमें नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति का हर रुप सजीव है । नदी भी सजीव होती है । उसके साथ जैसा बर्ताव हम करेंगे , बदले में वैसा ही पायेंगे ।

कभी पूरी आस्था से एकाग्रचित्त होकर प्रार्थना करके देखें , पाएंगे कि खुले हाथ से वर देने वाली नर्मदा हमसे कुछ मांग रही है , हमारे ही भले के लिए । कल्पना करें , बात अनसुनी करने पर कल यदि मां नर्मदा भी हमसे अबोला ठान बैठी , तो क्या होगा.......? नर्मदा का प्रवाह थमने पर गंगा तो आने से रही यहां । ऎसे में कैसे मनेगी नर्मदा जयंती ....????? सोचिएगा ज़रुर..........।

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

धोती- टीके वाले भी होते हैं तालिबानी

हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री की नव विवाहिता पत्नी ने नींद की गोलियां खा कर खुदकुशी की कोशिश क्या की , मीडिया को बैठे ठाले हफ़्ते भर का मसाला मिल गया । कल तक चांद की जगमगाती रोशनी में फ़िज़ा खुशनुमा थी , लेकिन तंगहाली के ग्रहण ने चांद को अपनी ओट में ले लिया । साथ जीने - मरने की कसमे टूटने की आशंका ने फ़िज़ा कुछ ऎसी बिगाडी कि अनुराधा बाली उर्फ़ फ़िज़ा को अस्पताल का रुख करना पड गया ।

न्यूज़ चैनलों को लंबे समय बाद इतना चटपटा और धमाकेदार मसाला मिला है । चांद मोहम्मद के घर से गायब होने की खबर आते ही लंबे समय से सूखॆ की मार झेल रहे खबरचियों ने डेरा डाल लिया और पल - पल की एक्सक्लूसिव तस्वीरें और खबर अपने दर्शकों तक पहुंचाने में जुट गये । अभी ज़्यादा वक्त नहीं बीता ,जब सरकारी नियंत्रण को मीडिया जगत पर हमला बताया था और आत्म नियंत्रण का भरोसा भी दिया था । लेकिन ये क्या ...? कल तक जो चैनल तालिबानी वीडियो दिखाने वाले चैनलों की पोल खोल रहा था , आज वो भी फ़िज़ा और चांद से जुडी खबरों को फ़िल्मी गानों की चाशनी में "पाग" कर दर्शकों को परोस रहा था । समाचार जानने के उत्सुक लोगों को वो टेबलेट्स दिखाई जा रही थी , जिनको खाकर फ़िज़ा ने मीडिया को इतनी ज़बरदस्त स्टोरी तैयार करने का मौका दिया ।

इस शोरशराबे में लेकिन एक अहम सवाल कहीं गुम हो गया है । औरत के अस्तित्व का सवाल । पूरा देश "शरीया कानून" की आड में मज़हब का मखौल उडाने का तमाशा देखता रहा । कहीं कोई आवाज़ नहीं , कोई चिंता नहीं । चार दिन बीते नहीं कि प्रेम का बुखार उतर गया ।

कानून की जानकार और अपने हक को बखूबी समझने वाली एक ऎसी औरत ,जो अपने प्यार को पाने के लिए हरियाणा जैसे रुढिवादी समाज से भी नहीं हारी ,अगर मौत को गले लगाने का फ़ैसला लेती है , तो क्या औरतों के हक के लिए लडने वालों के लिए चुनौती पेश नहीं करती । इस मामले के साथ देश में बडे पैमाने पर महिलाओं के हक से जुडे मुद्दों पर नई बहस होना चाहिए । साथ ही सभी को एक ही कानून के दायरे में लाने की बात भी होना चाहिए । " एक मुल्क - एक कानून " के ज़रिए ही देश को एकता के सूत्र में बांध कर रखा जा सकता है और कानून की आड में महिलाओं के जज़्बातों से खिलवाड करने वालों पर शिकंजा कसा जा सकता है ।

मंदी से उपजे संकट के दौर में लगता है एनडीटीवी ने नई सोच के साथ नई पहल की है । इसी कडी में मतदाताओं को सिखाने - पढाने के लिए रवीश कुमार के सौजन्य से प्रोग्राम बनाया गया । उनकी पेशकश की तारीफ़ करने को मन हो ही रहा था , तभी देश के मतदाताओं को पूजा - पाठ और धर्म के नाम पर ठगने वाले हिन्दुस्तानी तालिबानियों का ज़िक्र छेड दिया रवीश जी ने । लेकिन ये तालिबानी धोती - टीके वाले ही थे । टोपी और दाढी वालों का कोई ज़िक्र तक नहीं ....। आजकल मंदी के कारण नौकरी पर भारी पड रहे सर्कुलरों से खिसियाए खबरची क्या नया कहना चाहते हैं ....? आखिर क्या सिखाना चाहते हैं ...? "धोती - टीके वाले तालिबानी" का जुमला गढकर एक तबके को गरियाने से ही इस देश में सेक्यूलर कहलाया जा सकता है ? इन चैनलों ने जिस ढंग से हिन्दुओं की छबि गढ दी है , अब हिन्दू कहलाना किसी गाली से कम नहीं .....।

आज आज़मगढ के करीब एक हज़ार लोग एक ट्रेन में सवार होकर दिल्ली क्या पहुंचे , देश की राजनीति में उफ़ान आ गया । आईबीएन और सहारा समय लगातार ट्रेन और रेलवे प्लेटफ़ार्म की फ़ुटेज दिखा दिखा कर माहौल गर्माते रहे । गौर करने की बात है कि ट्रेन को उलेमा एक्सप्रेस का नाम तक दे दिया गया बैनर लगाकर । उस पर भी तुर्रा ये कि रेल प्रशासन और पुलिस पर प्रताडना का आरोप जड दिया । शिकायत थी कि ट्रेन जगह- जगह रोकी क्यों नहीं गई ।

बाटला हाउस एनकाउंटर मामले में आतंकवादियों की कारगुज़ारियों पर पर्दा डालने के लिए मौलाना अमर सिंह और अर्जुन सिंह के बोये बीज अब पनपने लगे हैं । उलेमाओं का जत्था दिल्ली पहुंचकर मामले की एक महीने में न्यायिक जांच का दबाव बना रहा है । उन्होंने सरकार को आगाह भी कर दिया है कि जल्दी जांच रिपोर्ट नहीं आने पर मुसलमान कांग्रेस को एक भी वोट नहीं देंगे । ये लोग कौन हैं ...? क्या ये वाकई इस देश के नागरिक हैं ...? अगर जवाब हां है , तो कैसे नागरिक हैं ,जिन्हें अपने शहर के लडके तो बेगुनाह और मासूम नज़र आते हैं , मगर दहशतगर्दी के शिकार लोगों के लिए इनके दिल में ज़रा भी हमदर्दी नहीं ? कल को मुल्क में कहीं भी आतंकी पकडे या मारे जाएंगे , तो हर मर्तबा यही सवाल खडे होंगे । पाकिस्तान या बांगला देश के रास्ते भारत आकर दहशत फ़ैलाने वाले ज़ाहिर सी बात है मुसलमान ही होंगे , तो क्या उनकी हिमायत में उठने वाली आवाज़ों के बूते उन्हें बेगुनाह मान लिया जाना चाहिए ?

एक न्यूज़ चैनल के जाने माने क्राइम रिपोर्टर के ब्लॉग पर बाटला हाउस मामले के आरोपी के घर की बदहाली का सजीव चित्रण देखा था । उनकी दलील को मान लिया जाए तो कोई भी गरीब अपराधी या दहशतगर्द नहीं हो सकता । लगभग वैसी ही परिस्थिति कसाब के परिवार की भी है , लिहाज़ा ये माना जा सकता है कि मोहम्मद अजमल कसाब भी मासूम है ?????? उस बेगुनाह का गुनाह है , तो महज़ इतना कि वो गरीब मुसलमान है ...?

वोट की खातिर नेता किस हद तक गिरेंगे , अंदाज़ा लगा पाना बडा ही मुश्किल है । लेकिन अपने फ़ायदे के लिए लोग सियासी दलों के साथ किस तरह का मोल भाव करेंगे ये चुनावी आहट मिलते साफ़ होने लगा है । देश के तथाकथित अल्पसंख्यक , जो कई हिस्सों में बहुसंख्यक हो चुके हैं , वे ही राजनीतिक दलों की नकेल कस रहे हैं । वोटों के गणित और सियासी नफ़े - नुकसान के चलते मुसलमान मतदाताओं को भेडों की तरफ़ हकालने का चलन देश के अंदरुनी हालात के लिए विस्फ़ोटक हो चला है । लालू ,मुलायम ,पासवान , मायावती ,कांग्रेस और कुछ हद तक अब बीजेपी भी मुसलमानों वोटों की खातिर तुष्टिकरण का भस्मासुर तैयार कर रही है , जो समूचे देश को ले डूबेगा ।

ये सभी घटनाएं देश में व्याप्त अराजकता और अव्यवस्था की ओर इशारा करती हैं । संविधान और कानून के प्रति लोगों की आस्था कहीं दिखाई नहीं देती । राजनीति के कंधे पर सवार होकर लोग मनचाहे ढंग से कानून तोड मरोड रहे हैं । लोगों की उम्मीद भरी निगाहें कभी न्याय की चौखट पर जाकर टिक जाती है , तो कभी संसद के गलियारों में भटक कर रह जाती है । मीडिया को आम लोगों की परवाह ही कहां रही । प्रशासन इन सबकी चाकरी बजाये या जनता की सुने ।