बेस्ट ई-गवर्नेंस का प्रतिष्ठापूर्ण अवार्ड हासिल कर पूरे देश में नाम कमाने वाले मध्यप्रदेश के नौनिहाल भूख से मर रहे हैं । हाल ही में दिल्ली से आई बाल संरक्षण अधिकार आयोग की टीम ने सतना ज़िले के मझगवां जनपद में किरहाई पोखरी गांव में कुपोषण के जो हालत देखे , उससे लगता है कि पिछले साल प्रदेश के कई ज़िलों में कुपोषण से हुई मौतों के बावजूद राज्य सरकार ने कोई सबक नहीं लिया ।
टीम के सदस्यों के मुताबिक गांव के हालात ’दयनीय’ शब्द को भी लजाते हैं । अपनी माताओं की छाती से चिपके ज़्यादातर मासूम क्षेत्र मे कुपोषण के फ़ैलते आतंक की कहानी बयान करते हैं । बच्चों के शरीर महज़ "हड्डियों के ढांचे" हैं । आलम ये है कि इन मासूमों की उम्र का अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है । गांव में दो से तीन साल तक के कई बच्चे हैं जो अब तक अपने पैरों पर चल भी नहीं पाते । गली - मोहल्ले में किलकारियां भरकर खेलने की उम्र के ये बच्चे अपनी मांओं के सीने से चिपके बेवजह रोते रहते हैं । टीम को गांव में ढूंढे से एक भी स्वस्थ बच्चा नहीं मिला । गांव के हालात देखकर ऎसा लगता था मानो यहां की महिलाएं कुपोषित बच्चे पैदा करने के लिए अभिशप्त हैं ।
आयोग की चाइल्ड स्पेशलिस्ट इलाके के सत्तर फ़ीसदी बच्चों को कुपोषित बताती हैं । वे हैरान हैं कि मुख्य मार्ग के नज़दीक बसे गांव में हर दूसरा बच्चा कुपोषण की पहली और दूसरी श्रेणी का कैसे हो सकता है ...? सरकारी दावे चाहे जो हों हकीकत से मीलों दूर हैं । वास्तविकता भयावह है और सरकारी आंकडों में दर्ज़ योजनाओं की सफ़लता की पोल - पट्टी खोल कर रख देती है । आंगनबाडी कार्यकर्ता , प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र , स्वयंसेवी संगठन ,यूनीसेफ़ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रयासों का कच्चा चिट्ठा हैं ये नौनिहाल ....।
प्रदेश में छह महीने पहले कुपोषण से मौतों का मामला गरमाया था । मीडिया में खबरें , विधान सभा में हंगामा , आरोप - प्रत्यारोप और कई जांच कमेटियां ....। इस सारी कवायद का नतीजा निकला शून्य । पुराना सब छोड भी दें पिछले छह महीनों में ही ईमानदारी दिखाई होती , तो हो सकता है जांच टीम को क्षेत्र का हर बच्चा हंसता -मुस्कराता तंदुरुस्त नज़र आता ।लेकिन हमारी रग - रग में बेईमानी समा चुकी है । एक राजा ने अपने राज्य में ईमानदारी की स्थिति का पता लगाने के लिए मुनादी करा दी कि सूखे तालाब में अमावस्या की रात सभी लोगों को अनिवार्य रुप से एक - एक लोटा दूध डालना होगा । अगले दिन सूरज उगने पर तालाब में पानी के सिवाय कुछ नहीं था । रात के अंधेरे में ईमान भी सो जाता है ।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक समिति ने वर्ष 2006 कहा था कि बच्चों की मृत्यु दर के मामले में मध्यप्रदेश के श्योपुर ज़िले की तुलना अफ़्रीका के सबसे ग़रीब और पिछड़े इलाकों से की जा सकती है । जाँच समिति ने पाया कि भुखमरी प्रभावित सबसे अधिक बच्चे सहरिया जनजाति के हैं । इलाके के हर 100 बच्चों में से 93 कुपोषण का शिकार हैं।
वर्ष 2007 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेताया था कि भारत में बच्चों के कुपोषण की दर दुनिया में सबसे अधिक है । मुख्यमंत्रियों को भेजे पत्र में मनमोहन सिंह ने कहा कि पोषण कार्यक्रम का 'क्रियान्वयन बेहद ख़राब तरीके' से किया जा रहा है। इसी तरह संयुक्त राष्ट्र बालकोष यानि यूनिसेफ़ की रिपोर्ट दक्षिण एशिया के बच्चों में कुपोषण की समस्या को रेखांकित करती है । रिपोर्ट के मुताबिक कुपोषित बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है ।
यूनिसेफ़ की रिपोर्ट कहती है कि पांच साल से कम के 25 प्रतिशत बच्चों के पास खाने को पर्याप्त भोजन नहीं है और दुखद तथ्य ये है कि ऐसे बच्चों में से 50 प्रतिशत बच्चे सिर्फ़ तीन देशों भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहते है । रिपोर्ट में भारत और चीन की तुलना की गई थी । इसमें कहा गया था कि बच्चों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने की दिशा में पिछले 15 वर्षों में चीन में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है जबकि भारत का प्रदर्शन अत्यंत ख़राब रहा है । रिपोर्ट में भारत में पांच साल से कम के आधे से अधिक बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने पर भी चिंता जताई गई है ।
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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009
शनिवार, 7 फ़रवरी 2009
मध्यप्रदेश में बीजेपी की "कॉर्पोरेट सरकार"
किसानों , गरीबों और कर्मचारियों का हितैषी होने का दावा करने वाली बीजेपी क्या बदल रही है ? प्रमोद महाजन जिस कॉर्पोरेट कल्चर को अपनाने का सपना लिए रुखसत हो गये क्या भाजपा ने उसे पूरी तरह अंगीकार करने का मन बना लिया है ? चाल ,चरित्र और चेहरे की बात करने वाला राजनीतिक दल क्या अब "कॉर्पोरेट गुरुओं" के इशारों पर चलेगा ? मध्यप्रदेश के मंत्रियों की पचमढी में आयोजित "पाठशाला" की खबर बताती है कि जननायक अब सीईओ संस्कृति के रंग में रंगने को बेताब हैं ।
प्रबंधन गुरुओं और प्रशासकों ने मंत्रियों को बेहतर नेतृत्व और कामकाज की कमान अपने हाथ में रखने के गुर सिखाये हैं । उबासी लेते नेताओं को इस अफ़लातूनी कवायद से वाकई कुछ हासिल हो सकेगा ...? आम जनता के लिए पैसे की तंगी का दुखडा सुनाने वाली सरकार ने दो दिन के लिए पचमढी की शानदार ग्लेन व्यू होटल को स्कूल में बदल दिया । मगर बुनियादी सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में मंत्री सीईओ हो सकता है ,जो उन्हें कॉर्पोरेट सेक्टर का एक्सपोज़र दिया जाए ? पब कल्चर को पाश्चात्य बताकर आसमान सिर पर उठाने वाली पार्टी कॉर्पोरेट कल्चर अपनाने के लिए इतनी उत्साहित क्यों है ?
विभाग अध्यक्ष ,सचिव ,सलाहकार बगैरह के रुप में बहुत से प्रबंधक मंत्रियों के अधीन रहते हैं । मंत्री का दायित्व नीति निर्धारण का है । कुशल प्रशासक के तौर पर प्रख्यात एम. एन. बुच की राय में मंत्री का काम नीति निर्धारण के बाद उसके क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी लेना है । वास्तव में मंत्रियों को सिर्फ़ यही पाठ पढाने की ज़रुरत है । नेतृत्व की कला मंत्री बखूबी जानते हैं । ये सभी राजनीति की रेलमपेल में टिकट लेने से लेकर चुनाव जीतने तक हर दांवपेंच आज़मा चुके हैं । केबिनेट में दाखिला पाना भी बच्चों का खेल नहीं ....। गलाकाट स्पर्धा में अव्वल नंबर हासिल करने के बाद ही मंत्री की कुर्सी मिल पाती है । उठापटक के बावजूद सियासी मैदान में "अंगद की तरह" जमे रहना हंसी मज़ाक नहीं है ।
राजनीति की खाक छानने वाले "गुरु घंटालों" को नई पीढी के सुविधाभोगी "कॉर्पोरेट गुरु" भला क्या पाठ पढा सकेंगे ?ये कहते "कागद की लेखी" , मंत्री कहता "आंखन की देखी "। नौंवी मर्तबा विधायक बने बाबूलाल गौर को भला ’कल का आया’ क्या नेतृत्व- कला सिखाएगा ?कई तरह की पंचायतों के ज़रिये अपनी "टारगेट-ऑडियंस" की पहचान कर अपनी सफ़ल मार्केटिंग करने वाले मुख्यमंत्री को एडवर्टाइज़िंग और मार्केटिंग की बारीकियां सीखने की क्या ज़रुरत है ।
यह पाठशाला सरकार की छबि गढने और जनता को भुलावे में रखने की कोशिश से इतर कुछ नहीं है । धोती - कुर्ते से सूट -टाई के सफ़र तक ही बात ठहरे तो कोई चिंता नहीं ,लेकिन पहनावे के साथ लोकतंत्र पर कॉर्पोरेट जगत का रंग चढने लगे तो ये चौकन्ना होने का सबब है ।
वैसे तो इस वक्त हर जगह घालमेल मचा है । अभिनेता सियासी गलियारों में चहल कदमी कर रहे हैं । नेता रुपहले पर्दे पर धूम मचाने को उतावले हैं । उद्योगपति प्रधानमंत्री पद का दावेदार तैयार करने में मसरुफ़ हैं । जिन्हें सीखचों के पीछे होना चाहिए वो कानून बनाने में भागीदारी निभा रहे हैं । अदालतों को न्याय देने की बजाय नालियों, सडकों और छोटे - मोटे मुद्दों पर नोटिस जारी करने से फ़ुर्सत नहीं है ।
कुल मिला कर हर चीज़ वहां ही नहीं है ,जहां उसे होना चाहिए । मुल्क की हालिया परिस्थितियों के सामने आम आदमी की बेबसी को दुष्यंत कुमार के शब्दों की चुभन ही बयान कर सकती है ।
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ
गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं
पेट भर कर गालियाँ दो आह भर कर बद-दुआ
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ
वैसे आदर्शवाद का सामान्य रूप से राजनीतिक क्षेत्र में क्षरण हुआ है तो भारतीय जनता पार्टी में भी वो क्षरण दिखाई पड़ता है । भाजपा को एक जनआधारित काडर संगठन बनना था मगर ये हुआ नहीं । सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि राजनीतिक दल मूल्यों और मुद्दों से भटक कर केवल सत्ता के निरंकुश खेल के हिस्से बन गए हैं । भाजपा भी इसकी अपवाद नहीं है । आज की तारीख़ में सभी पार्टियों में 19-20 का फ़र्क रह गया है । झंडे - बैनरों के फ़र्क के अलावा कांग्रेस - भाजपा में अंतर करना मुश्किल हो चला है । इस पार्टी में नेतृत्व और समर्थक के चिंतन और व्यवहार के स्तर पर बहुत अंतर आ चुका है ।
भाजपा की आज तक की यात्रा में हर मोड़ पर उसके फ़ैसलों को देखें तो उसमें एक ऐसा सूत्र है जो उसके मूल रोग को प्रगट करता है. वह है- तदर्थ या तात्कालिकता की राजनीति । इसी से भाजपा संचालित होती रही है । चाहे विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स मुद्दे का आंदोलन हो या अयोध्या का मसला या राजग के शासन का कार्यकाल या आजकल की घटनाएं हों उनमें भाजपा तात्कालिकता के चलते लोक लुभावन मुद्दों के पीछे भागने की राजनीति करती रही है ।
इसका नतीजा यह है कि सांप के केंचुली बदलने की तरह ही भाजपा ने विचारधारा को उतार फ़ेंकने में कभी गुरेज़ नहीं किया । गठबंधन के राजनीतिक धर्म का हवाला देकर सिद्धांतों से समझौता किया । जिससे भाजपा के विचारवान समझे जाने वाले नेताओं की कलई खुल गई और वैचारिक साख नष्ट हो गई । देखना दिलचस्प होगा कि मंदी के दौर में घोटालों और घपलों का कॉर्पोरेट कल्चर प्रदेश में क्या गुल खिलाता है........?
प्रबंधन गुरुओं और प्रशासकों ने मंत्रियों को बेहतर नेतृत्व और कामकाज की कमान अपने हाथ में रखने के गुर सिखाये हैं । उबासी लेते नेताओं को इस अफ़लातूनी कवायद से वाकई कुछ हासिल हो सकेगा ...? आम जनता के लिए पैसे की तंगी का दुखडा सुनाने वाली सरकार ने दो दिन के लिए पचमढी की शानदार ग्लेन व्यू होटल को स्कूल में बदल दिया । मगर बुनियादी सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में मंत्री सीईओ हो सकता है ,जो उन्हें कॉर्पोरेट सेक्टर का एक्सपोज़र दिया जाए ? पब कल्चर को पाश्चात्य बताकर आसमान सिर पर उठाने वाली पार्टी कॉर्पोरेट कल्चर अपनाने के लिए इतनी उत्साहित क्यों है ?
विभाग अध्यक्ष ,सचिव ,सलाहकार बगैरह के रुप में बहुत से प्रबंधक मंत्रियों के अधीन रहते हैं । मंत्री का दायित्व नीति निर्धारण का है । कुशल प्रशासक के तौर पर प्रख्यात एम. एन. बुच की राय में मंत्री का काम नीति निर्धारण के बाद उसके क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी लेना है । वास्तव में मंत्रियों को सिर्फ़ यही पाठ पढाने की ज़रुरत है । नेतृत्व की कला मंत्री बखूबी जानते हैं । ये सभी राजनीति की रेलमपेल में टिकट लेने से लेकर चुनाव जीतने तक हर दांवपेंच आज़मा चुके हैं । केबिनेट में दाखिला पाना भी बच्चों का खेल नहीं ....। गलाकाट स्पर्धा में अव्वल नंबर हासिल करने के बाद ही मंत्री की कुर्सी मिल पाती है । उठापटक के बावजूद सियासी मैदान में "अंगद की तरह" जमे रहना हंसी मज़ाक नहीं है ।
राजनीति की खाक छानने वाले "गुरु घंटालों" को नई पीढी के सुविधाभोगी "कॉर्पोरेट गुरु" भला क्या पाठ पढा सकेंगे ?ये कहते "कागद की लेखी" , मंत्री कहता "आंखन की देखी "। नौंवी मर्तबा विधायक बने बाबूलाल गौर को भला ’कल का आया’ क्या नेतृत्व- कला सिखाएगा ?कई तरह की पंचायतों के ज़रिये अपनी "टारगेट-ऑडियंस" की पहचान कर अपनी सफ़ल मार्केटिंग करने वाले मुख्यमंत्री को एडवर्टाइज़िंग और मार्केटिंग की बारीकियां सीखने की क्या ज़रुरत है ।
यह पाठशाला सरकार की छबि गढने और जनता को भुलावे में रखने की कोशिश से इतर कुछ नहीं है । धोती - कुर्ते से सूट -टाई के सफ़र तक ही बात ठहरे तो कोई चिंता नहीं ,लेकिन पहनावे के साथ लोकतंत्र पर कॉर्पोरेट जगत का रंग चढने लगे तो ये चौकन्ना होने का सबब है ।
वैसे तो इस वक्त हर जगह घालमेल मचा है । अभिनेता सियासी गलियारों में चहल कदमी कर रहे हैं । नेता रुपहले पर्दे पर धूम मचाने को उतावले हैं । उद्योगपति प्रधानमंत्री पद का दावेदार तैयार करने में मसरुफ़ हैं । जिन्हें सीखचों के पीछे होना चाहिए वो कानून बनाने में भागीदारी निभा रहे हैं । अदालतों को न्याय देने की बजाय नालियों, सडकों और छोटे - मोटे मुद्दों पर नोटिस जारी करने से फ़ुर्सत नहीं है ।
कुल मिला कर हर चीज़ वहां ही नहीं है ,जहां उसे होना चाहिए । मुल्क की हालिया परिस्थितियों के सामने आम आदमी की बेबसी को दुष्यंत कुमार के शब्दों की चुभन ही बयान कर सकती है ।
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ
गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं
पेट भर कर गालियाँ दो आह भर कर बद-दुआ
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ
वैसे आदर्शवाद का सामान्य रूप से राजनीतिक क्षेत्र में क्षरण हुआ है तो भारतीय जनता पार्टी में भी वो क्षरण दिखाई पड़ता है । भाजपा को एक जनआधारित काडर संगठन बनना था मगर ये हुआ नहीं । सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि राजनीतिक दल मूल्यों और मुद्दों से भटक कर केवल सत्ता के निरंकुश खेल के हिस्से बन गए हैं । भाजपा भी इसकी अपवाद नहीं है । आज की तारीख़ में सभी पार्टियों में 19-20 का फ़र्क रह गया है । झंडे - बैनरों के फ़र्क के अलावा कांग्रेस - भाजपा में अंतर करना मुश्किल हो चला है । इस पार्टी में नेतृत्व और समर्थक के चिंतन और व्यवहार के स्तर पर बहुत अंतर आ चुका है ।
भाजपा की आज तक की यात्रा में हर मोड़ पर उसके फ़ैसलों को देखें तो उसमें एक ऐसा सूत्र है जो उसके मूल रोग को प्रगट करता है. वह है- तदर्थ या तात्कालिकता की राजनीति । इसी से भाजपा संचालित होती रही है । चाहे विश्वनाथ प्रताप सिंह के बोफोर्स मुद्दे का आंदोलन हो या अयोध्या का मसला या राजग के शासन का कार्यकाल या आजकल की घटनाएं हों उनमें भाजपा तात्कालिकता के चलते लोक लुभावन मुद्दों के पीछे भागने की राजनीति करती रही है ।
इसका नतीजा यह है कि सांप के केंचुली बदलने की तरह ही भाजपा ने विचारधारा को उतार फ़ेंकने में कभी गुरेज़ नहीं किया । गठबंधन के राजनीतिक धर्म का हवाला देकर सिद्धांतों से समझौता किया । जिससे भाजपा के विचारवान समझे जाने वाले नेताओं की कलई खुल गई और वैचारिक साख नष्ट हो गई । देखना दिलचस्प होगा कि मंदी के दौर में घोटालों और घपलों का कॉर्पोरेट कल्चर प्रदेश में क्या गुल खिलाता है........?
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