मध्यप्रदेश में बैतूल और रायसेन के ज़िला निर्वाचन अधिकारियों के फ़ैसलों ने कहीं खुशी - कहीं ग़म की स्थिति बना दी है । भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज की उम्मीदवारी के कारण हाई प्रोफाइल बनी मध्यप्रदेश की विदिशा संसदीय सीट से काँग्रेस प्रत्याशी राजकुमार पटेल का पर्चा खारिज हो गया है । वहीं बैतूल में भाजपा उम्मीदवार ज्योति धुर्वे के हक में निर्णय आया है । काँग्रेस ने श्रीमती धुर्वे का जाति प्रमाणपत्र फ़र्ज़ी होने का आरोप लगाया था । जाँच और दोनों पक्षों की दलील के बाद उनका पर्चा सही पाया गया ।
काँग्रेस उम्मीदवार राजकुमार पटेल ने अपने नामजदगी के पर्चे के साथ फार्म ए की मूल प्रति के स्थान पर छाया प्रति जमा की जिसे निर्वाचन अधिकारी ने अमान्य कर दिया है। इस मामले पर पार्टी में ही कई तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। लेकिन सारे मामले में पटेल की "भूमिका" की जांच चुनाव के बाद ही होगी । बैकफुट पर नजर आ रही पार्टी अब अन्य विकल्प तलाशने के साथ ही प्रतिष्ठा बचाने के प्रयास में जुटी है।
पार्टी के नेता हैरान हैं कि भाजपा की राष्ट्रीय नेता के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी और पूर्व मंत्री श्री पटेल से ए फार्म समय पर दाखिल करने के मामले में चूक कैसे हो गयी ? साथ ही इस क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी श्रीमती स्वराज को वॉकओवर देने का मुद्दा गर्माने को लेकर भी पार्टी में खलबली मची हुई है । इस घटनाक्रम से कार्यकर्ता हताश और नेता हतप्रभ हैं ।
दुविधा में फ़ँसी पार्टी अब नाक बचाने के लिये दूसरे विकल्प तलाश रही है । निर्दलीय के तौर पर पर्चा भरने वाले श्री पटेल के भाई देव कुमार पटेल को समर्थन देने के मुद्दे पर भी पानी फ़िर गया है । देवकुमार पटॆल का नामांकन भी रद्द हो जाने से कांग्रेस को एक बार फ़िर निराशा ही हाथ लगी है । दोनों ही नामांकन खारिज होने के बाद अब यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या सुषमा स्वराज को काँग्रेस वॉकओवर देने जा रही है । हालांकि काँग्रेस पटेल प्रकरण पर सकते में है । पार्टी उनके खिलाफ़ निष्कासन जैसी कड़ी कार्रवाई का मन बना रही है ।
वैसे पटेल ने नामांकन फ़ॉर्म जमा करते समय जिस तरह की मासूमियत दिखाई ,वह चौंकाने वाली है । काँग्रेस को इससे भारी फ़जीहत का सामना करना पड़ रहा है । विदिशा से सुषमा स्वराज का नाम सामने आने के बाद पार्टी ने किसी नए चेहरे पर दाँव लगाने की बजाय तज़ुर्बे को तरजीह देते हुए पटेल की दावेदारी को बेहतर समझा । काँग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि उम्मीदवारों को नामांकन फ़ॉर्म भरने से जुड़ी सभी ज़रुरी बातें अच्छी तरह समझाई जाती हैं । पटेल के मामले में जानकारों को साज़िश की बू आ रही है क्योंकि पटेल को खुद कई चुनाव लड़ने का अनुभव है ।
अब उनका इतिहास भी खंगाला जा रहा है । वे बुधनी से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के खिलाफ़ भी चुनाव लड़ चुके हैं । इसे दिलचस्प संयोग ही कहा जाए कि उस वक्त भी उन्होंने नामांकन पत्र में अपनी पार्टी का नाम ही ग़लत भर दिया था । वहाँ मौजूद कुछ वरिष्ठ लोगों ने तत्काल भूल सुधरवा दी थी । हारने के बाद उन्होंने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी ,लेकिन वे एक बार भी गवाही के लिये अदालत नहीं पहुँचे । लिहाज़ा मामले में एकतरफ़ा फ़ैसला सुना दिया गया ।
बहरहाल काँग्रेस प्रत्याशी श्री पटेल का कहना है कि वे कानूनी परामर्श के बाद कदम उठाएंगे । उन्होंने कहा कि जिला निर्वाचन अधिकारी ने अन्य प्रत्याशियों से तीन बजे के बाद भी दस्तावेज लिए लेकिन सिर्फ उन्हीं से फार्म ए नहीं लिया। फार्म ए कलेक्टर को तीन बजकर सात मिनट पर दिया गया था जबकि नामांकन पत्र 2 बजकर 14 मिनट पर जमा किया गया।
उधर सूत्रों का कहना है कि काँग्रेस प्रत्याशी राजकुमार पटेल ने शनिवार को दोपहर 4.10 बजे जिला निर्वाचन अधिकारी को एक आवेदन दिया था । जिसमें उन्होंने कहा था कि वे निर्धारित समय से विलंब से अपना "ए" फार्म जमा कर रहे हैं। इसे स्वीकार करने के बारे में जिला निर्वाचन अधिकारी का जो भी निर्णय होगा वह उन्हें मंजूर होगा । मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी कार्यालय के सूत्रों के अनुसार प्रत्याशी को नामांकन पत्र दाखिल करने के साथ निर्धारित समयसीमा में फार्म ए भी निर्वाचन अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। अन्यथा प्रत्याशी संबंधित राजनीतिक दल का नहीं माना जाएगा।
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
सियासत के गलियारों में फ़िल्मी सितारे
बाज़ारवाद और भ्रष्टाचार के कारण अब नेता और अभिनेता के बीच का फ़र्क धीरे - धीरे खत्म होता जा रहा है । रुपहले पर्दे पर ग्लैमर का जलवा बिखेरने वाले अभिनेताओं को अब सियासी गलियारों की चमक-दमक लुभाने लगी है । गठबंधन की राजनीतिक मजबूरियों में अमरसिंह जैसे सत्ता के दलालों की सक्रियता बढ़ा दी है । हीरो-हिरोइनों से घिरे रहने के शौकीन अमरसिंह कब राजनीति करते हैं और कब सधी हुई अदाकारी ,समझ पाना बेहद मुश्किल है । "राजनीतिक अड़ीबाज़" के तौर पर ख्याति पाने वाले अमर सिंह के कारण सियासत और फ़िल्मी दुनिया का घालमेल हो गया है ।
जनसभाओं में लोग देश के हालात और आम जनता से जुड़े मुद्दों पर धारदार तकरीर सुनने के लिये जमा होते हैं , मगर अब चुनावी सभाओं में नेताओं के नारे और वायदों की बजाय बसंती और मुन्ना भाई के डायलॉग की गूँज तेज हो चली है । रोड शो में नेता को फ़ूलमाला पहनाने के लिये बढ़ने वाले हाथों की तादाद कम और अपने मनपसंद अदाकार की एक झलक पाने ,उन्हें छू कर देखने की बेताबी बढ़ती जा रही है । युवाओं की भीड़ जुटाने के लिये सियासी पार्टियाँ फ़िल्मी कलाकारों का साथ पाने की होड़ में लगी रहती हैं ।
लोक सभा चुनावों में इस बार फ़िल्मी सितारों की भरमार देखने को मिल रही है । संसद में सीटें बढा़ने के लिए सियासी पार्टियाँ बढ़-चढ़ कर फ़िल्मी हस्तियों का सहारा ले रही हैं । वैसे फ़िल्मी सितारों का राजनीति में आने का सिलसिला कोई नया नहीं है लेकिन इस बार ये संख्या काफ़ी ज्यादा है । सुपर स्टार तो पार्टियों के दुलारे हमेशा से रहे हैं,मगर अब हास्य कलाकारों और खलनायकों को भी भीड़ जुटाने के लिये जनता के बीच भेजने का सिलसिला भी ज़ोर पकड़ने लगा है ।
देश में उत्तर से लेकर दक्षिण तक फिल्मी हस्तियाँ चुनाव प्रचार में शिरकत कर रही हैं । कुछ फ़िल्मी सितारे चुनाव मैदान में किस्मत आज़माने उतरे हैं जबकि कुछ चुनाव प्रचार करने वाले हैं । दक्षिण में फ़िल्मी कलाकारों के राजनीति में सफ़ल होने के कई उदाहरण मिल जाएँगे । एनटी रामाराव , एम जी रामचंद्रन , जयललिता, रजनीकांत ऎसे नाम हैं , जिन्होंने फ़िल्मी कैरियर में अपार सफ़लता पाने के साथ ही मतदाताओं के दिलों पर भी बरसों राज किया और प्रदेश का तख्तोताज सम्हाला । तेलुगू सिनेमा के सुपरस्टार चिरंजीवी ने पिछले साल ही प्रजा राज्यम पार्टी बनाई थी । वे इस बार दो संसदीय सीटों से चुनाव लड़ेंगे । उनके अलावा एनटी रामाराव के बेटे नंदामुरी बालाकृष्णन, सत्तर और अस्सी के दशक की मशहूर अभिनेत्री जयासुधा और विजया शांति भी चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं ।
उत्तर भारत में जनता की भीड़ जुटाने में कई सितारे कामयाब रहे लेकिन संसद के गलियारों में उनकी चमक फ़ीकी पड़ गई । राजेश खन्ना , गोविंदा ,धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन ने मतदाताओं को निराश किया । वहीं ऎसे सितारे भी हैं जिन्होंने संसद में अपनी सक्रियता से धाकड़ नेताओं को मात दे दी । इनमें सुनील दत्त , हेमा मालिनी , राज बब्बर , विनोद खन्ना के नाम प्रमुखता से आते हैं । उत्तर प्रदेश में इस बार मतदाताओं को कई फिल्मी कलाकारों से रुबरु होने का मौका मिल रहा है । राज बब्बर, मनोज तिवारी और जयाप्रदा चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं , वहीं भोजपुरी फ़िल्मों के मशहूर अभिनेता रवि किशन काँग्रेस का प्रचार करते नज़र आएँगे । उनके अलावा गोविंदा और नगमा ने भी महाराष्ट्र में काँग्रेस के लिए प्रचार की हामी भरी है । अक्षय कुमार, सलमान खान और प्रीति ज़िंटा भी काँग्रेस उम्मीदवारों के लिये वोट माँगते दिखाई देंगे ।
दरअसल जनाधार मजबूत करने के लिए राजनीतिक पार्टियाँ फ़िल्मी कलाकारों को टिकट देती रही हैं । आम जनता के बीच उनकी लोकप्रियता को भुनाने के पार्टियाँ रुपहले पर्दे के कलाकारों को अपना प्रतिनिधि बनाने की पहल करती हैं । वैसे देखा जाए तो सामाजिक सरोकार के नाते अगर कोई कलाकार राजनीति में आता है तो ये देश और समाज के लिहाज़ से प्रशंसनीय माना जाएगा ।
एक बड़ा तबका मानता है कि जोश की बजाय होश के साथ सियासत में आने का फ़ैसला लेने वाले कलाकारों का स्वागत होना चाहिए । उनका तर्क है कि अगर पत्रकार आ सकते हैं, किसान आ सकते हैं , तो फ़िल्म स्टार क्यों नहीं आ सकते ? बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीत कर केन्द्र में मंत्री पद सम्हालने वाले विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा का कहना है कि अगर कोई फ़िल्म स्टार अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होकर उसका प्रचार करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि उसकी भी अपनी विचारधारा हो सकती है ।
शत्रुघ्न सिन्हा कहते हैं कि आजकल जिस तरह से फ़िल्म स्टार्स राजनीति में आ रहे हैं उसके पीछे वजह ये है कि वे लोकप्रिय होने के साथ ही आर्थिक रुप से मज़बूत भी हैं । ऎसे में राजनीतिक पार्टी पर आर्थिक दबाव नहीं रहता । इसके अलावा फ़िल्म स्टार्स राजनीति में राजकीय सम्मान पाने की लालसा से आते हैं जबकि राजनीतिक पार्टियाँ उनके जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचना चाहती हैं । इस तरह दोनों ही एक दूसरे की ज़रुरत पूरी करते हैं । वहीं अभिनेता से नेता बने धर्मेंद्र की हिदायत है कि फ़िल्म स्टार अगर राजनीति से दूर ही रहें तो अच्छा है । उनकी राय में अभिनेता को अभिनय तक ही रहना चाहिए और राजनीति में नहीं जाना चाहिए ।
राजनीति से तौबा कर चुके सदी के महानायक भी राजनीति में जाने के अपने फ़ैसले को गलत मानते हैं । एक फिल्मी पत्रिका से बातचीत मे उन्होंने कहा था,"मुझे कभी राजनीति मे नहीं जाना चाहिए था । अब मैंने सबक सीख लिया है । अब आगे और राजनीति नहीं ।" अमिताभ ने सफाई दी कि इंदिरा जी की हत्या के बाद 1985 में वह भावुकता में राजीव का साथ देने के लिए राजनीति मे आ गए थे । "मगर न तो मुझे तब राजनीति आती थी, न अब आती है और न मैं भविष्य में राजनीति सीखना चाहूँगा ।"
तमाम ना नुकुर के बीच एक सच्चाई ये भी है कि समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह की बच्चन परिवार से करीबी के कारण भले ही अमिताभ तकनीकी रूप से समाजवादी पार्टी के सदस्य न बने हों , लेकिन समाजवादी पार्टी के सियासी जलसों में वे अक्सर दिखाई देते रहे हैं । समाजवादी पार्टी संजय दत्त की "मुन्ना भाई" वाली छबि को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती । सुप्रीम कोर्ट से चुनाव लड़ने की इजाज़त नहीं मिलने पर संजय दत्त को पार्टी का महासचिव बना दिया गया है । पर्दे पर दूसरे के लिखे डायलॉग की बेहतर अंदाज़ में अदायगी करके वाहवाही बटोरने वाले "मुन्ना भाई" के टीवी इंटरव्यू तो खूब हो रहे हैं ।
मज़े की बात ये है कि हर साक्षात्कार में अमर सिंह साये के तरह साथ ही चिपके रहते हैं और तो और संजय को मुँह भी नहीं खोलने देते । उनसे पूछे गये हर सवाल का उत्तर "अमरवाणी" के ज़रिये ही आता है । शायद कठपुतली की हैसियत भी इससे बेहतर ही होती है , कम से कम वो अपने ओंठ तो हिला सकती है । लगता है यहाँ भी मुन्ना भाई के पर्चे अमरसिंह ही हल कर रहे हैं ,बिल्कुल "मुन्ना भाई एमबीबीएस" फ़िल्म की ही तरह ।
वहीं एक दूसरा वर्ग ऎसा भी है जो चुनावी मौसम में अपने फ़ायदे के लिए फ़िल्मी कलाकारों के इस्तेमाल को जायज़ नहीं मानता । राजनीति के जानकार भी मानते हैं कि राजनीति और फ़िल्मों का रिश्ता काफ़ी पुराना है और ये दोनों एक दूसरे की ज़रुरतों को पूरा करते हैं । पंडित नेहरु के जमाने में भी राजकपूर और नरगिस वगैरह की काँग्रेस से नज़दीकी थी और वो राज्यसभा में भी भेजे गए थे ।
बेशक , इतनी बड़ी संख्या में सितारों की मौजूदगी से चुनाव में चमक - दमक बढ़ गई है । लेकिन इस शोरगुल में आम जनता की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी मुद्दे कहीं गुम हो गये हैं । बहरहाल यह जमावड़ा देखकर कहा जा सकता है कि जहाँ राजनीतिक पार्टियाँ रुपहले पर्दे के सितारों के सहारे ज्यादा से ज्यादा लोगों को लुभाने और अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने की तैयारी में हैं । वहीं ये फ़िल्मी सितारे भी सत्ता के गलियारे में जाने को लेकर काफ़ी उत्साहित दिख रहे हैं ।
जनसभाओं में लोग देश के हालात और आम जनता से जुड़े मुद्दों पर धारदार तकरीर सुनने के लिये जमा होते हैं , मगर अब चुनावी सभाओं में नेताओं के नारे और वायदों की बजाय बसंती और मुन्ना भाई के डायलॉग की गूँज तेज हो चली है । रोड शो में नेता को फ़ूलमाला पहनाने के लिये बढ़ने वाले हाथों की तादाद कम और अपने मनपसंद अदाकार की एक झलक पाने ,उन्हें छू कर देखने की बेताबी बढ़ती जा रही है । युवाओं की भीड़ जुटाने के लिये सियासी पार्टियाँ फ़िल्मी कलाकारों का साथ पाने की होड़ में लगी रहती हैं ।
लोक सभा चुनावों में इस बार फ़िल्मी सितारों की भरमार देखने को मिल रही है । संसद में सीटें बढा़ने के लिए सियासी पार्टियाँ बढ़-चढ़ कर फ़िल्मी हस्तियों का सहारा ले रही हैं । वैसे फ़िल्मी सितारों का राजनीति में आने का सिलसिला कोई नया नहीं है लेकिन इस बार ये संख्या काफ़ी ज्यादा है । सुपर स्टार तो पार्टियों के दुलारे हमेशा से रहे हैं,मगर अब हास्य कलाकारों और खलनायकों को भी भीड़ जुटाने के लिये जनता के बीच भेजने का सिलसिला भी ज़ोर पकड़ने लगा है ।
देश में उत्तर से लेकर दक्षिण तक फिल्मी हस्तियाँ चुनाव प्रचार में शिरकत कर रही हैं । कुछ फ़िल्मी सितारे चुनाव मैदान में किस्मत आज़माने उतरे हैं जबकि कुछ चुनाव प्रचार करने वाले हैं । दक्षिण में फ़िल्मी कलाकारों के राजनीति में सफ़ल होने के कई उदाहरण मिल जाएँगे । एनटी रामाराव , एम जी रामचंद्रन , जयललिता, रजनीकांत ऎसे नाम हैं , जिन्होंने फ़िल्मी कैरियर में अपार सफ़लता पाने के साथ ही मतदाताओं के दिलों पर भी बरसों राज किया और प्रदेश का तख्तोताज सम्हाला । तेलुगू सिनेमा के सुपरस्टार चिरंजीवी ने पिछले साल ही प्रजा राज्यम पार्टी बनाई थी । वे इस बार दो संसदीय सीटों से चुनाव लड़ेंगे । उनके अलावा एनटी रामाराव के बेटे नंदामुरी बालाकृष्णन, सत्तर और अस्सी के दशक की मशहूर अभिनेत्री जयासुधा और विजया शांति भी चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं ।
उत्तर भारत में जनता की भीड़ जुटाने में कई सितारे कामयाब रहे लेकिन संसद के गलियारों में उनकी चमक फ़ीकी पड़ गई । राजेश खन्ना , गोविंदा ,धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन ने मतदाताओं को निराश किया । वहीं ऎसे सितारे भी हैं जिन्होंने संसद में अपनी सक्रियता से धाकड़ नेताओं को मात दे दी । इनमें सुनील दत्त , हेमा मालिनी , राज बब्बर , विनोद खन्ना के नाम प्रमुखता से आते हैं । उत्तर प्रदेश में इस बार मतदाताओं को कई फिल्मी कलाकारों से रुबरु होने का मौका मिल रहा है । राज बब्बर, मनोज तिवारी और जयाप्रदा चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं , वहीं भोजपुरी फ़िल्मों के मशहूर अभिनेता रवि किशन काँग्रेस का प्रचार करते नज़र आएँगे । उनके अलावा गोविंदा और नगमा ने भी महाराष्ट्र में काँग्रेस के लिए प्रचार की हामी भरी है । अक्षय कुमार, सलमान खान और प्रीति ज़िंटा भी काँग्रेस उम्मीदवारों के लिये वोट माँगते दिखाई देंगे ।
दरअसल जनाधार मजबूत करने के लिए राजनीतिक पार्टियाँ फ़िल्मी कलाकारों को टिकट देती रही हैं । आम जनता के बीच उनकी लोकप्रियता को भुनाने के पार्टियाँ रुपहले पर्दे के कलाकारों को अपना प्रतिनिधि बनाने की पहल करती हैं । वैसे देखा जाए तो सामाजिक सरोकार के नाते अगर कोई कलाकार राजनीति में आता है तो ये देश और समाज के लिहाज़ से प्रशंसनीय माना जाएगा ।
एक बड़ा तबका मानता है कि जोश की बजाय होश के साथ सियासत में आने का फ़ैसला लेने वाले कलाकारों का स्वागत होना चाहिए । उनका तर्क है कि अगर पत्रकार आ सकते हैं, किसान आ सकते हैं , तो फ़िल्म स्टार क्यों नहीं आ सकते ? बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीत कर केन्द्र में मंत्री पद सम्हालने वाले विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा का कहना है कि अगर कोई फ़िल्म स्टार अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होकर उसका प्रचार करता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि उसकी भी अपनी विचारधारा हो सकती है ।
शत्रुघ्न सिन्हा कहते हैं कि आजकल जिस तरह से फ़िल्म स्टार्स राजनीति में आ रहे हैं उसके पीछे वजह ये है कि वे लोकप्रिय होने के साथ ही आर्थिक रुप से मज़बूत भी हैं । ऎसे में राजनीतिक पार्टी पर आर्थिक दबाव नहीं रहता । इसके अलावा फ़िल्म स्टार्स राजनीति में राजकीय सम्मान पाने की लालसा से आते हैं जबकि राजनीतिक पार्टियाँ उनके जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचना चाहती हैं । इस तरह दोनों ही एक दूसरे की ज़रुरत पूरी करते हैं । वहीं अभिनेता से नेता बने धर्मेंद्र की हिदायत है कि फ़िल्म स्टार अगर राजनीति से दूर ही रहें तो अच्छा है । उनकी राय में अभिनेता को अभिनय तक ही रहना चाहिए और राजनीति में नहीं जाना चाहिए ।
राजनीति से तौबा कर चुके सदी के महानायक भी राजनीति में जाने के अपने फ़ैसले को गलत मानते हैं । एक फिल्मी पत्रिका से बातचीत मे उन्होंने कहा था,"मुझे कभी राजनीति मे नहीं जाना चाहिए था । अब मैंने सबक सीख लिया है । अब आगे और राजनीति नहीं ।" अमिताभ ने सफाई दी कि इंदिरा जी की हत्या के बाद 1985 में वह भावुकता में राजीव का साथ देने के लिए राजनीति मे आ गए थे । "मगर न तो मुझे तब राजनीति आती थी, न अब आती है और न मैं भविष्य में राजनीति सीखना चाहूँगा ।"
तमाम ना नुकुर के बीच एक सच्चाई ये भी है कि समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह की बच्चन परिवार से करीबी के कारण भले ही अमिताभ तकनीकी रूप से समाजवादी पार्टी के सदस्य न बने हों , लेकिन समाजवादी पार्टी के सियासी जलसों में वे अक्सर दिखाई देते रहे हैं । समाजवादी पार्टी संजय दत्त की "मुन्ना भाई" वाली छबि को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती । सुप्रीम कोर्ट से चुनाव लड़ने की इजाज़त नहीं मिलने पर संजय दत्त को पार्टी का महासचिव बना दिया गया है । पर्दे पर दूसरे के लिखे डायलॉग की बेहतर अंदाज़ में अदायगी करके वाहवाही बटोरने वाले "मुन्ना भाई" के टीवी इंटरव्यू तो खूब हो रहे हैं ।
मज़े की बात ये है कि हर साक्षात्कार में अमर सिंह साये के तरह साथ ही चिपके रहते हैं और तो और संजय को मुँह भी नहीं खोलने देते । उनसे पूछे गये हर सवाल का उत्तर "अमरवाणी" के ज़रिये ही आता है । शायद कठपुतली की हैसियत भी इससे बेहतर ही होती है , कम से कम वो अपने ओंठ तो हिला सकती है । लगता है यहाँ भी मुन्ना भाई के पर्चे अमरसिंह ही हल कर रहे हैं ,बिल्कुल "मुन्ना भाई एमबीबीएस" फ़िल्म की ही तरह ।
वहीं एक दूसरा वर्ग ऎसा भी है जो चुनावी मौसम में अपने फ़ायदे के लिए फ़िल्मी कलाकारों के इस्तेमाल को जायज़ नहीं मानता । राजनीति के जानकार भी मानते हैं कि राजनीति और फ़िल्मों का रिश्ता काफ़ी पुराना है और ये दोनों एक दूसरे की ज़रुरतों को पूरा करते हैं । पंडित नेहरु के जमाने में भी राजकपूर और नरगिस वगैरह की काँग्रेस से नज़दीकी थी और वो राज्यसभा में भी भेजे गए थे ।
बेशक , इतनी बड़ी संख्या में सितारों की मौजूदगी से चुनाव में चमक - दमक बढ़ गई है । लेकिन इस शोरगुल में आम जनता की ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी मुद्दे कहीं गुम हो गये हैं । बहरहाल यह जमावड़ा देखकर कहा जा सकता है कि जहाँ राजनीतिक पार्टियाँ रुपहले पर्दे के सितारों के सहारे ज्यादा से ज्यादा लोगों को लुभाने और अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने की तैयारी में हैं । वहीं ये फ़िल्मी सितारे भी सत्ता के गलियारे में जाने को लेकर काफ़ी उत्साहित दिख रहे हैं ।
लेबल:
चुनाव,
जनसभा,
फ़िल्मी सितारे,
संजय दत्त,
समाजवादी पार्टी
मंगलवार, 31 मार्च 2009
चुनावी समर में काँग्रेस बनी रणछोड़दास
लोकसभा चुनावों को लेकर मध्यप्रदेश में बीजेपी हर मोर्चे पर बढ़त लेकर बुलंद हौंसलों के साथ आगे बढ़ रही है ,जबकि काँग्रेस टिकट बँटवारे को लेकर मचे घमासान में ही पस्त हो गई है । रणछोड़दास की भूमिका में आई काँग्रेस ने पूरे प्रदेश में थके-हारे नेताओं को टिकट देकर बीजेपी की राह आसान कर दी है । एकतरफ़ा मुकाबले से मतदाताओं की दिलचस्पी भी खत्म होती जा रही है । काँग्रेस की गुटबाज़ी को लेकर उपजे चटखारे ही अब इन चुनावों की रोचकता बचाये हुए हैं । बहरहाल जगह-जगह पुतले जलाने का सिलसिला और हाईकमान के खिलाफ़ नारेबाज़ी ही इस बात की तस्दीक कर पा रहे हैं कि प्रदेश में काँग्रेस का अस्तित्व अब भी शेष है ।
मध्यप्रदेश में अब तक लगभग सभी सीटों पर बीजेपी और काँग्रेस उम्मीदवारों की घोषणा से स्थिति स्पष्ट हो चली है । चुनाव की तारीखों से एक महीने पहले उम्मीदवारों का चयन पूरा कर लेने का दम भरने वाली काँग्रेस अधिसूचना जारी होने के बावजूद होशंगाबाद और सतना सीट के लिये अभी तक किसी नाम पर एकराय नहीं हुई है । गुटबाज़ी का आलम ये है कि काँग्रेस के दिग्गजों को बीजेपी से कम और अपनों से ज़्यादा खतरा है , लिहाज़ा वे अपने क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गये हैं ।
भाजपा ने 29 लोकसभा सीटों में से 28 और कांग्रेस ने 27 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। अपनी घोषणा के अनुसार बीजेपी ने एक भी मंत्री को चुनाव मैदान में नहीं उतारा , अलबत्ता पूर्व मंत्री और दतिया के विधायक डा. नरोत्तम मिश्रा को गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ़ मैदान में उतारा है , जबकि कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए पांच विधायक , सज्जन सिंह वर्मा (देवास), सत्यनारायण पटेल (इंदौर), विश्वेश्वर भगत (बालाघाट), रामनिवास रावत (मुरैना) और बाला बच्चन (खरगोन) को चुनावी समर में भेजा है । मगर काँग्रेस दो मजबूत दावेदारों को भूल गई । प्रदेश चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष अजय सिंह सीधी से मजबूत प्रत्याशी माने जा रहे थे। चुनाव लड़ने के इच्छुक श्री सिंह पिछले तीन महीने से सीधी लोकसभा क्षेत्र में सक्रिय थे । इसी तरह विधानसभा में प्रतिपक्ष की नेता जमुना देवी के विधायक भतीजे उमंग सिंघार को भी लोकसभा का टिकिट नहीं मिला।
प्रदेश में काँग्रेस की दयनीय हालत का अँदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भोपाल सीट के लिए स्थानीय पार्षद स्तर के नेता भी टिकट की दावेदारी कर रहे थे । आखिरी वक्त पर टिकट कटने से खफ़ा पूर्व विधायक पीसी शर्मा तो बगावत पर उतारु हैं । विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी नहीं बनाने पर श्री शर्मा ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऎलान कर दिया था । लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारी के वायदे पर मामला शांत हो गया था , लेकिन हाईकमान की वायदाखिलाफ़ी से शर्मा समर्थक बेहद खफ़ा हैं और ना सिर्फ़ सड़कों पर आ गये हैं , बल्कि इस्तीफ़ों का दौर भी शुरु हो चुका है ।
काँग्रेस की कार्यशैली को देखकर लगता है कि तीन महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने के बावजूद मिली करारी शिकस्त से प्रदेश काँग्रेस और आलाकमान ने कोई सबक नहीं लिया । अब भी पार्टी के क्षत्रप शक्ति प्रदर्शन में मसरुफ़ हैं । हकीकत यह है कि प्रदेश में काँग्रेस की हालत खस्ता है । लोकसभा प्रत्याशियों की सूची पर निगाह दौड़ाने से यह बात पुख्ता हो जाती है । उम्मीदवारों के चयन में चुनाव जीतने की चिंता से ज़्यादा गुटीय संतुलन साधने की कोशिश की गई है । इस बात को तरजीह दी गई है कि सभी गुट और खासकर उनके सरदार खुश रहें । विधानसभा चुनाव में भी टिकट बँटवारे की सिर-फ़ुटौव्वल को थामने के लिये ऎसा ही मध्यमार्ग चुना गया था और उसका हश्र सबके सामने है ।
इस पूरी प्रक्रिया से क्षुब्ध वरिष्ठ नेता जमुना देवी ने जिला अध्यक्षों की बैठक में साफ़ कह दिया था कि प्रदेश में पार्टी को चार-पाँच सीटों से ज़्यादा की उम्मीद नहीं करना चाहिए । हो सकता है ,उनके इस बयान को अनुशासनहीनता माना जाये लेकिन उनकी कही बातें सौ फ़ीसदी सही हैं । सफ़लता का मीठा फ़ल चखने के लिए कड़वी बातों को सुनना - समझना भी ज़रुरी है , मगर काँग्रेस फ़िलहाल इस मूड में नहीं है ।
मध्यप्रदेश में अब तक लगभग सभी सीटों पर बीजेपी और काँग्रेस उम्मीदवारों की घोषणा से स्थिति स्पष्ट हो चली है । चुनाव की तारीखों से एक महीने पहले उम्मीदवारों का चयन पूरा कर लेने का दम भरने वाली काँग्रेस अधिसूचना जारी होने के बावजूद होशंगाबाद और सतना सीट के लिये अभी तक किसी नाम पर एकराय नहीं हुई है । गुटबाज़ी का आलम ये है कि काँग्रेस के दिग्गजों को बीजेपी से कम और अपनों से ज़्यादा खतरा है , लिहाज़ा वे अपने क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गये हैं ।
भाजपा ने 29 लोकसभा सीटों में से 28 और कांग्रेस ने 27 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। अपनी घोषणा के अनुसार बीजेपी ने एक भी मंत्री को चुनाव मैदान में नहीं उतारा , अलबत्ता पूर्व मंत्री और दतिया के विधायक डा. नरोत्तम मिश्रा को गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ़ मैदान में उतारा है , जबकि कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए पांच विधायक , सज्जन सिंह वर्मा (देवास), सत्यनारायण पटेल (इंदौर), विश्वेश्वर भगत (बालाघाट), रामनिवास रावत (मुरैना) और बाला बच्चन (खरगोन) को चुनावी समर में भेजा है । मगर काँग्रेस दो मजबूत दावेदारों को भूल गई । प्रदेश चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष अजय सिंह सीधी से मजबूत प्रत्याशी माने जा रहे थे। चुनाव लड़ने के इच्छुक श्री सिंह पिछले तीन महीने से सीधी लोकसभा क्षेत्र में सक्रिय थे । इसी तरह विधानसभा में प्रतिपक्ष की नेता जमुना देवी के विधायक भतीजे उमंग सिंघार को भी लोकसभा का टिकिट नहीं मिला।
प्रदेश में काँग्रेस की दयनीय हालत का अँदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भोपाल सीट के लिए स्थानीय पार्षद स्तर के नेता भी टिकट की दावेदारी कर रहे थे । आखिरी वक्त पर टिकट कटने से खफ़ा पूर्व विधायक पीसी शर्मा तो बगावत पर उतारु हैं । विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी नहीं बनाने पर श्री शर्मा ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऎलान कर दिया था । लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारी के वायदे पर मामला शांत हो गया था , लेकिन हाईकमान की वायदाखिलाफ़ी से शर्मा समर्थक बेहद खफ़ा हैं और ना सिर्फ़ सड़कों पर आ गये हैं , बल्कि इस्तीफ़ों का दौर भी शुरु हो चुका है ।
काँग्रेस की कार्यशैली को देखकर लगता है कि तीन महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने के बावजूद मिली करारी शिकस्त से प्रदेश काँग्रेस और आलाकमान ने कोई सबक नहीं लिया । अब भी पार्टी के क्षत्रप शक्ति प्रदर्शन में मसरुफ़ हैं । हकीकत यह है कि प्रदेश में काँग्रेस की हालत खस्ता है । लोकसभा प्रत्याशियों की सूची पर निगाह दौड़ाने से यह बात पुख्ता हो जाती है । उम्मीदवारों के चयन में चुनाव जीतने की चिंता से ज़्यादा गुटीय संतुलन साधने की कोशिश की गई है । इस बात को तरजीह दी गई है कि सभी गुट और खासकर उनके सरदार खुश रहें । विधानसभा चुनाव में भी टिकट बँटवारे की सिर-फ़ुटौव्वल को थामने के लिये ऎसा ही मध्यमार्ग चुना गया था और उसका हश्र सबके सामने है ।
इस पूरी प्रक्रिया से क्षुब्ध वरिष्ठ नेता जमुना देवी ने जिला अध्यक्षों की बैठक में साफ़ कह दिया था कि प्रदेश में पार्टी को चार-पाँच सीटों से ज़्यादा की उम्मीद नहीं करना चाहिए । हो सकता है ,उनके इस बयान को अनुशासनहीनता माना जाये लेकिन उनकी कही बातें सौ फ़ीसदी सही हैं । सफ़लता का मीठा फ़ल चखने के लिए कड़वी बातों को सुनना - समझना भी ज़रुरी है , मगर काँग्रेस फ़िलहाल इस मूड में नहीं है ।
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लोकसभा चुनाव
गुरुवार, 26 मार्च 2009
मौका है बदल डालो , अब नहीं तो कब ...????
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देश के मतदाताओं से सही उम्मीदवार को वोट देने का आग्रह किया है । मतदान को सबसे बड़ा अवसर बताते हुए डॉ.कलाम ने कहा है कि हमारे द्वारा चुने गये प्रतिनिधि अगले पाँच साल के लिये देश के भाग्य का फ़ैसला लेने के हकदार होते हैं । उन्होंने मताधिकार को पवित्र और मातृभूमि के प्रति ज़िम्मेदारी बताया है ।
हममें से ज़्यादातर ने नागरिक शास्त्र की किताबों में मताधिकार के बारे में पढ़ा है । मतदान के प्रति पढ़े-लिखे तबके की उदासीनता के कारण राजनीति की तस्वीर बद से बदतर होती जा रही है । हर बार दागी उम्मीदवारों की तादाद पहले से ज़्यादा हो जाती है । भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेता पार्टी की अदला- बदली करते रहते हैं । राजनीतिक दलों में वंशवाद की बेल पुष्पित-पल्लवित हो रही है | आम नागरिक मुँह बाये सारा तमाशा देखता रहता है । प्रजातंत्र में मतदाता केवल एक दिन का "राजा" बनकर रह गया है । बाकी पाँच साल शोषण,दमन और अत्याचार सहना उसकी नियति बन चुकी है ।
यह राजनीति का कौन सा रुप है , जो चुनाव के बाद सिद्धांत , विचार , आचरण और आदर्शों को ताक पर रखकर केवल सत्ता पाने की लिप्सा में गठबंधन के नाम पर खुलेआम सौदेबाज़ी को जायज़ ठहराता है ? चुनाव मैदान में एक दूसरे के खिलाफ़ खड़े होने वाले दल सरकार बनाने के लिये एकजुट हो जाते हैं । क्या यह मतदाता के फ़ैसले का अपमान नहीं है ? चुनाव बाद होने वाले गठबंधन लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाते दिखाई देते हैं । सरसरी तौर पर प्रत्याशी तो कमोबेश सभी एक से हैं और आपको बस मशीन का बटन दबाना है । मतदाता मजबूर है राजनीतिक पार्टियों का थोपा उम्मीदवार चुनने को । जो लोग जीतने के बाद हमारे भाग्य विधाता बनते हैं , उनकी उम्मीदवारी तय करने में मतदाता की कोई भूमिका नहीं होती ।
राजनीतिक दलों को आम लोगों की पसंद - नापसंद से कोई सरोकार नहीं रहा । उन्हें तो चाहिए जिताऊ प्रत्याशी । वोट बटोरने के लिये योग्यता नहीं जातिगत और क्षेत्रीय समीकरणों को तरजीह दी जाती है । अब तो वोट हासिल करने के लिये बाहुबलियों और माफ़ियाओं को भी टिकट देने से गुरेज़ नहीं रहा । सरकार बनाने के लिये ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने की नहीं कबाड़ने की जुगाड़ लगाई जाती है । नतीजतन लाखों लगाकर करोड़ों कमाने वालों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है । सत्ता किसी भी दल के हाथ में रहे , हर दल का नेता मौज लूटता है । अराजकता का साम्राज्य फ़ैलने के लिये हमारी खामोशी भी कम ज़िम्मेदार नहीं ।
लाख टके का सवाल है कि इस समस्या से आखिर निजात कैसे मिले ? लेकिन आज के इन हालात के लिये कहीं ना कहीं हम भी ज़िम्मेदार हैं । हम गलत बातों की निंदा करते हैं लेकिन मुखर नहीं होते , आगे नहीं आते । चुनाव हो जाने के बाद से लेकर अगला चुनाव आने तक राजनीति में आ रही गिरावट पर आपसी बातचीत में चिन्ता जताते हैं , क्षुब्ध हो जाते हैं । मगर जब बदलाव के लिये आगे आने की बात होती है , तो सब पीछे हट जाते हैं । हमें याद रखना होगा कि लोकतंत्र में संख्या बल के मायने बहुत व्यापक और सशक्त हैं । इसे समझते हुए एकजुट होकर सही वक्त पर पुरज़ोर आवाज़ उठाने की ज़रुरत है । अपने राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्व को समझना ही होगा ।
सब जानते हैं और मानते भी हैं कि लोकतंत्र की कमजोरियाँ ही बेड़ियाँ बन गई हैं । यही समय है चेतने ,चेताने और चुनौतियों का डट कर मुकाबला करने का ...। प्रजातंत्र को सार्थक और समर्थ साबित करने के लिये हमें ही आगे आना होगा । इस राजनीतिक प्रपंच पर अपनी ऊब जताने का यही सही वक्त है । वोट की ताकत के बूते हम क्यों नहीं पार्टियों को योग्य प्रत्याशी खड़ा करने पर मजबूर कर देते ?
भोपाल के युवाओं ने बदलाव लाने की सीढ़ी पर पहला कदम रख दिया है । शहीद भगत सिंह की पुण्यतिथि पर आम चुनाव में मतदान और मुद्दों पर जनजागरण के लिए "यूथ फ़ॉर चेंज" अभियान की शुरुआत की गई । अभियान का सूत्र वाक्य है - ’वोट तो करो बदलेगा हिन्दुस्तान।’ इसमें वोट डालने से परहेज़ करने वाले युवाओं को स्वयंसेवी और सामाजिक संगठनों की मदद से मतदान की अहमियत समझाई जाएगी ।
व्यक्तिगत रुप से मैं दौड़ , हस्ताक्षर अभियान , मोमबत्ती जलाने जैसे अभियान की पक्षधर नहीं । मेरा मानना है कि हमें अपने आसपास के लोगों से निजी तौर पर इस मुद्दे पर बात करना चाहिये । इस मुहिम को आगे ले जाने के लिये लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए । उन्हें मतदान केन्द्र पर जत्थे बनाकर पहुँचने के लिये उत्साहित करना होगा ।
यहाँ यह बताना बेहद ज़रुरी है कि इस बार चुनाव आयोग ने मतदान केन्द्र पर रजिस्टर रखने की व्यवस्था की है , जिसमें वोट नहीं डालने वाले अपना नाम-पता दर्ज़ करा सकते हैं । याद रखिये बदलाव एक दिन में नहीं आता उसके लिये लगातार अनथक प्रयास ज़रुरी है । व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे इन प्रयासों को अब व्यापक आंदोलन की शक्ल देने का वक्त आ गया है । मौका है बदल डालो । हमारे जागने से ही जागेगा हिन्दुस्तान , तभी कहलायेगा लोकतंत्र महान ....।
हममें से ज़्यादातर ने नागरिक शास्त्र की किताबों में मताधिकार के बारे में पढ़ा है । मतदान के प्रति पढ़े-लिखे तबके की उदासीनता के कारण राजनीति की तस्वीर बद से बदतर होती जा रही है । हर बार दागी उम्मीदवारों की तादाद पहले से ज़्यादा हो जाती है । भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेता पार्टी की अदला- बदली करते रहते हैं । राजनीतिक दलों में वंशवाद की बेल पुष्पित-पल्लवित हो रही है | आम नागरिक मुँह बाये सारा तमाशा देखता रहता है । प्रजातंत्र में मतदाता केवल एक दिन का "राजा" बनकर रह गया है । बाकी पाँच साल शोषण,दमन और अत्याचार सहना उसकी नियति बन चुकी है ।
यह राजनीति का कौन सा रुप है , जो चुनाव के बाद सिद्धांत , विचार , आचरण और आदर्शों को ताक पर रखकर केवल सत्ता पाने की लिप्सा में गठबंधन के नाम पर खुलेआम सौदेबाज़ी को जायज़ ठहराता है ? चुनाव मैदान में एक दूसरे के खिलाफ़ खड़े होने वाले दल सरकार बनाने के लिये एकजुट हो जाते हैं । क्या यह मतदाता के फ़ैसले का अपमान नहीं है ? चुनाव बाद होने वाले गठबंधन लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाते दिखाई देते हैं । सरसरी तौर पर प्रत्याशी तो कमोबेश सभी एक से हैं और आपको बस मशीन का बटन दबाना है । मतदाता मजबूर है राजनीतिक पार्टियों का थोपा उम्मीदवार चुनने को । जो लोग जीतने के बाद हमारे भाग्य विधाता बनते हैं , उनकी उम्मीदवारी तय करने में मतदाता की कोई भूमिका नहीं होती ।
राजनीतिक दलों को आम लोगों की पसंद - नापसंद से कोई सरोकार नहीं रहा । उन्हें तो चाहिए जिताऊ प्रत्याशी । वोट बटोरने के लिये योग्यता नहीं जातिगत और क्षेत्रीय समीकरणों को तरजीह दी जाती है । अब तो वोट हासिल करने के लिये बाहुबलियों और माफ़ियाओं को भी टिकट देने से गुरेज़ नहीं रहा । सरकार बनाने के लिये ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने की नहीं कबाड़ने की जुगाड़ लगाई जाती है । नतीजतन लाखों लगाकर करोड़ों कमाने वालों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है । सत्ता किसी भी दल के हाथ में रहे , हर दल का नेता मौज लूटता है । अराजकता का साम्राज्य फ़ैलने के लिये हमारी खामोशी भी कम ज़िम्मेदार नहीं ।
लाख टके का सवाल है कि इस समस्या से आखिर निजात कैसे मिले ? लेकिन आज के इन हालात के लिये कहीं ना कहीं हम भी ज़िम्मेदार हैं । हम गलत बातों की निंदा करते हैं लेकिन मुखर नहीं होते , आगे नहीं आते । चुनाव हो जाने के बाद से लेकर अगला चुनाव आने तक राजनीति में आ रही गिरावट पर आपसी बातचीत में चिन्ता जताते हैं , क्षुब्ध हो जाते हैं । मगर जब बदलाव के लिये आगे आने की बात होती है , तो सब पीछे हट जाते हैं । हमें याद रखना होगा कि लोकतंत्र में संख्या बल के मायने बहुत व्यापक और सशक्त हैं । इसे समझते हुए एकजुट होकर सही वक्त पर पुरज़ोर आवाज़ उठाने की ज़रुरत है । अपने राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्व को समझना ही होगा ।
सब जानते हैं और मानते भी हैं कि लोकतंत्र की कमजोरियाँ ही बेड़ियाँ बन गई हैं । यही समय है चेतने ,चेताने और चुनौतियों का डट कर मुकाबला करने का ...। प्रजातंत्र को सार्थक और समर्थ साबित करने के लिये हमें ही आगे आना होगा । इस राजनीतिक प्रपंच पर अपनी ऊब जताने का यही सही वक्त है । वोट की ताकत के बूते हम क्यों नहीं पार्टियों को योग्य प्रत्याशी खड़ा करने पर मजबूर कर देते ?
भोपाल के युवाओं ने बदलाव लाने की सीढ़ी पर पहला कदम रख दिया है । शहीद भगत सिंह की पुण्यतिथि पर आम चुनाव में मतदान और मुद्दों पर जनजागरण के लिए "यूथ फ़ॉर चेंज" अभियान की शुरुआत की गई । अभियान का सूत्र वाक्य है - ’वोट तो करो बदलेगा हिन्दुस्तान।’ इसमें वोट डालने से परहेज़ करने वाले युवाओं को स्वयंसेवी और सामाजिक संगठनों की मदद से मतदान की अहमियत समझाई जाएगी ।
व्यक्तिगत रुप से मैं दौड़ , हस्ताक्षर अभियान , मोमबत्ती जलाने जैसे अभियान की पक्षधर नहीं । मेरा मानना है कि हमें अपने आसपास के लोगों से निजी तौर पर इस मुद्दे पर बात करना चाहिये । इस मुहिम को आगे ले जाने के लिये लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए । उन्हें मतदान केन्द्र पर जत्थे बनाकर पहुँचने के लिये उत्साहित करना होगा ।
यहाँ यह बताना बेहद ज़रुरी है कि इस बार चुनाव आयोग ने मतदान केन्द्र पर रजिस्टर रखने की व्यवस्था की है , जिसमें वोट नहीं डालने वाले अपना नाम-पता दर्ज़ करा सकते हैं । याद रखिये बदलाव एक दिन में नहीं आता उसके लिये लगातार अनथक प्रयास ज़रुरी है । व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे इन प्रयासों को अब व्यापक आंदोलन की शक्ल देने का वक्त आ गया है । मौका है बदल डालो । हमारे जागने से ही जागेगा हिन्दुस्तान , तभी कहलायेगा लोकतंत्र महान ....।
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संसदीय चुनाव
मंगलवार, 24 मार्च 2009
भाजपा से हर मोर्चे पर पिछड़ी काँग्रेस
मध्यप्रदेश में भाजपा ने धुआँधार बल्लेबाज़ी करते हुए बढ़त हासिल कर ली है । उम्मीदवारों के चयन का मामला हो या चुनाव प्रचार में मुद्दे खड़े कर उन्हें भुनाने की कोशिश ... बीजेपी हर मोर्चे पर काँग्रेस से चार हाथ आगे ही है । बीजेपी अपने खिलाफ़ जाते माहौल को पक्ष में करने के लिये पूरे प्रदेश में न्याय यात्राएँ निकाल रही है । हर उम्मीदवार के साथ एक आईटी एक्सपर्ट तैनात कर दिया है । महिला मोर्चा , श्रमिक प्रकोष्ठ और किसान मोर्चा भी रणनीति बनाने में जुट गया है , जबकि काँग्रेस मुख्यालय में सुई पटक सन्नाटा पसरा है । कार्यालय म्रें नेता नदारद हैं , तो कार्यकर्ताओं का भी भला क्या काम ...?
काँग्रेस की चुनाव समिति ने मध्यप्रदेश के तीन और उम्मीदवारों के नामों पर मुहर लगा दी है । शनिवार को जारी तीसरी सूची में मंडला से दिग्विजय सरकार में मंत्री रहे बसोरी सिंह मरकाम और बैतूल से ओझाराम इवने के नाम शामिल हैं । विदिशा से राजकुमार पटेल भाजपा की दिग्गज सुषमा स्वराज के खिलाफ़ चुनाव मैदान में उतरे हैं । श्री पटेल और श्री ओझाराम के नाम पहले ही घोषित कर दिये गये थे लेकिन उन्हें पुनर्विचार के लिए रोक लिया गया था ।
इस तरह काँग्रेस ने 29 में से 22 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम तय कर दिये हैं ,जबकि भाजपा 26 संसदीय क्षेत्रों के लिये नामों की घोषणा कर चुकी है । भोपाल, इंदौर, देवास, होशंगाबाद, सीधी, सतना और राजगढ़ का मामला अभी भी अटका हुआ है। ये सभी सीटें कांग्रेस के दिग्गजों के प्रभाव क्षेत्र की हैं।
होशंगाबाद से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी को चुनाव मैदान में उतारने का फ़ैसला हाईकमान को करना है । पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह दस साल तक चुनाव नहीं लड़ने की प्रतिज्ञा लिये बैठे हैं , जबकि राजगढ़ में दिग्गी राजा के समर्थक किसी और नाम पर समझौते के लिये राज़ी नहीं हैं । इसी तरह सीधी से अर्जुन सिंह के बेटे और सतना से उनकी बेटी को टिकट देने का मामला भी उलझा है ।
भोपाल से मुस्लिम उम्मीदवार को उतारने की माँग भी ज़ोर पकड़ रही है । इसके अलावा भोपाल में कायस्थ मतदाताओं की भारी तादाद के मद्देनज़र कायस्थ प्रत्याशी के रुप में प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री के पुत्र अनिल शास्त्री का नाम भी चर्चा में है । यहाँ करीब पौने तीन लाख कायस्थ मतदाता हैं । वर्ष 1989 से लगातार भाजपा भोपाल सीट पर काबिज़ है । प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव सुशील चंद्र वर्मा ने भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर भोपाल सीट काँग्रेस के हाथों से छीनी थी । वे लगातार चार मर्तबा सांसद चुने गये । वर्मा से पहले काँग्रेस के के.एन.प्रधान ने दो बार संसद में भोपाल का प्रतिनिधित्व किया । ये दोनों ही नेता कायस्थ समाज से ताल्लुक रखते थे ।
विदिशा सीट पर जानकार मुकाबला एकतरफ़ा मान रहे हैं , जबकि कांग्रेस काँटे की टक्कर का दावा कर रही है । एक तरफ़ सुषमा राष्ट्रीय नेता हैं , ये और बात है कि वे अब तक कोई भी संसदीय चुनाव नहीं जीत सकी हैं । ऎसे में वे भी विदिशा जैसी सुरक्षित सीट से जीत कर अपना इतिहास बदलना चाहेंगी । दूसरी ओर काँग्रेस भाजपा के गढ़ में सेंध लगाने का प्रयास कर निष्प्राण हो चुके संगठन में जोश भरने की कोशिश ज़रुर करेगी ।
विदिशा के लिये काँग्रेस प्रत्याशी राजकुमार पटेल बुधनी से एक बार विधायक रहे हैं । उन्होंने विधानसभा का एक चुनाव भोजपुर और एक चुनाव बुधनी से हारा है । वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा । वे एक मर्तबा बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा से विधानसभा चुनाव हार चुके हैं। कांग्रेस में माना जा रहा है कि पटेल इस संसदीय क्षेत्र में श्रीमती स्वराज को कड़ी टक्कर देंगे । स्थानीय नेता का मुद्दा कितना ज़ोर लगा पायेगा यह कह पाना मुश्किल है ।
विदिशा भाजपा का अजेय दुर्ग माना जाता है । इस संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पाँच बार संसद के गलियारों में दाखिल होने का मौका दिया । काँग्रेस विदिशा और भोपाल सीट को प्रतिष्ठा का प्रश्न मान कर चल रही है । इसीलिए अंतिम वक्त तक जिताऊ प्रत्याशियों की तलाश में मगजपच्ची की जा रही है ।
काँग्रेस की चुनाव समिति ने मध्यप्रदेश के तीन और उम्मीदवारों के नामों पर मुहर लगा दी है । शनिवार को जारी तीसरी सूची में मंडला से दिग्विजय सरकार में मंत्री रहे बसोरी सिंह मरकाम और बैतूल से ओझाराम इवने के नाम शामिल हैं । विदिशा से राजकुमार पटेल भाजपा की दिग्गज सुषमा स्वराज के खिलाफ़ चुनाव मैदान में उतरे हैं । श्री पटेल और श्री ओझाराम के नाम पहले ही घोषित कर दिये गये थे लेकिन उन्हें पुनर्विचार के लिए रोक लिया गया था ।
इस तरह काँग्रेस ने 29 में से 22 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम तय कर दिये हैं ,जबकि भाजपा 26 संसदीय क्षेत्रों के लिये नामों की घोषणा कर चुकी है । भोपाल, इंदौर, देवास, होशंगाबाद, सीधी, सतना और राजगढ़ का मामला अभी भी अटका हुआ है। ये सभी सीटें कांग्रेस के दिग्गजों के प्रभाव क्षेत्र की हैं।
होशंगाबाद से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी को चुनाव मैदान में उतारने का फ़ैसला हाईकमान को करना है । पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह दस साल तक चुनाव नहीं लड़ने की प्रतिज्ञा लिये बैठे हैं , जबकि राजगढ़ में दिग्गी राजा के समर्थक किसी और नाम पर समझौते के लिये राज़ी नहीं हैं । इसी तरह सीधी से अर्जुन सिंह के बेटे और सतना से उनकी बेटी को टिकट देने का मामला भी उलझा है ।
भोपाल से मुस्लिम उम्मीदवार को उतारने की माँग भी ज़ोर पकड़ रही है । इसके अलावा भोपाल में कायस्थ मतदाताओं की भारी तादाद के मद्देनज़र कायस्थ प्रत्याशी के रुप में प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री के पुत्र अनिल शास्त्री का नाम भी चर्चा में है । यहाँ करीब पौने तीन लाख कायस्थ मतदाता हैं । वर्ष 1989 से लगातार भाजपा भोपाल सीट पर काबिज़ है । प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव सुशील चंद्र वर्मा ने भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर भोपाल सीट काँग्रेस के हाथों से छीनी थी । वे लगातार चार मर्तबा सांसद चुने गये । वर्मा से पहले काँग्रेस के के.एन.प्रधान ने दो बार संसद में भोपाल का प्रतिनिधित्व किया । ये दोनों ही नेता कायस्थ समाज से ताल्लुक रखते थे ।
विदिशा सीट पर जानकार मुकाबला एकतरफ़ा मान रहे हैं , जबकि कांग्रेस काँटे की टक्कर का दावा कर रही है । एक तरफ़ सुषमा राष्ट्रीय नेता हैं , ये और बात है कि वे अब तक कोई भी संसदीय चुनाव नहीं जीत सकी हैं । ऎसे में वे भी विदिशा जैसी सुरक्षित सीट से जीत कर अपना इतिहास बदलना चाहेंगी । दूसरी ओर काँग्रेस भाजपा के गढ़ में सेंध लगाने का प्रयास कर निष्प्राण हो चुके संगठन में जोश भरने की कोशिश ज़रुर करेगी ।
विदिशा के लिये काँग्रेस प्रत्याशी राजकुमार पटेल बुधनी से एक बार विधायक रहे हैं । उन्होंने विधानसभा का एक चुनाव भोजपुर और एक चुनाव बुधनी से हारा है । वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा । वे एक मर्तबा बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा से विधानसभा चुनाव हार चुके हैं। कांग्रेस में माना जा रहा है कि पटेल इस संसदीय क्षेत्र में श्रीमती स्वराज को कड़ी टक्कर देंगे । स्थानीय नेता का मुद्दा कितना ज़ोर लगा पायेगा यह कह पाना मुश्किल है ।
विदिशा भाजपा का अजेय दुर्ग माना जाता है । इस संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पाँच बार संसद के गलियारों में दाखिल होने का मौका दिया । काँग्रेस विदिशा और भोपाल सीट को प्रतिष्ठा का प्रश्न मान कर चल रही है । इसीलिए अंतिम वक्त तक जिताऊ प्रत्याशियों की तलाश में मगजपच्ची की जा रही है ।
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सोमवार, 23 मार्च 2009
काँग्रेस ही बनायेगी वरुण को बड़ा नेता
देश में आजकल मुद्दों पर राजनीति नहीं गर्माती । अब तो सियासत होती है खेलों , पुरस्कारों और बयानों पर । मालूम होता है भारत में चारों तरफ़ खुशहाली है । मुद्दे कोई शेष नहीं इसलिए लोग शगल के लिए बहस मुबाहिसे करते हैं । आई पी एल देश में हो या सात समुंदर पार इससे आम जनता को क्या ? लेकिन धनपशुओं का खेल दुनिया भर में भारत की नाक का सवाल बन गया है ।
खेलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाकामी हाथ आने पर नेता एक ही बात कहते सुनाई देते हैं कि खेलों को राजनीति से दूर रखा जाये , लेकिन खेल के मैदान राजनीति के अखाड़ों में तब्दील हो गये हैं । आईपीएल को लेकर चल रही उठापटक में अब तक राज्यों के पाले में गेंद डाल रहे गृहमंत्री पी. चिदाम्बरम नरेन्द्र मोदी के बयान के बाद आज अचानक मीडिया से मुखातिब हुए । गुजरात के मुख्यमंत्री ने अपने चिरपरिचित अँदाज़ में आईपीएल को देश की प्रतिष्ठा के प्रश्न से जोड़्कर केन्द्र को आड़े हाथों क्या लिया , यूपीए सरकार को मामले में सियासत की गँध आने लगी ।
दरअसल इस मुद्दे पर पहली चाल तो काँग्रेस ने ही चली थी । शरद पवार से महाराष्ट्र में सीटों के बँटवारे को लेकर चल रही खींचतान में दबाव की राजनीति के चलते आईपीएल को मोहरे की तरह इस्तेमाल करने का दाँव खुद काँग्रेस पर उलट गया । ना तो शरद पवार झुके और ना ही दबाव काम आया । बाज़ी पलटते देख केन्द्र सरकार को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है ।
लगता है काँग्रेस के ग्रह नक्षत्र आज कल ठीक नहीं चल रहे । ’ उल्टी हो गई सब तदबीरें कुछ ना दवा ने काम किया ’ की तर्ज़ पर जहाँ हाथ डाला , वहीं बाज़ी उलट गई ।वरुण गाँधी को पीलीभीत में भड़काऊ भाषण देने के मामले में ऊपरी तौर पर यह चुनाव आयोग से जुड़ा मामला नज़र आता है लेकिन इसके सूत्र कहीं और से संचालित होते दिखाई दे रहे हैं । देश में पहली मर्तबा ऎसा हुआ है जब चुनाव आयोग ने सीधे किसी पार्टी को यह सलाह दे डाली है कि वह अमुक उम्मीदवार को टिकट ना दे ।
संविधान के जानकारों की राय में आयोग का दायित्व चुनाव प्रक्रिया के संचालन तक सीमित है ।गौर करने वाली बात यह भी है कि देश में इससे पहले क्या किसे ने तीखे भाषण नहीं दिये ? कहा तो यह भी जाता है कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी का एक बयान दिल्ली में सिखों के कत्ले आम का सबब बना । ऎसा लगता है कि वरुण की बढ़ती लोकप्रियता ने किसी "माँ" की चिंताएँ बढ़ा दी हैं । दलितों के घर भोजन करके और सिर पर मिट्टी ढ़ोकर भी राहुल बाबा का राजनीतिक कद बढ़ना मुमकिन नहीं हो पाया है । एक आम भारतीय माँ की तरह सोनिया मैडम भी अपनी आँखों के सामने बेटे को सफ़लता से सत्तासूत्र सम्हाले देखना चाहती हैं , तो इसमें किसी को क्या दिक्कत है ?
" हारेगा जब कोई बाज़ी तभी तो होगी किसी की जीत " इसलिये राहुल को सत्ताशीर्ष तक पहुँचाने में एकाएक आ खड़ी हुई बाधा को किसी भी तरह से दूर तो करना ही होगा । असली - नकली गाँधी की लड़ाई में राजमोहन गाँधी की बजाय जनता ने भले ही दत्तक पुत्र के वंशजों को चुन लिया हो लेकिन अब जबकि इन्हीं वंशजों में से किसी एक को चुनने की बारी आएगी , तो जनता योग्यता के आधार चुनाव करेगी । सियासत में योग्यता का पैमाना लटके- झटके नहीं जनता के बीच पैठ होता है ।
मीडिया की मदद और सरकारी लवाजमे की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद राहुल गाँधी उस मुकाम पर अब तक नहीं पहुँच पाये हैं , जहाँ बरसो से निर्वासित जीवन जी रही मेनका गाँधी का बेटा एक झटके में पहुँच गया । यहाँ एक सवाल और भी है कि हिन्दू शब्द क्या वाकई भड़काऊ है ? अबू आज़मी , अमरसिंह , सैयद शहाबुद्दीन , बनातवाला , आज़म खाँ ऎसे नाम हैं जो जनसभाओं में तो आग उगलते ही रहे , संसद के भीतर भी ज़हर उगलने से बाज़ नहीं आये ।
अब तक ह्त्या,लूट, डकैती ,फ़िरौती ,धोखाधड़ी के मामलों में सज़ायाफ़्ता या अनुभवी जेल यात्री ही चुनाव लड़ते रहे हैं । लम्बे समय बाद कोई नेता सियासी दाँवपेंचों के चलते जेल की हवा खा ही आये , तो भी क्या ...? इससे लोकतंत्र का सीना गर्व से चौड़ा ही होगा । इन सभी बातों पर गौर करने के बाद हिन्दूवादियों से आग्रह है कि वे इसे "कहानी घर-घर की" समझ कर ही प्रतिक्रिया दें ।
हर मोर्चे पर लगातार पिट रही काँग्रेस को वरुण मामले में भी मुँह की खाना पड़ेगी । चाहे-अनचाहे मीडिया की नेगेटिव पब्लिसिटी धीरे-धीरे गाँधी खानदान के नवोदित सितारे को स्थापित कर देगी । ऎसे में जेल यात्रा का सौभाग्य मिल गया तो भाजपा की बल्ले-बल्ले और वरुण की चाँदी ही चाँदी .....????? लगता है काल का चक्र घूम रहा है । सियासी कुरुक्षेत्र में वक्त रुपी कृष्ण वरुण के पक्ष में खड़ा है ।
मामला ऎसे दिलचस्प मोड़ पर आ गया है कि हर हाल में फ़ायदा वरुण को ही मिलता दिखाई देता है । कहते हैं बुरे वक्त में साया भी साथ छोड़ देता है । पाँच साल सरकार में रहकर गलबहियाँ करने वाले क्षेत्रीय दलों ने चुनाव से पहले ठेंगा दिखा दिया है । जो कल तक हमसफ़र थे वे अब रक़ीब हैं ।
खेलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाकामी हाथ आने पर नेता एक ही बात कहते सुनाई देते हैं कि खेलों को राजनीति से दूर रखा जाये , लेकिन खेल के मैदान राजनीति के अखाड़ों में तब्दील हो गये हैं । आईपीएल को लेकर चल रही उठापटक में अब तक राज्यों के पाले में गेंद डाल रहे गृहमंत्री पी. चिदाम्बरम नरेन्द्र मोदी के बयान के बाद आज अचानक मीडिया से मुखातिब हुए । गुजरात के मुख्यमंत्री ने अपने चिरपरिचित अँदाज़ में आईपीएल को देश की प्रतिष्ठा के प्रश्न से जोड़्कर केन्द्र को आड़े हाथों क्या लिया , यूपीए सरकार को मामले में सियासत की गँध आने लगी ।
दरअसल इस मुद्दे पर पहली चाल तो काँग्रेस ने ही चली थी । शरद पवार से महाराष्ट्र में सीटों के बँटवारे को लेकर चल रही खींचतान में दबाव की राजनीति के चलते आईपीएल को मोहरे की तरह इस्तेमाल करने का दाँव खुद काँग्रेस पर उलट गया । ना तो शरद पवार झुके और ना ही दबाव काम आया । बाज़ी पलटते देख केन्द्र सरकार को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है ।
लगता है काँग्रेस के ग्रह नक्षत्र आज कल ठीक नहीं चल रहे । ’ उल्टी हो गई सब तदबीरें कुछ ना दवा ने काम किया ’ की तर्ज़ पर जहाँ हाथ डाला , वहीं बाज़ी उलट गई ।वरुण गाँधी को पीलीभीत में भड़काऊ भाषण देने के मामले में ऊपरी तौर पर यह चुनाव आयोग से जुड़ा मामला नज़र आता है लेकिन इसके सूत्र कहीं और से संचालित होते दिखाई दे रहे हैं । देश में पहली मर्तबा ऎसा हुआ है जब चुनाव आयोग ने सीधे किसी पार्टी को यह सलाह दे डाली है कि वह अमुक उम्मीदवार को टिकट ना दे ।
संविधान के जानकारों की राय में आयोग का दायित्व चुनाव प्रक्रिया के संचालन तक सीमित है ।गौर करने वाली बात यह भी है कि देश में इससे पहले क्या किसे ने तीखे भाषण नहीं दिये ? कहा तो यह भी जाता है कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी का एक बयान दिल्ली में सिखों के कत्ले आम का सबब बना । ऎसा लगता है कि वरुण की बढ़ती लोकप्रियता ने किसी "माँ" की चिंताएँ बढ़ा दी हैं । दलितों के घर भोजन करके और सिर पर मिट्टी ढ़ोकर भी राहुल बाबा का राजनीतिक कद बढ़ना मुमकिन नहीं हो पाया है । एक आम भारतीय माँ की तरह सोनिया मैडम भी अपनी आँखों के सामने बेटे को सफ़लता से सत्तासूत्र सम्हाले देखना चाहती हैं , तो इसमें किसी को क्या दिक्कत है ?
" हारेगा जब कोई बाज़ी तभी तो होगी किसी की जीत " इसलिये राहुल को सत्ताशीर्ष तक पहुँचाने में एकाएक आ खड़ी हुई बाधा को किसी भी तरह से दूर तो करना ही होगा । असली - नकली गाँधी की लड़ाई में राजमोहन गाँधी की बजाय जनता ने भले ही दत्तक पुत्र के वंशजों को चुन लिया हो लेकिन अब जबकि इन्हीं वंशजों में से किसी एक को चुनने की बारी आएगी , तो जनता योग्यता के आधार चुनाव करेगी । सियासत में योग्यता का पैमाना लटके- झटके नहीं जनता के बीच पैठ होता है ।
मीडिया की मदद और सरकारी लवाजमे की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद राहुल गाँधी उस मुकाम पर अब तक नहीं पहुँच पाये हैं , जहाँ बरसो से निर्वासित जीवन जी रही मेनका गाँधी का बेटा एक झटके में पहुँच गया । यहाँ एक सवाल और भी है कि हिन्दू शब्द क्या वाकई भड़काऊ है ? अबू आज़मी , अमरसिंह , सैयद शहाबुद्दीन , बनातवाला , आज़म खाँ ऎसे नाम हैं जो जनसभाओं में तो आग उगलते ही रहे , संसद के भीतर भी ज़हर उगलने से बाज़ नहीं आये ।
अब तक ह्त्या,लूट, डकैती ,फ़िरौती ,धोखाधड़ी के मामलों में सज़ायाफ़्ता या अनुभवी जेल यात्री ही चुनाव लड़ते रहे हैं । लम्बे समय बाद कोई नेता सियासी दाँवपेंचों के चलते जेल की हवा खा ही आये , तो भी क्या ...? इससे लोकतंत्र का सीना गर्व से चौड़ा ही होगा । इन सभी बातों पर गौर करने के बाद हिन्दूवादियों से आग्रह है कि वे इसे "कहानी घर-घर की" समझ कर ही प्रतिक्रिया दें ।
हर मोर्चे पर लगातार पिट रही काँग्रेस को वरुण मामले में भी मुँह की खाना पड़ेगी । चाहे-अनचाहे मीडिया की नेगेटिव पब्लिसिटी धीरे-धीरे गाँधी खानदान के नवोदित सितारे को स्थापित कर देगी । ऎसे में जेल यात्रा का सौभाग्य मिल गया तो भाजपा की बल्ले-बल्ले और वरुण की चाँदी ही चाँदी .....????? लगता है काल का चक्र घूम रहा है । सियासी कुरुक्षेत्र में वक्त रुपी कृष्ण वरुण के पक्ष में खड़ा है ।
मामला ऎसे दिलचस्प मोड़ पर आ गया है कि हर हाल में फ़ायदा वरुण को ही मिलता दिखाई देता है । कहते हैं बुरे वक्त में साया भी साथ छोड़ देता है । पाँच साल सरकार में रहकर गलबहियाँ करने वाले क्षेत्रीय दलों ने चुनाव से पहले ठेंगा दिखा दिया है । जो कल तक हमसफ़र थे वे अब रक़ीब हैं ।
लेबल:
आईपीएल,
चुनाव आयोग,
भाजपा,
राहुल गाँधी,
वरुण गाँधी
शनिवार, 21 मार्च 2009
उम्मीदवारों को लेकर काँग्रेस में घमासान
भाजपा में राजनीतिक स्तर पर सहमति बनने के बाद पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल की शनिवार 21 मार्च को भोपाल में विधिवत घर वापसी हो गई । पार्टी से नाराज़ प्रहलाद ने उमा भारती के साथ मिलकर भारतीय जन शक्ति का गठन किया था । वे उमा के कामकाज के तौर तरीकों से खफ़ा थे । उमा से अनबन के चलते विधान सभा चुनावों से पहले भी उनकी बीजेपी में वापसी को लेकर अटकलें लगाई जा रही थीं ।
आज पार्टी मुख्यालय में प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में प्रहलाद ने अपने दल - बल के साथ पार्टी में पुनर्प्रवेश कर लिया । बीजेपी में इस बात को लेकर कश्मकश है कि पार्टी प्रहलाद का उपयोग किस तरह करे ? उन्हें छिंदवाड़ा से काँग्रेस उम्मीदवार कमलनाथ के खिलाफ़ मैदान में उतारने की चर्चाएँ भी चल रही हैं । हालाँकि श्री पटेल ने चुनाव लड़ने से इंकार किया है , लेकिन पार्टी ने फ़िलहाल छिंदवाड़ा ,खजुराहो और सीधी सीट पर प्रत्याशियों के नाम की घोषणा अब तक नहीं की है । इसके अलावा बालाघाट और बैतूल के लिए घोषित उम्मीदवारों को बदलने पर भी विचार चल रहा है ।
लोधी वोट बैंक में प्रहलाद और उमा की अच्छी पैठ है । उत्तर प्रदेश में कल्याणसिंह के बीजेपी से बाहर होने के बाद बुंदेलखंड, महाकौशल और यूपी के लोधी-लोधा मतदाताओं को पार्टी के पक्ष में लाने के लिए भारी माथापच्ची चल रही थी । बालाघाट प्रहलाद का प्रभाव क्षेत्र है , जहाँ से बीजेपी को अच्छी बढ़त मिलने की उम्मीद बन गई है ।
इधर बीजेपी का कुनबा फ़िर से भरापूरा दिखाई देने लगा है । विधानसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफ़लता ने नेता-कार्यकर्ताओं के हौंसले बुलंद कर दिये हैं , वहीं अँदरुनी उठापटक से काँग्रेस की हालत पतली है । बीजेपी ने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा में भी बढ़त ले ली है । बहुजन समाज पार्टी ने भी सभी उनतीस सीटों से प्रत्याशी उतारने की तैयारी कर ली है , जबकि काँग्रेस अब तक बीस सीटों पर ही उम्मीदवार तय कर पाई है । बची हुई नौ में से सात सीटों पर भारी घमासान है । भोपाल और होशंगाबाद में मुस्लिम नेता बाग़ी तेवरों के साथ टिकट का दावा ठोक रहे हैं ।
जिन क्षेत्रों के लिए नामों की घोषणा हुई है , वहाँ असंतोष फ़ूट पड़ा है । पैराशूटी उम्मीदवारों को लेकर उपजी नाराज़गी सड़कों पर आ गई है । सागर, मंदसौर और खजुराहो में विरोध प्रदर्शन के साथ ही पुतले जलाने का दौर भी खूब चला । सागर में असलम शेर खान को टिकट देने के विरोध में एक कार्यकर्ता ने अपनी कार ही आग के हवाले कर दी ।विरोध में कार्यकर्ताओं ने न सिर्फ़ पुतले जलाये बल्कि काँग्रेस कार्यालय में पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष का एक बैनर भी लटका दिया । इसमें मैडम झपकी लेती दिखाई पड़ती हैं , उनकी नींद पाँच साल बाद टूटने की उम्मीद जताई गई है ।
इसी तरह युवक काँग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मीनाक्षी नटराजन को मंदसौर सीट की प्रत्याशी बनाना भी पार्टी का सिरदर्द बन गया है । नीमच क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के एक वर्ग ने उन्हें थोपा हुआ नेता बता कर पुतले फ़ूँके । खजुराहो प्रत्याशी राजा पटैरिया के लिए भी स्थानीय नेता का मुद्दा भारी पड़ रहा है । हटा(दमोह) के निवासी पटैरिया को लोग बाहरी नेता करार दे रहे हैं । प्रदर्शन और जमकर नारेबाज़ी ने उनकी चिंताएँ बढ़ा दी हैं ।
मैदाने जंग में जाने से पहले ही आपसी कलह ने काँग्रेस कार्यकर्ताओं के हौसले पस्त कर दिये हैं । मध्यप्रदेश में काँग्रेस दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही । हाल के विधानसभा चुनावों से भी पार्टी ने कोई सबक नहीं सीखा । बीजेपी के खिलाफ़ मुद्दों की भरमार है लेकिन काँग्रेस के पास अब ऎसे नेता नहीं जो इन मुद्दों को वोट में तब्दील कर सकें । पिछली मर्तबा बीजेपी पच्चीस सीटों पर काबिज़ थी । चार सीटों से संतोष करने वाली काँग्रेस यदि वक्त रहते नहीं चेती तो प्रदेश में पार्टी का नामलेवा नहीं बचेगा ।
आज पार्टी मुख्यालय में प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में प्रहलाद ने अपने दल - बल के साथ पार्टी में पुनर्प्रवेश कर लिया । बीजेपी में इस बात को लेकर कश्मकश है कि पार्टी प्रहलाद का उपयोग किस तरह करे ? उन्हें छिंदवाड़ा से काँग्रेस उम्मीदवार कमलनाथ के खिलाफ़ मैदान में उतारने की चर्चाएँ भी चल रही हैं । हालाँकि श्री पटेल ने चुनाव लड़ने से इंकार किया है , लेकिन पार्टी ने फ़िलहाल छिंदवाड़ा ,खजुराहो और सीधी सीट पर प्रत्याशियों के नाम की घोषणा अब तक नहीं की है । इसके अलावा बालाघाट और बैतूल के लिए घोषित उम्मीदवारों को बदलने पर भी विचार चल रहा है ।
लोधी वोट बैंक में प्रहलाद और उमा की अच्छी पैठ है । उत्तर प्रदेश में कल्याणसिंह के बीजेपी से बाहर होने के बाद बुंदेलखंड, महाकौशल और यूपी के लोधी-लोधा मतदाताओं को पार्टी के पक्ष में लाने के लिए भारी माथापच्ची चल रही थी । बालाघाट प्रहलाद का प्रभाव क्षेत्र है , जहाँ से बीजेपी को अच्छी बढ़त मिलने की उम्मीद बन गई है ।
इधर बीजेपी का कुनबा फ़िर से भरापूरा दिखाई देने लगा है । विधानसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफ़लता ने नेता-कार्यकर्ताओं के हौंसले बुलंद कर दिये हैं , वहीं अँदरुनी उठापटक से काँग्रेस की हालत पतली है । बीजेपी ने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा में भी बढ़त ले ली है । बहुजन समाज पार्टी ने भी सभी उनतीस सीटों से प्रत्याशी उतारने की तैयारी कर ली है , जबकि काँग्रेस अब तक बीस सीटों पर ही उम्मीदवार तय कर पाई है । बची हुई नौ में से सात सीटों पर भारी घमासान है । भोपाल और होशंगाबाद में मुस्लिम नेता बाग़ी तेवरों के साथ टिकट का दावा ठोक रहे हैं ।
जिन क्षेत्रों के लिए नामों की घोषणा हुई है , वहाँ असंतोष फ़ूट पड़ा है । पैराशूटी उम्मीदवारों को लेकर उपजी नाराज़गी सड़कों पर आ गई है । सागर, मंदसौर और खजुराहो में विरोध प्रदर्शन के साथ ही पुतले जलाने का दौर भी खूब चला । सागर में असलम शेर खान को टिकट देने के विरोध में एक कार्यकर्ता ने अपनी कार ही आग के हवाले कर दी ।विरोध में कार्यकर्ताओं ने न सिर्फ़ पुतले जलाये बल्कि काँग्रेस कार्यालय में पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष का एक बैनर भी लटका दिया । इसमें मैडम झपकी लेती दिखाई पड़ती हैं , उनकी नींद पाँच साल बाद टूटने की उम्मीद जताई गई है ।
इसी तरह युवक काँग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मीनाक्षी नटराजन को मंदसौर सीट की प्रत्याशी बनाना भी पार्टी का सिरदर्द बन गया है । नीमच क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के एक वर्ग ने उन्हें थोपा हुआ नेता बता कर पुतले फ़ूँके । खजुराहो प्रत्याशी राजा पटैरिया के लिए भी स्थानीय नेता का मुद्दा भारी पड़ रहा है । हटा(दमोह) के निवासी पटैरिया को लोग बाहरी नेता करार दे रहे हैं । प्रदर्शन और जमकर नारेबाज़ी ने उनकी चिंताएँ बढ़ा दी हैं ।
मैदाने जंग में जाने से पहले ही आपसी कलह ने काँग्रेस कार्यकर्ताओं के हौसले पस्त कर दिये हैं । मध्यप्रदेश में काँग्रेस दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही । हाल के विधानसभा चुनावों से भी पार्टी ने कोई सबक नहीं सीखा । बीजेपी के खिलाफ़ मुद्दों की भरमार है लेकिन काँग्रेस के पास अब ऎसे नेता नहीं जो इन मुद्दों को वोट में तब्दील कर सकें । पिछली मर्तबा बीजेपी पच्चीस सीटों पर काबिज़ थी । चार सीटों से संतोष करने वाली काँग्रेस यदि वक्त रहते नहीं चेती तो प्रदेश में पार्टी का नामलेवा नहीं बचेगा ।
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