रविवार, 25 जनवरी 2009

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं...........

पिछले कई दिनों से एफ़ एम रेडियो पर बिना रुके चहकने वाली "चिडकलियां" रोज़ सुबह से ही बताने लगती हैं कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस आने वाला है । उनका मशविरा है कि हमें गणतंत्र दिवस धूमधाम से ’ सेलिब्रेट” करना चाहिए ,होली दीवाली की तरह । वे कहती हैं कि इस दिन जमकर आतिशबाज़ी करें , धूमधडाका मचाएं । धमाल करें और खूब नाचे गाएं । घरों को रोशनी से भर दें ।

हर रोज़ दी जा रही इस ऎलानिया समझाइश से मन में सवालों का सैलाब उमडने लगता है । क्या हो गया है इस देश को ? उत्सवधर्मी होना ज़िन्दादिली का सबूत है , लेकिन हर वक्त जश्न में डूबे रहना ही क्या हमारी संस्कृति है ? एक दौर था जब " हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया " का फ़लसफ़ा समाज में स्वीकार्य नहीं था । बुज़ुर्ग अपने बच्चों को धार्मिक त्योहारों के साथ राष्ट्रीय पर्वों का महत्व भी समझाते थे । आज तो ज़्यादातर लोगों को शायद गणतंत्र के मायने भी मालूम ना हों । बिना मशक्कत किये आपको अपने आसपास ही ऎसे लोग मिल जाएंगे जो ये भी नहीं जानते कि गणतंत्र दिवस क्यों मनाया जाता है । एक समय था जब छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त सरकारी आयोजन की बजाय पारिवारिक और सामाजिक त्योहार होते थे । तब गणतंत्र दिवस "रिपब्लिक डे" नहीं था ।

देश में हर तरफ़ तदर्थवाद का ऎसा दौर आ गया है कि हर शख्स " जो है समां कल हो ना हो " की तर्ज़ पर हर काम को तुरत फ़ुरत कर डालने की जल्दी में है । मानों कल ही दुनिया खत्म होने जा रही हो । देश इस समय एक साथ कई मोर्चों पर संकट के दौर से गुज़र रहा है । लोग सच्चाई से रुबरु होने की बजाय इतने गाफ़िल कैसे रह सकते हैं ? क्या मानव श्रृंखला बनाने ,फ़िल्मी अंदाज़ में मोमबत्तियां जलाने , सडक पर बेमकसद दौड लगाने या हवा में मुक्के लहराते हुए जुलूस निकालने भर से समस्याएं "छू मंतर" हो जाया करती हैं ?

अमेरिका के राष्ट्रपति के रुप में ओबामा की ताजपोशी का जश्न देश में यूं मनाया जा रहा है , जैसे भारत ने ही कोई इतिहास रच दिया हो । दलित को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का ख्वाब देखने वाले देश में आज भी दलितों की क्या दुर्दशा है ये किसी से छिपा नहीं है । हाल ही में मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के करीब पौने दो सौ दलितों ने सामाजिक भेदभाव से निजात पाने के लिए कलेक्टर को पत्र लिखकर धर्म बदलने की इजाज़त मांगी । प्रदेश के बुंदेलखंड में आज भी कोई दलित दूल्हा दबंगों के खौफ़ के चलते घोडी नहीं चढ सकता । इसी इलाके की एक दलित सरपंच पिछले पांच सालों से थाने में डेरा डाले है, दबंगों के कहर से बचने के लिए ...।

इतना दूर जाने की भी ज़रुरत नहीं । मैं पिछले तेरह सालों से एक बच्चे को देखती आ रही हूं । शुरुआती दौर में अपने स्तर पर कुछ कोशिशें भी की ,उसके जीवन और हालात में बदलाव लाने की । लेकिन मुझे अफ़सोस है कि रफ़्ता - रफ़्ता "बिट्टू" पूरी तरह सफ़ाई कामगार बन गया और दलित बच्चों के लिए चलाई जा रही आश्रम स्कूल योजना धरी की धरी रह गई । कभी झाडू थामे , तो कचरे की गाडी खींचता " बिट्टू " मेरी चेतना को झकझोर कर रख देता है । मन अपराध बोध से भर जाता है । क्या फ़ायदा ऎसे ज्ञान का ,जो किसी की ज़िंदगी को उजास से ना भर सके ? अब कॉलोनी वासी अपनी सहूलियत के लिए कुछ और बिट्टू तैयार कर रहे हैं । कैसे रुकेगा ये सिलसिला ...? कौन रोकेगा इस अन्याय को ......? कब साकार होंगी कागज़ों पर बनी योजनाएं ...?
मुझे मेरे पसंदीदा शायर साहिर लुधियानवी की प्यासा फ़िल्म की लाइनें अक्सर याद आती हैं -
" ज़रा हिन्द के रहनुमा को बुलाओ ....
ये गलियां ये कूचे उनको दिखाओ ....
जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ....?"

देश में सुरक्षा का संकट मुंह बाये खडा है । बिजली पानी का बेरहमी से इस्तेमाल नई तरह की मुसीबतों का सबब बनने जा रहा है । मैंने पहले भी कहा है प्रजातंत्र के सभी खंबे ऊपरी तौर पर चाहे जितने सशक्त नज़र आते हों भीतर से पूरी तरह खोखले हो चले हैं । एक दूसरे के कामकाज की निगरानी का संवैधानिक दायित्व भूलकर सब के सब एक नाव की सवारी पर आमादा हैं । लगता है देश को इस मकडजाल से निजात पाने के लिए रक्तरंजित क्रांति की सख्त ज़रुरत है ।

राजनीतिशास्त्र के बारे में मेरी जानकारी शून्य है ,लेकिन व्यवहारिक स्तर पर कई बार एक बात मेरे मन में आती है कि आखिर इस देश को इतने नेताओं की क्या ज़रुरत है । जितने ज़्यादा नेता उतना ज़्यादा कमीशन , उतना अधिक भ्रष्टाचार , उतने अपराध , उतनी गरीबी ....। ऎसा प्रजातंत्र किस काम का जिसमें आम आदमी के लिए ही कोई संभावना ना हो । आज के इस छद्म गणतंत्र से तो बेहतर है कि देश किसी तानाशाह के हवाले कर दिया जाए ....?????

बेमुरव्वत ,बेखौफ़ ,बेदर्द और अनुशासनहीन हो चुके भारतीय समाज को डंडे की भाषा ही समझ आती है । मेरी मां अक्सर कहती हैं -" लकडी के बल बंदर नाचे" । क्या करें लम्बे समय तक गुलामी की जंज़ीरों में जकडे रहने के कारण हमारी कौम में "जेनेटिक परिवर्तन" आ चुका है ....??? जब तक सिर पर डंडा ना बजाया जाए हम लोग सीधी राह पकडना जानते ही नहीं ।

आखिर में ’ ज़ब्तशुदा नज़्मों ’ के संग्रह से साहिर लुधियानवी की एक नज़्म , जो 1939 में बम्बई से निकलने वाले साप्ताहिक "अफ़गान" में छपी थी ।

हुकूमत की बुनियाद ढहाए चला जा
जवानों को बागी बनाए चला जा

बरस आग बन कर फ़िरंगी के सर पर
तकब्बुर की दुनिया को ढाए चला जा

जुनूने बगावत ना हो जिन सरों में
उन्हें ठोकरों से उडाए चला जा

गरीबों के टूटे चरागों की लौ से
अमीरों के ऎवां जलाए चला जा

शहीदाने मिल्लत की सौगंध तुझको
यह परचम यूं ही लहलहाए चला जा

परखचे उडा डाल अरबाबे - ज़र के
गरीबों को बागी बनाए चला जा

गिरा डाल कसरे -शहन्शाहियत को
अमारत के खिरमन जलाए चला जा ।

शनिवार, 24 जनवरी 2009

कर्मचारियों के बहाने गौर ने साधा निशाना

मध्यप्रदेश के नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर के एक बयान पर बवाल मचा गया है । प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके श्री गौर ने पिछले हफ़्ते कहा था कि " जिसे काम नहीं करना होता ,वह सरकारी नौकरी में आता है ।" उन्होंने ये भी कहा कि सरकारी कर्मचारी सुस्त हैं और प्रदेश के विकास में बाधक भी ।

उनके इस बयान से भडके कर्मचारी लामबंद हो गये हैं । कर्मचारी संगठनों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की है । कर्मचारियों का कहना है कि नेता और मंत्री तो महज़ घोषणाएं करके वाहवाही लूटते हैं । सरकारी कामकाज तो कर्मचारियों के बूते ही होता है । लेकिन कर्मचारियों की नाराज़गी से बेपरवाह श्री गौर अब भी अपनी बात पर अडे हैं । उनकी निगाह में सरकारी मुलाज़िम अलाल और मुफ़्तखोरी के आदी हैं ।

जिन लोगों का सरकारी दफ़्तरों से साबका पडा है उन्हें गौर के बयान में शब्दशः सच्चाई दिखाई दे सकती है । ये भी सही है कि कार्यालयों में टेबलों पर पडी फ़ाइलों की महीनों धूल तक नहीं झडती । चाय - पान के ठेलों पर कर्मचारियों का मजमा जमा रहता है । ऑफ़िस का माहौल बोझिल और उनींदा सा बना रहता है । ऊंघते से लोग हर काम को बोझ की मानिंद बेमन से करते नज़र आते हैं । मगर इस सब के बावजूद सरकार का कामकाज चल रहा है तो आखिर कैसे ..?

गौर जैसे तज़ुर्बेकार और बुज़ुर्गवार नेता से इस तरह के गैर ज़िम्मेदाराना बयान की उम्मीद नहीं की जा सकती । हो सकता है ज़्यादातर कर्मचारी अपने काम में कोताही बरतते हों । उनकी लापरवाही से कामकाज पर असर पडता हो । लेकिन कुछ लोग ऎसे भी तो होंगे जो अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार हों और अपने काम को पूरी मेहनत और लगन से बखूबी अंजाम देते हों । ऎसे में सभी को एक ही तराज़ू में तौलना कहां तक जायज़ है ? क्या ये ठीक माना जा सकता है कि सभी कर्मचारियों को निकम्मा और कामचोर करार दिया जाए ?

चलिए कुछ देर के लिए मान लिया जाए कि गौर जो कह रहे हैं वो हकीकतन बिल्कुल सही है , तो ऎसे में सवाल उठता है कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ? क्या उस सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती जिसमें गौर खुद शामिल हैं ? क्या सरकारी मुलाज़िम निठल्ले होने के साथ - साथ इतने ताकतवर हो चुके हैं कि वे मंत्रियों पर भारी पडने लगे हैं ? बकौल गौर कर्मचारी प्रदेश के विकास में बाधक हैं , तो क्या जिस विकास के दावे पर जनता ने भाजपा को दोबारा सत्ता सौंपी ,वो खोखला था ? और अगर विकास हुआ तो आखिर किसके बूते पर ....?

दरअसल इस मसले को बारीकी से देखा जाए तो इसके पीछे कहानी कुछ और ही जान पडती है । लगता है गौर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक बार फ़िर बलवती होने लगी है । छठा वेतनमान मिलने में हो रही देरी से प्रदेश के कर्मचारी बौखलाए हुए हैं । ऎसे समय में गौर के भडकाऊ बयान ने आग में घी का काम किया है । प्रदेश में शिवराज सिंह के विकास के नारे को जिस तरह से जनता ने वोट में तब्दील किया उससे पार्टी में उनका कद अप्रत्याशित रुप से एकाएक काफ़ी तेज़ी से बढा है । दिग्विजय सिंह के दस साल के कार्यकाल से निराश हो चुके कर्मचारियों की समस्याओं को ना सिर्फ़ शिवराज ने सुना - समझा और उनकी वेतन संबंधी विसंगतियों को दूर करने के अलावा सेवा शर्तों में भी बदलाव किया । दिग्विजय सिंह भी स्वीकारते हैं कि शिवराज कर्मचारियों के लाडले हैं और उन्हीं की बदौलत वापस सत्ता हासिल कर सके हैं ।

गौर की बयानबाज़ी शिवराज की उडान को थामने की कोशिश से जोड कर भी देखी जाना चाहिए । इसे लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र कर्मचारियों में असंतोष की चिंगारी को हवा देकर दावानल में बदलने की कवायद भी माना जा सकता है । यदि लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन मनमाफ़िक नहीं रहा , तो शिवराज का विरोधी खेमा इस मौके को भुनाने से नहीं चूकेगा । मुख्यमंत्री पद की शोभा बढा चुके गौर वैसे तो "सूबे के मुखिया" होने के ’हैंग ओवर’ से अब तक बाहर नहीं आ पाए हैं । पिछली सरकार में वाणिज्य कर मंत्री रहते हुए वे गाहे बगाहे दूसरे महकमों के कामकाज में भी दखल देते रहे हैं ।

शिगूफ़ेबाज़ी कर मीडिया की सुर्खियां बटोरना उनका शगल है । कभी भोपाल को स्विटज़रलैंड बनाने का ख्वाब दिखा कर , कभी बुलडोज़र चलाकर , तो कभी इंदौर और भोपाल में मेट्रो ट्रेन चलाने की लफ़्फ़ाज़ी कर लोगों को लुभाने की कोशिश करने वाले गौर ने 2006 में प्रदेश को पॉलिथीन से पूरी तरह निजात दिलाने का शोशा छोडा था । कुछ दिन बाद पॉलिथीन निर्माता कंपनियों का प्रतिनिधिमंडल गौर से मिला । इसके बाद ना जाने क्या हुआ ....?????? प्रदेश में पॉलिथीन का कचरा दिनोंदिन पहाड खडे कर रहा है ।

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

डॉक्टरों के नहले पर जब पडा दहला ......!!!

इस खबर को पढ कर ज़रा सोचिए कौन सी कहावत सबसे सटीक बैठती है :

* सेर को सवा सेर

* नहले पर दहला

* चोर के घर चोरी

* तू डाल डाल मैं पात - पात


किस्से अभी और भी हैं जाइएगा नहीं ..................
भोपाल के निजी नर्सिंग होम्स में मरीज़ों की सेहत के साथ खिलवाड के मामले आम हैं । मनमानी वसूली और मरीज़ के शरीर पर जमकर प्रयोग करने की शिकायतें भी अक्सर सुनने मिलती रहती हैं । जनता की सेवा के लिए सरकार से सस्ती दरों पर ली गई बेशकीमती ज़मीनों पर आलीशान होटल की मानिंद अस्पताल खडे कर दिये गये हैं , जिनमें नौसीखिए डॉक्टर अपना चिकित्सकीय ज्ञानार्जन कर रहे हैं ।

कुछ समय पहले मेरे छोटे बेटे कार्तिकेय के कारण जे पी अस्पताल का चक्कर लगाना पड गया । वहां के अनुभव ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया । हम सरकारी अस्पताल को हमेशा ही हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं । छोटी - छोटी बातों के लिए नर्सों - डॉक्टरों को कोसने लगते हैं । लेकिन मैंने पाया कि कम सुविधा साधनों के बावजूद इन कर्मचारियों का स्नेहिल बर्ताव मरीज़ों और उनके परिजनों के लिए मानसिक संबल का काम करता है ।

वार्ड में दमोह से अपने पचपन साल के जीजा को इलाज के लिए भोपाल लाए एक व्यक्ति से बातचीत के दौरान पता चला कि वे शहर के मशहूर हार्ट अस्पताल में एक हफ़्ता गंवाने के बाद हार कर सरकारी अस्पताल की शरण में आए हैं । निजी अस्पताल प्रबंधन ने उन्हें 30-35 हज़ार रुपए का बिल थमा दिया जबकि रोगी हालत में सुधार आना तो दूर दिनबदिन गिरावट ही आती जा रही थी । आखिर में उन्होंने किसी तरह अस्पताल से छुटकारा पाया । बिना मांगे ही मुफ़्त सलाह देना , दूसरे के दुख में दुबला होना और गलत के खिलाफ़ आवाज़ उठाना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है , इसलिए मैंने उन्हें बताया कि ये केस न्यूरोलॉजी से संबंधित है ना कि हृदय रोग से ।

इसी तरह पिछले दिनों एक और वाकया मेरे साथ ही गुज़रा । मेरी माताजी को भूख ना लगने की शिकायत के चलते और भी कई पाचन संबंधी दिक्कतों ने घेर लिया । दो - तीन दिन घरेलू उपचार के बाद हमने डॉक्टर से परामर्श का मन बनाया । घर के सबसे नज़दीक होने के कारण हम भी इसी अस्पताल पहुंचे । हमॆ रिसेपशनिस्ट ने लॉबी में बैठने को कहा । साथ ही इत्तला दी कि डॉक्टर करीब एक - दो घंटॆ बाद आएंगे । हम सभी इंतज़ार कर ही रहे थे कि एक वार्ड बॉय व्हील चेयर लेकर आ गया और पूछने लगा कि मरीज़ कौन है ? हम चौंके ...। बताया कि रोगी की हालत इतनी गंभीर नहीं है कि वो चल फ़िर भी नहीं सके । तब उसने कहा कि डॉक्टर साहब को आने में वक्त लगेगा और उन्होंने मरीज़ को आईसीयू में दाखिल करने का इंस्ट्रक्शन दिया है । ये सुनने के बाद तो हम सब हक्के बक्के रह गये और वहां से भाग निकलने में ही अपनी खैरियत समझी ।

बाद में हम तुरंत ही एक क्लीनिक पहुंचे , जहां केवल सौ रुपए फ़ीस लेकर एक दो दवाएं लिखीं और खानपान का खास ध्यान रखने की हिदायत देते हुए कहा कि बढती उम्र के साथ रेशेदार फ़ल - सब्ज़ियां खाएं , चिंता की कोई बात नहीं । कहना ना होगा कि तीसरे दिन ही मेरी माताजी चुस्त - स्फ़ूर्त हो गईं ...।

पिछले महीने कार्तिकेय को निजी अस्पताल में दिखाने की सज़ा भी हमने खूब पाई । छोटा सी दिक्कत के चलते डॉक्टर ने सोनोग्राफ़ी तक करा डाली । दवा के नाम पर ना जाने क्या लिख डाला कि रात होते तक मेरा दुबला पतला बेटा सूमो पहलवान हो गया । पूरी रात रोते-रोते बिताई उसने । सुबह डॉक्टर का पता ठिकाना तलाशते उनके घर पहुंचे ।

डॉक्टर दंपति का गैर पेशेवराना रवैया देखकर गुस्सा भी आया और हैरानगी भी । दवा के रिएक्शन से पूरे शरीर पर आई सूजन देख लेने के बावजूद उनका कहना - " हम घर पर मरीज़ को नहीं देखेंगे और क्लीनिक दस बजे खुलेगा ।" काफ़ी बहस के बाद उन्होंने बच्चे को देखा और कहा कि ये तो किसी गंभीर बीमारी का शिकार है , दवा के रिएक्शन का असर नहीं ।

सारा माजरा समझते ही हमने उसे रेडक्रास अस्पताल में दिखाया और दिक्कतों से छुटकारा पाया । डॉक्टर ने सभी दवाएं देखने के बाद बताया कि इनमें से एक दवा ऎसी है , जो अक्सर रिएक्शन करती है । उन्होंने पुरानी दवा बंद करके एंटी एलर्जिक दे दी और बच्चा दो दिन में ही उछलने कूदने लगा । नर्सिंग हो्म्स की कहानियां यानी हरि अनंत हरि कथा अनंता , बहु विधि कहहिं सुनहिं सब संता .......।










सोमवार, 19 जनवरी 2009

पब्लिक है , ये सब जानती है .............!

आजकल अखबार समाचारों की बजाय रोचक जानकारियों से भरे रहते हैं । कल तक हर आम खास बन कर जीने के ख्वाब देखा करता था , लेकिन अब देश के अति विशिष्ट व्यक्तियों को आम बनने या कहें खुद को आमजन सा दिखाने का चस्का लग गया है । नए ज़माने के राजा भोज किसी गरीब की झोपडी में रात बिताकर किसी दलित के साथ खाना खाकर ना सिर्फ़ उसे बल्कि पूरे देश को निहाल कर रहे हैं ।

चुनावों से पहले मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री महोदय को मोटर साइकल की सवारी ऎसी भाई कि वे गाहे बगाहे किसी भी गांव में पहुंच कर किसी की भी बाइक पर बैठ कर निकल पडते थे - जनता का हालचाल जानने । शिवराज सिंह चौहान ने सरकारी लवाज़मे को दरकिनार कर मोटर साइकल से नाता जोडा । लेकिन दोबारा गद्दीनशीन होने के बाद ग्रामीण जनता को शिवराज सिंह के करीब फ़टकने का मौका फ़िलहाल तो मिलता नज़र नहीं आता ।

इसी तरह पेट्रोल की कीमतें बढने पर शिवराज ने हफ़्ते में एक दिन साइकल की सवारी का इरादा किया । देखा देखी कई मंत्रियों ने भी साइकल के हैंडल पकडने की मशक्कत शुरु कर दी । लेकिन अखबारों में फ़ोटो सेशन होते ही "शान की सवारी" को कहीं अटाले में डाल दिया गया । गाडियों के काफ़िले में बेतहाशा फ़ूंके जा रहे ईंधन और राजकोष की बर्बादी से परेशान होकर शर्माशर्मी में मुरली देवडा को ही किस्तों में ही सही पेट्रोल की कीमतों में कटौती करना ही पडा ।

सिलसिला यहीं नहीं थमता । देश के लाडले युवराज राहुल गांधी जब सिर पर तगारी रखकर मिट्टी उठाते हैं और दलित के घर खाना खाकर उसका जीवन धन्य करते हैं तो ये भी बडी भारी और ऎतिहासिक घटना होती है ।

कल यानी रविवार का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में सुनहरे हर्फ़ों में दर्ज़ किया जाएगा । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सादगी की मिसाल कायम कर जनता का तो मालूम नहीं , मगर मीडिया का "मन -मोह” लिया । ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए श्री सिंह आरटीओ कार्यालय पहुंचे । उन्होंने सभी औपचारिकताओं को भी हमारी आपकी तरह ही पूरा किया ।

दिलचस्प बात ये रही कि सरकारी महकमे में इस " आम नागरिक" का काम महज़ आधे घंटे में हो गया । देश के सरकारी कार्यालय वाकई मुस्तैद हो चुके हैं .......? शायद छठा वेतनमान लागू होने के बाद से कर्मचारियों में कार्पोरेट कल्चर पैदा हो गया है । पैसे की गर्मी ने उनके काम काज में चुस्ती फ़ुर्ती ला दी है । ऊंघते हुए दफ़्तरों में अब ज़िंदादिली और कर्मठता का नज़ारा देखने मिले इससे ज़्यादा सुखद भला क्या हो सकता है ?

खास लोगों का आमजनों से जुडाव कोई नई बात नहीं है । इंदिरा गांधी भी आदिवासियों के साथ लोक नृत्य कर उनके करीब जाने का कोई भी अवसर चूकती नहीं थीं । राजीव गांधी ने भी उसी परंपरा को आगे बढाया । पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ेल सिंह और एपीजे अब्दुल कलाम भी लोगों के बीच जाते थे और उनसे संवाद का सिलसिला बरकरार रखते थे ।

आज के दौर के राजनेताओं के लिए जनता के करीब जाने के ये मौके केवल खबरी दुनिया तक ही सिमट कर रह गये हैं । समाचारों में चर्चा और मुस्कराते हुए फ़ोटो सेशन कराकर ही ज़्यादातर नेता मान लेते हैं कि वे जनप्रिय हो चुके हैं । जनता लोकतंत्र की सूत्रधार है । शायद यही सोचकर नेता जनता के करीब जाने का आधा अधूरा प्रयास करते हैं लेकिन फ़िल वक्त जनता का रहनुमा कहलाने की इस कोशिश में ईमानदारी कम और शोशेबाज़ी ज़्यादा नज़र आती है । पब्लिक है , ये सब जानती है ............., अंदर क्या है , अजी बाहर क्या है , ये सब कुछ पहचानती है .....!

रविवार, 18 जनवरी 2009

न्याय के मंदिर में चढावे का दस्तूर

लोकतंत्र की मज़बूती के लिए न्यायपालिका का निष्पक्ष , ईमानदार और सत्यनिष्ठ होना ज़रुरी है । ऎसा किताबों में कहा गया है और शायद लोकतांत्रिक व्यवस्था की ये आदर्श स्थिति कही जा सकती है । लेकिन ऎसा तभी हो सकता है जब इंसाफ़ का तराज़ू थामने वाला हाथ किसी भी सूरत में कांपे नहीं , हर हाल में संतुलित रह सके । उसे थामने वाले दिलो - दिमाग की बजाय न्याय की बात कहने का साहस कायम रख सकें ।

अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की कहानी देश में इंसाफ़ की समृद्ध परंपरा को रेखांकित करती है । बताती है कि इंसाफ़ मानवीय सीमाओं से परे ईश्वर का आदेश है । यही वजह है जो हमने दूध का दूध और पानी का पानी करने वाले पंच को परमेश्वर का दर्ज़ा दिया । देश में आज भी न्यायाधीश का स्थान सर्वोपरि है । लोकतांत्रिक व्यवस्था के चार स्तंभों में एक न्यायपालिका भी है जिस पर जनता का भरोसा आज भी कायम है । मगर सामाजिक विकृतियों ने इसे भी नहीं बख्शा है ।

हाल ही में देश के प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने कहा है कि जज अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा देने के लिए बाध्य नहीं है । उनके मुताबिक देश में ऎसा कोई कानून नहीं है जिसके तहत न्यायाधीशों के लिए संपत्ति घोषित करना अनिवार्य किया गया हो । गौरतलब है कि केन्द्रीय सूचना आयोग में आरटीआई दाखिल कर इस बाबत जानकारी मांगने पर इंकार के बाद अदालत में याचिका लगाई गई थी ।

ट्रांसपरेन्सी इंटरनेशनल की वैश्विक भ्रष्टाचार रिपोर्ट 2007 में कहा गया है कि भारत में 77 फ़ीसदी लोगों को न्यायपालिका के भ्रष्ट होने का यकीन है । रिपोर्ट के मुताबिक कानून से न्याय पाने के एवज़ में एक साल में 58 करोड अमरीकी डॉलर {2630 करोड रुपए } घूस दी जाती है । 61 प्रतिशत वकीलों , 29 फ़ीसदी अदालती कर्मचारियों और 5 फ़ीसदी बिचौलियों के ज़रिए यह धनराशि पहुंचाई जाती है ।

इससे पहले वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस. पी. भरुचा ने यह कहकर तहलका मचा दिया था कि " देश के बीस फ़ीसदी जज भ्रष्ट हैं ।" इसके बाद देश भर में न्यायपालिका की शुचिता पर बहस छिड गई थी । लोगों का मानना है कि जजों के कामकाज और उनकी संपत्ति की जांच का अधिकार भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं को सौंप दिया जाए तो अदालत के गलियारों में फ़ैले भ्रष्टाचार का वास्तविक स्वरुप आँखें फ़ाड देने वाला होगा ।

देश का दुर्भाग्य है कि सरकार और न्याय व्यवस्था में फ़ैले भ्रष्टाचार को देख कर भी इससे निजात पाने के तरीके खोजने की बजाय प्रधानमंत्री लाचारगी की मुद्रा में नज़र आते हैं । वर्ष 2008 में मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में मनमोहन सिंह ने कहा कि " सरकार और न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार एक चुनौती है ,जिससे हम जूझ रहे हैं ।" कुछ समय पहले अदालतों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बार कॉउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने भी राज्यों की बार कॉउन्सिल्स से अपनी राय देने को कहा था ।

ये किसी भीषण त्रासदी से कम नहीं कि उच्च पदस्थ जजों के कथित दुराचरण के मामले तेज़ी से हाल के वर्षों में सामने आए हैं , लेकिन इनके खिलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं हो सकी । आज तक यही होता आ रहा है कि "अदालत की अवमानना” का खौफ़ दिखा कर शिकायती आवाज़ों को तुरंत दफ़्न कर दिया जाता है । सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज जवाबदेही से पूरी तरह मुक्त हैं । ऎसे में आम लोगों में क्या वाकई न्याय के प्रति भरोसा कायम रह सकेगा ?

मौजूदा दौर लोकतंत्र के संकट का काल प्रतीत होता है । मीडिया पूरी तरह से बाज़ार की गिरफ़्त में है । चारों तरफ़ प्रेस की आज़ादी को लेकर शोरगुल सुनाई दे रहा है । लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं है कि क्या वास्तव में देश में मीडिया अपनी भूमिका सही तरह से निभा रहा है ...? प्रेस का जब देश की जनता या सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता ही नहीं रहा , तो लोकतंत्र का स्तंभ कहलाने का दंभ भी क्यों ...? विधायिका और कार्यपालिका पहले ही जनता का भरोसा खो चुकी हैं । यही हाल अब इंसाफ़ के मंदिरों का हो चुका है ।

मेरे एक परिचित ने इस बारे में बेहद चुटीली लेकिन गंभीर टिप्पणी की । वो मानते हैं कि पहले प्रजातंत्र के चारों खंबे अलग - अलग थे । अब इन पर छत पड चुकी है । ये सब एकजुट हो चुके हैं । इससे स्तंभों को मज़बूती भी मिली है और सभी निश्चिंत होकर एक दूसरे के हितों का भरपूर ख्याल रख रहे हैं । इस तरह देश का संभ्रांत वर्ग "जनता के माल" पर मिल बांट कर हाथ साफ़ कर रहे हैं । त्राहि - त्राहि करती जनता का ना तो किसी को ख्याल है और ना ही कोई डर ............।

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

एक मुल्क - दो कानून

हाल ही में मेरी एक परिचित से लंबे समय बाद मुलाकात हुई । बातचीत धर्म की आड में दूसरी - तीसरी शादी तक पहुंची । पहली बीवी के रहते कानून के फ़ंदे से बचने के लिए मज़हब बदलकर दोबारा शादी करने के मामले आजकल अक्सर सामने आते हैं । मामला किसी नामचीन शख्स से जुडा हो तो सुर्खियों में रहता है , वरना ऎसी घटनाएं कानाफ़ूसी तक ही सिमट कर रह जाती हैं । अपना परिवार गवां चुकी औरत का दुख दर्द , उसकी सिसकियां , उसकी पीडा घुटकर रह जाती है । सोचने वाली बात ये है कि एक ही देश के नागरिकों के लिए कानून अलग - अलग क्यों ....?

शायद एक डेढ साल पुरानी बात होगी । किसी प्रादेशिक चैनल पर जबलपुर की एक नवयुवती को सिसकते देखा । अदालत के बाहर खडी यह युवती कानून से न्याय मांगने आई थी , लेकिन आंख पर पट्टी बांधे न्याय की तराज़ू थामने वाली देवी ने अपने हाथ संविधान से बंधे होने की लाचारगी जता दी । मामला कुछ यूं था कि युवती के पति का कहना था कि उसने तलाक दे दिया है , लेकिन पत्नी इससे बेखबर थी और वह पति के साथ ही रहना चाहती थी ।

परिवार परामर्श केन्द्र की कोशिशें नाकाम होने पर वह न्याय की गुहार लगाने के इरादे से कानून का दरवाज़ा खटखटाना चाहती थी । युवती रो - रो कर एक ही बात कह रही थी कि ये कैसी अदालत है , जिसमें उसके लिए न्याय नहीं ....? अपने ही देश में बेगानेपन का एहसास लिए मायूस होकर लौट रही उस मुस्लिम युवती की निगाहों में सैकडों सवाल थे । वो पूछ रही थी कि आखिर वो भी दूसरे धर्म की औरतों की तरह ही अदालत से अपना हक क्यों नहीं पा सकती ...?

एक ही गांव , एक ही मोहल्ले में रहने वाली सुनीता और सबीना को पढने - लिखने , आगे बढने के लिए समाज में समान अवसर दिए जा रहे हैं तो जीवन जीने के व्यक्तिगत अधिकारों में भिन्नता क्यों ...? "मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना " की बात पर चलते हुए भारतीय संविधान में महिला को उसके धर्म के आधार पर क्यों बांटा गया है ?उसे अपने ही मुल्क में सिर्फ़ इंसान के तौर पर बराबरी के हक हासिल क्यों नहीं ? वह हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई नारी की बजाय भारतीय नारी कब कहलाएगी ? क्या ये ज़रुरी नहीं कि विवाह ,तलाक ,गुज़ारा भत्ता जैसे मुद्दों पर कानून बनाने वाले औरतों के हितों के मद्देनज़र मानवीय नज़रिया अपनाएं । उन्हें महज़ मज़हब के चश्मे से नहीं देखें ।

जब भी यह मुद्दा उठता है समाज में दो तरह की आवाज़ें सुनाई पडती हैं । कुछ लोग एक राष्ट्र एक कानून की बात पुरज़ोर तरीके से उठाते हैं , तो कुछ इसे इक मज़हब का अंदरुनी मामला बताते हैं । कई लोगों का कहना है कि मुस्लिम औरतों को अपने शौहर की चार शादियों पर कोई एतराज़ नहीं तो बेवजह इस मामले पर इतना बवाल क्यों ..? दलील यह भी है कि आज के दौर में चार बीवियां रखने की कूव्वत किसमें है ? लेकिन इस तंग गली का इस्तेमाल गाहे बगाहे मुस्लिमों के अलावा दूसरे लोग भी सरे आम करते रहे हैं ।

हालांकि अब मुस्लिम औरतें भी जुल्म ज़्यादतियों के खिलाफ़ खुल कर सामने आने लगी हैं । तलाक लेने में वे भी मर्दों से पीछे नहीं हैं । हाल ही में भोपाल में आयोजित दीनी तब्लीगी इज़्तिमा ए ख्वातीन में उलेमाओं की तकरीर के दौरान यह खुलासा हुआ । "शरीयत से हटकर दुनियावी माहौल के कारण तेज़ी से तलाक और खुला के मामले बढ रहे हैं ।" ये आंकडे सामाजिक रुप से आतंकवाद से भी खतरनाक है । इससे रोज़ कई परिवार प्रभावित हो रहे हैं ।

तलाक और खुला के चौंकाने वाले आंकडों पर मशविरे के बाद ज़्यादातर ख्वातीनों का कहना था कि पिछले पांच साल में इनमें कई गुना तेज़ी आई है । उनके मुताबिक शरीयत से भटकने के कारण ऎसे हालात पैदा हो रहे हैं । लोग दीन की बजाय मालदार होने और सीरत की बजाय सूरत को ज़्यादा तवज्जोह देने लगे हैं । रिश्तों की हदें टूटने से भी तलाक के मामलों में इज़ाफ़ा देखा गया है ।

महिला उलेमाओं के इस समागम में और भी कई मुद्दों पर तकरीरें हुईं । उलेमाओं ने समाज और परिवार की बुनियाद में औरत की अहमियत पर तकरीर की । उनके मुताबिक मां की दीनी नसीहत पुख्ता हो , तो तमाम दुनियावी तालीम हासिल करने के बावजूद बच्चा कभी ईमान की राह से नहीं भटक सकता । औरतों में पश्चिमी सोच के बढते चलन कडा एतराज़ जताया गया । वहीं आज़ादी के नाम पर सौंदर्य प्रतियोगिताओं की आड में बेसाख्ता खुलेपन पर भी सवाल उठाए गये । नाजायज़ औलादों और एड्स को उलेमाओं ने औरत की आज़ाद ख्याली का नतीजा बताया ।

ये सच है कि तलाक की पहल कोई भी करे , टूटता तो पूरा परिवार ही है । फ़िर भी एक बात है जो रह - रह कर मन को कचोटती है कि तलाक की पहल अगर औरत करे , तो उसे आज़ाद ख्याली क्यों समझा जाता है । तलाक के मानी सिर्फ़ दो लोगों का जुदा हो जाना कतई नहीं है । इसका असर पूरे समाज पर भी होता है ।

शनिवार, 10 जनवरी 2009

भगवान ने बदला ज़ायका .......!

वक्त के साथ ही साथ भगवान के मुंह का ज़ायका भी बदल रहा है । हाल ही में एक भक्त ने मंदिर में आरती के बाद मेरे हाथ पर पारले जी बिस्किट और पेठे का प्रसाद रखा । आज कल देवी - देवताओं को भी तरह - तरह के भोग का चस्का लग गया है । चना - चिरौंजी और मुरमुरे अब गुज़रे ज़माने की बात हो गई है । कुछ साल पहले जोबट के पास एक आश्रम में जाने का मौका मिला था ,वहां चाय का प्रसाद पाया । उज्जैन के भैरु बाबा मदिरा पान करके ही प्रसन्न होते हैं और आराधक की मुराद भी पूरी करते हैं । भोले भंडारी महादेव भी जम कर घोंटी गई हरी हरी भांग का भोग लगाकर ही प्रसन्न होते हैं

दुनिया के सबसे अमीर या यूं कहें कि अमीरों के भगवान तिरुपति बालाजी के लड्डू तो जग प्रसिद्ध हैं । उनके प्रसाद की पब्लिक डिमांड भी खूब रहती है । वहीं माता वैष्णो देवी भक्ति भाव से अर्पित सूखॆ सेब और अखरोट भी स्वीकारती हैं । कहते हैं ना कि भगवान भक्त की भावना देखते हैं चढावे के भाव [दाम] नहीं .....। इसी लिए कई जगह तो भक्त सेव - चूडा जैसे नमकीन भी भगवान को समर्पित करते देखे जाते हैं ।

बच्चों से लेकर बूढॊं तक में समान रुप से लोकप्रिय नटखट कन्हैया रुप चाहे जितने धरें ,पसंद वही करते हैं ,जो दुनियादारी के चलन में है । अरे अब तक आप नहीं समझे ...? वही माखन मिश्री ...। आप किसी को भी नर्म नर्म मक्खन लगाकर तो देखिए उसकी चिकनाहट आपका काम ना बना दे तो कहिए ....। कान्हा तो भाव के भूखॆ हैं । वे अपनी पसंद के ज़रिए हमें सीख देते हैं मक्खन सी स्निग्धता और मिश्री की मिठास व्यवहार में लाओ । और फ़िर भी नाकामी ही हाथ लगे , तो मक्खन का इस्तेमाल दूसरे तरीके से भी किया जा सकता है यानी मक्खन पालिश । और ये रामबाण नुस्खा अचूक ही नही सौ फ़ीसदी कारगर भी है ।

कल ही एक खबर पढी । आखिर एक भक्त ने पता लगा ही लिया कि सांईं बाबा को कौन सा फ़ल सबसे ज़्यादा पसंद था । गहन शोध के बाद पता चला है कि अमरुद सांईं बाबा का मनपसंद फ़ल था । सांईं संस्थान के अध्यक्ष जयंत ससाने का कहना है कि शिर्डी और आसपास के इलाके में अमरुद के भारी उत्पादन को देखते हुए श्रद्धालुओं को दिए जाने वाले प्रसाद में अमरुद की बर्फ़ी को भी शामिल किया जाएगा । प्रसाद के लिए अमरुद की बर्फ़ी संस्थान में ही तैयार की जाएगी । इसके लिए प्रसिद्ध मिठाई निर्माता हल्दीराम और पुणे के चितले भंडार से बातचीत चल रही है । माना जा रहा है कि इससे करीब पाँच सौ लोगों को रोज़गार मिलेगा और अमरुद उत्पादक जमकर लाभ कमायेंगे ।

ऎसा ही एक और वाकया है । हमारे घर पूजा कराने दक्षिण भारतीय पुजारी आते हैं । पूजा के दौरान फ़लों का पैकेट तलाशना शुरु किया गया ,तो पता चला कि सेब का पैकेट नदारद ...। लेकिन पुजारी जी ने हमारी परेशानी को दूर करते हुए कहा कि कोई बात नहीं पूजा में सेब वैसे भी उपयोग में नहीं लाना चाहिए । मन की जिज्ञासा का समाधान करते हुए उन्होंने बताया कि सेब विदेशी फ़ल है ,इसीलिए भगवान को पसंद नहीं ...!

खैर , भगवान तो भगवान ही हैं उन्हें क्या पसंद है और क्या नहीं ...। ये तो वो जानें या उनका पी ए यानी पुजारी .......। लेकिन अब इस घट - घट के वासी अंतर्यामी के मन की बात बिज़नेस मैनेजमेंट वाले भी बखूबी समझने लगे हैं ।

अब तो सभी भगवान की लोकप्रियता का ग्राफ़ बढाने का जिम्मा भी मैनेजमेंट गुरुओं के हवाले है। जितना क्वालिफ़ाइड गुरु संस्थान की प्रसिद्धि की गुंजाइश भी उतनी ज़्यादा । अब तक अमरुद गरीबों का सेब था लेकिन जल्दी ही ये भी उनकी पहुंच से बाहर होने जा रहा है ।