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रविवार, 18 जनवरी 2009

न्याय के मंदिर में चढावे का दस्तूर

लोकतंत्र की मज़बूती के लिए न्यायपालिका का निष्पक्ष , ईमानदार और सत्यनिष्ठ होना ज़रुरी है । ऎसा किताबों में कहा गया है और शायद लोकतांत्रिक व्यवस्था की ये आदर्श स्थिति कही जा सकती है । लेकिन ऎसा तभी हो सकता है जब इंसाफ़ का तराज़ू थामने वाला हाथ किसी भी सूरत में कांपे नहीं , हर हाल में संतुलित रह सके । उसे थामने वाले दिलो - दिमाग की बजाय न्याय की बात कहने का साहस कायम रख सकें ।

अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की कहानी देश में इंसाफ़ की समृद्ध परंपरा को रेखांकित करती है । बताती है कि इंसाफ़ मानवीय सीमाओं से परे ईश्वर का आदेश है । यही वजह है जो हमने दूध का दूध और पानी का पानी करने वाले पंच को परमेश्वर का दर्ज़ा दिया । देश में आज भी न्यायाधीश का स्थान सर्वोपरि है । लोकतांत्रिक व्यवस्था के चार स्तंभों में एक न्यायपालिका भी है जिस पर जनता का भरोसा आज भी कायम है । मगर सामाजिक विकृतियों ने इसे भी नहीं बख्शा है ।

हाल ही में देश के प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने कहा है कि जज अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा देने के लिए बाध्य नहीं है । उनके मुताबिक देश में ऎसा कोई कानून नहीं है जिसके तहत न्यायाधीशों के लिए संपत्ति घोषित करना अनिवार्य किया गया हो । गौरतलब है कि केन्द्रीय सूचना आयोग में आरटीआई दाखिल कर इस बाबत जानकारी मांगने पर इंकार के बाद अदालत में याचिका लगाई गई थी ।

ट्रांसपरेन्सी इंटरनेशनल की वैश्विक भ्रष्टाचार रिपोर्ट 2007 में कहा गया है कि भारत में 77 फ़ीसदी लोगों को न्यायपालिका के भ्रष्ट होने का यकीन है । रिपोर्ट के मुताबिक कानून से न्याय पाने के एवज़ में एक साल में 58 करोड अमरीकी डॉलर {2630 करोड रुपए } घूस दी जाती है । 61 प्रतिशत वकीलों , 29 फ़ीसदी अदालती कर्मचारियों और 5 फ़ीसदी बिचौलियों के ज़रिए यह धनराशि पहुंचाई जाती है ।

इससे पहले वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस. पी. भरुचा ने यह कहकर तहलका मचा दिया था कि " देश के बीस फ़ीसदी जज भ्रष्ट हैं ।" इसके बाद देश भर में न्यायपालिका की शुचिता पर बहस छिड गई थी । लोगों का मानना है कि जजों के कामकाज और उनकी संपत्ति की जांच का अधिकार भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं को सौंप दिया जाए तो अदालत के गलियारों में फ़ैले भ्रष्टाचार का वास्तविक स्वरुप आँखें फ़ाड देने वाला होगा ।

देश का दुर्भाग्य है कि सरकार और न्याय व्यवस्था में फ़ैले भ्रष्टाचार को देख कर भी इससे निजात पाने के तरीके खोजने की बजाय प्रधानमंत्री लाचारगी की मुद्रा में नज़र आते हैं । वर्ष 2008 में मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में मनमोहन सिंह ने कहा कि " सरकार और न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार एक चुनौती है ,जिससे हम जूझ रहे हैं ।" कुछ समय पहले अदालतों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बार कॉउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने भी राज्यों की बार कॉउन्सिल्स से अपनी राय देने को कहा था ।

ये किसी भीषण त्रासदी से कम नहीं कि उच्च पदस्थ जजों के कथित दुराचरण के मामले तेज़ी से हाल के वर्षों में सामने आए हैं , लेकिन इनके खिलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं हो सकी । आज तक यही होता आ रहा है कि "अदालत की अवमानना” का खौफ़ दिखा कर शिकायती आवाज़ों को तुरंत दफ़्न कर दिया जाता है । सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज जवाबदेही से पूरी तरह मुक्त हैं । ऎसे में आम लोगों में क्या वाकई न्याय के प्रति भरोसा कायम रह सकेगा ?

मौजूदा दौर लोकतंत्र के संकट का काल प्रतीत होता है । मीडिया पूरी तरह से बाज़ार की गिरफ़्त में है । चारों तरफ़ प्रेस की आज़ादी को लेकर शोरगुल सुनाई दे रहा है । लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं है कि क्या वास्तव में देश में मीडिया अपनी भूमिका सही तरह से निभा रहा है ...? प्रेस का जब देश की जनता या सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता ही नहीं रहा , तो लोकतंत्र का स्तंभ कहलाने का दंभ भी क्यों ...? विधायिका और कार्यपालिका पहले ही जनता का भरोसा खो चुकी हैं । यही हाल अब इंसाफ़ के मंदिरों का हो चुका है ।

मेरे एक परिचित ने इस बारे में बेहद चुटीली लेकिन गंभीर टिप्पणी की । वो मानते हैं कि पहले प्रजातंत्र के चारों खंबे अलग - अलग थे । अब इन पर छत पड चुकी है । ये सब एकजुट हो चुके हैं । इससे स्तंभों को मज़बूती भी मिली है और सभी निश्चिंत होकर एक दूसरे के हितों का भरपूर ख्याल रख रहे हैं । इस तरह देश का संभ्रांत वर्ग "जनता के माल" पर मिल बांट कर हाथ साफ़ कर रहे हैं । त्राहि - त्राहि करती जनता का ना तो किसी को ख्याल है और ना ही कोई डर ............।