हाल ही में मेरी एक परिचित से लंबे समय बाद मुलाकात हुई । बातचीत धर्म की आड में दूसरी - तीसरी शादी तक पहुंची । पहली बीवी के रहते कानून के फ़ंदे से बचने के लिए मज़हब बदलकर दोबारा शादी करने के मामले आजकल अक्सर सामने आते हैं । मामला किसी नामचीन शख्स से जुडा हो तो सुर्खियों में रहता है , वरना ऎसी घटनाएं कानाफ़ूसी तक ही सिमट कर रह जाती हैं । अपना परिवार गवां चुकी औरत का दुख दर्द , उसकी सिसकियां , उसकी पीडा घुटकर रह जाती है । सोचने वाली बात ये है कि एक ही देश के नागरिकों के लिए कानून अलग - अलग क्यों ....?
शायद एक डेढ साल पुरानी बात होगी । किसी प्रादेशिक चैनल पर जबलपुर की एक नवयुवती को सिसकते देखा । अदालत के बाहर खडी यह युवती कानून से न्याय मांगने आई थी , लेकिन आंख पर पट्टी बांधे न्याय की तराज़ू थामने वाली देवी ने अपने हाथ संविधान से बंधे होने की लाचारगी जता दी । मामला कुछ यूं था कि युवती के पति का कहना था कि उसने तलाक दे दिया है , लेकिन पत्नी इससे बेखबर थी और वह पति के साथ ही रहना चाहती थी ।
परिवार परामर्श केन्द्र की कोशिशें नाकाम होने पर वह न्याय की गुहार लगाने के इरादे से कानून का दरवाज़ा खटखटाना चाहती थी । युवती रो - रो कर एक ही बात कह रही थी कि ये कैसी अदालत है , जिसमें उसके लिए न्याय नहीं ....? अपने ही देश में बेगानेपन का एहसास लिए मायूस होकर लौट रही उस मुस्लिम युवती की निगाहों में सैकडों सवाल थे । वो पूछ रही थी कि आखिर वो भी दूसरे धर्म की औरतों की तरह ही अदालत से अपना हक क्यों नहीं पा सकती ...?
एक ही गांव , एक ही मोहल्ले में रहने वाली सुनीता और सबीना को पढने - लिखने , आगे बढने के लिए समाज में समान अवसर दिए जा रहे हैं तो जीवन जीने के व्यक्तिगत अधिकारों में भिन्नता क्यों ...? "मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना " की बात पर चलते हुए भारतीय संविधान में महिला को उसके धर्म के आधार पर क्यों बांटा गया है ?उसे अपने ही मुल्क में सिर्फ़ इंसान के तौर पर बराबरी के हक हासिल क्यों नहीं ? वह हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई नारी की बजाय भारतीय नारी कब कहलाएगी ? क्या ये ज़रुरी नहीं कि विवाह ,तलाक ,गुज़ारा भत्ता जैसे मुद्दों पर कानून बनाने वाले औरतों के हितों के मद्देनज़र मानवीय नज़रिया अपनाएं । उन्हें महज़ मज़हब के चश्मे से नहीं देखें ।
जब भी यह मुद्दा उठता है समाज में दो तरह की आवाज़ें सुनाई पडती हैं । कुछ लोग एक राष्ट्र एक कानून की बात पुरज़ोर तरीके से उठाते हैं , तो कुछ इसे इक मज़हब का अंदरुनी मामला बताते हैं । कई लोगों का कहना है कि मुस्लिम औरतों को अपने शौहर की चार शादियों पर कोई एतराज़ नहीं तो बेवजह इस मामले पर इतना बवाल क्यों ..? दलील यह भी है कि आज के दौर में चार बीवियां रखने की कूव्वत किसमें है ? लेकिन इस तंग गली का इस्तेमाल गाहे बगाहे मुस्लिमों के अलावा दूसरे लोग भी सरे आम करते रहे हैं ।
हालांकि अब मुस्लिम औरतें भी जुल्म ज़्यादतियों के खिलाफ़ खुल कर सामने आने लगी हैं । तलाक लेने में वे भी मर्दों से पीछे नहीं हैं । हाल ही में भोपाल में आयोजित दीनी तब्लीगी इज़्तिमा ए ख्वातीन में उलेमाओं की तकरीर के दौरान यह खुलासा हुआ । "शरीयत से हटकर दुनियावी माहौल के कारण तेज़ी से तलाक और खुला के मामले बढ रहे हैं ।" ये आंकडे सामाजिक रुप से आतंकवाद से भी खतरनाक है । इससे रोज़ कई परिवार प्रभावित हो रहे हैं ।
तलाक और खुला के चौंकाने वाले आंकडों पर मशविरे के बाद ज़्यादातर ख्वातीनों का कहना था कि पिछले पांच साल में इनमें कई गुना तेज़ी आई है । उनके मुताबिक शरीयत से भटकने के कारण ऎसे हालात पैदा हो रहे हैं । लोग दीन की बजाय मालदार होने और सीरत की बजाय सूरत को ज़्यादा तवज्जोह देने लगे हैं । रिश्तों की हदें टूटने से भी तलाक के मामलों में इज़ाफ़ा देखा गया है ।
महिला उलेमाओं के इस समागम में और भी कई मुद्दों पर तकरीरें हुईं । उलेमाओं ने समाज और परिवार की बुनियाद में औरत की अहमियत पर तकरीर की । उनके मुताबिक मां की दीनी नसीहत पुख्ता हो , तो तमाम दुनियावी तालीम हासिल करने के बावजूद बच्चा कभी ईमान की राह से नहीं भटक सकता । औरतों में पश्चिमी सोच के बढते चलन कडा एतराज़ जताया गया । वहीं आज़ादी के नाम पर सौंदर्य प्रतियोगिताओं की आड में बेसाख्ता खुलेपन पर भी सवाल उठाए गये । नाजायज़ औलादों और एड्स को उलेमाओं ने औरत की आज़ाद ख्याली का नतीजा बताया ।
ये सच है कि तलाक की पहल कोई भी करे , टूटता तो पूरा परिवार ही है । फ़िर भी एक बात है जो रह - रह कर मन को कचोटती है कि तलाक की पहल अगर औरत करे , तो उसे आज़ाद ख्याली क्यों समझा जाता है । तलाक के मानी सिर्फ़ दो लोगों का जुदा हो जाना कतई नहीं है । इसका असर पूरे समाज पर भी होता है ।