सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

उन्हीं को जाम मिलता है जिन्हें पीना नहीं आता

राज ठाकरे ने एक बार फ़िर आग उगलाना शुरु कर दिया है । लेकिन उसके इस रवैए के लिए जितने राज ज़िम्मेदार हैं उससे कहीं ज़्यादा मीडिया की भूमिका है । राज के तमाशे को मीडिया हवा देता है । टीआर पी के जंजाल में उलझा मीडिया हर रोज़ चटपटी खबरों की तलाश में रहता है और राज मीडिया की इस कमज़ोरी का जमकर फ़ायदा लेना बखूबी जानता है । झटपटिया कामयाबी का नुस्खा कब तक काम आयेगा ये तो वक्त ही बताएगा , लेकिन इतना तय है कि नफ़रत की चिन्गारी लोगों के दिलों को छलनी ज़रुर कर देंगी ।
गौर से देखें तो राज जो बात कहना चाह रहे हैं , वो गलत नहीं है । अंदाज़े बयां पर सवाल उठाए जा सकते हैं ,लेकिन मुद्दे पर नहीं । किसी ने कहा था ” मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो । इसके लिए जी जान से लड़ूँगा ।” हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है । शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काइये । अलग सोच रखने और अपनी बात कहने का हक मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है । इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये । चाहे वह गीत हो या कला या फ़िर लेखन ।
सत्ता संघर्ष में जुटे नेता कभी धर्म - कभी जाति तो कभी रंग के आधार पर लोगों के बीच फ़ासले पैदा करते हैं । ऎसे में वे आम जनता को सोचने- समझने या बोलने का कोई मौका नहीं देना चाहते । अलगाव की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले कट्टरपंथियों को लोगों को खुलकर बोलने का मौका देना रास नहीं आता । अभिव्यक्ति के इस अधिकार पर उनकी सहमति नहीं होती । तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा वे पूछते हैं ? वे अपनी बात को तलवार और डंडे के साथ कहते हैं क्योंकि खुल कर बोलने वाले को चुप कराने के लिए सजा देना भी वे अपना जन्मजात हक समझते हैं । उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता । मानव अधिकार उनकी नज़र में धर्म से नीचे है । यदि आप किसी मुद्दॆ पर असहमत हैं तो उस पर बहस कर सकते हैं । पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने धमकाने की कोशिश करना बेगुनाह लोगों को बेरहमी से मारना पीटना कारें और दुकानें जलाना तोड़ फोड़ करना मेरे विचार में केवल आत्मविश्वास की कमी से जन्मी गुँडागर्दी है । धर्म के नाम पर शुरु हुई राजनीति आज इतने निचले स्तर तक आ चुकी है कि अब भारत में प्रांत और भाषा की दीवारें खडी होने लगी हैं ।
सरकार के लचर रवैये ने एक खत्म होते नेता को न सिर्फ़ उडने के लिए खुला आसमान दिया बल्कि उसे ऊंची उडान भरने के लिए परवाज़ के पंख भी तोहफ़े में दे दिए । इस पूरे घटनाक्रम को देखने के बाद तो यही लगता है कि सत्तासीन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए मामले को इस हद तक बढ जाने दिया । राजनीतिक लाभ के लिए फ़ेंकी गई चिंगारी ने पूरे महाराष्ट्र में आग लगा दी है । वर्चस्व की इस लडाई में एक बार फ़िर पिस रहा है आम आदमी --------- ? मराठी मानुष के नारे के ज़रिए अलगाव की जो आग लगाई गई है यदि राजनीतिक दल इस पर इसी तरह रोटियां सेंकते रहे तो कहीं ऎसा न हो कि जिस तरह कश्मीरी पंडितों को अपनी सरज़मीं से दूर होकर अपने ही वतन में बेगाना हो जाने पर मज़बूर होना पडा उसी तरह पीढ़ियों से महाराष्ट्र में जा बसे हिंदी भाषियों को शिवाजी की इस धरती से बलपूर्वक बाहर खदेड दिया जाए । चिंता इस बात की है कि कहीं मूल प्रांतियों का ये शोशा महाराष्ट्र को एक और कश्मीर में तब्दील न कर दे .............?
निज़ामे मयकदा इस कदर बिगडा है साकी .
उन्हीं को जाम मिलता है , जिन्हें पीना नहीं आता ।

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

शराबियों का डाक्टर

घर , परिवार , समाज , देश और दुनिया में भले ही अलहदा वजूहात से निराशा और मायूसी का माहौल छाया हो , लेकिन कुदरत की नाइंसाफ़ी झेल रहे लोगों का हौसला जीने का सबब देता है । हर वक्त अपनी नाकामियों के लिए हालात और किस्मत को कोसने वाले तो अक्सर मिल जाते हैं ,मगर अपने जज़्बे से पथरीले उजाड रेगिस्तान में चमन खिलाने का हुनर चंद ही लोग जानते हैं ।
इरादे नेक हों और दिल में कुछ कर गुज़रने की चाहत हो , तो मुश्किलों को रास्ता बदलना ही पडता है । दोनों आंखॊं से देखने वाले दुनिया में छाये अंधियारे पर बहस करते या फ़िर निराशा में डूबते - उतराते हर तरफ़ नज़र आ जाएंगे । मगर उत्तर प्रदेश में सोनभद्र ज़िले के नंदलाल ने रोशनी की नई इबारत लिख डाली है ।
जन्म से ही दुनिया के रंगों से महरुम नंदलाल नहीं जानता कि सूरज की रोशनी कैसी होती है । लेकिन उसने सबको बता दिया कि दूसरों की ज़िंदगी में रंग कैसे भरे जाते हैं , कैसे कभी ना खत्म होने वाले तमस में असंख्य सूर्य किरणों का उजास फ़ैलाया जा सकता है ।
राम के नाम पर देश को बांटने वाले तो चारों तरफ़ फ़ैले हैं लेकिन नंदलाल ने राम नाम के ज़रिए लोगों को नशामुक्ति की राह दिखाई है । वो आदिवासी इलाकों में राम चरितमानस की चौपाइयों और दोहों को आधार बना कर लोगों को नशाखोरी से निजात पाने का मशविरा देते हैं।
शराब के कारण परिवारों को तबाह होने से बचाने के लिए वो शराब के अड्डे पर जा कर लोगों को समझाते हैं । मयखाने में शराब के नशे में झूमने वालों को वे रामधुन पर झूमने के लिए मजबूर करना वे बखूबी जानते हैं । बात बनती नहीं देख , नंदलाल शराबखाने के बाहर गाहे बगाहे अखंड रामायण पाठ शुरु कर देते हैं ।
नए अंदाज़ में कहे तो उन्होंने अपने अंदाज़ में गांधीगिरी का सहारा लिया है । इस मुहिम की कामयाबी से प्रभावित लोगों ने तो अब उन्हें नाम दे दिया है - शराबियों का डाक्टर । नंदलाल मिसाल है इस बात की कि जंग हौसलों से जीती जाती है हथियारों से नहीं । उसके इसी जज़्बे को सलाम ।
सदाकत [सच्चाई] हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइज़
हकीकत खुद को मनवा लेती है , मानी नहीं जाती ।

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

देश के हालात पर वक्त का फ़रमान

लगता है दुनिया भर में बुरी खबरों का दौर चल पडा है । अमेरिकी मंदी के ज़लज़ले ने विश्व के तमाम छोटे - बडे देशों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है । कल तक सुनहरे भविष्य के ख्वाब संजोने वाले युवाओं के सामने रोज़ी - रोटी का संकट खडा हो गया है । स्टाक मार्केट की धोबी पछाड ने अच्छे - अच्छे धुरंधरों की चूलें हिला कर रख दी हैं । इस अफ़रा - तफ़री के माहौल में फ़ंडामेंटल और टेक्निकल एक्सपर्टस की सुनने वाला कोई नहीं बचा । बाज़ार की दुर्दशा से बेज़ार लोगों को हाल में आया एक सर्वे बेहाल करने पर आमादा है ।
खबरों पर यकीन करें तो भारत भीषण खाद्यान्न संकट से जूझ रहा है । इसमें भी सबसे चिंताजनक हालात मध्य प्रदेश में बताए जा रहे हैं । अंतर्राष्ट्रीय खाद्यान्न नीति अनुसंधान संस्थान की ओर से पहली मर्तबा जारी रिपोर्ट में बारह राज्यों को अति गंभीर श्रेणी में शामिल किया है । संस्थान ने हाल के विश्व व्यापी खाद्यान्न सर्वे की ८८ विकासशील देशों की सूची में भारत को ६६ ववें पायदान पर रखा है ।
महानगरों की चकाचौंध के पीछे के भारत की स्याह हकीकत तरक्की और विकास के तमाम दावों की पोल खोलते नज़र आते हैं । विका़स के बावजूद भारत पच्चीस अफ़्रीकी देशों और बांगलादेश को छोड तमाम साउथ एशियाई देशों से नीचे है । शिशु म्रत्यु दर और कुपोषण के मामले में देश के हालात बांगलादेश से भी बदतर बताए गए हैं ।व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए मायूसी की बात ये है कि मध्य प्रदेश का हाल बेहाल है । लेकिन सरकार इस सबसे बेखबर बनी हुई है । समस्या का निदान तो तब हो ना जब ह्म उसे मानें या समझें । मगर की मद मस्ती का आलम ये है कि उसे सूबे में दूर - दूर तक कोई समस्या दिखाई ही नहीं देती । पूरे राज्य में सुख -शांति और अमन चैन की बयार बह रही है ,क्या हुआ जो चार -पांच सौ नौनिहालों की असमय ही मौत हो गई ।
कुदरत अपने साथ हुई नाइंसाफ़ी का बदला अपने ही अंदाज़ में ले रही है । कहीं बूंद -बूंद पानी को तरसते लोग , तो कहीं सैलाब से तबाही । खेती को घाटे का सौदा मान कर शहरों का रुख करने वाले ग्रामीणों की तादाद दिनोदिन रफ़्तार पकड रही है । आबादी के बढते दबाव ने शहरॊं का विस्तार किया है और इस फ़ैलाव की कीमत चुकाई है उपजाऊ ज़मीन ने । शहरों के आसपास की ज़मीनें अब अनाज नहीं कांक्रीट के जंगल पैदा कर रही हैं ।
खाद्यान्न और पानी के बढते संकट की भयावह्ता को समझ कर अभी से कोई ठोस कदम नहीं उठाए , तो ज़मीनें और भोग विलासिता के ज़रिए तिजोरियां भरने वालों को सोना - चांदी चबाकर ही पेट भरना होगा । वक्त तो अपना फ़रमान सुना चुका है ,और अब बारी हमारी ............
इक कहानी वक्त
लिखेगा नए मज़मून की
जिसकी सुर्खी को ज़रुरत है
तुम्हारे खून की
वक्त का फ़रमान
अपना रुख बदल सकता नहीं
मौत टल सकती है ,
अब फ़रमान टल सकता नहीं ।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

छलिया चांद और छलनी का राज़ .........!

शेयर बाज़ार की गिरावट का असर इतना तगडा है कि सरकार को हर रोज़ आकर सफ़ाई देना पड रही है । बाज़ार को सम्हालने के लिए तरह - तरह के टेके लगाने पड रहे हैं । इस बीच खबर आ रही है कि वित्त मंत्री ने भी अपनी नाकामी को मान लिया है । २३ हज़ार के करिश्माई आंकडे को देश की मज़बूत अर्थ व्यवस्था का प्रतीक बताने वाले अब बगलें झांक रहे हैं । मंदी की मार से चारों तरफ़ हाहाकार मच गया है , लेकिन सब एक दूसरे पर आरोप लगा कर खुद पाक - साफ़ बच निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं ।
ना था कुछ तो खुदा था ,कुछ ना होता तो खुदा होता ।
डुबोया मुझको होने ने ,जो फ़िर ना होता तो क्या होता ।
लाचारगी के इस दौर में मेरा भी मन किया क्यों छलनी में दूध लेकर किस्मत को दोष देकर देखॆं , आखिर अपनी खामियों की तोहमत किसी और के सिर मढने का मज़ा ही कुछ और है । उदारीकरण के दौर में हर चीज़ रेडिमेड लाने की आदत कुछ ऎसी बन गई कि पीढियों से चले आ रहे रसोई के कुघ ज़रुरी उपकरण गैर ज़रुरी लगने लगे और ना जाने कब कबाडी के ठेले पर लद कर रवाना हो गये । खैर तय कर ही लिया था ,सो चल पडे नई छलनी की तलाश में । लेकिन ये क्या जहां कन्ज़्यूमर प्राडक्ट के शोरुम्स पर सन्नाटा पसरा था , वहीं छलनी बेचने वाले को बात करने तक की फ़ुर्सत नहीं थी । मुंहमांगे दामों पर छलनी की पूछ परख ने हमें हैरानी में डाल दिया । तभी ब्यूटी पार्लर से सज संवर कर आई एक सुहागन ने छलनी के भाव एकाएक आसमान छूने का राज़ फ़ाश किया ।बातचीत में पता चला कर्क चतुर्थी का चांद छलनी की ओट से देखने का खास महत्व है।
ज़ेहन ने सवाल उठाया कि छलनी की गवाही के बगैर पति परमेश्वर का पूरा प्यार में कोई संदेह रहता है । घर आकर कई ग्रंथ खंगालें , लोगों से पडताल की ,लेकिन इस बात का खुलासा अब तक नहीं हो सका । लोकोक्तियों में बेचारी चलनी को तरह - तरह से कोसा गया फ़िर ऎसा क्या गुज़रा की वो सुहागिनों की नज़दीकी हमजोली बन बैठी । लोकाचार में सूपे को जो दर्ज़ा हासिल है , वो बहत्तर छेदों वाली इस चलनी को कभी नहीं मिल सका । सूपे को अपनी राय रखने का हक मिला लेकिन चलनी ......., उसकी बात का कोई मोल नहीं ? कहावत है -सूपा बोले तो बोले चलनी भी बोले ,जिसमें खुद ही बहत्तर छेद ।
बहरहाल इस बात को लेकर मेरी उत्सुकता काफ़ी बढ गई है । आखिर वो कौन सी वजह रही होगी , जो रसोई का ये गुमनाम हो चुका उपकरण बज़रिए बाज़ार महिलाओं के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय त्योहार का सबसे ज़रुरी तत्व ब न गया ।
क्या है छलिया चांद और छलनी का राज़ .........!

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

करवा चौथ के बहाने -१


मेरी पिछली पोस्ट करवा चौथ के बहाने पर मिलीं प्रतिक्रियाओं के मद्देनज़र चाहे अनचाहे महिला मुद्दे पर बात करना ज़रुरी लगने लगा इस पोस्ट को पढने के बाद कई लोगों ने मुझे जमकर लानत भेजी साथ ही ये भी हिदायत दे डाली कि परंपराओं का मज़ाक बनाना अच्छा बात नहीं किसी की आस्थाओं को चोट पहुंचाना मेरा मकसद बिलकुल नहीं था वैसे भी मैंने आलेख में ऎसी कोई गैर वाजिब बात कही भी नहीं सिर्फ़ वही लिखा ,जो दिखा बल्कि समाज के अलग - अलग वर्गों में औरतों की हालिया स्थिति को एक साथ रखने की छोटी सी कोशिश की
मेरा अब भी यही मानना है कि परंपराओं को त्यागने की नहीं , समय के मुताबिक ज़रुरी तब्दीली की ज़रुरत है देश के जिन प्रांतों में करवा चौथ और हरतालिका तीज का सबसे ज़्यादा महिमा मंडन है ,उन्हीं इलाकों की कडवी हकीकत ये भी है कि वहां महिलाओं के प्रति नज़रिया अब भी मध्ययुगीन ही है कन्या भ्रूण हत्या , बलात्कार , दहेज हत्या , अपहरण , छेड्छाड , मानसिक और शारीरिक उत्पीडन , और भी कई अनाम तरह की हिंसा का सबसे अधिक प्रतिशत वाला इलाका साल में दो बार महिलाओं को देवी का दर्ज़ा देकर पूजता है , लेकिन साल के बाकी दिन महिलाओं के अस्तित्व को नकारता नज़र आता है।
मैं कभी महिला स्वातंत्र्य की हिमायती नहीं रही आज़ादी किससे और क्यों ? मेरी राय में जब भी हम आज़ादी की बात कहते हैं तो कहीं ना कहीं इस मान्यता की पुष्टि करते हैं कि महिलाओं का मालिक पुरुष है दरअसल किसी और को दोषी करार देने या आज़ादी के लिए गिडगिडाने की बजाय महिलाओं को अपने अस्तित्व को भीतर तक जानने की ज़रुरत है किसी शायर ने क्या खूब कहा है ---
मैं इक उम्र के बाद खुद को समझा हूं ,
रुकूं तो किनारा , बहूं तो दरिया हूं
कई महिला पत्रिकाओं और अखबारों में महिला पाठकों के लिए परोसे जा रहे मसौदों पर भी मुझे सख्त एतराज़ है कब तक औरतें बनाव - श्रंगार , बुनाई - कढाई या सास - ननद के किस्सों में उलझी रहेंगी महिलाओं का एक समूह स्त्री विमर्श के नाम पर महिलाओं के नैसर्गिक गुणों पर अजीबोगरीब चर्चा कर खुद को धन्य मान बैठा है वहीं दूसरा बडा तबका सदियों से चली रही परंपराओं के निर्वहन में ही अपने जीवन की सार्थकता तलाश रहा है महिलाओं की तरक्की का रास्ता इन दोनों भूलभुलैयाओं के बीच से होकर गुज़रता है उम्मीद है पति, पिता ,भाई और बेटों की सलामती और तरक्की के लिए भूख प्यास भूलकर कठिन व्रत करने वाली भारत की नारी अपने अस्तित्व को पहचानने के लिए जल्द ही कोई रास्ता ढूंढ निकालेगी

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

करवा चौथ के बहाने


कर्क चतुर्थी यानी करवा चौथ का व्रत को पूरे ग्लैमर के साथ मनाने के लिए हर तरफ़ ज़ोर -शोर से तैयारियां चल रही हैं । कहीं महिलाएं खुद को खूबसूरत दिखाने के लिए नए - नए नुस्खे आज़मा रही हैं , तो कहीं ब्यूटी पार्लर की ओर से मिलने वाले आकर्षक पैकेज का फ़ायदा लेकर रुप लावण्य को निखारा जा रहा है।
पति की लंबी उम्र की याचना हर रोज़ रुप बदलते चांद से करना भी बडा अजीब इत्तेफ़ाक है । कभी फ़िल्मों के ज़रिए प्रसिद्धि पाने वाले करवा चौथ की पापुलरिटी दिनोदिन तेज़ी से बढ रही है । एक तरफ़ तो देश में अलगाव और तलाक के मामलों का ग्राफ़ तेज़ी से ऊपर चढ रहा है । दूसरी ओर कर्क चतुर्थी पर अन्न जल त्याग कर चांद से पति परमेश्वर के दीर्घायु होने की कामना करने वाली पतिव्रता नारियों की तादाद भी कम नहीं । यह सामाजिक विरोधाभास कई सवालात को जन्म देता है।
वैसे इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि व्रत - त्योहारों का सामाजिक महत्व होता है । तीज - त्योहारों की गहमा गहमी जीवन की एकरसता को भंग कर उत्साह - उमंग का नया संचार करती है । बहरहाल समय के तेज़ी से घूमते चक्र के साथ परिस्थितियां भी बदली हैं । सामाजिक और घरेलू मोर्चे पर महिलाओं की भूमिका और दायित्वों में भी बदलाव आया है । रीति रिवाजों की डॊर से बंधी महिलाएं अजीब सी कशमकश में नज़र आती हैं । बकौल गालिब - इमां मुझे रोके है ,जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है , कलीसा मेरे आगे ।
दरअसल बदलते वक्त के साथ परंपराओं के स्वरुप में बदलाव लाना बेहद ज़रुरी है । आज के दौर में त्योहारों के मर्म को जानने समझने की बजाय हम परंपराओं के नाम पर पीढियों से चली आ रहे रीति रिवाजों को जस का तस निबाहे जा रहे हैं । संस्क्रति को ज़िन्दा रखने के लिए ज़रुरी है कि समय समय पर उसका पुनरावलोकन हो , गैर ज़रुरी मान्यताओं को छोडकर समय की मांग को समझ कर रद्दो बदल किए जाएं ।
इस बीच एक दिलचस्प खबर उन पति -पत्नियों के लिए जो जन्म -जन्म के साथ या फ़िर पुनर्जन्म की अवधारणा को सिरे से खारिज करते हैं । ऎसी महिलाएं जिन्हें घरेलू काम काज के लिए पतिनुमा नौकर की तलाश है ,उन्हें अब शादी के बंधन में बंधने की हरगिज़ ज़रुरत नहीं । अब आप काम काज के लिए घंटों के हिसाब से किराए पर पति ले सकते हैं । जी हैं ,अब पति की सेवाएं भी किराए पर उपलब्ध हैं । अर्जेंटीना की हसबैंड फ़ार सेल नाम की कंपनी साढे पंद्रह डालर प्रति घंटे के हिसाब से पति उपलब्ध करा रही है ।कंपनी का दावा है कि उसने अब तक दो हज़ार से ज़्यादा ग्राहक जोड लिए हैं और महिलाओं को ये सुविधा खूब पसंद आ रही है।

करवा चौथ पर खुद को वीआईपी ट्रीटमेंट का हकदार समझने वालों ,होशियार ..........

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

अजगर करे ना चाकरी ....!

अजगर करे ना चाकरी , पंछी करे ना काम ।
दास मलूका कह गये , सबके दाता राम ।
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री की खातिरदारी का लुत्फ़ उठाने के बाद पंद्रह फ़ुटा अजगर निश्चित ही ये लाइनें गुनगुना रहा होगा । ८५ किलो वज़नी इन महाशय ने सिक्योरिटी के तमाम इंतज़ामात को धता बताते हुए श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री निवास में घुसपैठ कर ली थी । और तो और वहां एक पालतू कुत्ते की दावत उडाने की भी कोशिश की । अजगर की भूख शांत करने के लिए उसे मुर्गों का ज़ायका लेने का मौका भी मिला ।
अखबार की सुर्खियों में रहे इस आराम तलब जीव ने चुनावी माहौल में कई दिग्गज नेताओं को बहुत कुछ संकेत दे दिए हैं । सीधे -सादे नज़र आने वाले शिवराज सिंह को जब सत्ता सौंपी गई थी , तब उन्हें रबर स्टैंप मानते हुए घाघ नेताओं ने भी खास तवज्जो नहीं दी थी । कमज़ोर माने जाने वाले इस नेता ने धीरे धीरे कई धुरंधरों को उनकी हैसियत बता दी है ।
राजधानी में काफ़ी चर्चा है इस वाकये की । लोगों का कहना है कि शिव के घर नाग आया , लेकिन अब तक के शिवराज के राजनीतिक सफ़र को देखते हुए इसे दो दोस्तों की सौजन्य भेंट का नाम दिया जाए तो गलत ना होगा । ये अलग बात है कि पूर्व निर्धारित नहीं होने के कारण अजगर महाशय मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं कर पाए ।
वैसे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास में इससे पहले भी जंगल के कई नुमाइंदे अलग -अलग काल में मुख्यमंत्रियों से मेल मुलाकात का ख्वाब संजोये हुए ज़बरिया प्रवेश करते रहे हैं । मोतीलाल वोरा के शासनकाल में मगरमच्छ का आना चर्चा का मुद्दा बना ,तो एक तेंदुए ने दिग्विजय सिंह से मुलाकात की हसरत पाली । देखना दिलचस्प होगा कि अजगर नामा आने वाले चुनावों में क्या रंग दिखाएगा ।