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बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

राज की सियासत और बिहार की ज़मीनी हकीकत

महाराष्ट्र सरकार के लचर रवैए ने पूरी मुंबई और कई बडे शहरों को आग में झोंक दिया । एक खत्म हो चुके नेता को इतना बडा हो जाने दिया कि अब हालात बेकाबू हो चले हैं । महाराष्ट्र में राज समर्थक और बिहार में राज विरोधियों का उत्पात लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गया है । कहते हैं समझदार बागबान वही होता है जो बगीचे की खूबसूरती में खलल डालने वाले जंगली पौधों को शुरुआत में ही जड से उखाड फ़ेंके । लेकिन राज के मामले में तो बीज को खाद - पानी देकर दरख्त बनने का मौका दिया गया । पेड के तने को काटने की ज़हमत अब उठाई है ,जब उस पर फ़लों की आमद हो चुकी है ।
इस बीच बिहार के कई शहरों में राज के खिलाफ़ नफ़रत की आग ज़ोर पकडने लगी है । लेकिन बुनियादी सवाल अब भी वहीं का वहीं है । आखिर क्यों बिहार से दूसरे राज्यों को जाने वाली ट्रेनें खचाखच भरी रहती हैं ? गंगा किनारे की उपजाऊ ज़मीन जो पूरे देश का पेट भर सकती है , वहां लोगों को भूखे पेट सोना पडता है । बहुमूल्य खनिज संपदा से जिस इलाके को कुदरत ने नवाज़ा हो , वहां का आम आदमी अपनी पहचान और दो जून की रोटी की तलाश में भटकता है ।
नेपाल की सडकें हों या मुम्बई या फ़िर चैन्नई हर जगह मायूसी और बेचारगी से भरे कुछ चेहरे आपको दिख जाएंगे । उबले चनों की चाट या सब्ज़ी का ठेला चलाते ये लोग किसी बडॆ हसीन खवाब की तलाश में घर से दूर नहीं आते । वो क्या कारण हैं कि ये लोग इतने छोटे - छोटे कामों की तलाश में हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय करने को मजबूर हैं ।
मौर्य और नंद वंश के वैभवशाली इतिहास के गवाह बने इस इलाके के मौजूदा हालात के लिए यहां के नेता सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं । धाकड नेताओं की लंबी फ़ेहरिस्त देने वाला बिहार इन्हीं नेताओं की बेरुखी की सज़ा भुगत रहा है । नैसर्गिक संपदा के अथाह भंडार का प्रदेश की जनता के हित में यदि सदुपयोग नहीं हो सका ,तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ?
लालू यादव जब तक प्रदेश में राज करते रहे उन्हें कभी बिहारियों की सुध नहीं आई । रेल मंत्री बनते ही बिहार के बेरोज़गार युवाओं के उद्धार के इस जनसेवी कदम की हकीकत कुछ और ही है । छन - छनकर आने वाली खबरें बताती हैं कि रेलवे में अपना भविष्य तलाशने वाले युवाओं को खेत , ज़मीन और मकान के रुप में कीमत चुकाना पडी है । बिहार में नेताओं और अफ़सरों के गठजोड ने आम आदमी को पलायन के लिए मजबूर किया है । बिहार ने देश को कई प्रतिभावान पत्रकार दिए हैं लेकिन बेहद अफ़सोसनाक पहलू ये भी है कि यहां के हालात में रद्दो बदल पर ईमानदारी से अब तक किसी ने कलम नहीं चलाई ।
और अब कुछ तथ्य आंकडों की ज़ुबानी -
१ . २००१ की जनगणना के मुताबिक़ दिल्ली की आबादी १ करोड़ ३७ लाख के क़रीब , इसमें २७ लाख से अधिक बिहारी ।
२ २००१ में बिहार की आबादी ८ करोड़ २८ लाख ७८ हजार ।
३. मोटे तौर बिहार के साढ़े तीन फीसदी लोग अकेले दिल्ली में आ बसे ।
४. अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार से दो से तीन लाख लोग बिहार से बाहर जाते हैं
५। फ़िलहाल कम से कम एक करोड़ बिहारी बिहार से बाहर हैं ।
जिस बात का खतरा , सोचो कि वो कल होगी
ज़रखेज़ ज़मीनों में बीमार फ़सल होगी
स्याही से इरादों की तस्वीर बनाते हो
गर खून से बनाओ , तो तस्वीर असल होगी ।

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

उन्हीं को जाम मिलता है जिन्हें पीना नहीं आता

राज ठाकरे ने एक बार फ़िर आग उगलाना शुरु कर दिया है । लेकिन उसके इस रवैए के लिए जितने राज ज़िम्मेदार हैं उससे कहीं ज़्यादा मीडिया की भूमिका है । राज के तमाशे को मीडिया हवा देता है । टीआर पी के जंजाल में उलझा मीडिया हर रोज़ चटपटी खबरों की तलाश में रहता है और राज मीडिया की इस कमज़ोरी का जमकर फ़ायदा लेना बखूबी जानता है । झटपटिया कामयाबी का नुस्खा कब तक काम आयेगा ये तो वक्त ही बताएगा , लेकिन इतना तय है कि नफ़रत की चिन्गारी लोगों के दिलों को छलनी ज़रुर कर देंगी ।
गौर से देखें तो राज जो बात कहना चाह रहे हैं , वो गलत नहीं है । अंदाज़े बयां पर सवाल उठाए जा सकते हैं ,लेकिन मुद्दे पर नहीं । किसी ने कहा था ” मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो । इसके लिए जी जान से लड़ूँगा ।” हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है । शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काइये । अलग सोच रखने और अपनी बात कहने का हक मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है । इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये । चाहे वह गीत हो या कला या फ़िर लेखन ।
सत्ता संघर्ष में जुटे नेता कभी धर्म - कभी जाति तो कभी रंग के आधार पर लोगों के बीच फ़ासले पैदा करते हैं । ऎसे में वे आम जनता को सोचने- समझने या बोलने का कोई मौका नहीं देना चाहते । अलगाव की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले कट्टरपंथियों को लोगों को खुलकर बोलने का मौका देना रास नहीं आता । अभिव्यक्ति के इस अधिकार पर उनकी सहमति नहीं होती । तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा वे पूछते हैं ? वे अपनी बात को तलवार और डंडे के साथ कहते हैं क्योंकि खुल कर बोलने वाले को चुप कराने के लिए सजा देना भी वे अपना जन्मजात हक समझते हैं । उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता । मानव अधिकार उनकी नज़र में धर्म से नीचे है । यदि आप किसी मुद्दॆ पर असहमत हैं तो उस पर बहस कर सकते हैं । पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने धमकाने की कोशिश करना बेगुनाह लोगों को बेरहमी से मारना पीटना कारें और दुकानें जलाना तोड़ फोड़ करना मेरे विचार में केवल आत्मविश्वास की कमी से जन्मी गुँडागर्दी है । धर्म के नाम पर शुरु हुई राजनीति आज इतने निचले स्तर तक आ चुकी है कि अब भारत में प्रांत और भाषा की दीवारें खडी होने लगी हैं ।
सरकार के लचर रवैये ने एक खत्म होते नेता को न सिर्फ़ उडने के लिए खुला आसमान दिया बल्कि उसे ऊंची उडान भरने के लिए परवाज़ के पंख भी तोहफ़े में दे दिए । इस पूरे घटनाक्रम को देखने के बाद तो यही लगता है कि सत्तासीन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए मामले को इस हद तक बढ जाने दिया । राजनीतिक लाभ के लिए फ़ेंकी गई चिंगारी ने पूरे महाराष्ट्र में आग लगा दी है । वर्चस्व की इस लडाई में एक बार फ़िर पिस रहा है आम आदमी --------- ? मराठी मानुष के नारे के ज़रिए अलगाव की जो आग लगाई गई है यदि राजनीतिक दल इस पर इसी तरह रोटियां सेंकते रहे तो कहीं ऎसा न हो कि जिस तरह कश्मीरी पंडितों को अपनी सरज़मीं से दूर होकर अपने ही वतन में बेगाना हो जाने पर मज़बूर होना पडा उसी तरह पीढ़ियों से महाराष्ट्र में जा बसे हिंदी भाषियों को शिवाजी की इस धरती से बलपूर्वक बाहर खदेड दिया जाए । चिंता इस बात की है कि कहीं मूल प्रांतियों का ये शोशा महाराष्ट्र को एक और कश्मीर में तब्दील न कर दे .............?
निज़ामे मयकदा इस कदर बिगडा है साकी .
उन्हीं को जाम मिलता है , जिन्हें पीना नहीं आता ।