शुक्रवार, 1 मई 2009

क्यों नहीं गरमाता पानी का मुद्दा ?

देश में बढ़ते जल संकट को लेकर सरकार को उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलाने के लिये सुप्रीम कोर्ट को सामने आना पड़ा है । सर्वोच्च न्यायालय की तल्ख टिप्पणी ऎसे वक्त आई है जब देश के ज़्यादातर हिस्से भीषण जलसंकट झेल रहे हैं । आसमान से आग बरसने का सिलसिला दिन पर दिन तेज़ होता जा रहा है । ऎसे में आने वाले दिनों में हालात क्या होंगे,समझना कतई मुश्किल नहीं है । लगभग पूरे देश में पीने के पानी की समस्या विकराल हो चुकी है । हैरत की बात है कि स्वच्छ पेयजल का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए कोई अहमियत नहीं रखता । जोड़-तोड़ की राजनीति के ज़रिये कुर्सी हथियाने की कोशिश में जुटे नेताओं के लिये लोकसभा चुनावों में यह कोई मुद्दा नहीं है ।

एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने लोगों के दिल की बात कही है कि जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने युद्ध स्तर पर अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों की कमेटी भी गठित कर दी है । कोर्ट ने कहा कि अनुसंधान का मुख्य मुद्दा खारे समुद्री पानी को कम से कम खर्चे पर मीठे पेयजल में बदलना होगा।

केन्द्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पराग त्रिपाठी से न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और एच एल दातू की पीठ ने कहा- यदि आप लोगों को पानी उपलब्ध नहीं करा सकते हैं तो सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है । न्यायमूर्ति काटजू को निर्णय देते हुए रहीम का यह दोहा याद आया, "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून।" उन्होंने दोहे (जल बिन जीवन नहीं) का उल्लेख करते हुए कहा- संविधान का अनुच्छेद २१ देश के सभी लोगों को जीने के अधिकार की गारंटी देता है।

रहीम का यह दोहा पानी की बात एक अलग स्तर पर कहता है,मगर हमारे अपने समय के बड़े कवि रघुवीर सहाय ने पानी और इसकी राजनीति पर कोई तीन दशक पहले कविता लिखी थी । वह पानी के लिए तरसाने की राजनीति की परतें उघाड़ते हुए कहती है कि जिस धरती को पानी नहीं मिला,उस धरती को आजाद नहीं कहा जा सकता है।

अधिवक्ता एमके बालकृष्णन ने इस मामले में दायर जनहित याचिका में कहा है कि देश भर में जल संकट का मुख्य कारण नदी समेत अन्य जल स्त्रोतों का अतिक्रमण है । कोर्ट ने कमेटी के गठन और कार्य प्रगति के बारे में केन्द्र को ११ अगस्त तक स्थिति रिपोर्ट पेश करने का निर्देश देते हुए कहा कि वह खुद इस उच्चाधिकार कमेटी के कामकाज पर नजर रखेगी । साथ ही सरकार से हर दो महीने में रिपोर्ट माँगेगी।

अगला विश्‍व युद्ध पानी को लेकर होगा,यह भविष्यवाणी सही हो या न हो कह पाना फ़िलहाल मुश्किल है,मगर लोगों के बीच पानी को लेकर गली- मोहल्लों में खून ज़रुर बह रहा है । मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पुलिस की चौकसी में पानी का वितरण इस बात की तस्दीक करता है । लोगों को प्यास बुझाने की कीमत जान गवाँ कर चुकाना पड़ रही है । इंदौर, उज्जैन सहित कई क्षेत्रों में टैंकरों से पानी भरने को लेकर उपजे विवादों में चाकू-छुरी से लेकर बंदूक निकल आना आम बात हो चुकी है । मालवांचल, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ सहित तमाम क्षेत्रों के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं । ऎसा नहीं है कि इंद्रदेवता भारत पर कृपादृष्टि बरसाने में कोई कंजूसी बरत रहे हों। देश में अब भी औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा होती है जो विश्व के ज़्यादातर देशों की तुलना में कहीं अधिक है ।

दरअसल समस्या पानी की नहीं उसके प्रबंधन की है । कई देशों में कम पानी के बावजूद हर परिवार को पर्याप्त पानी दिया जाता है । दुर्भाग्य से देश में ऎसी कोई जल नीति नहीं है जो पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगा सके । हमारे पास ना तो बरसात के पानी को सहेजने की कोई ठोस रणनीति नहीं है। बाढ़ के पानी से होने वाली तबाही को रोकने और नदी के रुख को मोड़ने के लिये भी हम अब तक कारगर उपाय नहीं तलाश पाये हैं । तमाम सरकारें पेयजल की उपलब्धता के बारे में कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाई हैं ।

इस बीच तालाबों और कुओं को सूखने-बर्बाद होने दिया गया। निजी आर्थिक स्वार्थों के चलते बरसाती जल के संरक्षण के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाने के अलावा कोई गंभीर काम नहीं किया गया । समुद्रों के खारे पानी को मीठे जल में तब्दील करने की टेक्नालॉजी के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई । नदियों को सूखने दिया गया, उन्हें गंदगी से भर जाने दिया गया । जमीन से पानी खींचने के लिए हैंडपंप और ट्यूबवेल खोदने की खुली छूट दी गई । अब तो भूजल स्तर भी रसातल में जा पहुँचा है । यह सब उस देश में हुआ,जहाँ नदियाँ ही नहीं,कुएँ तक पूजे जाने की भी परंपरा रही है । जहाँ प्यासे को पानी पिलाना धर्म माना जाता है।

देश की ग्रामीण आबादी पानी के संकट से कैसे जूझ रही है,इसकी कहीं से कोई खबर नहीं आती । किस तरह कारखानों का प्रदूषित कचरा जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है,इसकी किसी को परवाह नहीं है। हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक भारत को छह फ़ीसदी की विकास दर बनाये रखने के लिये भी २०१३ तक मौजूदा दर से चार गुना ज़्यादा पानी की ज़रुरत होगी । आखिर यह पानी आयेगा कहाँ से ?

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

"अधिकार" पर झन्नाटेदार चाँटे

सत्ता,पैसा और मदिरा का नशा सिर चढ़कर बोलता है । मध्यप्रदेश में भी सत्ता के मद में चूर भाजपा के नेताओं का हाल कुछ ऎसा ही हो चला है । कल तक जूते-चप्पल मीडिया की सुर्खियाँ बटोर रहे थे,लेकिन अब चाँटों की झन्नाहट से लोग भौचक हैं ।

आडवाणी पर खड़ाऊ फ़ेंकने वाले पार्टी कार्यकर्ता को तो सलाखों के पीछे भेजने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया गया ।
ये और बात है मुँह छिपाने के लिये बीजेपी ने आरोपी पावस अग्रवाल को मानसिक रोगी करार देने में कोई देर नहीं की । सवाल सिर्फ़ इतना कि अगर पावस मनोरोगी है तो उसे हवालात की बजाय अस्पताल क्यों नहीं भेजा गया ? बहरहाल कार्यकर्ताओं को गलती पर सज़ा और आम जनता के सवालों पर आपा खोते नेताओं को ईनाम ...?

पिछले हफ़्ते महिला और बाल विकास मंत्री रंजना बघेल ने सवाल पूछने की ग़लती करने वाली महिला के गाल पर तमाचा जड़ दिया । उसका कसूर सिर्फ़ इतना था कि "आम" होने के बावजूद उसने "खास" से सरेआम सवाल पूछ डाला । वह जानना चाहती थी कि विधानसभा चुनाव के दौरान किया गया कर्ज़ माफ़ी का वायदा कब पूरा होगा ? इस पर मैडम इतनी उत्तेजित हो गईं कि उन्होंने आव देखा ना ताव महिला को दो तमाचे जड़ दिये । लेकिन मंत्री के खिलाफ़ कोई कार्रवाई होना तो दूर बीजेपी नेतृत्व खुलकर उनके पक्ष में आ खड़ा हुआ ।

उसी का नतीजा है कि विदिशा ज़िले के नवागाँव में बीजेपी नेता देवेन्द्र वर्मा ने चुनाव ड्यूटी में तैनात पीठासीन अधिकारी को झापड़ दे मारा । राज्यमंत्री का दर्ज़ा पाने वाले वर्मा को ग़ुस्सा महज़ इसलिये आ गया क्योंकि पीठासीन अधिकारी ने मतदान के लिये ज़रुरी दस्तावेज़ माँगने की नाकाबिले बर्दाश्त ग़ुस्ताखी की थी ।

ये दोनों घटनाएँ सामान्य नहीं हैं । मध्यप्रदेश के लोकतांत्रिक इतिहास की संभवतः ये अपने आप में अलग किस्म की घटनाएँ हैं । एक मामला सीधे आम जन और सरकार से जुड़ा हुआ है और दूसरा लोकतंत्र के महापर्व यानी चुनाव की व्यवस्था में जुटे निर्वाचन आयोग और मदमस्त नेता के बीच का । सवाल पूछना जनता का अधिकार है और ये अधिकार उसे संविधान ने दिया है । जवाब देना जनप्रतिनिधियों का दायित्व है । वे इसके लिये बाध्य हैं । क्षेत्र,समाज और देश के विकास का दायित्व सौंपने के लिये मतदाता उन्हें चुनता है । इसलिये वह सवाल-जवाब का हकदार भी है । वास्तव में चुना हुआ नेता जनसेवक होता है ।

दरअसल मंत्री महोदया का ये तमाचा लोकतंत्र के मुँह पर है । क्या जनप्रतिनिधि होने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि वोट मैनेजमेंट के ज़रिये सत्ता हासिल की जाये और कुर्सी हाथिया ली जाये । बरसों से आम नागरिकों के हित में कोई काम तो किसी भी दल या नेता ने किया नहीं,अब सवाल पूछने का हक भी छीन लेने पर आमादा हैं । महिला के गाल पर चाँटा रसीद कर शायद यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने का हक किसी को नहीं ।

"चोरी और सीनाज़ोरी" का आलम ये कि महिला विकास मंत्री श्रीमती बघेल ने उलटे महिला के ही खिलाफ़ रिपोर्ट लिखा दी । बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर का तर्क है कि महिला काँग्रेस से जुड़ी है और वह बार-बार सवाल पूछ कर परेशान कर रही थी । लेकिन क्या लोकतंत्र में किसी अन्य दल से जुड़े व्यक्ति को सवाल पूछने का हक नहीं है ?

नेताओं को नहीं भूलना चाहिये कि अब जनता जागरुक हो रही है । आज एक महिला ने सवाल पूछा है,कल ये तादाद कई गुना हो सकती है । किस - किस को चाँटे मारकर चुप करा सकेंगे । मुँह पर ताले जड़ भी जायें , मगर वोट की ताकत कौन छीन सकेगा ? मतदाता के तमाचे की झन्नाहट नेताओं को बहुत भारी पड़ सकती है । जो वोट उन्हें हाथ उठाने का ताकत देता है,वही वोट उनके बाज़ू काट भी सकता है । प्रदेश के सत्ताधारी नेताओं से बस इतनी गुज़ारिश है - वक्त है अब भी सम्हल जाओ, मदहोश ज़रा होश में आओ.......।

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

एक लाख मतदाता जागे , अब हमारी बारी

इन आम चुनाव में नेता अपने फ़ायदे के लिये असली मुद्दों से ध्यान हटाने में जुटे हैं । पब्लिक को भरमाने के लिये खूब चटखारेदार भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है, ताकि लोग बुनियादी मुद्दों को भुलाकर इस मसालेदार तू-तू,मैं-मैं में उलझे रहें और उन्हें मतदाताओं की नाराज़गी नहीं झेलना पडे़ । सवाल पूछते मतदाताओं से मुँह छिपाते घूम रहे सत्ता के मद में चूर नेताओं को शायद यह मुग़ालता हो चला है कि जनता बेबस है - चुनना हम में से ही किसी एक को पड़ेगा । लेकिन ग़ाफ़िल नेताओं को शायद मालूम नहीं की धीरे-धीरे ही सही " हवा का रुख़" बदल रहा है । ऎसी ही मिसाल है- गाज़ियाबाद ज़िले का मोदीनगर इलाका ।

इस क्षेत्र के करीब चालीस गाँवों के एक लाख से ज़्यादा मतदाताओं ने चुनाव में किसी को भी वोट नहीं देने का अहम फ़ैसला ले लिया है । लेकिन नेताओं से नाराज़ ये लोग मतदान के दिन घर पर नहीं बैठेंगे, बल्कि सभी लोग पोलिंग बूथ पर जाकर सभी उम्मीदवारों को नकार देने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करेंगे ।

भारतीय लोकतंत्र में एक साथ इतनी बड़ी तादाद में राइट टु नो वोट का उपयोग करने का संभवतः यह पहला मामला होगा । मोदीनगर इलाके के करीब चालीस गाँवों में से छब्बीस बागपत संसदीय सीट और बाकी गाज़ियाबाद लोकसभा क्षेत्र में आते हैं । इन गाँवों से गुज़रने वाली सड़क की बदहाली से बेज़ार लोगों ने चुनाव बहिष्कार का निर्णय लिया है । अपने अधिकारों को जान चुके लोगों ने नेताओं से जवाब तलब शुरु कर दिया है । इतना ही नहीं इन लोगों ने अब तक किसी भी सियासी पार्टी के नुमाइंदे को इलाके में घुसने नहीं दिया है ।

यूथ फ़ॉर इक्वेलिटी की पहल पर निवाड़ी गाँव में चालीस गाँवों के सरपंच इकट्ठा हुए और उन्होंने नेताओं को सबक सिखाने का फ़ैसला लिया । ग्रामीण क्षेत्रों के लोग अब अपने अधिकारों को जानने समझने लगे हैं । ऎसे में शहरी इलाकों के पढ़े-लिखे मतदाताओं की चुप्पी अखरने वाली है । उम्मीद है हम सब भी लोकतंत्र के इस महापर्व में अधिकार समझकर या फ़िर कर्तव्य मानकर अपने जागरुक होने का परिचय ज़रुर देंगे । पोलिंग बूथ ज़रुर जाएँ, उम्मीदवार पसंद नहीं तो धारा 49(o) के तहत नकार कर आएँ । फ़िर अगले चुनाव तक चैन की बाँसुरी बजायें, किसने रोका है ?

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

सभी प्रत्याशियों को नकारने का अधिकार (नोटा)

चुनाव सुधार की दिशा में किए जाने वाले तमाम प्रयासों में से एक महत्वपूर्ण प्रयास है ‘नोटा’ से लोगों को परिचित कराना और इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में इसके लिए बटन की व्यवस्था करवाना। नोटा यानी खडे उम्मीदवारों में से कोई नहीं (None of the above) के विकल्प से सर्वसाधारण से परिचय कराते हुए उन्हें यह औजार मुहैया कराया जाना चाहिए। ऐसा हो जाने पर जनभावना सही तरह से चुनाव में परिलक्षित हो सकती है।

चुनाव आयोग के नियम 49-ओ के अनुसार जो कोई मतदाता मतदान केंद्र के अंदर अपना बहुमूल्य मत किसी भी उम्मीदवार को देना नही चाहते हैं उनके लिए चुनाव आयोग ने प्रावधान किया है कि वे निर्वाचन अधिकारी को अपनी पहचान कराने के एवं तर्जनी पर स्याही का निशान लेने के बाद, वोट देने से मना कर सकते हैं तथा अपना आशय पीठासीन अधिकारी को बता, उसके सम्मुख वोटर रजिस्टर में फार्म 17-अ पर दस्तखत करके अथवा अंगूठा लगा कर बैरंग लौट सकते हैं । मतगणना के समय ऐसा मत ‘किसी को भी नहीं’ मत के रूप में गिना जाता है। यदि ऐसे मतों की संख्या, सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार से ज्यादा हो गई तो विस्फोटक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। चुनाव स्थगित होने की नौबत आ सकती है । हारे हुए उम्मीदवार, सबसे ज्यादा वोट लाने वाले प्रत्याशी को विजेता घोषित नही होने देंगे क्योंकि उसके खिलाफ जीते हुए मतों से ज्यादा नामंज़ूरी के मत हैं।

नोटा वोट की अधिकता होने पर ऐसे उम्मीदवार को विजेता घोषित करना चुनाव आयोग के लिए आसान नहीं होगा। भ्रष्ट, आपराधिक एवं नाकाबिल उम्मीदवारों को धता बताने का यह बहुत ही नायाब तरीका है। पर इस जानकारी का प्रचार नहीं है। पीठासीन अधिकारी के समक्ष रजिस्टर मे अंगूठा लगाने या दस्तखत करने से मतदाता के ‘किसी को भी मत नहीं’ की गोपनीयता समाप्त हो जाती है तथा कई स्थितियों में उसे खतरा भी हो सकता है। इसलिए इसकी व्यवस्था वोटिंग मशीन में ही किए जाने की जरूरत है ताकि खारिज करने के मत से वहां मौजूद लोग वाकिफ नहीं हो सकें।

मतदाताओं के इस अधिकार की बाबत भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति स्वर्गीय श्री कृष्णकांत ने आवाज उठाई थी। उन्होंने मांग की थी कि विजेता उसी उम्मीदवार को घोषित किया जाए जिसे पचास पफीसदी से अधिक वोट मिलें। साथ ही मतदाता को उम्मीदवार पसंद ना होने पर उसे नामंजूर करने का अधिकार हो। सबसे कम खराब प्रत्याशी को चुनने की मजबूरी ना हो। प्रथम सुझाव मान लेने पर जातिगत और धर्मगत आधार पर चुनाव लड़ना और जीतना मुश्किल हो जाता। द्वितीय सुझाव राजनीतिक पार्टियों पर जिम्मेदार एवं साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवार खड़े करने की बाध्यता उत्पन्न करता है। इन सुझावों की सराहना तो बहुत हुई लेकिन किसी भी पार्टी ने इन्हें स्वीकारा नहीं।

1999 में 15वें लॉ कमीशन के चेयरमैन जस्टिस बी पी जीवन रेड्डी ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में मतदाता को यह अधिकार ईवीएम मशीन में अलग से ‘किसी को भी नहीं’ बटन की व्यवस्था करने की बात की थी। कमीशन ने 50 प्रतिशत वोट के आधार पर विजेता घोषित करने की बात का भी समर्थन किया । 2001 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त जे एम लिंगदोह ने पत्र लिख कर प्रधानमंत्री से ईवीएम में नोटा बटन लगवाने की बात रखी । 2003 में चुनाव सुधार पर हुई सर्वदलीय बैठक में भी इस बात पर चर्चा हुई, परंतु सहमति नहीं बन सकी। जुलाई 2004 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री टी.एस. कृष्णमूर्ति ने पुन: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अधिशासकीय पत्र लिखकर अगले चुनाव से पूर्व ईवीएम में नोटा बटन लगाने की सिफारिश की ।

इस मामले में अब तक न तो सरकार ने कोई कदम उठाया है । हैरत की बात है की बांग्लादेश जैसे छोटे और पिछड़े देश ने भी यह सम्यक व्यवस्था 29 दिसंबर 2008 को हुए आम चुनाव में कर ली थी । हमारे यहां कानून मे व्यवस्था रहने के बावजूद ईवीएम में यह बटन नहीं लगाया जा रहा है। भारत ने अपनी निर्वाचन प्रणाली मूलत: कनाडा से ली है। जब हमने 1992 में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग पध्दति लागू की तो उस समय नोटा के प्रावधान को भुला दिया। नोटा का प्रावधान फ़्रांस, कोलंबिया, स्पेन, नेवाडा (अमेरिका), स्विट्जरलैंड, थाइलैंड, यूक्रेन के लोगों के पास भी है।

इस व्यवस्था से सत्ता की दौड़ में शामिल राजनीतिक दलों के लिए मुश्किल खड़ी होगी और इसलिए वे इसे लागू करवाने से बिदक रहे हैं। लेकिन चुनाव आयोग इस बारे में क्यों गंभीर प्रयास नहीं कर रहा है, यह बड़ा सवाल है । लोगों को चुनाव देने के लिए प्रेरित करते समय चुनाव आयोग उन्हें क्यों नहीं यह भी बताता कि वे यदि चाहें तो सभी उम्मीदवारों को नकार भी सकते हैं?

राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग की जो भी मजबूरी हो लेकिन सामाजिक संगठनों के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। उन्हें नोटा के अधिकार के लिए भरपूर दबाव बनाना चाहिए और इसके लिए मीडिया सहित देशहित में सोचने वाले सभी लोगों की मदद लेनी चाहिए। नोटा का अधिकार भारतीय लोकतंत्र को और अधिक सक्षम बनाने की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम साबित होगा। गरीबपरस्त और भारतपरस्त राजनीति सुनिश्चित करने में इसकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन से साभार

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

घाघ नेताओं के जमघट में बेबस आयोग

चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के बीच " तू डाल-डाल,मैं पात-पात" का खेल दिन ब दिन तेज़ होता जा रहा है । राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर चुनाव आयोग कड़ी निगाह रख रहा है ताकि आचार संहिता का उल्लंघन रोका जा सके । दूसरी तरफ़ पार्टियाँ कानूनी दाँव-पेंच की पतली गलियों से बच निकलने की जुगत में लगी हुई हैं । आयोग के हाथ कानून से बँधे हैं । वैसे भी ठोस सबूतों के अभाव में आयोग के पास कहने-करने को कुछ नहीं रह जाता । पुख्ता सबूतों के अभाव में लोकसभा चुनाव के दौरान जो कुछ भी देखने सुनने मिल रहा है वो हैरान करने वाला है ।

ढ़ीठ नेताओं से निपटने में टी एन शेषन ने जिस तरह की दबंगई दिखाई,उससे बड़े-बड़े सूरमाओं के होश फ़ाख्ता हो गये थे । एम एस गिल ने भी शेषन की तरह तो नहीं मगर नेताओं की नकेल कसने में काफ़ी हद तक कामयाबी पाई । आज चुनाव आयोग के हाथ में आचार संहिता का हथियार तो है लेकिन बिना धार का यह औजार "नककटे की नाक" काट पाने के लायक भी नहीं है । रोतले और नकचढ़े शिकायती बच्चों की तरह राजनीतिक दल हर रोज़ एक दूसरे के खिलाफ़ सैकड़ों शिकायतें लेकर आयोग के पास पहुँच रहे हैं । लेकिन "आगे से नहीं करना" "ध्यान रखना" जैसी समझाइश देकर बात आई-गई कर देने से आचार संहिता मखौल बन कर रह गई है ।

मध्य प्रदेश में हर मोर्चे पर भाजपा से पिछड़ी काँग्रेस ने आखिर चुनाव आयोग के पास शिकायतों का पुलिंदा पहुँचाने में बढ़त बना ही ली । अब तक शिकायतों का अर्धशतक ठोक चुकी काँग्रेस चुनाव मैदान की बजाय काग़ज़ी लड़ाई से ही दिल बहला रही है । गुटबाज़ी और आपसी खींचतान से परेशान काँग्रेसी ज़्यादातर संसदीय क्षेत्रों में मुकाबले से बाहर होने की आशंका के चलते आचार संहिता उल्लंघन का मुद्दा उछाल कर समाचारपत्रों में थोड़ी बहुत जगह कबाड़ने की कोशिश में मगन हैं ।

लगता है चुनाव आयोग की सलाहों को नेताओं ने हवा में उडा़ने की कसम खा रखी है । बदज़ुबानी में एक दूसरे से बाज़ी मार लेने की होड़ में लगे नेता आचार संहिता को हवा में उड़ाने के मामले में एकमत हैं । ऎसे कई मामले हैं जो इस बात की तस्दीक करते हैं कि नेता आयोग को खूब छका रहे हैं । आयोग की सलाह के बाद भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुंबई में प्रेस कॉन्फ्रेंस की और बेबस आयोग मामले पर विचार की बात कह रहा है । कुछ दिन पहले गृहमंत्री चिदंबरम ने जब प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी तब भी आयोग ने आपत्ति जताई थी । आचार संहिता तोड़ने के मामलों की शिकायत मिलने पर आयोग चेतावनी देकर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर लेता है और नेता अपनी राह पकड़ लेते हैं ।

आचार संहिता उल्लंघन के मामले में फँसे शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे,राजद प्रमुख लालूप्रसाद यादव और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के जवाब से चुनाव आयोग संतुष्ट नहीं हैं। इन नेताओं के जवाब पर आयोग ने आपत्ति और अप्रसन्नता जाहिर की है । उप चुनाव आयुक्त आर.बालाकृष्णन ने बताया कि प्रधानमंत्री के बारे में आपत्तिजनक तथा अशोभनीय बयान पर उद्धव के जवाब से असंतुष्ट आयोग ने पार्टी को भी नोटिस जारी किया है । अब महाराष्ट्र के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को उद्धव की रैलियों के भाषणों की वीडियोग्राफी कराने और उनकी गतिविधियों पर नजर रखने को कहा गया है ।

वरुण गाँधी और लालू यादव के मामले में दोहरा मानदंड अपनाने के आरोप को खारिज करते हुए आयोग ने दोनों मामलों को अलग माना है । आयोग ने वरुण की टिप्पणी को एक समुदाय और लालू की टिप्पणी को एक व्यक्ति के खिलाफ माना है । लेकिन हाल ही में साइकल पर सवार हुए " मुन्ना भाई" के भाषणों को किस श्रेणी में रखा जाएगा,इस पर आयोग मौन है । वरुण पर रासुका लग सकती है,तो समाजवादी पार्टी के पपेटियर अमरसिंह के इशारे पर अनर्गल प्रलाप करने वाले संजय दत्त के प्रति आयोग के रवैये में नर्मी क्यों ? कहीं ऎसा तो नहीं कि "पहले मारे सो मीर" की तर्ज़ पर संजय दत्त बात को अब इतनी आगे तक ले जा चुके हैं कि उन पर होने वाली कार्रवाई को एक खास नज़रिये से देखा जाएगा । संजय दत्त का पुलिस प्रताड़ना का आरोप और मुसलमान माँ की संतान होने की सज़ा भुगतने का भड़काऊ बयान क्या संकेत देता है ?

वैसे आयोग की एक टिप्पणी काबिले गौर है,जिसमें चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि आदर्श आचार संहिता कोई कानून नहीं है। यह एक तरह से नैतिक संहिता है, जिसका मकसद चुनाव में उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों पर दबाव बनाना है। उप चुनाव आयुक्त बालाकृष्णन का कहना है कि आयोग का काम आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन को देखना है पर आदर्श आचार संहिता कोई कानून नहीं है। इसके माध्यम से केवल उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों पर दबाव बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि अगर कोई उम्मीदवार आचार संहिता का उल्लंघन करता है और अगर वह संज्ञेय या असंज्ञेय अपराध है तो इस संबंध में भारतीय दंड संहिता या जन प्रतिनिधित्व कानून १९५१ के तहत कार्रवाई होना चाहिए ।

आयोग को सर्वशक्तिमान बनाने की जो मुहिम शेषन ने छेड़ी थी,क्या वह ऎसी लाचारगी भरी बातों से प्रभावित नहीं होंगी ? इस तरह तो चुनाव आयोग को काग़ज़ी शेर कहना भी अतिरंजना ही माना जाएगा,क्योंकि काग़ज़ के शेर के भी दाँत और नाखून होते हैं । चुनाव आयोग की बेबसी खूँखार वन्यजीवों की भीड़ में खड़ी बकरी सी दिखाई देती है ।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

बीजेपी में दलबदलुओं का सैलाब

प्रदेश में यात्राओं,घोषणाओं और महापंचायतों के लिये पहचाने जाने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अब प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर के साथ मिल कर तोड़क-फ़ोड़क राजनीति की नई इबारत लिखने में व्यस्त हैं । भाजपा की जुगल जोड़ी " शिवराज- तोमर" ने दलबदल के नये कीर्तिमान बनाने का बीड़ा उठा लिया है । विचारधारा और राजनीतिक मतभेदों को दरकिनार कर भाजपा ने सभी दलों के नेताओं के लिये अपने दरवाज़े खोल दिये हैं । घोषणावीर शिवराज इन दिनों " वसुधैव कुटुम्बकम" की अवधारणा को साकार करने के लिये रात-दिन एक किये हुए हैं ।

अपने दलों में उपेक्षित नेताओं के स्वागत में भाजपा ने पलक-पाँवड़े बिछा दिये हैं । हालाँकि पार्टी के कई वरिष्ठ नेता इस "भीड़ बढ़ाऊ" रणनीति पर नाखुशी ज़ाहिर कर रहे हैं । लम्बे समय तक प्रदेश संगठन मंत्री रहे कृष्ण मुरारी मोघे कहते हैं कि पार्टी में शामिल होने वालों के लिये मापदंड तय होना चाहिए । वे मानते हैं कि स्थानीय नेताओं को विश्वास में लिये बगैर होने वाले फ़ैसले आगे चल कर परेशानी का सबब बन सकते हैं । पार्टी के संगठन महामंत्री माखन सिंह भी आने वालों की भीड़ को लेकर असहमति जता चुके हैं ।

मध्यप्रदेश में भाजपा पिछले लोकसभा चुनावों की पच्चीस सीटों के आँकड़े को बरकरार रखने के लिये जी जान लगा रही है । नेताओं के साथ संगठन के रणनीतिकारों ने भी पार्टी मुख्यालय की बजाय क्षेत्रों में डेरा जमा लिया है । प्रदेश भाजपा का थिंक टैंक रोज़ाना एक-एक सीट की समीक्षा में जुटा है और निर्दलीय प्रत्याशियों के साथ गणित बिठाने की माथापच्ची में लगा है । लोकसभा चुनावों में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें हासिल करने की जद्दोजहद में कई नेता इधर से उधर हो गये हैं । ऎसे नेताओं की भी कमी नहीं जो हर विचारधारा में खुद को को फ़िट करने में वक्त नहीं लगाते ।

परिसीमन से बदले नक्शे के कारण कई दिग्गजों ने तो अपनी विचारधारा ही बदल डाली । दूसरे दलों के नेताओं को खींचकर पार्टी में लाने की ’प्रेशर पॉलिटिक्स’ भी खूब असर दिखा रही है । प्रमुख पार्टी काँग्रेस और बीएसपी के दिग्गजों के अलावा कई अन्य दलों के नेता और कार्यकर्ता भाजपा का रुख कर रहे हैं । अब तक करीब साढ़े तीन हज़ार नेता- कार्यकर्ता बीजेपी का दामन थाम चुके हैं ।

एक बड़े नेता का कहना है कि भाजपा के दरवाज़े अभी सबके लिये खुले हैं,जो भी चाहे आ सकता है । इस खुले आमंत्रण के बाद बीजेपी में आने से ज़्यादा लाने का दौर चल पड़ा है । दूसरे दलों के ’विभीषणों’का दिल खोलकर स्वागत सत्कार किया जा रहा है । बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और लोजपा नेता रहे फ़ूलसिंह बरैया भगवा रंग में रंग गये हैं । पार्टी से रुठ कर गये प्रहलाद पटेल ने भी घर वापसी में ही समझदारी जानी ।

काँग्रेस के वरिष्ठ नेता और सिंधिया घराने के खासमखास बालेंदु शुक्ल भाजपा में शामिल हो गए । छिंदवाड़ा के जुन्नारदेव विधानसभा क्षेत्र से काँग्रेस विधायक रहे हरीशंकर उइके मुख्यमंत्री के चुनावी दौरे के दौरान एक हजार कार्यकर्ताओं के साथ भाजपा में आ गये । गुना के भाजश विधायक राजेन्द्र सलूजा के बाद अब सिलवानी के भाजश विधायक देवेंद्र पटेल भी बीजेपी की राह पकड़ चुके हैं । विदिशा जिले के पूर्व विधायक मोहर सिंह और उनकी पत्नी सुशीला सिंह भी पार्टी में लौट आये । काँग्रेस के प्रदेश महामंत्री रहे नर्मदा प्रसाद शर्मा ,पूर्व विधायक शंकरसिंह बुंदेला और बीएसपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भुजबल सिंह अहिरवार को भी बीजेपी में एकाएक खूबियाँ दिखाई देने लगी हैं ।

सागर लोकसभा सीट से बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी शैलेष वर्मा ने भी भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया है । इसी तरह देवास-शाजापुर के पूर्व सांसद बापूलाल मालवीय के बेटे श्याम मालवीय ने शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में सदस्यता ग्रहण की । श्याम 2004 में भाजपा के वर्तमान सांसद थावरचंद गेहलोत के खिलाफ काँग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं। देवास के अधिवक्ता श्याम मालवीय काँग्रेस के जिला महामंत्री भी हैं । सागर से काँग्रेस का टिकट नहीं मिलने से नाराज़ संतोष साहू भी अब भाजपा नेता बन गये हैं ।

भारतीय राजनीति में पाला बदलने का चलन नया नहीं है । आयाराम-गयाराम की संस्कृति का जन्म भी यहीं हुआ और इसे बखूबी परवान चढ़ते हम सभी ने देखा है । वैचारिक विशुद्धता के साथ राजनीति करने वाले बीजेपी और कम्युनिस्ट पार्टी जैसे काडर बेस्ड दल भी अब इससे अछूते नहीं रहे । भाजपा को कोस कर दाल रोटी चलाने वाले नेता अब बीजेपी की खूबियाँ "डिस्कवर" करके मलाई सूँतने का इंतज़ाम कर रहे हैं ।

रातोंरात हृदय परिवर्तन तो संभव नहीं है और ना ही इस बदलाव के पीछे कोई ठोस वैचारिक या सैद्धांतिक कारण दिखाई देता है । जो नेता पार्टी में आने को ललायित हैं वे न तो इसके एजेंडे से प्रभावित हैं और न ही उनकी प्रतिबद्धता है । ये वो लोग हैं जो एक वैचारिक पार्टी में भीड़ बढ़ा रहे हैं । इनके उतावलेपन की सिर्फ़ एक ही वजह है और वो है इनका पर्सनल एजेंडा । तात्कालिक तौर पर आकर्षक और रोचक लगने वाले इस घटनाक्रम के दूरगामी परिणाम पार्टी के लिये बेहद घातक साबित होंगे ।

गुटबाज़ी और हताशा की गिरफ़्त में आ चुकी प्रदेश काँग्रेस दिग्भ्रमित है और तीसरी ताकत के उदय की संभावनाएँ हाल फ़िलहाल ना के बराबर हैं । ऎसे में सत्ता के आसपास जमावड़ा लगना स्वाभाविक है । बेशक दल बदलुओं की जमात का दिल खोलकर स्वागत करने वाली भाजपा ने राजनीति में अपना रुतबा बढ़ा लिया हो,लेकिन "पार्टी विथ डिफ़रेंस" का दावा करने वाली बीजेपी के लिये क्या यह शुभ संकेत कहा जा सकता है ?

भारतीय राजनीति में वैचारिक एक्सक्लुसिव एजेंडा ही भाजपा के जन्म का आधार था । इसकी मूल ताकत हमेशा से ही समर्पित कार्यकर्ता रहे,जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से विचार ऊर्जा लेकर पार्टी की मज़बूती के लिये अपना खून-पसीना एक किया । दीनदयाल परिसर की ड्योढ़ी पर हर "आयाराम" के माथे पर तिलक और गले में पुष्पहार पहनाकर स्वागत के अनवरत सिलसिले का असर पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं पर क्या,कैसा और कितना पड़ेगा ये सोचने की फ़ुर्सत शायद किसी को नहीं है ।

कुल मिलाकर प्रदेश बीजेपी उस घाट की तरह हो चुकी है,जिस पर शेर के साथ ही भेड़-बकरियाँ भी पानी पी रहे हैं । लेकिन इसे रामराज्य की परिकल्पना साकार होने से जोड़कर देखना भूल होगी । क्योंकि यहाँ तपस्वी राम की नहीं अवसरवादी विभीषणों की पूछ परख तेज़ी से बढ़ गई है । रामकारज के लिये एक ही विभीषण काफ़ी था । इन असंख्य विभीषणों के ज़रिये स्वार्थ सिद्धि एक ना एक दिन पार्टी के जी का जँजाल बनना तय लगती है ।

बीजेपी के घाट पर भई दलबदलुओं की भीड़
तोमरजी चंदन घिसें, तिलक करें घोषणावीर।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

सियासी डगर पर नौकरशाहों के कदम

नौकरशाही का सफ़र तय करते हुए राजनीति की डगर पर बढ़ने वालों की फ़ेहरिस्त में डॉक्टर भागीरथ प्रसाद का नाम भी जुड़ गया है । इंदौर के देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय के कुलपति रहे डॉ. भागीरथ प्रसाद चंबल घाटी के भिंड संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याशी हैं । पार्टी से हरी झंडी मिलते ही उन्होंने फौरन अपने पद से इस्तीफा दे दिया था । संभवत: यह पहला मौका होगा जब मध्यप्रदेश में किसी कुलपति ने यूनिवर्सिटी का कैंपस छोड़कर चुनावी मैदान में खम ठोका हो । वे 32 साल की नौकरशाही के बाद आईएएस से इस्तीफा देकर डीएवीवी के कुलपति बने और अब उन्होंने कुलपति पद से इस्तीफा देकर सियासत की डगर पकड़ ली है। मूलत: भिंड जिले से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस उम्मीदवार का मुकाबला मुरैना से चार बार से सांसद अशोक अर्गल से होना है। यह एक नेता और अफसर के प्रबंधकीय कौशल की परख वाला चुनाव होगा।

देखा जाए तो अफसरों की राजनीतिक प्रतिबद्घता कोई नई बात नहीं है। लेकिन अब यह खुले रूप में सामने आने लगी है । बरसों सरकारी नौकरी में रहकर नेताओं को अपनी कलम की ताकत के बूते फ़ाइलों में उलझाने वाले नौकरशाह अब सियासी दाँव-पेंच आज़माने में दिलचस्पी दिखाने लगे हैं । बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और राजनीतिक मजबूरियों ने नेताओं और अफ़सरों को नज़दीक ला खड़ा किया है । जातिगत और क्षेत्रीय समीकरण को साधने के लिए राजनीतिक दलों को इन अफ़सरों की ज़रुरत है और सुविधाभोगी नौकरशाहों को सियासी गलियारों में प्रवेश करने की चाहत । एक दूसरे के पूरक बन चुके ये दोनों तबके एक ही धुन पर कदमताल कर रहे हैं ।

वैसे मध्यप्रदेश में अफसरों और राजनेताओं की जुगलबंदी काफी पुरानी है। ज्यादातर अफसर परदे के पीछे रहकर पार्टियों और उनके नेताओं के मददगार बने रहे । लेकिन कुछ अफ़सरों पर बड़े नेताओं से गठजोड़ का ठप्पा भी लगा । प्रदेश में लंबे समय तक काँग्रेस का राज रहने के कारण काँग्रेस समर्थक अफसरों की तादाद ज्यादा होना स्वाभाविक है , लेकिन अब हालात बदल रहे हैं । पिछले कुछ सालों से अफ़सरों को भगवा रंग भी खूब लुभा रहा है । आरक्षित वर्ग के अधिकारियों का रुझान मायावती की बीएसपी की तरफ़ बढ़ रहा है । बहरहाल ज्यादातर अफसर काँग्रेस और भाजपा के टिकट पर ही चुनावी समर में उतरे हैं ।

नौकरशाह से सफ़ल नेता बनने की फ़ेहरिस्त में सबसे ऊपर अजीत जोगी और उनके बाद सुशीलचंन्द्र वर्मा का नाम आता है । इंदौर के कलेक्टर रहे अजीत जोगी के लिये काँग्रेस की राजनीति में एक मुकाम बनाने में अर्जुनसिंह की नज़दीकी खासी मददगार साबित हुई । अजीत जोगी राज्यसभा सदस्य रहे और १९९८ में बेहद कड़े मुकाबले में वे रायगढ़ से लोकसभा चुनाव महज़ चार हजार वोटों के अंतर से जीते । अगले साल ही शहडोल से लोकसभा चुनाव हारने वाले जोगी मध्यप्रदेश के विभाजन के बाद अस्तित्व में आए छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बने । उन्होंने मरवाही विधानसभा सीट से रिकार्ड मतों से जीत हासिल की। २००४ के लोकसभा चुनाव में जोगी ही छत्तीसगढ़ के एकमात्र नेता थे जिन्होंने लोकसभा चुनाव में विद्याचरण शुक्ल सरीखे दिग्गज नेता को शिकस्त दी थी ।

इसी तरह प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव सुशील चंद्र वर्मा ने भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर भोपाल सीट काँग्रेस के हाथों से छीनी थी । वे लगातार चार मर्तबा सांसद चुने गये । कार्यकर्ताओं से जीवंत संपर्क रखने वाले सादगी पसंद श्री वर्मा ने वर्ष १९८९ से १९९८ तक भोपाल का प्रतिनिधित्व किया। पोस्टकार्ड के जरिए लोगों से जीवंत संपर्क रखने की खूबी उनकी सफलता की खास वजह रही ।

कुशल प्रशासक के तौर पर पहचान बनाने वाले आईएएस अफसर महेश नीलकंठ बुच वर्ष १९८४ में बैतूल संसदीय क्षेत्र से भाग्य आज़मा चुके हैं । हालांकि निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे श्री बुच को हार का सामना करना पड़ा , लेकिन उन्होंने काँग्रेस प्रत्याशी असलम शेर खान को कड़ी टक्कर देते हुए जीत का फ़ासला ४० हजार मतों पर समेट दिया।

भाजपा ने २००३ के विधानसभा चुनावों में दो भारतीय पुलिस सेवा अफसरों को चुनावी दंगल में उतारा । रूस्तम सिंह ने तो बाकायदा नौकरी छोड़कर मुरैना सीट से चुनाव लड़ा और सीधे केबिनेट मंत्री की कुर्सी सम्हाली । गुर्जर समुदाय को अपनी तरफ खींचने के इरादे से बीजेपी ने रूस्तम सिंह पर दाँव खेला था। लेकिन बीजेपी को भी फ़ायदा नहीं हुआ और शिवराज लहर के बावजूद श्री सिंह को करारी हार झेलना पड़ी । पार्टी ने २००३ में ही आईपीएस पन्नालाल को सोनकच्छ से चुनाव लड़ाया लेकिन सख्त पुलिस अफ़सर की छबि वाले पन्नालाल मतदाताओं को रिझाने में नाकाम रहे। काँग्रेस ने पिछले आमचुनाव में न्यायमूर्ति शंभूसिंह को राजगढ़ संसदीय सीट से चुनाव लड़ाया लेकिन वे सफल नहीं हो पाए।