देश में बढ़ते जल संकट को लेकर सरकार को उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलाने के लिये सुप्रीम कोर्ट को सामने आना पड़ा है । सर्वोच्च न्यायालय की तल्ख टिप्पणी ऎसे वक्त आई है जब देश के ज़्यादातर हिस्से भीषण जलसंकट झेल रहे हैं । आसमान से आग बरसने का सिलसिला दिन पर दिन तेज़ होता जा रहा है । ऎसे में आने वाले दिनों में हालात क्या होंगे,समझना कतई मुश्किल नहीं है । लगभग पूरे देश में पीने के पानी की समस्या विकराल हो चुकी है । हैरत की बात है कि स्वच्छ पेयजल का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए कोई अहमियत नहीं रखता । जोड़-तोड़ की राजनीति के ज़रिये कुर्सी हथियाने की कोशिश में जुटे नेताओं के लिये लोकसभा चुनावों में यह कोई मुद्दा नहीं है ।
एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने लोगों के दिल की बात कही है कि जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने युद्ध स्तर पर अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों की कमेटी भी गठित कर दी है । कोर्ट ने कहा कि अनुसंधान का मुख्य मुद्दा खारे समुद्री पानी को कम से कम खर्चे पर मीठे पेयजल में बदलना होगा।
केन्द्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पराग त्रिपाठी से न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और एच एल दातू की पीठ ने कहा- यदि आप लोगों को पानी उपलब्ध नहीं करा सकते हैं तो सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है । न्यायमूर्ति काटजू को निर्णय देते हुए रहीम का यह दोहा याद आया, "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून।" उन्होंने दोहे (जल बिन जीवन नहीं) का उल्लेख करते हुए कहा- संविधान का अनुच्छेद २१ देश के सभी लोगों को जीने के अधिकार की गारंटी देता है।
रहीम का यह दोहा पानी की बात एक अलग स्तर पर कहता है,मगर हमारे अपने समय के बड़े कवि रघुवीर सहाय ने पानी और इसकी राजनीति पर कोई तीन दशक पहले कविता लिखी थी । वह पानी के लिए तरसाने की राजनीति की परतें उघाड़ते हुए कहती है कि जिस धरती को पानी नहीं मिला,उस धरती को आजाद नहीं कहा जा सकता है।
अधिवक्ता एमके बालकृष्णन ने इस मामले में दायर जनहित याचिका में कहा है कि देश भर में जल संकट का मुख्य कारण नदी समेत अन्य जल स्त्रोतों का अतिक्रमण है । कोर्ट ने कमेटी के गठन और कार्य प्रगति के बारे में केन्द्र को ११ अगस्त तक स्थिति रिपोर्ट पेश करने का निर्देश देते हुए कहा कि वह खुद इस उच्चाधिकार कमेटी के कामकाज पर नजर रखेगी । साथ ही सरकार से हर दो महीने में रिपोर्ट माँगेगी।
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा,यह भविष्यवाणी सही हो या न हो कह पाना फ़िलहाल मुश्किल है,मगर लोगों के बीच पानी को लेकर गली- मोहल्लों में खून ज़रुर बह रहा है । मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पुलिस की चौकसी में पानी का वितरण इस बात की तस्दीक करता है । लोगों को प्यास बुझाने की कीमत जान गवाँ कर चुकाना पड़ रही है । इंदौर, उज्जैन सहित कई क्षेत्रों में टैंकरों से पानी भरने को लेकर उपजे विवादों में चाकू-छुरी से लेकर बंदूक निकल आना आम बात हो चुकी है । मालवांचल, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ सहित तमाम क्षेत्रों के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं । ऎसा नहीं है कि इंद्रदेवता भारत पर कृपादृष्टि बरसाने में कोई कंजूसी बरत रहे हों। देश में अब भी औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा होती है जो विश्व के ज़्यादातर देशों की तुलना में कहीं अधिक है ।
दरअसल समस्या पानी की नहीं उसके प्रबंधन की है । कई देशों में कम पानी के बावजूद हर परिवार को पर्याप्त पानी दिया जाता है । दुर्भाग्य से देश में ऎसी कोई जल नीति नहीं है जो पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगा सके । हमारे पास ना तो बरसात के पानी को सहेजने की कोई ठोस रणनीति नहीं है। बाढ़ के पानी से होने वाली तबाही को रोकने और नदी के रुख को मोड़ने के लिये भी हम अब तक कारगर उपाय नहीं तलाश पाये हैं । तमाम सरकारें पेयजल की उपलब्धता के बारे में कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाई हैं ।
इस बीच तालाबों और कुओं को सूखने-बर्बाद होने दिया गया। निजी आर्थिक स्वार्थों के चलते बरसाती जल के संरक्षण के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाने के अलावा कोई गंभीर काम नहीं किया गया । समुद्रों के खारे पानी को मीठे जल में तब्दील करने की टेक्नालॉजी के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई । नदियों को सूखने दिया गया, उन्हें गंदगी से भर जाने दिया गया । जमीन से पानी खींचने के लिए हैंडपंप और ट्यूबवेल खोदने की खुली छूट दी गई । अब तो भूजल स्तर भी रसातल में जा पहुँचा है । यह सब उस देश में हुआ,जहाँ नदियाँ ही नहीं,कुएँ तक पूजे जाने की भी परंपरा रही है । जहाँ प्यासे को पानी पिलाना धर्म माना जाता है।
देश की ग्रामीण आबादी पानी के संकट से कैसे जूझ रही है,इसकी कहीं से कोई खबर नहीं आती । किस तरह कारखानों का प्रदूषित कचरा जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है,इसकी किसी को परवाह नहीं है। हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक भारत को छह फ़ीसदी की विकास दर बनाये रखने के लिये भी २०१३ तक मौजूदा दर से चार गुना ज़्यादा पानी की ज़रुरत होगी । आखिर यह पानी आयेगा कहाँ से ?