नौकरशाही का सफ़र तय करते हुए राजनीति की डगर पर बढ़ने वालों की फ़ेहरिस्त में डॉक्टर भागीरथ प्रसाद का नाम भी जुड़ गया है । इंदौर के देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय के कुलपति रहे डॉ. भागीरथ प्रसाद चंबल घाटी के भिंड संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याशी हैं । पार्टी से हरी झंडी मिलते ही उन्होंने फौरन अपने पद से इस्तीफा दे दिया था । संभवत: यह पहला मौका होगा जब मध्यप्रदेश में किसी कुलपति ने यूनिवर्सिटी का कैंपस छोड़कर चुनावी मैदान में खम ठोका हो । वे 32 साल की नौकरशाही के बाद आईएएस से इस्तीफा देकर डीएवीवी के कुलपति बने और अब उन्होंने कुलपति पद से इस्तीफा देकर सियासत की डगर पकड़ ली है। मूलत: भिंड जिले से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस उम्मीदवार का मुकाबला मुरैना से चार बार से सांसद अशोक अर्गल से होना है। यह एक नेता और अफसर के प्रबंधकीय कौशल की परख वाला चुनाव होगा।
देखा जाए तो अफसरों की राजनीतिक प्रतिबद्घता कोई नई बात नहीं है। लेकिन अब यह खुले रूप में सामने आने लगी है । बरसों सरकारी नौकरी में रहकर नेताओं को अपनी कलम की ताकत के बूते फ़ाइलों में उलझाने वाले नौकरशाह अब सियासी दाँव-पेंच आज़माने में दिलचस्पी दिखाने लगे हैं । बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और राजनीतिक मजबूरियों ने नेताओं और अफ़सरों को नज़दीक ला खड़ा किया है । जातिगत और क्षेत्रीय समीकरण को साधने के लिए राजनीतिक दलों को इन अफ़सरों की ज़रुरत है और सुविधाभोगी नौकरशाहों को सियासी गलियारों में प्रवेश करने की चाहत । एक दूसरे के पूरक बन चुके ये दोनों तबके एक ही धुन पर कदमताल कर रहे हैं ।
वैसे मध्यप्रदेश में अफसरों और राजनेताओं की जुगलबंदी काफी पुरानी है। ज्यादातर अफसर परदे के पीछे रहकर पार्टियों और उनके नेताओं के मददगार बने रहे । लेकिन कुछ अफ़सरों पर बड़े नेताओं से गठजोड़ का ठप्पा भी लगा । प्रदेश में लंबे समय तक काँग्रेस का राज रहने के कारण काँग्रेस समर्थक अफसरों की तादाद ज्यादा होना स्वाभाविक है , लेकिन अब हालात बदल रहे हैं । पिछले कुछ सालों से अफ़सरों को भगवा रंग भी खूब लुभा रहा है । आरक्षित वर्ग के अधिकारियों का रुझान मायावती की बीएसपी की तरफ़ बढ़ रहा है । बहरहाल ज्यादातर अफसर काँग्रेस और भाजपा के टिकट पर ही चुनावी समर में उतरे हैं ।
नौकरशाह से सफ़ल नेता बनने की फ़ेहरिस्त में सबसे ऊपर अजीत जोगी और उनके बाद सुशीलचंन्द्र वर्मा का नाम आता है । इंदौर के कलेक्टर रहे अजीत जोगी के लिये काँग्रेस की राजनीति में एक मुकाम बनाने में अर्जुनसिंह की नज़दीकी खासी मददगार साबित हुई । अजीत जोगी राज्यसभा सदस्य रहे और १९९८ में बेहद कड़े मुकाबले में वे रायगढ़ से लोकसभा चुनाव महज़ चार हजार वोटों के अंतर से जीते । अगले साल ही शहडोल से लोकसभा चुनाव हारने वाले जोगी मध्यप्रदेश के विभाजन के बाद अस्तित्व में आए छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बने । उन्होंने मरवाही विधानसभा सीट से रिकार्ड मतों से जीत हासिल की। २००४ के लोकसभा चुनाव में जोगी ही छत्तीसगढ़ के एकमात्र नेता थे जिन्होंने लोकसभा चुनाव में विद्याचरण शुक्ल सरीखे दिग्गज नेता को शिकस्त दी थी ।
इसी तरह प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव सुशील चंद्र वर्मा ने भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर भोपाल सीट काँग्रेस के हाथों से छीनी थी । वे लगातार चार मर्तबा सांसद चुने गये । कार्यकर्ताओं से जीवंत संपर्क रखने वाले सादगी पसंद श्री वर्मा ने वर्ष १९८९ से १९९८ तक भोपाल का प्रतिनिधित्व किया। पोस्टकार्ड के जरिए लोगों से जीवंत संपर्क रखने की खूबी उनकी सफलता की खास वजह रही ।
कुशल प्रशासक के तौर पर पहचान बनाने वाले आईएएस अफसर महेश नीलकंठ बुच वर्ष १९८४ में बैतूल संसदीय क्षेत्र से भाग्य आज़मा चुके हैं । हालांकि निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे श्री बुच को हार का सामना करना पड़ा , लेकिन उन्होंने काँग्रेस प्रत्याशी असलम शेर खान को कड़ी टक्कर देते हुए जीत का फ़ासला ४० हजार मतों पर समेट दिया।
भाजपा ने २००३ के विधानसभा चुनावों में दो भारतीय पुलिस सेवा अफसरों को चुनावी दंगल में उतारा । रूस्तम सिंह ने तो बाकायदा नौकरी छोड़कर मुरैना सीट से चुनाव लड़ा और सीधे केबिनेट मंत्री की कुर्सी सम्हाली । गुर्जर समुदाय को अपनी तरफ खींचने के इरादे से बीजेपी ने रूस्तम सिंह पर दाँव खेला था। लेकिन बीजेपी को भी फ़ायदा नहीं हुआ और शिवराज लहर के बावजूद श्री सिंह को करारी हार झेलना पड़ी । पार्टी ने २००३ में ही आईपीएस पन्नालाल को सोनकच्छ से चुनाव लड़ाया लेकिन सख्त पुलिस अफ़सर की छबि वाले पन्नालाल मतदाताओं को रिझाने में नाकाम रहे। काँग्रेस ने पिछले आमचुनाव में न्यायमूर्ति शंभूसिंह को राजगढ़ संसदीय सीट से चुनाव लड़ाया लेकिन वे सफल नहीं हो पाए।
2 टिप्पणियां:
सुन्दर और संतुलित समीक्षा. .आभार.
प्रत्येक समय का अपना सच होता है। एक समय वह था जब किसी अधिकारी की सम्बध्दता किसी पार्टी से जाहिर होती नजर आती तो वह अधिकारी शर्मिन्दा हो जाता था। आज वह अधिकारी शर्मिन्दा होता है जिस पर किसी पार्टी का ठप्पा न लगे।
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