सोमवार, 9 मार्च 2009

प्यासे कंठ और तर होते बाग़ - बागीचे

दुनिया भर में भूमिगत जल का स्तर तेजी से घट रहा है और विकासशील देशों में तो स्थिति बेहद गंभीर है । इन देशों में जल स्तर गिरने की रफ़्तार लगभग तीन मीटर प्रति वर्ष है । प्रदेश के अधिकाँश हिस्सों में भू - जल स्तर गिरता ही जा रहा है । मॉनसून की बेरुखी और प्रचंड गर्मी के कारण पानी के वाष्पीकरण में तेज़ी आई है । मार्च के पहले हफ़्ते में ही भोपाल के तापमान ने 38 डिग्री सेल्सियस की लम्बी छलाँग लगाई है । बड़ी झील पहले ही हाथ खड़े कर चुकी है । ऎसे में आया है होली का त्योहार .......। भोपाल वासियों की प्यास बुझाने का ज़िम्मा सम्हाल रहे नगर निगम के हाथ - पाँव भी फ़ूल गये हैं । लोगों से सूखी होली खेलने का गुज़ारिश की जा रही है । निगम ने जनता को पानी के संकट की गंभीरता का एहसास कराने के लिए आज एक विज्ञापन प्रसारित किया है ।

दूसरी तरफ़ भोपाल के नए नवाब ( बाबूलाल गौर) शहर को गर्मियों में भी चमन बनाने पर आमादा हैं । हाल ही में उन्होंने हैदराबाद का दौरा किया और पाया कि वहाँ के निज़ाम की मखमली घास भोपाल की घास की बनिस्पत बेहद नर्म है , सो हैदराबादी घास शहर में लगाने का फ़रमान जारी कर दिया । भरी गर्मी में लाखों रुपए खर्च करके घास मँगाई गई है । अब लाखों की घास के रखरखाव और बचाव पर करोड़ों रुपए खर्च होंगे । लेकिन शहर के व्यस्ततम लिंक रोड नम्बर दो पर लग रही इस मुलायम घास पर चलने का मज़ा लेने के लिए लोगों को अपनी जान जोखिम में डालना ही होगी । वजह ये कि मखमली घास फ़ुटपाथ पर नहीं रोड डिवाइडर पर लगाई गई है । गौर साहब शहर में सौ नए बाग - बागीचे बनाने की योजना का खुलासा भी कर चुके हैं । अँधेर नगरी - चौपट राजा .......।

भोपाल में दो दिन में एक बार औसतन करीब 400-500 लीटर पानी सप्लाई किया जा रहा है । तीखी गर्मी में जब लोगों के प्यासे कंठ को पानी मिलना दुश्‍वार हो रहा है , तब बागीचे सजाने के जुनून को क्या कहा जाए ? वैसे मेरी कॉलोनी में भी पिछले चार सालों से राजपरिवार ( बीजेपी ) के प्रादेशिक स्तर के पदाधिकारी रहते हैं ।

उनके घर के सामने के मैदान पर कभी बच्चे खेला करते थे , मगर नेताजी के सरकारी खर्च पर बागीचा सजाने के शौक ने बच्चों से खेल का मैदान छीन लिया । अब बच्चे उस पार्क में खेल नहीं सकते , बुज़ुर्गों की तरह केवल बैठ सकते हैं ।

पार्क में लगे पौधों और घास को तर रखने के लिए कोलार की मेन पाइप लाइन में अवैध रुप से मोटी पाइप डलवा कर पानी लिया जा रहा है । मगर पार्क बड़ा और गर्मी तेज़ है , इसलिए पौधों की प्यास बुझाने के लिए नगर निगम के टेंकर भी कीचड़ हो जाने की हद तक मैदान की तराई में जुटे हैं । लोग प्यासे मरें तो क्या .....? आधुनिक युग के इन राजाओं के सभी शौक पूरे होना ही चाहिए , आखिर लोकतंत्र है । लोकशाही में जनता की सेवा का बेज़ा फ़ायदा उठाने की कूव्वत अगर नेता अपने में पैदा नहीं कर पाए , तो धिक्कार है ऎसे प्रजातंत्र और ऎसी नेतागीरी पर ....। आखिर कभी समझाकर ,कभी डराकर और कभी धमकाकर हर आवाज़ उठाने की कोशिश का गला दबाना ही तो प्रजातंत्र है ।

रविवार, 8 मार्च 2009

होली की अग्नि में भस्म होते खटमल........

बाज़ार से लौटते वक्त आज सड़क किनारे बैठे मटके वालों के पास बड़बूले ( गोबर की बनी आकृतियाँ) की माला देखकर बचपन की कई यादें आँखों के सामने तैर गईं । होली का डाँडा गड़ते ही हमें ज़्यादा से ज़्यादा गोबर इकट्ठा करने की हिदायत मिल जाती थी । पूरे मोहल्ले में लड़कियों के बीच होड़ लग जाती थी कौन कितनी बड़ी माला तैयार करेगा । हर रोज़ गोबर की तलाश , फ़िर राख बिछाकर उस पर बड़बूले तैयार करने , उन्हें सहेजने , उलट- पलट कर सुखाने में वक्त कब गुज़र जाता , पता ही नहीं चलता था ।

हर रोज़ माँ बताती , तीन भाई यानी तीन मालाएँ । इतना ही नहीं माला की सजावट के लिए तरह - तरह की आकृतियाँ - जीभ , कटी जीभ , शकरपारा , पान का पत्ता ,कटा पत्ता । भाइयों की रक्षा की कामना से बनाई गई ढाल और तलवार , जिसे बड़े ही जतन और मनोयोग से आटे ,हल्दी , कुमकुम से सजाया जाता था । दो दियों के बीच गेंहूँ के कुछ दाने भरकर , ऊपर से गोबर लगा कर नारियल की शक्ल में ढाला जाता था । होलिका की पूजा की थाली में ये सभी चीज़ें सजाई जाती थीं ।

साल दर साल यह प्रक्रिया धीरे - धीरे शिथिल होती गई और अब तो लगभग खत्म ही हो चुकी है । ना गाय - भैंसे हैं और गोबर मिल भी जाए तो वक्त कहाँ है । बड़े की तो छोड़ों दस साल के छोटे बेटे की सोच भी "आधुनिक" है , उन्हें अपनी माँ के "परंपरा प्रेम" पर घनघोर आपत्ति है । लेकिन इस सबके बीच भी मेरा मन मुझे बार - बार वह सब याद दिलाता है ,छटपटाता है । समझ नहीं पाती शहर में बड़बूले की दुकान सजने को किस नज़रिये से देखूँ । परंपराएँ लौट रही हैं , इस बात की खुशियाँ मनाऊँ या यह मान कर संतोष कर लूँ कि टूटती ही सही अब भी कुछ साँसें बाकी हैं हमारी लोक परंपराओं की ...।

होली प्रकृति परिवर्तन का समारोह है । प्रकृति अपने दूषित - जर्जर वस्त्रों को त्याग कर उनका सूर्य की अग्नि में दाह संस्कार करती है । इसी तरह साल भर सांसारिकता के जंजाल में उलझा मानव मन भी मैला हो जाता है । होली अवसर है रंगों की मौज मस्ती के साथ मन का मैल धोने का ...।

मध्यप्रदेश के मालवा और निमाड़ अंचल में होली की अग्नि घर लाने की परंपरा है । लोक मान्यता है कि सब की नज़र बचा कर अँधेरा रहते ही होली की अँगार घर लाने से साल भर समृद्धि बनी रहती है । कम से कम सात दिन तक अग्नि चूल्हे में कायम रहे ,इस बात का खास ख्याल रखा जाता है । इसी तरह होलिका दहन की अग्नि पर गर्म किये गये पानी से बच्चों को नहलाने से गर्मी का मुकाबला करने की क्षमता विकसित हो जाती है । होलिका के आशीर्वाद से निःसंतान दंपतियों के घर आँगन में बच्चों की किलकारियाँ गूँजने की बात को सही बताने वाले भी ढेरों लोग मिल जाएँगे ।

होली में गेंहूँ की बालियाँ सेंक कर खाने का रिवाज़ है । मेरी माँ का कहना है कि इससे आँत और दाँत ,दोनों मज़बूत होते हैं । घर का कूड़ा- करकट भी होलिका में जलाने की परंपरा को भी परिवार की सुख-समृद्धि से जोड़कर देखा जाता है । होली की अग्नि खरपतवार और अन्य जंगली पौधों से नुकसान उठा रहे किसानों के लिए भी वरदान है । खेतों में "आग्या" नाम की खरपतवार फ़सल की बढवार में रुकावट डालती है । किसान लोहे के यंत्र "पास" को होली की आग में तपाकर इस खरपतवार पर डालते हैं ,जिससे वह समूल नष्ट हो जाती है ।

ताँत्रिक-माँत्रिक होली की राख का उपयोग बिच्छू का ज़हर उतारने में करते हैं । कई अन्य मँत्रोपचारों में भी यह राख चमत्कारिक असर दिखाती है । रात में चुपके से आपका खून ही नहीं ,नींद और चैन भी चुरा लेने वाली निशाचरी सेना यानी " खटमल" भी होली की अग्नि में हमेशा के लिए भस्म किए जा सकते हैं । तो छॊड़िये खटमलमार दवाओं का चक्कर और आज़मा लीजिए दादी- नानी के ज़माने का नुस्खा़ - धुलेंडी वाले दिन कुछ देर के लिए फ़ाग की मस्ती भूलकर झटपट कुछ खटमलों को ज़िन्दा पकड़िये । इन्हें एक पुड़िया में बाँधकर होली की अग्नि में भस्मीभूत कर दें । कुछ ही दिनों में आप निशाचरी सेना को ढूँढते ही रह जाएँगे..........। लेकिन ये नुस्खा चुनावी खटमलों पर आज तक आज़माया नहीं गया है । कोई कृपालु इस प्रयोग में सफ़लता हासिल करे , तो कृपया हमें ज़रुर सूचित करे ।

शनिवार, 7 मार्च 2009

सवालों के घेरे में माँ और ममता

महिला दिवस की पूर्व बेला में आज दिन भर सभी न्यूज़ चैनल एक नवजात शिशु को माँ की ममता की छाया मिल जाने की दास्तान दिखाते रहे । समाचार चैनलों के स्टूडियो में एंकर पर्सन से बातचीत का दौर चलता रहा । एक मासूम को माँ का प्यार दुलार मिले इससे अच्छी कोई और बात हो ही नहीं सकती । मगर एक प्रश्न अब तक अनुत्तरित है और इतने दिनों से माँ की ममता का सवाल खड़े करने वाले किसी पत्रकार ने भी यह मुद्दा नहीं उठाया ।

जबलपुर की रहने वाली पेशे से अध्यापिका पुष्पा पात्रे का कहना है कि वह पचमढी स्कूल ट्रिप लेकर गई थी । वहाँ उसने एक बच्ची को जन्म दिया और उसे मॄत समझ कर घने जंगल की गहरी खाई में फ़ेंक दिया । कहते हैं , फ़ानूस बनकर जिसकी हिफ़ाज़त हवा करे , वो शमा क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे । उस सुनसान इलाके में अचानक कुछ लोगों ने बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर पुलिस को इत्तला कर दी । ज़ख्मी और बेहद गंभीर हालत में उस नवजात बच्ची को भोपाल के अस्पताल दाखिल कराया गया ।

करीब दो - तीन दिन समाचार चैनलों पर इस बारे में खबर आती रही ,लेकिन माँ का कलेजा नहीं पसीजा । एकाएक पुष्पा पात्रे को एहसास हो गया अपनी भूल का और उन्होंने अस्पताल के चक्कर लगाना शुरु कर दिये । मगर प्रशासन ने कोई ठोस सबूत नहीं होने के कारण उसे बच्ची से नहीं मिलने दिया ।

महिला को भी मीडिया की ताकत का भरपूर अंदाज़ा था और वो बहुत अच्छी तरह जानती थी कि चटपटी और सनसनीखेज़ खबरों की तलाश में भटकने वाला मीडिया ही मददगार हो सकता है । बाइट और ममतामयी माँ के बेहतरीन शॉट के लिए खबरचियों ने महिला की भरपूर मदद की और आखिरकर वह बच्ची से मिलने में कामयाब भी हो गई ।

कोर्ट ने तीन महीने के लिए बच्ची कथित माँ को सौंपने के आदेश दे दिये हैं । लेकिन सरसरी नज़र से देखें या उस पर बारीकी से गौर करें तो मामला काफ़ी पेचीदा लगता है । आखिर एक शिक्षिका की ऎसी क्या मजबूरी थी जो उसने बच्ची को जाँच -पड़ताल कराये बिना मृत मान लिया । अगर भूलवश ऎसा मान भी लिया तो अपने जिगर के टुकड़े को चाहे मर ही क्यों ना चुका हो क्या कोई इस तरह खाई में फ़ेंक सकता है ?

महिला सरकारी नौकरी में है और रहन - सहन भी अच्छा है । इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह बच्ची को दफ़नाने में सक्षम नहीं थी । आज एक चैनल पर मैंने पुष्पा पात्रे को कहते सुना कि उनका बेटा इस बारे में सब कुछ जानता था । वह बच्ची के जन्म से लेकर उसे फ़ेंके जाने तक पूरे घटनाक्रम का गवाह रहा है । ऎसे में ये प्रश्‍न और भी गंभीर हो जाता है ।

टूर पर साथ गये अन्य सहकर्मियों को इतने बड़े हादसे के बारे में नहीं बताना , उनकी मदद नहीं लेना क्या कुछ अटपटा सा नहीं लगता ? एक विवाहित , आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर महिला ने ऎसा कदम क्यों उठाया ? उस पर ऎसा कोई सामाजिक और आर्थिक दबाव नज़र नहीं आता । समाचार चैनल इसे माँ की ममता के तौर पर पेश कर रहे हैं , लेकिन हालाते - हाज़िरा कुछ और ही कहानी कह रहे हैं ।

कहीं कुछ तो पेंच है , कुछ तो ऎसा है जो अनसुलझा है लेकिन किसी भी पत्रकार ने इन अनसुलझे सवालों को ना तो खड़ा किया और ना ही इनके जवाब तलाशने की ज़हमत उठाई । महिला की मदद से मीडिया को कुछ दिनों का मसाला मिल गया और मीडिया के ज़रिये महिला को बच्ची ......। तुम्हारी भी जय - जय ,हमारी भी जय - जय .......। ना तुम हारे ना हम हारे । लेकिन क्या बच्ची को सचमुच ममता का आँचल मिल गया....??????????

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

औरत को दया नहीं अधिकार की दरकार

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का ज़िक्र आते ही पता नहीं क्यों विश्व हिंदी दिवस की याद आ ही जाती है । महिला दिवस के बहाने साल में एक दिन ही सही, क़म से क़म महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कुछ रोशनी तो पड़ती है । कुछ अलग की तलाश में भटकते मीडिया में भी महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होती है ।

महिला दिवस जहाँ एक मौका है महिला शक्ति को सलाम करने का, वहीं रुककर उन महिलाओं के बारे में सोचने का भी मौका है जो बुरी स्थिति में हैं । ये मौका है उन असमानताओं के बारे में सोचने का , जो आज भी समाज में है और हम उसके लिए क्या कर सकते हैं ?

समाज में कहने को क़ायदे-क़ानून ज़रूर हैं लेकिन जब तक महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वालों पर शिकंजा नहीं कसेगा , लोगों की ये मानसिकता नहीं बदलेगी कि आप अपराध कर सकते हैं और फिर बच कर निकल सकते हैं । मानसिकता बदलने के लिए क़ानून, राजनीतिक इच्छाशक्ति, घर का माहौल,मीडिया, फ़िल्म... , हर स्तर पर प्रयास ज़रुरी हैं ।

मैं दुनिया भर की सभी महिलाओं की प्रतिनिधि तो नहीं हूँ लेकिन मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है जब स्त्री पर 'दुखिया' 'बेचारी' 'वंचित' या फ़िर 'अबला' का ठप्पा लगाया जाता है । मन सवाल कर उठता है , आखिर क्यों मनाते हैं ये दिवस? क्यों नहीं 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' या 'विश्व अंग्रेज़ी दिवस' मनाए जाते ? क्या आज भी महिला और हिंदी "इतनी बेचारी" हैं कि उनकी तरफ़ ध्यान दिलाने के लिए खास मशक्कत की ज़रूरत है ? इसमें शक नहीं है कि आज भी अनगिनत महिलाएँ जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं । लेकिन दुखियारे पुरुषों की भी समाज में कमी नहीं । ग़रीबी और अशिक्षा सबसे बड़े अभिशाप हैं और वे लिंगभेद के अनुपात में नहीं उलझते ।

साल में एक बार महिला दिवस मनाने से बेहतर है कि साल के 365 दिन समाज के उन उपेक्षित वर्गों को समर्पित किए जाएँ जिनकी ओर न समाज का ध्यान जाता है और न ही व्यवस्था का । अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की उपलब्धि क्या है? जगह-जगह समारोह, भाषणबाज़ी, बड़े-बड़े संकल्प और वायदे.. ......आखिर में फिर स्थिति जस की तस ।

महिलाओं की स्थिति सुधारने में दो सबसे बड़ी बाधाएँ हैं - कन्या भ्रूण हत्या और दहेज प्रताड़ना । शुरुआत कन्या भ्रूण से की जाना चाहिए । पहले तो उसे जन्म लेने का, जीने का, साँस लेने का अधिकार हो । फिर उसे कुपोषण से बचाया जाए । इसके अलावा उसकी शिक्षा का पूरा इंतज़ाम हो ।

लड़कियों की शिक्षा पर बहुत ज़्यादा ध्यान न दिए जाने के बावजूद आँकड़े बताते हैं कि भारत में महिला डॉक्टरों, सर्जनों, वैज्ञानिकों और प्रोफ़ेसरों की तादाद अमरीका से ज़्यादा है । ज़रा सोच कर देखिए थोड़ा सा सहारा या सहायता महिला को किन ऊँचाइयों तक ले जा सकती है । लेकिन यह सहारा अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने से नहीं मिलेगा । यह मिलेगा आसपास के परिवेश से. घर-परिवार से.....।

भारत की पहली महिला पुलिस अधिकारी और जुझारूपन की मिसाल किरण बेदी ने समाज की कुछ वंचित महिलाओं के बारे में अपने एक लेख में ऐसी ही एक सलाह दी थी वे कहती हैं, "मैने उन तमाम स्त्रियों को समझाया कि जो चीज़ें उन्हें इतनी कोशिशों के बाद मिली हैं, मुझे वे सब मेरे माता-पिता ने जन्म से ही दिया था... इसलिए बेटियाँ वही बनती हैं जो उनके माता-पिता उन्हें बनाना चाहते हैं, और अगर उन महिलाओं के माता-पिता चाहते तो उन्हें भी ये सब मिल सकता था। "

महिलाओं को आरक्षण के खांचे में रखने की कतई ज़रुरत नहीं । उन्हें सामाजिक समानता चाहिए । देश और समाज में हर स्तर पर संतुलन कायम रखने के लिए स्त्रियों को दया की नहीं अधिकार की दरकार है । कन्या भ्रूण हत्या रोकने में भी स्त्रियों को ही दृढता दिखाना होगी । माँ के मज़बूत इरादों से टकराकर कोई भी बेटी की नन्हीं जान को धड़कने से नहीं रोक सकता । औरतों के वजूद को समझने और उन्हें आगे बढने के पर्याप्त अवसर देकर ही महिला दिवस को सार्थक बनाया जा सकता है ।

क़ैफ़ी आज़मी साहब की नज़्म ’औरत’ के कुछ हिस्से -

तू फ़लातूनो-अरस्तू है तू ज़ुहरा परवीं
तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं , तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा ,जल्द उठा पाए - मुकद्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं ,वक्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि सम्हलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे।

गुरुवार, 5 मार्च 2009

भगोरिया की मस्ती में जीवन का उल्हास

ंगारों से दहकते टेसू के फूलों और रंग-गुलाल के बीच मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में इन दिनों प्रणय पर्व भगोरिया की धूम है झाबुआ , आलीराजपुर , खरगोन और धार ज़िलों के हाट-बाजार में आदिवासी युवक-युवतियाँ जिंदगी का एक नया रंग तलाशते नजर आते हैं



भगोरिया नाम है उस प्रेम पर्व का , जो मूल आदिवासी समाज की अनोखी और विशिष्ट संस्कृति से रुबरु होने का मौका देता है भगोरिया आदिवासियों की पारंपरिक संस्कृति का आईना है। होली के सात दिन पहले से सभी हाट-बाज़ार मेले का रुप ले लेते हैं और हर तरफ बिखरा नजर आता है फागुन की मस्ती और प्यार का रंग

भगोरिया पर्व चार मार्च से शुरु हो चुका है होलिका दहन (दस मार्च) तक चलने वाले इस सांस्कृतिक उत्सव के लिए झाबुआ और आलीराजपुर क्षेत्र में 52 से अधिक स्थानों पर धूम मची रहेगी। वालपुर , बखतगढ़ और छकतला के मेलों में मध्यप्रदेश के अलावा गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती गाँवों से भी लोग पहुँचते हैं झाबुआ और आलीराजपुर के अलावा सौण्डवा , जोबट , कट्ठीवाड़ा , नानपुर उमराली , भाबरा और आम्बुआ की भगोरिया हाट में स्थानीय ही नहीं, देशी - विदेशी सैलानियों का जमावड़ा भी लगता है

भगोरिया पर लिखी कुछ किताबों के अनुसार राजा भोज के समय लगने वाले हाटों को भगोरिया कहा जाता था। उस समय दो भील राजाओं कासूमार औऱ बालून ने अपनी राजधानी भगोर में विशाल मेले औऱ हाट का आयोजन करना शुरू किया धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी इन्हीं का अनुसरण करना शुरू किया जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहने का चलन बन गया हालाँकि , इस बारे में लोग एकमत नहीं हैं




ऎसी भी मान्यता है कि क्षेत्र का भगोर नाम का गाँव देवी माँ के श्राप के कारण उजड़ गया था वहाँ के राजा ने देवी की प्रसन्नता के लिए गाँव के नाम पर वार्षिक मेले का आयोजन शुरु कर दिया। चूँकि यह मेला भगोर से शुरू हुआ, इसलिए इसका नाम भगोरिया रख दिया गया। वैसे इसे गुलालिया हाट यानी गुलाल फेंकने वालों का हाट भी कहा जाता है।


भील, भिलाला एवं पटलिया जनजाति अपनी परंपरा के अनुसार उत्साह से नाचते-गाते हुए भगोरिया हाट में आते हैं इस पर्व की खास बात ये भी है कि आदिवासी अपनी जन्मभूमि , अपने गाँव से कितनी ही दूर क्यों हो, लेकिन भगोरिया के रुप में माटी की पुकार पर वो "अपने देस" दौड़ा चला आता है पलायन कर चुके आदिवासी इस पर्व का आनंद लेने के लिए अपने घर लौट आते हैं

इसके साथ ही भगोरिया हाट भीलों की जीवन रेखा भी है कहते हैं भील साल भर हाड़ तोड़ मेहनत - मजदूरी करते हैं और भगोरिया में अपना जमा धन लुटाते हैं। यहाँ से ही वे अनाज और कई तरह का सौदा - सुलफ़ लेते हैं यहीं गीत-संगीत और नृत्य में शामिल हो मनोरंजन करते हैं।

भगोरिया प्राचीन समय में होने वाले स्वयंवर का जनजातीय स्वरूप है इन हाट-बाजारों में युवक-युवती बेहद सजधज कर जीवनसाथी ढूँढने आते हैं देवता की पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता है उत्सव पूजा के बाद बुजुर्ग पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करते हैं और युवाओं की निगाहें भीड़ में मनपसंद जीवनसाथी तलाशती हैं फिर होता है प्रेम के इजहार का सिलसिला......

युवतियों का श्रृंगार तो दर्शनीय होता ही है, युवक भी उनसे पीछे नहीं रहते लाल-गुलाबी, हरे-पीले रंग के फेटे, कानों में चाँदी की लड़ें, कलाइयों और कमर में कंदोरे, आँखों पर काला चश्मा और पैरों में चाँदी के मोटे कड़े पहने नौजवानों की टोलियाँ हाट की रंगीनी बढाती हैं वहीं जामुनी, कत्थई, काले, नीले, नारंगी आदि चटख-शोख रंग में भिलोंडी लहँगे और ओढ़नी पहने, सिर से पाँव तक चाँदी के गहनों से सजी अल्हड़-बालाओं की शोखियाँ भगोरिया की मस्ती को सुरुर में तब्दील कर देती हैं

आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है नाच-गाने और मेले में घूमने के दौरान बात बन जाने पर लड़का पहल करता है पान की गिलौरी देकर....... लड़की पान का बीड़ा चबा कर प्रणय निवेदन को स्वीकृति देती है और फ़िर दोनों भाग कर शादी कर लेते हैं।

पहले इस रस्म को निभाने में काफी खून-खराबा होता था लेकिन अब प्रशासन की चुस्त व्यवस्था से पिछले कुछ सालों में कोई भी अप्रिय घटना नहीं हुई। मेलों में अब सशस्त्र बल और घुड़सवार पुलिस की तैनाती से अब मामला हिंसक नहीं हो पाता

इसी तरह यदि लड़का लड़की के गाल पर गुलाबी रंग लगा दे और जवाब में लड़की भी लड़के के गाल पर गुलाबी रंग मल दे तो भी रिश्ता तय माना जाता है। कुछ जनजातियों में चोली और तीर बदलने का रिवाज है। वर पक्ष लड़की को चोली भेजता है। यदि लड़की चोली स्वीकार कर बदले में तीर भेज दे तब भी रिश्ता तय माना जाता है। इस तरह भगोरिया भीलों के लिए विवाह बंधन में बँधने का अनूठा त्योहार भी है।


हाथ में रंगीन रुमाल और तीर - कमान थामे ढोल- मांदल की थाप और ठेठ आदिवासी गीतों पर थिरकते कदम माहौल में मस्ती घोल देते हैं गुड़ की जलेबी और बिजली से चलने वाले झूलों से लेकर लकड़ी के हिंडोले तक दूर-दूर तक बिखरी शोखी पहचान है भगोरिया की


पूरे वर्ष हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले आदिवासी युवक-युवती इंतजार करते हैं इस उत्सव का जब वे झूमेंगे नाचेंगे गाएँगे, मौसम की मदमाती ताल पर बौरा जाएँगे। फिर उनके पास 'भगौरिया' भी तो है , निःसंकोच जीवनसंगी चुनने और इस चुनाव का बेलौस इज़हार करने का मौका इस अवसर को उन्होंने मदमाते मौसम में ही मनाना तय किया जो अपने आपमें उत्सव की प्रासंगिकता को और भी बढ़ा देता है।

भगोरिया हाटों में अब परंपरा की जगह आधुनिकता हावी होती दिखाई देने लगी है। चाँदी के गहनों के साथ-साथ अब मोबाइल चमकाते भील जगह-जगह दिखते हैं। ताड़ी और महुए की शराब की जगह अब अंग्रेजी शराब का सुरूर सिर चढ़कर बोलता है। वहीं छाछ-नींबू पानी की जगह कोला पसंद किया जा रहा है। आदिवासी युवक नृत्य करते समय काले चश्मे लगाना पसंद कर रहे हैं वहीं युवतियाँ भी आधुनिकता के रंग में रंगती जा रही हैं।पढ़े-लिखे नौजवान अब भगोरिया में शामिल नहीं होना चाहते वहीं अब वे केवल एक उत्सव के समय अपने जीवनसाथी को चुनने से परहेज भी कर रहे हैं इस दौरान होने वाली शादियों में कमी रही है।

भगोरिया के आदर्शों, गरिमाओं और भव्यता के आगे योरप और अमेरिका के प्रेम पर्वों की संस्कृतियाँ भी फीकी हैं, क्योंकि भगोरिया अपनी पवित्रता, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर से ओत-प्रोत है। इसलिए यह सारे विश्व में अनूठा और पवित्र पर्व है।

आदिवासियों को विकास की मुख्य धारा से पिछड़ा मानने वाले हम लोग यदि इनकी परंपराओं पर बारीकी से नजर डालें तो पाएँगे कि जिन परंपराओं के अभाव में हमारा समाज तनावग्रस्त है वे ही इन वनवासियों ने बखूबी से विकसित की हैं। तथाकथित सभ्य और पढे - लिखे समाज के लिए सोचने का विषय है कि हमारे पास अपनी युवा पीढ़ी को देने के लिए क्या है ? क्या हमारे पास हैं ऐसे कुछ उत्सव जो सिर्फ और सिर्फ प्रणय-परिणय से संबंधित हों ? आदिवासी इस मामले में भी हमसे अधिक समृद्ध हैं।