देश-दुनिया में टाइगर स्टेट के रुप में ख्याति पाने वाले मध्यप्रदेश को बाघ विहीन करने के लिये कुख्यात वन विभाग ने अब प्रदेश के जंगलों पर हाथ साफ़ करने का मन बनाया है । बरसों सरकारी तनख्वाह के साथ - साथ जंगल की कमाई खाने वाले अफ़सरों और नेताओं की नीयत एक बार फ़िर डोल गई है । प्रदेश के गठन के वक्त करीब चालीस फ़ीसदी वन क्षेत्र को साफ़ कर आठ प्रतिशत तक पहुँचाने वालों की निगाह अब जंगल की ज़मीन पर पड़ गई है ।
अफ़सरों ने मुख्यमंत्री और मंत्री को पट्टी पढ़ा दी है कि मंदी के दौर में अगर सरकार की आमदनी बढ़ानी है ,तो जंगल की ज़मीन निजी हाथों में सौंपने से बढ़िया कोई और ज़रिया नहीं है । जनता की ज़मीन को नेता ,अधिकारी और उद्योगपति अपनी बपौती मान बैठे हैं और इस दौलत की बंदरबाँट की तैयारी में जुट गये हैं । टाइगर रिज़र्व के नाम पर अरबों- खरबों रुपए फ़ूँकने के बाद बाघों को कागज़ों में समेट देने वालों को जंगल का सफ़ाया करके भी चैन नहीं आ रहा । अब वे औद्योगिक घरानों की मदद से घने जंगल तैयार करने की योजना को अमली जामा पहनाने में जुट गये हैं ।
इसी सिलसिले में कुछ तथाकथित जानकारों की राय जानने के लिये भोपाल में वन विभाग ने संगोष्ठी का आयोजन किया ,जिसमें रिलायंस, टाटा, आईटीसी, रुचि सोया जैसी नामी गिरामी कम्पनियों के प्रतिनिधि मौजूद थे । कार्यशाला का लब्बो लुआब यही था कि अगर वनों को बचाना है , तो इन्हें निजी हाथों में सौंप देना ही एकमात्र विकल्प है । क्योटो प्रोटोकॉल, क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज़्म के तहत वनीकरण और पुनर्वनीकरण परियोजनाओं पर केन्द्रित कार्यशाला में मुख्यमंत्री ने दलील दी कि सरकार प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर औद्योगिकीकरण नहीं करना चाहती । सरकार की कोशिश है कि जंगल बचाकर उद्योग-धंधे विकसित किये जाएँ । एक्सपर्ट ने एक सुर में सलाह दे डाली कि जंगल बचाना है ,तो निजी भागीदारी ज़रुरी है । यानी प्रदेश में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के ज़रिये जंगल बचाये और बढ़ाये जाने की बात हो रही है ।
सूबे के मुखिया शिवराज सिंह चौहान का मानना है कि पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन कायम रखना समाज की ज़िम्मेदारी है । मुख्यमंत्री हर काम की ज़िम्मेदारी जनता और समाज पर डालते रहे हैं । सवाल यही है कि जब हर काम समाज को ही करना है ,तो सरकार की ज़रुरत ही क्या है ? बँटाढ़ार करने,मलाई सूँतने के लिये मंत्री और सरकारी अमला है और कर का बोझा ढ़ोने तथा काम करने के लिये जनता है ।
उधर "अँधेर नगरी के चौपट राजा" के नवरत्नों की सलाह पर जंगल के निजीकरण के पक्ष में वन विभाग का तर्क है कि प्रदेश के करीब 95 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 36 लाख हैक्टेयर की हालत खस्ता है । उसे फ़िर से विकसित करने के लिये करोड़ों रुपयों की दरकार होगी । सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपने दम पर जंगल खड़ा कर सके । उनकी नज़र में धन्ना सेठों से बेहतर इस ज़िम्मेदारी को भला कौन अच्छे ढंग से अंजाम दे सकता है ? लिहाज़ा सरकार ने प्रदेश के जंगलों को प्राइवेट कंपनियों के हवाले करने का मन बना लिया है । वह दिन दूर नहीं जब प्रदेश के विशाल भू भाग के जंगल औद्योगिक घरानों की मिल्कियत बन जाएँगे । वैसे यहाँ इस बात का ज़िक्र बेहद ज़रुरी हो जाता है कि जनता की ज़मीन को ठिकाने लगाने की रणनीति जंगल विभाग के आला अफ़सरान काफ़ी लम्बे समय से तैयार करने में जुटे थे । करीब छह महीने पहले वन विभाग ने इसका खाका तैयार कर लिया था ।
सरकार को मंदी से उबारने के लिये अफ़सरों ने सुझाव दे डाला कि प्रदेश में जंगलों के नाम पर हज़ारों एकड़ ज़मीन बेकार पड़ी है ,यह ज़मीन ना तो विभाग के लिये उपयोगी है और ना ही किसी अन्य काम के लिये । रायसेन, विदिशा, ग्वालियर, शिवपुरी, कटनी सहित कई ज़िलों में हज़ारों एकड़ अनुपयोगी ज़मीन है । इसी तरह शहरों के आसपास के जंगलों की अनुपयोगी ज़मीन को व्यावसायिक उपयोग के लिये बेच कर चार से पाँच हज़ार करोड़ रुपए खड़े कर लेने का मशविरा भी दे डाला । इसके लिये केन्द्र सरकार से अनुमति लेकर बाकायदा नियम कायदे बनाने तक की बात कही गई थी ।
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में वर्ष 1956-57 के दौरान करीब 39.5 फ़ीसदी वन क्षेत्र था , जो अब महज़ 8 प्रतिशत रह गया है । एक सर्वे के मुताबिक पिछले चार दशकों में प्रदेश के 18 हज़ार 98 वर्ग किलोमीटर से भी ज़्यादा वनों का विनाश हुआ है । पूरे देश में वनों के विनाश की तुलना में अकेले मध्यप्रदेश में 43 फ़ीसदी जंगलों का सफ़ाया कर दिया गया । इस बीच वन अमला कार्यों से ज़्यादा अपने कारनामों के लिये सुर्खियों में रहा है । वन रोपणियों के संचालन पर करोड़ों रुपए फ़ूँकने के बावजूद ना आमदनी बढ़ी और ना ही वन क्षेत्रों में इज़ाफ़ा हो सका ।
वन विभाग में आमतौर पर इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के व्यवसाय से होने वाली आय में प्रति वर्ष 15 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी होती है लेकिन इस साल ऐसा नहीं हुआ। यह आय बढ़ने की बजाय पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 3 करोड़ रुपए घट गई। इसके विपरीत विभाग का खर्च 10 करोड़ बढ़ गया। वह तो भला हो तेंदूपत्ता व्यापार का, अनुकूल स्थिति के चलते उसकी आय में इजाफा हुआ और वन विभाग को अपनी इज्जत ढ़ाँकने का मौका मिल गया। इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के राजकीय व्यापार की आय में कमी से वन विभाग के आला अफसरों की मंशा पर उंगली उठने लगी है। आय में कमी की वजह अफसरों एवं ठेकेदारों के बीच सांठगांठ को माना जा रहा है।
विभागीय सूत्रों के अनुसार वर्ष 2008 में वन विभाग को इमारती लकड़ी के राजकीय व्यापार से 483 करोड़, बांस से 37 तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ रुपए अर्थात कुल 521 करोड़ रुपए की आय हुई थी। लेकिन वर्ष 2009 की जो आय वन राज्य मंत्री राजेंद्र शुक्ल ने विधानसभा में बताई वह इमारती लकड़ी के व्यापार से 489 करोड़, बांस से 28 करोड़ तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ है। आमतौर पर वन विभाग में इन मदों से होने वाली आय में 15 फीसदी की बढ़ोत्तरी होती है, इस लिहाज से आय 599 करोड़ होना चाहिए थी।
आय में कमी को बड़े घपले के रूप में देखा जा रहा है । हर वर्ष बढ़ने वाली यह आय क्यों नहीं बढ़ी, इसे लेकर विभाग के जानकार हैरान हैं । उनका कहना है, तेंदूपत्ता के व्यापार में तो प्रकृति का असर पड़ता है लेकिन इमारती लकड़ी, बांस और खैर पर प्राकृतिक प्रकोप असरकारी नहीं होता। मजेदार तथ्य यह भी है कि "आमदनी अठन्नी ,खर्चा रुपय्या" की तर्ज़ पर विभाग का खर्च 84 करोड़ से बढ़ कर 95 करोड़ हो गया । विधानसभा में दिये गये विभागीय आय के ब्यौरे से पता चलता है कि विभाग की इज्जत तेंदूपत्ता व्यापार की आमदनी ने बचाई।
जंगलों में बरसों से काबिज़ आदिवासियों को बेदखल करने में जुटी सरकार अफ़सरों की सलाह पर जनता की ज़मीन औद्योगिक घरानों को सौंपने जा रही है । वक्त रहते लोग नहीं चेते , तो वो दिन दूर नहीं साँस लेने के लिये विशुद्ध हवा लेने के भी दाम चुकाना होंगे और संभव है राज्य सरकार विशुध्द प्राणवायु देने के एवज़ में कर वसूली करने लगे ।