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शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

मध्यप्रदेश के जंगल बेचने की तैयारी

देश-दुनिया में टाइगर स्टेट के रुप में ख्याति पाने वाले मध्यप्रदेश को बाघ विहीन करने के लिये कुख्यात वन विभाग ने अब प्रदेश के जंगलों पर हाथ साफ़ करने का मन बनाया है । बरसों सरकारी तनख्वाह के साथ - साथ जंगल की कमाई खाने वाले अफ़सरों और नेताओं की नीयत एक बार फ़िर डोल गई है । प्रदेश के गठन के वक्त करीब चालीस फ़ीसदी वन क्षेत्र को साफ़ कर आठ प्रतिशत तक पहुँचाने वालों की निगाह अब जंगल की ज़मीन पर पड़ गई है ।

अफ़सरों ने मुख्यमंत्री और मंत्री को पट्टी पढ़ा दी है कि मंदी के दौर में अगर सरकार की आमदनी बढ़ानी है ,तो जंगल की ज़मीन निजी हाथों में सौंपने से बढ़िया कोई और ज़रिया नहीं है । जनता की ज़मीन को नेता ,अधिकारी और उद्योगपति अपनी बपौती मान बैठे हैं और इस दौलत की बंदरबाँट की तैयारी में जुट गये हैं । टाइगर रिज़र्व के नाम पर अरबों- खरबों रुपए फ़ूँकने के बाद बाघों को कागज़ों में समेट देने वालों को जंगल का सफ़ाया करके भी चैन नहीं आ रहा । अब वे औद्योगिक घरानों की मदद से घने जंगल तैयार करने की योजना को अमली जामा पहनाने में जुट गये हैं ।

इसी सिलसिले में कुछ तथाकथित जानकारों की राय जानने के लिये भोपाल में वन विभाग ने संगोष्ठी का आयोजन किया ,जिसमें रिलायंस, टाटा, आईटीसी, रुचि सोया जैसी नामी गिरामी कम्पनियों के प्रतिनिधि मौजूद थे । कार्यशाला का लब्बो लुआब यही था कि अगर वनों को बचाना है , तो इन्हें निजी हाथों में सौंप देना ही एकमात्र विकल्प है । क्योटो प्रोटोकॉल, क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज़्म के तहत वनीकरण और पुनर्वनीकरण परियोजनाओं पर केन्द्रित कार्यशाला में मुख्यमंत्री ने दलील दी कि सरकार प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर औद्योगिकीकरण नहीं करना चाहती । सरकार की कोशिश है कि जंगल बचाकर उद्योग-धंधे विकसित किये जाएँ । एक्सपर्ट ने एक सुर में सलाह दे डाली कि जंगल बचाना है ,तो निजी भागीदारी ज़रुरी है । यानी प्रदेश में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के ज़रिये जंगल बचाये और बढ़ाये जाने की बात हो रही है ।

सूबे के मुखिया शिवराज सिंह चौहान का मानना है कि पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन कायम रखना समाज की ज़िम्मेदारी है । मुख्यमंत्री हर काम की ज़िम्मेदारी जनता और समाज पर डालते रहे हैं । सवाल यही है कि जब हर काम समाज को ही करना है ,तो सरकार की ज़रुरत ही क्या है ? बँटाढ़ार करने,मलाई सूँतने के लिये मंत्री और सरकारी अमला है और कर का बोझा ढ़ोने तथा काम करने के लिये जनता है ।

उधर "अँधेर नगरी के चौपट राजा" के नवरत्नों की सलाह पर जंगल के निजीकरण के पक्ष में वन विभाग का तर्क है कि प्रदेश के करीब 95 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 36 लाख हैक्टेयर की हालत खस्ता है । उसे फ़िर से विकसित करने के लिये करोड़ों रुपयों की दरकार होगी । सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपने दम पर जंगल खड़ा कर सके । उनकी नज़र में धन्ना सेठों से बेहतर इस ज़िम्मेदारी को भला कौन अच्छे ढंग से अंजाम दे सकता है ? लिहाज़ा सरकार ने प्रदेश के जंगलों को प्राइवेट कंपनियों के हवाले करने का मन बना लिया है । वह दिन दूर नहीं जब प्रदेश के विशाल भू भाग के जंगल औद्योगिक घरानों की मिल्कियत बन जाएँगे । वैसे यहाँ इस बात का ज़िक्र बेहद ज़रुरी हो जाता है कि जनता की ज़मीन को ठिकाने लगाने की रणनीति जंगल विभाग के आला अफ़सरान काफ़ी लम्बे समय से तैयार करने में जुटे थे । करीब छह महीने पहले वन विभाग ने इसका खाका तैयार कर लिया था ।

सरकार को मंदी से उबारने के लिये अफ़सरों ने सुझाव दे डाला कि प्रदेश में जंगलों के नाम पर हज़ारों एकड़ ज़मीन बेकार पड़ी है ,यह ज़मीन ना तो विभाग के लिये उपयोगी है और ना ही किसी अन्य काम के लिये । रायसेन, विदिशा, ग्वालियर, शिवपुरी, कटनी सहित कई ज़िलों में हज़ारों एकड़ अनुपयोगी ज़मीन है । इसी तरह शहरों के आसपास के जंगलों की अनुपयोगी ज़मीन को व्यावसायिक उपयोग के लिये बेच कर चार से पाँच हज़ार करोड़ रुपए खड़े कर लेने का मशविरा भी दे डाला । इसके लिये केन्द्र सरकार से अनुमति लेकर बाकायदा नियम कायदे बनाने तक की बात कही गई थी ।

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में वर्ष 1956-57 के दौरान करीब 39.5 फ़ीसदी वन क्षेत्र था , जो अब महज़ 8 प्रतिशत रह गया है । एक सर्वे के मुताबिक पिछले चार दशकों में प्रदेश के 18 हज़ार 98 वर्ग किलोमीटर से भी ज़्यादा वनों का विनाश हुआ है । पूरे देश में वनों के विनाश की तुलना में अकेले मध्यप्रदेश में 43 फ़ीसदी जंगलों का सफ़ाया कर दिया गया । इस बीच वन अमला कार्यों से ज़्यादा अपने कारनामों के लिये सुर्खियों में रहा है । वन रोपणियों के संचालन पर करोड़ों रुपए फ़ूँकने के बावजूद ना आमदनी बढ़ी और ना ही वन क्षेत्रों में इज़ाफ़ा हो सका ।

वन विभाग में आमतौर पर इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के व्यवसाय से होने वाली आय में प्रति वर्ष 15 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी होती है लेकिन इस साल ऐसा नहीं हुआ। यह आय बढ़ने की बजाय पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 3 करोड़ रुपए घट गई। इसके विपरीत विभाग का खर्च 10 करोड़ बढ़ गया। वह तो भला हो तेंदूपत्ता व्यापार का, अनुकूल स्थिति के चलते उसकी आय में इजाफा हुआ और वन विभाग को अपनी इज्जत ढ़ाँकने का मौका मिल गया। इमारती लकड़ी, बांस तथा खैर के राजकीय व्यापार की आय में कमी से वन विभाग के आला अफसरों की मंशा पर उंगली उठने लगी है। आय में कमी की वजह अफसरों एवं ठेकेदारों के बीच सांठगांठ को माना जा रहा है।

विभागीय सूत्रों के अनुसार वर्ष 2008 में वन विभाग को इमारती लकड़ी के राजकीय व्यापार से 483 करोड़, बांस से 37 तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ रुपए अर्थात कुल 521 करोड़ रुपए की आय हुई थी। लेकिन वर्ष 2009 की जो आय वन राज्य मंत्री राजेंद्र शुक्ल ने विधानसभा में बताई वह इमारती लकड़ी के व्यापार से 489 करोड़, बांस से 28 करोड़ तथा खैर के व्यापार से लगभग एक करोड़ है। आमतौर पर वन विभाग में इन मदों से होने वाली आय में 15 फीसदी की बढ़ोत्तरी होती है, इस लिहाज से आय 599 करोड़ होना चाहिए थी।

आय में कमी को बड़े घपले के रूप में देखा जा रहा है । हर वर्ष बढ़ने वाली यह आय क्यों नहीं बढ़ी, इसे लेकर विभाग के जानकार हैरान हैं । उनका कहना है, तेंदूपत्ता के व्यापार में तो प्रकृति का असर पड़ता है लेकिन इमारती लकड़ी, बांस और खैर पर प्राकृतिक प्रकोप असरकारी नहीं होता। मजेदार तथ्य यह भी है कि "आमदनी अठन्नी ,खर्चा रुपय्या" की तर्ज़ पर विभाग का खर्च 84 करोड़ से बढ़ कर 95 करोड़ हो गया । विधानसभा में दिये गये विभागीय आय के ब्यौरे से पता चलता है कि विभाग की इज्जत तेंदूपत्ता व्यापार की आमदनी ने बचाई।

जंगलों में बरसों से काबिज़ आदिवासियों को बेदखल करने में जुटी सरकार अफ़सरों की सलाह पर जनता की ज़मीन औद्योगिक घरानों को सौंपने जा रही है । वक्त रहते लोग नहीं चेते , तो वो दिन दूर नहीं साँस लेने के लिये विशुद्ध हवा लेने के भी दाम चुकाना होंगे और संभव है राज्य सरकार विशुध्द प्राणवायु देने के एवज़ में कर वसूली करने लगे ।

शनिवार, 14 मार्च 2009

अब बाघिनें भी चलीं ससुराल.........


बाघों का कुनबा बढ़ाने की अफ़लातूनी कवायद से मध्यप्रदेश के प्रकृति प्रेमी खासे नाराज़ और वन्य जीव विशेषज्ञ हैरान हैं । बाघों की तादाद बढाने के लिए शुरु की गई मुहिम को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं । लेकिन वन विभाग के आला अफ़सरान इन आपत्तियों को सिरे से खारिज कर बाघों की संख्या बढाने की दुहाई दे रहे हैं । ये और बात है कि जब से प्रोजेक्ट टाइगर शुरु हुआ है बाघों की मौत का सिलसिला तेज़ हो गया है । गोया यह परियोजना बाघों की मौत सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई गई है ।

हेलीकॉप्टर से बाघिन पहुँचाने की परियोजना सरिस्का के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शुरु की गई है । लेकिन परियोजना का उद्देश्य अपनी मोटी बुद्धि में तो घुसता ही नहीं । इधर प्रदेश में बाघों की वंशवृद्धि के लिए नई तरकीबें आज़मायी जा रही हैं , उधर बाघों की मौतों के बढते ग्राफ़ ने तमाम सवाल भी खड़े कर दिये हैं ।

हाल ही में सुरक्षा के सख्त इंतज़ाम के बीच वायुसेना के उड़नखटोले से बाघिन को पन्ना लाया गया । कान्हा नेशनल पार्क में सैलानियों को लुभा रही बाघिन अब अपने पिया के घर पन्ना नेशनल पार्क की रौनक बन गई है । इससे पहले तीन मार्च को बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में गुमनाम ज़िन्दगी गुज़ार रही बाघिन सड़क के रास्ते पन्ना पहुँची । पन्ना के बाघ महाशय के लिए पाँच दिनों में दो बाघिन भेजकर वन विभाग योजना की सफ़लता के "दिवा स्वप्न” देख रहा है ।

मध्यप्रदेश में आए दिन बाघों के मरने की खबरें आती हैं । पिछले हफ़्ते कान्हा नेशनल पार्क में एक बाघ की मौत हो गई । वन विभाग ने स्थानीय संवाददाताओं की मदद से इस मौत को दो बाघों की लड़ाई का नतीजा बताने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया । वीरान घने जंगल में मरे जानवर की मौत के बारे में बिना किसी जाँच पड़ताल के तुरंत उसे बाघों का संघर्ष करार दे देना ही संदेह की पुष्टि का आधार बनता है । खैर , वन विभाग के जंगल नेताओं और अधिकारियों की चारागाह में तब्दील हो चुके हैं , अब इसमें कहने- सुनने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा ।

पिछले दो माह के दौरान कान्हा में बाघ की मौत की यह तीसरी घटना है । इसी अवधि में बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में भी बाघ की मौत हो चुकी है । बुधवार को इंदौर चिड़ियाघर में भी "बाँके" नाम के बाघ ने फ़ेंफ़ड़ों में संक्रमण के कारण एकाएक दम तोड़ दिया । भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार में भी अब तक संभवतः तीन से ज़्यादा बाघों की मौत हो चुकी हैं । पन्ना नेशनल पार्क में बाघों की तादाद तेज़ी से घटी है । वर्ष 2005 में यहाँ 34 बाघ थे । इनमें 12 नर और 22 मादा थीं । 2006-2007 की भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की गणना में यह आँकड़ा 24 रह गया ।

बाघिन को स्थानांतरित करने की मुहिम पर स्थानीय लोगों ने ही नहीं , देश के जानेमाने वन्यजीव विशेषज्ञों ने भी आपत्ति उठाई है । उन्होंने प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को खत लिखकर अभियान रोकने की गुज़ारिश की थी । वन्य संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञ बृजेन्द्र सिंह ,वाल्मिक थापर , डॉक्टर उल्हास कारंत , डॉक्टर आर. एस. चूड़ावत , पी. के. सेन , बिट्टू सहगल , फ़तेह सिंह राठौर और बिलिन्डा राइट ने बाघिन को बाँधवगढ़ से पन्ना ले जाने के बाद 7 मार्च को पत्र भेजा था । इसमें राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और जानेमाने बाघ विशेषज्ञों से इस मुद्दे पर राय मशविरा नहीं करने पर एतराज़ जताया गया है ।

विशेषज्ञों ने वन कानून और अपने अनुभव के आधार पर कई अहम मुद्दे रखे हैं , जिनके मुताबिक पन्ना की मौजूदा परिस्थितियाँ बाघिनों के स्थान परिवर्तन के लिए कतई अनुकूल नहीं हैं । साथ ही ऎसा मुद्दा भी उठाया है जो वन विभाग की पूरी कवायद पर ही सवालिया निशान लगाता है । पत्र में पिछले एक महीने में पन्ना टाइगर रिज़र्व में किसी भी बाघ के नहीं दिखने का ज़िक्र किया गया है ।

हालाँकि पूरी कवायद फ़िलहाल अँधेरे में तीर चलाने जैसी है । जो सूरते हाल सामने आए हैं , उसके मुताबिक वन विभाग ही आश्‍वस्त नहीं है कि पन्ना में कोई बाघ बचा भी है या नहीं ....? तमाम विरोध और भारी मशक्कत के बीच दो बाघिनें पन्ना तक तो पहुँच गईं , मगर नेशनल पार्क में नर बाघ होने को लेकर वन विभाग भी संशय में है । दरअसल पार्क का इकलौता नर बाघ काफ़ी दिनों से नज़र नहीं आ रहा है ।

प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉक्टर पी. बी. गंगोपाध्याय का कहना है कि ज़रुरी हुआ तो एक-दो नर बाघ भी पन्ना लाये जा सकते हैं । बाघों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए पिछले दिनों भारतीय वन्यजीव संस्थान ने कैमरे लगाये थे , जिनसे पता चला कि पार्क में सिर्फ़ एक ही बाघ बचा है ।

बाघ संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे बाँधवगढ़ फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष पुष्पराज सिंह इस वक्त बाघिन के स्थानांतरण को जोखिम भरा मानते हैं । गर्मियों में पन्ना के जलाशय सूख जाने से बाघों को शाकाहारी वन्यजीवों का भोजन मिलना दूभर हो जाता है । ऎसे में वे भटकते हुए गाँवों के सीमावर्ती इलाकों में पहुँच जाते हैं और कभी शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या फ़िर ग्रामीणों के हाथों मारे जाते हैं । कान्हा की बाघिन को पन्ना ले जाने से रोकने में नाकाम रहे वन्यप्राणी प्रेमियों ने अब बाघिन की सुरक्षा को मुद्दा बना लिया है । अधिकारियों की जवाबदेही तय कराने के लिए हाईकोर्ट में अर्ज़ी लगाई गई है ।

जानकारों का ये तर्क एकदम जायज़ लगता है कि पन्ना को सरसब्ज़ बनाने का सपना देखने और इसकी कोशिश करने का वन विभाग को हक तो है , मगर साथ ही यह दायित्व भी है कि वह उन कारणों को पता करे जो पन्ना से बाघों के लुप्त होने का सबब बने । बाहर से लाये गये बाघ-बाघिनों की हिफ़ाज़त के लिहाज़ से भी इन कारणों का पता लगना बेहद ज़रुरी हो जाता है ।

मध्यप्रदेश के वन विभाग के अफ़सरों की कार्यशैली के कुछ और नमूने पेश हैं ,जो वन और वन्य जीवों के प्रति उनकी गंभीरता के पुख़्ता सबूत हैं -
सारे भारत में वेलंटाइन डे को लेकर हर साल बवाल होता है , लेकिन वन विभाग के उदारमना अफ़सरों का क्या कीजिएगा जो वन्य प्राणियों के लिए भी "वेलंटाइन हाउस" बनवा देते हैं । भोपाल के वन विहार के जानवर पर्यटकों की आवाजाही से इस कदर परेशान रहते हैं कि वे अपने संगी से दो पल भी चैन से मीठे बोल नहीं बोल पाते । एकांत की तलाश में मारे-मारे फ़िरते इन जोड़ों ने एक दिन प्रभारी महोदय के कान में बात डाल दी और उन महाशय ने आनन-फ़ानन में तीन लाख रुपए ख़र्च कर इन प्रेमियों के मिलने का ठिकाना "वेलंटाइन हाउस" खड़ा करा दिया । कुछ सीखो बजरंगियों,मुथालिकों,शिव सैनिकों ....। प्रेमियों को मिलाने से पुण्य मिलता है और अच्छी कमाई भी होती है ।

इन्हीं अफ़सर ने वन्य प्राणियों की रखवाली के लिए वन विहार की ऊँची पहाड़ी पर दस लाख रुपए की लागत से तीन मंज़िला वॉच टॉवर बनवा दिया । भोपाल का वन विहार यूँ तो काफ़ी सुरक्षित है , लेकिन जँगली जानवर होते बड़े चालाक हैं । वन कर्मियों की नज़र बचा कर कभी भालू , तो कभी बंदर , तो कभी मगर भोपालवासियों से मेल मुलाकात के लिए निकल ही पड़ते हैं । तिमँज़िला वॉच टॉवर पर टँगा कर्मचारी बेचारा चिल्लाता ही रह जाता है ।