कहते हैं वक्त बदलते वक्त नहीं लगता। यह कहावत भारतीय राजनीति के मौजूदा दौर पर शब्दशः चरितार्थ हो रही है । कल तक जो नेता मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी से अपने समर्थन की भरपूर कीमत वसूलते थे और आये दिन आँखें भी तरेरते थे, वे ही आज बिन माँगा समर्थन देने के लिये ना सिर्फ़ उतावले हैं,बल्कि राष्ट्रपति को चिट्ठी देने के लिये दौड़े चले जा रहे हैं। मज़े की बात ये भी है कि जो काम वे खुद कर रहे हैं, वही काम करने वाले प्रतिद्वंद्वी उनकी नज़र में अवसरवादी और मौकापरस्त हैं।
परमाणु करार के बहाने सरकार के नीचे से ज़मीन खींच लेने का मुग़ालता पालने वाले वामपंथियों को राजनीति के महान दलाल ने करारी शिकस्त दे दी। गु़स्से से लाल हो रहे वामपंथियों को ममता बनर्जी की आड़ में जनता ने इस कदर धो डाला कि अब करात दंपति के साथ साथ सभी का चेहरा ज़र्द पड़ गया है। यूपीए गठबँधन में शामिल तीन तरह की काँग्रेस ने कुछ और सहयोगियों की मदद से विरोधी खेमे के सभी रंग उड़ा दिये हैं।
मायावती का हाथी भी सत्ता की चौखट पर हीला-हवाला किये बग़ैर बँधने को आतुर है। चार बार उत्तर प्रदेश की मुखिया की ज़िम्मेदारी सम्हालने वाली मायावती की निगाह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर लगी थी। हो भी क्यों ना आखिर वे एक दलित की बेटी हैं। इसी नाते हक़ है उनका ख्वाब देखने का। खैर हाल फ़िलहाल यह सपना टूट गया तो क्या, वो नहीं बड़ा भाई ही सही कुर्सी तो घर में ही है । माया मेम साब ने जनता को याद दिलाया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें अपनी छोटी बहन बता चुके हैं ।
ये सब वही लोग हैं जो कल तक कह रहे थे-हमारे सारे विकल्प खुले हुए हैं। हम काँग्रेस के साथ भी जा सकते हैं, भाजपा और तीसरे मोर्चे के साथ भी। सभी ने अजीब सी रहस्यमयी मुस्कुराहट पहन ली थी । हर कोई १६मई के इंतज़ार की बात कह अपने पत्ते खोलने से बच रहा था। यहाँ तक कि वामपंथी दल भी, जो तीसरा मोर्चा बनाए बैठे थे। नीतिश कुमार ने भी अपनी दुकान खूब सजाई और तख्ती टाँग दी कि बिहार को विशेष पैकेज दो और हमारा समर्थन ले जाओ । सब अपनी छोटी-छोटी दुकानें सजाए बैठे थे। १६ मई आए और मैं ग्राहक की जेब खाली कराऊँ......।
तय तारीख आई और चली गई। सजी हुई दुकानों पर किसी ने झूठमूठ भी भाव तक नहीं पूछा। शाम तक दुकानों पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगीं। दुकानदार में इतना उत्साह भी नहीं रहा कि उन्हें भगाए। रात होने से पहले-पहले दुकानों पर ताले जड़ गए। सारे विकल्प खोलकर बैठने वाले अब गली-गली फ़ेरी लगा रहे हैं । ठेले पर बिक रहे समर्थन का कोई खरीददार नहीं है। टेर लगाने वालों के गले सूख गये हैं और बिकाऊ माल सड़ने की आशंका में चेहरे मुरझा गये हैं । कल तक अपनी शर्तों पर साथ देने वाले आज बिना शर्त सत्ता के दरवाज़े खूँटे से बँधी गाय बनने को बेताब हैं,लेकिन खरीददार इतना बेरहम हो सकता है ये इन सबने कभी सोचा नहीं था ।
अब ये तो बेरहमी की इंतेहा हो गई । वे बेचारे इसके बदले कुछ माँग भी तो नहीं रहे। उन्हें मंत्री पद की चाहत भी नहीं । वे तो बस काँग्रेस का हाथ अपने साथ चाहते हैं। वे चाहते हैं तो बस इतना कि यूपीए में थोड़ी सी जगह मिल जाये। हम सत्ताधारी पार्टी कहलाएँ,बस इतना-सा संदेश पूँजीपतियों तक जाना चाहिए। बाकी हम अपना इंतजाम खुद कर लेंगे। वे समर्थन देना चाहते हैं और कांग्रेस है कि ले नहीं रही है। कोई धेले को पूछ नहीं रहा। बिहार के चतुर-सुजानों की सारी हेकड़ी धरी की धरी रह गई ।
उधर साइकल की हवा निकल चुकी है,लेकिन इससे क्या? पुराने रिश्ते यूँ पल में झटके से नहीं टूट जाया करते । दिग्विजय सिंह,कमलनाथ जैसे "छुटभैये नेता" अमरसिंह सरीखे महानतम राजनीतिज्ञ पर टीका-टिप्पणी करते हुए शोभा नहीं देते । अमरवाणी के मुताबिक तीसरे और चौथे दर्ज़े के नेताओं की छींटाकशी काँग्रेस से उनके एकतरफ़ा प्रेम की लौ को बुझा नहीं सकती । तभी तो निस्वार्थ भाव से राजनीति के ज़रिये देश सेवा पर उतारु "पॉवर ब्रोकर" महोदय देर किये बग़ैर मीडिया को दिखाते हुए समर्थन की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन पहुँच गये।
लालू की लालटेन की लौ क्या टिमटिमाने लगी,उनके चेहरे का तो मानो नूर ही चला गया । कल तक बिहार में काँग्रेस के लिये तीन सीटों से ज़्यादा नहीं छोड़ने की ज़िद पकड़े बैठे लालू आज अपना समर्थन देने पर आमादा हैं। बार-बार झिड़की खाकर भी पुराने संबंधों की दुहाई देकर लालू एक बार फ़िर सत्ता की मलाई खाने को उतावले हैं । हद तो ये है कि चुनाव के दौरान काँग्रेस पर दहाड़ने वाले लालू प्रसाद अब मिमिया रहे हैं। लेकिन फ़िर भी उनकी खिलाफ़त कर रहे काँग्रेस के दिग्गज नेताओं को दोयम दर्ज़े का बताने से बाज़ नहीं आ रहे। वे अपनी फ़रियाद सोनिया दरबार तक पहुँचाने के लिये उतावले हैं ।
आखिर सत्ता का नशा होता ही है मदमस्त कर देने वाला । जब तक कुर्सी की ताकत रहती है व्यक्ति रहता है मदहोश और जब वह हैसियत छिन जाती है तो वह बेबस और लाचार व्यक्ति " जल बिन मछली" की तरह छटपटाने लगता है । इसी लिये सत्ता सुंदरी के चारों ओर भँवरे से मँडराते ये नेता किसी कीमत पर काँग्रेस से जुदा नहीं होना चाहते । इन सभी नेताओं का दर्द और पीड़ा कमोबेश एक सी है । सितारों ने साथ छोड़ा तो सत्ता भी पकड़ से दूर चली गयी । कल तक जो अपने थे वो सब एकाएक पराये हो गये और इनमें से ज़्यादातर को डर है कि पुराने दिनों की ब्लैक मेलिंग का बदला कहीं अब गिन-गिन कर नहीं लिया जाये ।
नतीजे आने तक लालू, मुलायम,पासवान, करात,शरद पवार, लालकृष्ण आडवाणी, मायावती जैसे नेता दिन में भी प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने लगे थे । लेकिन रोज़-रोज़ की तू-तू मैं-मैं से आज़िज़ आ चुकी जनता ने ऎसा दाँव चला कि इन सभी के " दिल के अरमां आँसुओं में बह गये।" जो दल व्यक्तिवादी थे उन्हें हवा के बदले रुख के मुताबिक "शरणम गच्छामि" में ही समझदारी दिखाई दे रही है । इन मौकापरस्तों को एकतरफ़ा प्रेम से भी कोई गुरेज़ नहीं है । दरअसल इस बहाने ये सभी अपने आने वाले कल के अँधियारे को हरसंभव रोकना चाहते हैं । अब सुनहरे सपनों की बजाय अँधियारी काल कोठरी का डरावना ख्याल रातों की नींद उड़ाने लगा है ।
मंगलवार, 19 मई 2009
शनिवार, 9 मई 2009
कलाकार की आह और कराह, संस्कृति बनी चारागाह
शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पंडित कुमार गंधर्व के बेटे और मशहूर ध्रुपद गायक मुकुल शिवपुत्र के भोपाल के एक मंदिर में बदहाल स्थिति में मिलने की खबर से कला जगत में मायूसी छा गई। सरकारी अमला एक बार फ़िर समस्या से मुँह चुराता और गंभीर मुख मुद्रा बनाये सच्चाई पर पर्दा डालता दिखाई दिया। अपनी धरोहरों और संस्कृतिकर्मियों का सरकार कितना खयाल रखती है, मुकुल का मामला इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
कला और संस्कृति के संरक्षण का दम भरने वाली मध्य प्रदेश सरकार का ध्यान भी पाई-पाई के लिए मोहताज मुकुल पर तब गया ,जब उनका कोई पता नहीं चल रहा है। हालाँकि मुख्यमंत्री ने फ़क्कड़ तबियत मुकुल शिवपुत्र को ढ़ूँढ़ कर उनके सम्मानपूर्वक पुनर्वास की बात कही है। उन्होंने मुकुल को राज्य की सांस्कृतिक धरोहर बताते हुए कहा कि उनका पता लगाने की हर संभव कोशिश की जाएगी।
कम उम्र में ही शास्त्रीय संगीत में ऊंचा मुकाम हासिल करने वाले मुकुल शिवपुत्र अब भीख माँगकर गुजारा करने पर मजबूर हैं। गौर तलब है कि 53 वर्षीय मुकुल पिछले कुछ दिनों से बदहाल हालत में भोपाल के साँईं बाबा मंदिर परिसर में रह रहे थे। यहाँ तीन दिन पहले ही उनकी पहचान उजागर हुई और इसके एक दिन बाद वह गायब हो गए। कला बिरादरी ने इस पर चिंता जताई है। लेकिन इस घटना ने एक साथ कई सवालों को हमारे सामने ला खड़ा किया है। मध्यप्रदेश में कला-संस्कृति के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। उसके बावजूद प्रदेश में कलाकारों की स्थिति दयनीय बनी हुई है।
चापलूस और चाटुकार अफ़सरों से घिरे नेता आखिरकार प्रदर्शनियों,मेलों,सेमिनारों और गोष्ठियों के उदघाटन में उलझकर रह गये हैं। कुछ अधिकारी नेताओं को साधने की काबिलियत के दम पर एक साथ कई महकमों को सम्हाले हुए हैं। फ़िल्म विकास निगम बंद होने के बाद श्रीराम तिवारी ने अचानक ऎसी कौन की योग्यता हासिल कर ली कि वे एक साथ वन्या प्रकाशन,स्वराज संस्थान और संस्कृति संचालक के पद पूरी कुशलता से सम्हाल रहे हैं ? महँगी पुस्तकें छपवाकर स्टोर रुम में दीमकों के हवाले करने,महँगे निमंत्रण पत्र छपवाकर वितरित करने या राजधानी के अखबारों के तीन-चार पत्रकारों को साधकर कला संस्कृति से जुड़ी खबरों का बेहतरीन डिस्प्ले ही कला जगत के विकास और उत्थान का पैमाना हो,तो बात दूसरी है ।
सरकारी उपेक्षा झेलते हुए ध्रुपद गायिका असगरीबाई के लिये जीने से ज़्यादा मरना मुश्किल हो गया था । सरकारी तंत्र अपनी भूल स्वीकारने या सुधारने की बजाय बेहयाई से उससे पल्ला झाड़ने का प्रयास करता रहा है । एक बारगी मान भी लिया जाये कि मुकुल शराब या किसी और तरह के नशे के आदी हैं,तो क्या उनके पुनर्वास का दायित्व सरकार का नहीं ..? इतने बड़े कलाकार को लोगों से दो-दो रुपए माँगना पड़े क्या ये सरकार के दामन पर दाग नहीं ? ये नौबत क्यों आई क्या इसका पता लगाना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं । कुमार गंधर्व की विरासत को सम्हालने वाले इतने नामचीन कलाकार की देखभाल का ज़िम्मा भी क्या संस्कृति महकमा नहीं उठा सकता? यह वाकया विभाग के अफ़सरों की कार्यप्रणाली और संवेदनशीलता की कलई खोलने के लिये काफ़ी है।
मुख्यमंत्री की छबि गढ़ने का श्रेय लेने वाले एक स्वनामधन्य कवि हृदय आला अफ़सर का तर्क है कि हर कलाकार का अपना अंदाज़ होता है । जिसे हम दुर्दशा मान रहे हों,हो सकता है मुकुल शिवपुत्र को उस तरह का जीवन रास आता हो । उन्हें सरकार की ओर से किये जा रहे प्रयासों में कोई कमी नज़र नहीं आती । बल्कि वे तो इस तरह की खबरें उजागर करने वालों को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं ।
इनकी समझ की दाद देना ही चाहिए। माना कि कलाकार मस्तमौला प्रकृति का होता है। संगीत शिरोमणि पं.कुमार गंधर्व के ज्येष्ठ चिरंजीव मुकुल शिवपुत्र के बारे में ये बात काफ़ी हद तक सच भी है। उन्हें बचपन से ही घर आँगन में सुर की संगत मिली । ख्याल के अलावा भक्ति और लोकगीत पसंद करने वाले मुकुल ने संस्कृत में भी संगीत रचनाएँ तैयार कीं। सूफ़ियाना तबियत के मुकुल ऐसे गायक हैं जिन्हें अपने आपको बताने और अपना गाना सुनाने की कोई उत्तेजना नहीं है । मन लग गया तो गाएंगे-आपके जी में आए जो कर लीजिये। जैसे एक कलाकार होता है फ़क्कड़ तासीर और बिना किसी उतावली वाला । वे पूछते हैं मन की वीणा के सुरों से कि आज परमात्मा का क्या आदेश है मेरे गले के लिये। वे ऐसे कलाकार हैं ,जो बस अपने आप को सुनना चाहते हैं।
मुकुल के बहाने प्रदेश के कला कर्मियों को मौका मिला है कि वे सीधे मुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुँचा सकें । प्रदेश में सत्ता और प्रशासन से नज़दीकियाँ बढ़ाकर मलाई खाने वाले संस्कृति कर्मियों से कहीं बड़ी तादाद उन लोगों की है,जो सही मायनों में कला साधक और सृजक हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे संस्कृति विभाग में इनकी कोई सुनवाई नहीं ।
कोई कथा-कहानी के लिये कलम थामने की बजाय इलाज की खातिर खतो-किताबत में मसरुफ़ है, तो कोई दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में रचनाओं की बजाय घर का सामान एक-एक कर बेचने के लिये मजबूर है। कहते हैं साहित्यकार और कलाकार किसी भी राज्य की खुशहाली और समृद्धि का आईना होते हैं। कलाकारों की आह और कराह लेकर क्या कोई भी राज्य तरक्की के सोपान पर कदम आगे बढ़ा सकेगा ?
कला और संस्कृति के संरक्षण का दम भरने वाली मध्य प्रदेश सरकार का ध्यान भी पाई-पाई के लिए मोहताज मुकुल पर तब गया ,जब उनका कोई पता नहीं चल रहा है। हालाँकि मुख्यमंत्री ने फ़क्कड़ तबियत मुकुल शिवपुत्र को ढ़ूँढ़ कर उनके सम्मानपूर्वक पुनर्वास की बात कही है। उन्होंने मुकुल को राज्य की सांस्कृतिक धरोहर बताते हुए कहा कि उनका पता लगाने की हर संभव कोशिश की जाएगी।
कम उम्र में ही शास्त्रीय संगीत में ऊंचा मुकाम हासिल करने वाले मुकुल शिवपुत्र अब भीख माँगकर गुजारा करने पर मजबूर हैं। गौर तलब है कि 53 वर्षीय मुकुल पिछले कुछ दिनों से बदहाल हालत में भोपाल के साँईं बाबा मंदिर परिसर में रह रहे थे। यहाँ तीन दिन पहले ही उनकी पहचान उजागर हुई और इसके एक दिन बाद वह गायब हो गए। कला बिरादरी ने इस पर चिंता जताई है। लेकिन इस घटना ने एक साथ कई सवालों को हमारे सामने ला खड़ा किया है। मध्यप्रदेश में कला-संस्कृति के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। उसके बावजूद प्रदेश में कलाकारों की स्थिति दयनीय बनी हुई है।
चापलूस और चाटुकार अफ़सरों से घिरे नेता आखिरकार प्रदर्शनियों,मेलों,सेमिनारों और गोष्ठियों के उदघाटन में उलझकर रह गये हैं। कुछ अधिकारी नेताओं को साधने की काबिलियत के दम पर एक साथ कई महकमों को सम्हाले हुए हैं। फ़िल्म विकास निगम बंद होने के बाद श्रीराम तिवारी ने अचानक ऎसी कौन की योग्यता हासिल कर ली कि वे एक साथ वन्या प्रकाशन,स्वराज संस्थान और संस्कृति संचालक के पद पूरी कुशलता से सम्हाल रहे हैं ? महँगी पुस्तकें छपवाकर स्टोर रुम में दीमकों के हवाले करने,महँगे निमंत्रण पत्र छपवाकर वितरित करने या राजधानी के अखबारों के तीन-चार पत्रकारों को साधकर कला संस्कृति से जुड़ी खबरों का बेहतरीन डिस्प्ले ही कला जगत के विकास और उत्थान का पैमाना हो,तो बात दूसरी है ।
सरकारी उपेक्षा झेलते हुए ध्रुपद गायिका असगरीबाई के लिये जीने से ज़्यादा मरना मुश्किल हो गया था । सरकारी तंत्र अपनी भूल स्वीकारने या सुधारने की बजाय बेहयाई से उससे पल्ला झाड़ने का प्रयास करता रहा है । एक बारगी मान भी लिया जाये कि मुकुल शराब या किसी और तरह के नशे के आदी हैं,तो क्या उनके पुनर्वास का दायित्व सरकार का नहीं ..? इतने बड़े कलाकार को लोगों से दो-दो रुपए माँगना पड़े क्या ये सरकार के दामन पर दाग नहीं ? ये नौबत क्यों आई क्या इसका पता लगाना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं । कुमार गंधर्व की विरासत को सम्हालने वाले इतने नामचीन कलाकार की देखभाल का ज़िम्मा भी क्या संस्कृति महकमा नहीं उठा सकता? यह वाकया विभाग के अफ़सरों की कार्यप्रणाली और संवेदनशीलता की कलई खोलने के लिये काफ़ी है।
मुख्यमंत्री की छबि गढ़ने का श्रेय लेने वाले एक स्वनामधन्य कवि हृदय आला अफ़सर का तर्क है कि हर कलाकार का अपना अंदाज़ होता है । जिसे हम दुर्दशा मान रहे हों,हो सकता है मुकुल शिवपुत्र को उस तरह का जीवन रास आता हो । उन्हें सरकार की ओर से किये जा रहे प्रयासों में कोई कमी नज़र नहीं आती । बल्कि वे तो इस तरह की खबरें उजागर करने वालों को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं ।
इनकी समझ की दाद देना ही चाहिए। माना कि कलाकार मस्तमौला प्रकृति का होता है। संगीत शिरोमणि पं.कुमार गंधर्व के ज्येष्ठ चिरंजीव मुकुल शिवपुत्र के बारे में ये बात काफ़ी हद तक सच भी है। उन्हें बचपन से ही घर आँगन में सुर की संगत मिली । ख्याल के अलावा भक्ति और लोकगीत पसंद करने वाले मुकुल ने संस्कृत में भी संगीत रचनाएँ तैयार कीं। सूफ़ियाना तबियत के मुकुल ऐसे गायक हैं जिन्हें अपने आपको बताने और अपना गाना सुनाने की कोई उत्तेजना नहीं है । मन लग गया तो गाएंगे-आपके जी में आए जो कर लीजिये। जैसे एक कलाकार होता है फ़क्कड़ तासीर और बिना किसी उतावली वाला । वे पूछते हैं मन की वीणा के सुरों से कि आज परमात्मा का क्या आदेश है मेरे गले के लिये। वे ऐसे कलाकार हैं ,जो बस अपने आप को सुनना चाहते हैं।
मुकुल के बहाने प्रदेश के कला कर्मियों को मौका मिला है कि वे सीधे मुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुँचा सकें । प्रदेश में सत्ता और प्रशासन से नज़दीकियाँ बढ़ाकर मलाई खाने वाले संस्कृति कर्मियों से कहीं बड़ी तादाद उन लोगों की है,जो सही मायनों में कला साधक और सृजक हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे संस्कृति विभाग में इनकी कोई सुनवाई नहीं ।
कोई कथा-कहानी के लिये कलम थामने की बजाय इलाज की खातिर खतो-किताबत में मसरुफ़ है, तो कोई दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में रचनाओं की बजाय घर का सामान एक-एक कर बेचने के लिये मजबूर है। कहते हैं साहित्यकार और कलाकार किसी भी राज्य की खुशहाली और समृद्धि का आईना होते हैं। कलाकारों की आह और कराह लेकर क्या कोई भी राज्य तरक्की के सोपान पर कदम आगे बढ़ा सकेगा ?
शनिवार, 2 मई 2009
"आयारामों" की आवभगत से बीजेपी में खलबली
चुनाव से पहले एकाएक पाला बदल कर बीजेपी का दामन थामने वालों की बाढ़ ने संगठन में असंतोष की चिंगारी सुलगा दी है । काँग्रेस,बीएसपी,सपा सरीखे दलों के नगीने अपने मुकुट में जड़ने की कवायद में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह को ज़बरदस्त कामयाबी हासिल हुई । वे दूसरे दलों के असंतुष्टों की बड़ी तादाद को अपने साथ जोड़ने में सफ़ल भी रहे ।
ये किसी कीर्तिमान से कम नहीं कि महज़ एक पखवाड़े में चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं का विश्वास बीजेपी की नीतियों में बढ़ गया । इस हृदय परिवर्तन के कारण अपनी पार्टी में उपेक्षा झेल रहे नेताओं की पूछ-परख एकाएक बढ़ गई । आम चुनाव में प्रदेश में "क्लीन स्वीप" का मंसूबा पाले बैठे शिवराज ने अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिये "दलबदल अभियान" को बखूबी अंजाम दिया । राजनीति के उनके इस अनोखे अंदाज़ की खूब चर्चा रही और इस घटनाक्रम में लोगों की दिलचस्पी भी देखी गई । लेकिन चुनावी खुमार उतरने के साथ ही दूसरे दलों से ससम्मान लाये गये नये साथियों को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनने लगी है । नये सदस्यों को अच्छी खातिर तवज्जो की उम्मीद है,वहीं पार्टी के कर्मठ और समर्पित नेताओं को इस पूछ-परख पर एतराज़ है ।
दल बदल कर आये सभी बड़े नेताओं को अभी तक पार्टी ने चुनाव में झोंक रखा था । इतनी बड़ी संख्या में आये लोगों की भूमिका को लेकर पार्टी के पुराने नेता चिंतित हैं । पार्टी से जुड़े नेता संशय में हैं कि कहीं उनकी निष्ठा और कर्मठता कुछ नेताओं की व्यक्तिगत आकांक्षाओं की भेंट ना चढ़ जायें । कुछ नेता तो यहाँ तक कह रहे हैं कि सक्रिय कार्यकर्ताओं का हक छीनकर यदि इन नवागंतुकों को सत्ता या संगठन में नवाज़ा गया,तो खुले तौर पर नाराज़गी ज़ाहिर की जायेगी ।
पार्टी सूत्रों के मुताबिक भाजश नेता प्रहलाद पटेल,पूर्व काँग्रेसी मंत्री बालेन्दु शुक्ल,काँग्रेस के पूर्व प्रदेश संगठन महामंत्री नर्मदा प्रसाद शर्मा,पूर्व विधायक मोहर सिंह,सुशीला सिंह,कद्दावर दलित नेता फ़ूल सिंह बरैया,बीएसपी नेता भुजबल सिंह अहिरवार सरीखे कई दिग्गजों के साथ करीब चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं ने बीजेपी का दामन थामा है । प्रहलाद पटेल की पार्टी में भूमिका पर फ़िलहाल कोई भी मुँह खोलने को तैयार नहीं है । पार्टी मानती है कि वे तो पहले भी भाजपा के सक्रिय सदस्य रहे हैं और पार्टी की रीति-नीति से बखूबी वाकिफ़ हैं । निश्चित ही वे प्रमुख भूमिका में नज़र आएँगे ।
हालाँकि संगठन दूसरे दलों से आये नेताओं को अपने रंग में रंगने के लिये प्रशिक्षण देने की बात कह रहा है । कहा जा रहा है कि उन्हें पार्टी के आचार-विचार से परिचित कराने के लिये ट्रेनिंग दी जायेगी । पार्टी की विचारधारा को पूरी तरह समझ लेने के बाद ही उनकी सक्रिय भूमिका के बारे में विचार किया जाएगा । मगर लाख टके का सवाल है,"टू मिनट नूडल" युग में किसी नेता के पास क्या इतना धैर्य और वक्त है ? घिस चुके बुज़ुर्गवार नेताओं को नये सिरे से ट्रेनिंग देने का तर्क हास्यास्पद है ।
पार्टी छोड़कर गये नेताओं की घर वापसी पर कार्यकर्ताओं और नेताओं को कोई आपत्ति नहीं है,लेकिन राजनीतिक कद बढ़ाने के लिये शिवराज की सबके लिये पार्टी के दरवाज़े खोल देने की रणनीति कई लोगों को रास नहीं आई । बेशक इस उठापटक से शिवराज को फ़ौरी फ़ायदा तो मिला ही है । आडवाणी और मोदी के साथ प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नाम शुमार होना उनके लिये खुली आँखों से देखे सपने के साकार होने से कम नहीं । मगर पेचीदा सवाल यही है कि पार्टी इस सपने की क्या और कितनी कीमत चुकाने को तैयार है ?
भुने चने खाकर दिन-दिन भर सूरज की तपिश झेलते हुए जिन लोगों ने पार्टी की विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाने का काम किया है,उनकी नज़रों के सामने काजू-किशमिश के फ़क्के लगाने वालों के लिये "रेड कार्पेट वेलकम" क्या गुल खिलायेगा ? क्या संघर्ष की राह पर चल कर सत्ता तक पहुँचने वाले दल के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी पार्टी के लिये सुखद परिणिति कही जा सकेगी ? दिल्ली का ताज पाने के लिये संघर्ष पथ पर चल कर कुंदन बने अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर दूसरे दलों की "इमीटेशन ज्वेलरी" के बूते बीजेपी कब तक राजनीति की पायदान पर आगे बढ़ सकेगी ? ये तमाम सवाल भविष्य के गर्भ में छिपे हुए हैं । गुज़रता वक्त ही इनका जवाब दे सकेगा ।
ये किसी कीर्तिमान से कम नहीं कि महज़ एक पखवाड़े में चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं का विश्वास बीजेपी की नीतियों में बढ़ गया । इस हृदय परिवर्तन के कारण अपनी पार्टी में उपेक्षा झेल रहे नेताओं की पूछ-परख एकाएक बढ़ गई । आम चुनाव में प्रदेश में "क्लीन स्वीप" का मंसूबा पाले बैठे शिवराज ने अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिये "दलबदल अभियान" को बखूबी अंजाम दिया । राजनीति के उनके इस अनोखे अंदाज़ की खूब चर्चा रही और इस घटनाक्रम में लोगों की दिलचस्पी भी देखी गई । लेकिन चुनावी खुमार उतरने के साथ ही दूसरे दलों से ससम्मान लाये गये नये साथियों को लेकर ऊहापोह की स्थिति बनने लगी है । नये सदस्यों को अच्छी खातिर तवज्जो की उम्मीद है,वहीं पार्टी के कर्मठ और समर्पित नेताओं को इस पूछ-परख पर एतराज़ है ।
दल बदल कर आये सभी बड़े नेताओं को अभी तक पार्टी ने चुनाव में झोंक रखा था । इतनी बड़ी संख्या में आये लोगों की भूमिका को लेकर पार्टी के पुराने नेता चिंतित हैं । पार्टी से जुड़े नेता संशय में हैं कि कहीं उनकी निष्ठा और कर्मठता कुछ नेताओं की व्यक्तिगत आकांक्षाओं की भेंट ना चढ़ जायें । कुछ नेता तो यहाँ तक कह रहे हैं कि सक्रिय कार्यकर्ताओं का हक छीनकर यदि इन नवागंतुकों को सत्ता या संगठन में नवाज़ा गया,तो खुले तौर पर नाराज़गी ज़ाहिर की जायेगी ।
पार्टी सूत्रों के मुताबिक भाजश नेता प्रहलाद पटेल,पूर्व काँग्रेसी मंत्री बालेन्दु शुक्ल,काँग्रेस के पूर्व प्रदेश संगठन महामंत्री नर्मदा प्रसाद शर्मा,पूर्व विधायक मोहर सिंह,सुशीला सिंह,कद्दावर दलित नेता फ़ूल सिंह बरैया,बीएसपी नेता भुजबल सिंह अहिरवार सरीखे कई दिग्गजों के साथ करीब चार हज़ार से ज़्यादा नेताओं ने बीजेपी का दामन थामा है । प्रहलाद पटेल की पार्टी में भूमिका पर फ़िलहाल कोई भी मुँह खोलने को तैयार नहीं है । पार्टी मानती है कि वे तो पहले भी भाजपा के सक्रिय सदस्य रहे हैं और पार्टी की रीति-नीति से बखूबी वाकिफ़ हैं । निश्चित ही वे प्रमुख भूमिका में नज़र आएँगे ।
हालाँकि संगठन दूसरे दलों से आये नेताओं को अपने रंग में रंगने के लिये प्रशिक्षण देने की बात कह रहा है । कहा जा रहा है कि उन्हें पार्टी के आचार-विचार से परिचित कराने के लिये ट्रेनिंग दी जायेगी । पार्टी की विचारधारा को पूरी तरह समझ लेने के बाद ही उनकी सक्रिय भूमिका के बारे में विचार किया जाएगा । मगर लाख टके का सवाल है,"टू मिनट नूडल" युग में किसी नेता के पास क्या इतना धैर्य और वक्त है ? घिस चुके बुज़ुर्गवार नेताओं को नये सिरे से ट्रेनिंग देने का तर्क हास्यास्पद है ।
पार्टी छोड़कर गये नेताओं की घर वापसी पर कार्यकर्ताओं और नेताओं को कोई आपत्ति नहीं है,लेकिन राजनीतिक कद बढ़ाने के लिये शिवराज की सबके लिये पार्टी के दरवाज़े खोल देने की रणनीति कई लोगों को रास नहीं आई । बेशक इस उठापटक से शिवराज को फ़ौरी फ़ायदा तो मिला ही है । आडवाणी और मोदी के साथ प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नाम शुमार होना उनके लिये खुली आँखों से देखे सपने के साकार होने से कम नहीं । मगर पेचीदा सवाल यही है कि पार्टी इस सपने की क्या और कितनी कीमत चुकाने को तैयार है ?
भुने चने खाकर दिन-दिन भर सूरज की तपिश झेलते हुए जिन लोगों ने पार्टी की विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाने का काम किया है,उनकी नज़रों के सामने काजू-किशमिश के फ़क्के लगाने वालों के लिये "रेड कार्पेट वेलकम" क्या गुल खिलायेगा ? क्या संघर्ष की राह पर चल कर सत्ता तक पहुँचने वाले दल के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी पार्टी के लिये सुखद परिणिति कही जा सकेगी ? दिल्ली का ताज पाने के लिये संघर्ष पथ पर चल कर कुंदन बने अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर दूसरे दलों की "इमीटेशन ज्वेलरी" के बूते बीजेपी कब तक राजनीति की पायदान पर आगे बढ़ सकेगी ? ये तमाम सवाल भविष्य के गर्भ में छिपे हुए हैं । गुज़रता वक्त ही इनका जवाब दे सकेगा ।
शुक्रवार, 1 मई 2009
क्यों नहीं गरमाता पानी का मुद्दा ?
देश में बढ़ते जल संकट को लेकर सरकार को उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलाने के लिये सुप्रीम कोर्ट को सामने आना पड़ा है । सर्वोच्च न्यायालय की तल्ख टिप्पणी ऎसे वक्त आई है जब देश के ज़्यादातर हिस्से भीषण जलसंकट झेल रहे हैं । आसमान से आग बरसने का सिलसिला दिन पर दिन तेज़ होता जा रहा है । ऎसे में आने वाले दिनों में हालात क्या होंगे,समझना कतई मुश्किल नहीं है । लगभग पूरे देश में पीने के पानी की समस्या विकराल हो चुकी है । हैरत की बात है कि स्वच्छ पेयजल का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए कोई अहमियत नहीं रखता । जोड़-तोड़ की राजनीति के ज़रिये कुर्सी हथियाने की कोशिश में जुटे नेताओं के लिये लोकसभा चुनावों में यह कोई मुद्दा नहीं है ।
एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने लोगों के दिल की बात कही है कि जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने युद्ध स्तर पर अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों की कमेटी भी गठित कर दी है । कोर्ट ने कहा कि अनुसंधान का मुख्य मुद्दा खारे समुद्री पानी को कम से कम खर्चे पर मीठे पेयजल में बदलना होगा।
केन्द्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पराग त्रिपाठी से न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और एच एल दातू की पीठ ने कहा- यदि आप लोगों को पानी उपलब्ध नहीं करा सकते हैं तो सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है । न्यायमूर्ति काटजू को निर्णय देते हुए रहीम का यह दोहा याद आया, "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून।" उन्होंने दोहे (जल बिन जीवन नहीं) का उल्लेख करते हुए कहा- संविधान का अनुच्छेद २१ देश के सभी लोगों को जीने के अधिकार की गारंटी देता है।
रहीम का यह दोहा पानी की बात एक अलग स्तर पर कहता है,मगर हमारे अपने समय के बड़े कवि रघुवीर सहाय ने पानी और इसकी राजनीति पर कोई तीन दशक पहले कविता लिखी थी । वह पानी के लिए तरसाने की राजनीति की परतें उघाड़ते हुए कहती है कि जिस धरती को पानी नहीं मिला,उस धरती को आजाद नहीं कहा जा सकता है।
अधिवक्ता एमके बालकृष्णन ने इस मामले में दायर जनहित याचिका में कहा है कि देश भर में जल संकट का मुख्य कारण नदी समेत अन्य जल स्त्रोतों का अतिक्रमण है । कोर्ट ने कमेटी के गठन और कार्य प्रगति के बारे में केन्द्र को ११ अगस्त तक स्थिति रिपोर्ट पेश करने का निर्देश देते हुए कहा कि वह खुद इस उच्चाधिकार कमेटी के कामकाज पर नजर रखेगी । साथ ही सरकार से हर दो महीने में रिपोर्ट माँगेगी।
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा,यह भविष्यवाणी सही हो या न हो कह पाना फ़िलहाल मुश्किल है,मगर लोगों के बीच पानी को लेकर गली- मोहल्लों में खून ज़रुर बह रहा है । मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पुलिस की चौकसी में पानी का वितरण इस बात की तस्दीक करता है । लोगों को प्यास बुझाने की कीमत जान गवाँ कर चुकाना पड़ रही है । इंदौर, उज्जैन सहित कई क्षेत्रों में टैंकरों से पानी भरने को लेकर उपजे विवादों में चाकू-छुरी से लेकर बंदूक निकल आना आम बात हो चुकी है । मालवांचल, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ सहित तमाम क्षेत्रों के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं । ऎसा नहीं है कि इंद्रदेवता भारत पर कृपादृष्टि बरसाने में कोई कंजूसी बरत रहे हों। देश में अब भी औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा होती है जो विश्व के ज़्यादातर देशों की तुलना में कहीं अधिक है ।
दरअसल समस्या पानी की नहीं उसके प्रबंधन की है । कई देशों में कम पानी के बावजूद हर परिवार को पर्याप्त पानी दिया जाता है । दुर्भाग्य से देश में ऎसी कोई जल नीति नहीं है जो पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगा सके । हमारे पास ना तो बरसात के पानी को सहेजने की कोई ठोस रणनीति नहीं है। बाढ़ के पानी से होने वाली तबाही को रोकने और नदी के रुख को मोड़ने के लिये भी हम अब तक कारगर उपाय नहीं तलाश पाये हैं । तमाम सरकारें पेयजल की उपलब्धता के बारे में कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाई हैं ।
इस बीच तालाबों और कुओं को सूखने-बर्बाद होने दिया गया। निजी आर्थिक स्वार्थों के चलते बरसाती जल के संरक्षण के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाने के अलावा कोई गंभीर काम नहीं किया गया । समुद्रों के खारे पानी को मीठे जल में तब्दील करने की टेक्नालॉजी के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई । नदियों को सूखने दिया गया, उन्हें गंदगी से भर जाने दिया गया । जमीन से पानी खींचने के लिए हैंडपंप और ट्यूबवेल खोदने की खुली छूट दी गई । अब तो भूजल स्तर भी रसातल में जा पहुँचा है । यह सब उस देश में हुआ,जहाँ नदियाँ ही नहीं,कुएँ तक पूजे जाने की भी परंपरा रही है । जहाँ प्यासे को पानी पिलाना धर्म माना जाता है।
देश की ग्रामीण आबादी पानी के संकट से कैसे जूझ रही है,इसकी कहीं से कोई खबर नहीं आती । किस तरह कारखानों का प्रदूषित कचरा जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है,इसकी किसी को परवाह नहीं है। हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक भारत को छह फ़ीसदी की विकास दर बनाये रखने के लिये भी २०१३ तक मौजूदा दर से चार गुना ज़्यादा पानी की ज़रुरत होगी । आखिर यह पानी आयेगा कहाँ से ?
एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने लोगों के दिल की बात कही है कि जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने युद्ध स्तर पर अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों की कमेटी भी गठित कर दी है । कोर्ट ने कहा कि अनुसंधान का मुख्य मुद्दा खारे समुद्री पानी को कम से कम खर्चे पर मीठे पेयजल में बदलना होगा।
केन्द्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पराग त्रिपाठी से न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और एच एल दातू की पीठ ने कहा- यदि आप लोगों को पानी उपलब्ध नहीं करा सकते हैं तो सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है । न्यायमूर्ति काटजू को निर्णय देते हुए रहीम का यह दोहा याद आया, "रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून।" उन्होंने दोहे (जल बिन जीवन नहीं) का उल्लेख करते हुए कहा- संविधान का अनुच्छेद २१ देश के सभी लोगों को जीने के अधिकार की गारंटी देता है।
रहीम का यह दोहा पानी की बात एक अलग स्तर पर कहता है,मगर हमारे अपने समय के बड़े कवि रघुवीर सहाय ने पानी और इसकी राजनीति पर कोई तीन दशक पहले कविता लिखी थी । वह पानी के लिए तरसाने की राजनीति की परतें उघाड़ते हुए कहती है कि जिस धरती को पानी नहीं मिला,उस धरती को आजाद नहीं कहा जा सकता है।
अधिवक्ता एमके बालकृष्णन ने इस मामले में दायर जनहित याचिका में कहा है कि देश भर में जल संकट का मुख्य कारण नदी समेत अन्य जल स्त्रोतों का अतिक्रमण है । कोर्ट ने कमेटी के गठन और कार्य प्रगति के बारे में केन्द्र को ११ अगस्त तक स्थिति रिपोर्ट पेश करने का निर्देश देते हुए कहा कि वह खुद इस उच्चाधिकार कमेटी के कामकाज पर नजर रखेगी । साथ ही सरकार से हर दो महीने में रिपोर्ट माँगेगी।
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा,यह भविष्यवाणी सही हो या न हो कह पाना फ़िलहाल मुश्किल है,मगर लोगों के बीच पानी को लेकर गली- मोहल्लों में खून ज़रुर बह रहा है । मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पुलिस की चौकसी में पानी का वितरण इस बात की तस्दीक करता है । लोगों को प्यास बुझाने की कीमत जान गवाँ कर चुकाना पड़ रही है । इंदौर, उज्जैन सहित कई क्षेत्रों में टैंकरों से पानी भरने को लेकर उपजे विवादों में चाकू-छुरी से लेकर बंदूक निकल आना आम बात हो चुकी है । मालवांचल, बुंदेलखंड, छत्तीसगढ़ सहित तमाम क्षेत्रों के लोग पानी के लिए तरस रहे हैं । ऎसा नहीं है कि इंद्रदेवता भारत पर कृपादृष्टि बरसाने में कोई कंजूसी बरत रहे हों। देश में अब भी औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा होती है जो विश्व के ज़्यादातर देशों की तुलना में कहीं अधिक है ।
दरअसल समस्या पानी की नहीं उसके प्रबंधन की है । कई देशों में कम पानी के बावजूद हर परिवार को पर्याप्त पानी दिया जाता है । दुर्भाग्य से देश में ऎसी कोई जल नीति नहीं है जो पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगा सके । हमारे पास ना तो बरसात के पानी को सहेजने की कोई ठोस रणनीति नहीं है। बाढ़ के पानी से होने वाली तबाही को रोकने और नदी के रुख को मोड़ने के लिये भी हम अब तक कारगर उपाय नहीं तलाश पाये हैं । तमाम सरकारें पेयजल की उपलब्धता के बारे में कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाई हैं ।
इस बीच तालाबों और कुओं को सूखने-बर्बाद होने दिया गया। निजी आर्थिक स्वार्थों के चलते बरसाती जल के संरक्षण के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाने के अलावा कोई गंभीर काम नहीं किया गया । समुद्रों के खारे पानी को मीठे जल में तब्दील करने की टेक्नालॉजी के विकास में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई । नदियों को सूखने दिया गया, उन्हें गंदगी से भर जाने दिया गया । जमीन से पानी खींचने के लिए हैंडपंप और ट्यूबवेल खोदने की खुली छूट दी गई । अब तो भूजल स्तर भी रसातल में जा पहुँचा है । यह सब उस देश में हुआ,जहाँ नदियाँ ही नहीं,कुएँ तक पूजे जाने की भी परंपरा रही है । जहाँ प्यासे को पानी पिलाना धर्म माना जाता है।
देश की ग्रामीण आबादी पानी के संकट से कैसे जूझ रही है,इसकी कहीं से कोई खबर नहीं आती । किस तरह कारखानों का प्रदूषित कचरा जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहा है,इसकी किसी को परवाह नहीं है। हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक भारत को छह फ़ीसदी की विकास दर बनाये रखने के लिये भी २०१३ तक मौजूदा दर से चार गुना ज़्यादा पानी की ज़रुरत होगी । आखिर यह पानी आयेगा कहाँ से ?
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सुप्रीम कोर्ट
शनिवार, 25 अप्रैल 2009
"अधिकार" पर झन्नाटेदार चाँटे
सत्ता,पैसा और मदिरा का नशा सिर चढ़कर बोलता है । मध्यप्रदेश में भी सत्ता के मद में चूर भाजपा के नेताओं का हाल कुछ ऎसा ही हो चला है । कल तक जूते-चप्पल मीडिया की सुर्खियाँ बटोर रहे थे,लेकिन अब चाँटों की झन्नाहट से लोग भौचक हैं ।
आडवाणी पर खड़ाऊ फ़ेंकने वाले पार्टी कार्यकर्ता को तो सलाखों के पीछे भेजने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया गया ।
ये और बात है मुँह छिपाने के लिये बीजेपी ने आरोपी पावस अग्रवाल को मानसिक रोगी करार देने में कोई देर नहीं की । सवाल सिर्फ़ इतना कि अगर पावस मनोरोगी है तो उसे हवालात की बजाय अस्पताल क्यों नहीं भेजा गया ? बहरहाल कार्यकर्ताओं को गलती पर सज़ा और आम जनता के सवालों पर आपा खोते नेताओं को ईनाम ...?
पिछले हफ़्ते महिला और बाल विकास मंत्री रंजना बघेल ने सवाल पूछने की ग़लती करने वाली महिला के गाल पर तमाचा जड़ दिया । उसका कसूर सिर्फ़ इतना था कि "आम" होने के बावजूद उसने "खास" से सरेआम सवाल पूछ डाला । वह जानना चाहती थी कि विधानसभा चुनाव के दौरान किया गया कर्ज़ माफ़ी का वायदा कब पूरा होगा ? इस पर मैडम इतनी उत्तेजित हो गईं कि उन्होंने आव देखा ना ताव महिला को दो तमाचे जड़ दिये । लेकिन मंत्री के खिलाफ़ कोई कार्रवाई होना तो दूर बीजेपी नेतृत्व खुलकर उनके पक्ष में आ खड़ा हुआ ।
उसी का नतीजा है कि विदिशा ज़िले के नवागाँव में बीजेपी नेता देवेन्द्र वर्मा ने चुनाव ड्यूटी में तैनात पीठासीन अधिकारी को झापड़ दे मारा । राज्यमंत्री का दर्ज़ा पाने वाले वर्मा को ग़ुस्सा महज़ इसलिये आ गया क्योंकि पीठासीन अधिकारी ने मतदान के लिये ज़रुरी दस्तावेज़ माँगने की नाकाबिले बर्दाश्त ग़ुस्ताखी की थी ।
ये दोनों घटनाएँ सामान्य नहीं हैं । मध्यप्रदेश के लोकतांत्रिक इतिहास की संभवतः ये अपने आप में अलग किस्म की घटनाएँ हैं । एक मामला सीधे आम जन और सरकार से जुड़ा हुआ है और दूसरा लोकतंत्र के महापर्व यानी चुनाव की व्यवस्था में जुटे निर्वाचन आयोग और मदमस्त नेता के बीच का । सवाल पूछना जनता का अधिकार है और ये अधिकार उसे संविधान ने दिया है । जवाब देना जनप्रतिनिधियों का दायित्व है । वे इसके लिये बाध्य हैं । क्षेत्र,समाज और देश के विकास का दायित्व सौंपने के लिये मतदाता उन्हें चुनता है । इसलिये वह सवाल-जवाब का हकदार भी है । वास्तव में चुना हुआ नेता जनसेवक होता है ।
दरअसल मंत्री महोदया का ये तमाचा लोकतंत्र के मुँह पर है । क्या जनप्रतिनिधि होने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि वोट मैनेजमेंट के ज़रिये सत्ता हासिल की जाये और कुर्सी हाथिया ली जाये । बरसों से आम नागरिकों के हित में कोई काम तो किसी भी दल या नेता ने किया नहीं,अब सवाल पूछने का हक भी छीन लेने पर आमादा हैं । महिला के गाल पर चाँटा रसीद कर शायद यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने का हक किसी को नहीं ।
"चोरी और सीनाज़ोरी" का आलम ये कि महिला विकास मंत्री श्रीमती बघेल ने उलटे महिला के ही खिलाफ़ रिपोर्ट लिखा दी । बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर का तर्क है कि महिला काँग्रेस से जुड़ी है और वह बार-बार सवाल पूछ कर परेशान कर रही थी । लेकिन क्या लोकतंत्र में किसी अन्य दल से जुड़े व्यक्ति को सवाल पूछने का हक नहीं है ?
नेताओं को नहीं भूलना चाहिये कि अब जनता जागरुक हो रही है । आज एक महिला ने सवाल पूछा है,कल ये तादाद कई गुना हो सकती है । किस - किस को चाँटे मारकर चुप करा सकेंगे । मुँह पर ताले जड़ भी जायें , मगर वोट की ताकत कौन छीन सकेगा ? मतदाता के तमाचे की झन्नाहट नेताओं को बहुत भारी पड़ सकती है । जो वोट उन्हें हाथ उठाने का ताकत देता है,वही वोट उनके बाज़ू काट भी सकता है । प्रदेश के सत्ताधारी नेताओं से बस इतनी गुज़ारिश है - वक्त है अब भी सम्हल जाओ, मदहोश ज़रा होश में आओ.......।
आडवाणी पर खड़ाऊ फ़ेंकने वाले पार्टी कार्यकर्ता को तो सलाखों के पीछे भेजने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया गया ।
ये और बात है मुँह छिपाने के लिये बीजेपी ने आरोपी पावस अग्रवाल को मानसिक रोगी करार देने में कोई देर नहीं की । सवाल सिर्फ़ इतना कि अगर पावस मनोरोगी है तो उसे हवालात की बजाय अस्पताल क्यों नहीं भेजा गया ? बहरहाल कार्यकर्ताओं को गलती पर सज़ा और आम जनता के सवालों पर आपा खोते नेताओं को ईनाम ...?
पिछले हफ़्ते महिला और बाल विकास मंत्री रंजना बघेल ने सवाल पूछने की ग़लती करने वाली महिला के गाल पर तमाचा जड़ दिया । उसका कसूर सिर्फ़ इतना था कि "आम" होने के बावजूद उसने "खास" से सरेआम सवाल पूछ डाला । वह जानना चाहती थी कि विधानसभा चुनाव के दौरान किया गया कर्ज़ माफ़ी का वायदा कब पूरा होगा ? इस पर मैडम इतनी उत्तेजित हो गईं कि उन्होंने आव देखा ना ताव महिला को दो तमाचे जड़ दिये । लेकिन मंत्री के खिलाफ़ कोई कार्रवाई होना तो दूर बीजेपी नेतृत्व खुलकर उनके पक्ष में आ खड़ा हुआ ।
उसी का नतीजा है कि विदिशा ज़िले के नवागाँव में बीजेपी नेता देवेन्द्र वर्मा ने चुनाव ड्यूटी में तैनात पीठासीन अधिकारी को झापड़ दे मारा । राज्यमंत्री का दर्ज़ा पाने वाले वर्मा को ग़ुस्सा महज़ इसलिये आ गया क्योंकि पीठासीन अधिकारी ने मतदान के लिये ज़रुरी दस्तावेज़ माँगने की नाकाबिले बर्दाश्त ग़ुस्ताखी की थी ।
ये दोनों घटनाएँ सामान्य नहीं हैं । मध्यप्रदेश के लोकतांत्रिक इतिहास की संभवतः ये अपने आप में अलग किस्म की घटनाएँ हैं । एक मामला सीधे आम जन और सरकार से जुड़ा हुआ है और दूसरा लोकतंत्र के महापर्व यानी चुनाव की व्यवस्था में जुटे निर्वाचन आयोग और मदमस्त नेता के बीच का । सवाल पूछना जनता का अधिकार है और ये अधिकार उसे संविधान ने दिया है । जवाब देना जनप्रतिनिधियों का दायित्व है । वे इसके लिये बाध्य हैं । क्षेत्र,समाज और देश के विकास का दायित्व सौंपने के लिये मतदाता उन्हें चुनता है । इसलिये वह सवाल-जवाब का हकदार भी है । वास्तव में चुना हुआ नेता जनसेवक होता है ।
दरअसल मंत्री महोदया का ये तमाचा लोकतंत्र के मुँह पर है । क्या जनप्रतिनिधि होने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि वोट मैनेजमेंट के ज़रिये सत्ता हासिल की जाये और कुर्सी हाथिया ली जाये । बरसों से आम नागरिकों के हित में कोई काम तो किसी भी दल या नेता ने किया नहीं,अब सवाल पूछने का हक भी छीन लेने पर आमादा हैं । महिला के गाल पर चाँटा रसीद कर शायद यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने का हक किसी को नहीं ।
"चोरी और सीनाज़ोरी" का आलम ये कि महिला विकास मंत्री श्रीमती बघेल ने उलटे महिला के ही खिलाफ़ रिपोर्ट लिखा दी । बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर का तर्क है कि महिला काँग्रेस से जुड़ी है और वह बार-बार सवाल पूछ कर परेशान कर रही थी । लेकिन क्या लोकतंत्र में किसी अन्य दल से जुड़े व्यक्ति को सवाल पूछने का हक नहीं है ?
नेताओं को नहीं भूलना चाहिये कि अब जनता जागरुक हो रही है । आज एक महिला ने सवाल पूछा है,कल ये तादाद कई गुना हो सकती है । किस - किस को चाँटे मारकर चुप करा सकेंगे । मुँह पर ताले जड़ भी जायें , मगर वोट की ताकत कौन छीन सकेगा ? मतदाता के तमाचे की झन्नाहट नेताओं को बहुत भारी पड़ सकती है । जो वोट उन्हें हाथ उठाने का ताकत देता है,वही वोट उनके बाज़ू काट भी सकता है । प्रदेश के सत्ताधारी नेताओं से बस इतनी गुज़ारिश है - वक्त है अब भी सम्हल जाओ, मदहोश ज़रा होश में आओ.......।
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मतदाता,
महिला विकास मंत्री,
विदिशा,
विधानसभा चुनाव
बुधवार, 22 अप्रैल 2009
एक लाख मतदाता जागे , अब हमारी बारी
इन आम चुनाव में नेता अपने फ़ायदे के लिये असली मुद्दों से ध्यान हटाने में जुटे हैं । पब्लिक को भरमाने के लिये खूब चटखारेदार भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है, ताकि लोग बुनियादी मुद्दों को भुलाकर इस मसालेदार तू-तू,मैं-मैं में उलझे रहें और उन्हें मतदाताओं की नाराज़गी नहीं झेलना पडे़ । सवाल पूछते मतदाताओं से मुँह छिपाते घूम रहे सत्ता के मद में चूर नेताओं को शायद यह मुग़ालता हो चला है कि जनता बेबस है - चुनना हम में से ही किसी एक को पड़ेगा । लेकिन ग़ाफ़िल नेताओं को शायद मालूम नहीं की धीरे-धीरे ही सही " हवा का रुख़" बदल रहा है । ऎसी ही मिसाल है- गाज़ियाबाद ज़िले का मोदीनगर इलाका ।
इस क्षेत्र के करीब चालीस गाँवों के एक लाख से ज़्यादा मतदाताओं ने चुनाव में किसी को भी वोट नहीं देने का अहम फ़ैसला ले लिया है । लेकिन नेताओं से नाराज़ ये लोग मतदान के दिन घर पर नहीं बैठेंगे, बल्कि सभी लोग पोलिंग बूथ पर जाकर सभी उम्मीदवारों को नकार देने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करेंगे ।
भारतीय लोकतंत्र में एक साथ इतनी बड़ी तादाद में राइट टु नो वोट का उपयोग करने का संभवतः यह पहला मामला होगा । मोदीनगर इलाके के करीब चालीस गाँवों में से छब्बीस बागपत संसदीय सीट और बाकी गाज़ियाबाद लोकसभा क्षेत्र में आते हैं । इन गाँवों से गुज़रने वाली सड़क की बदहाली से बेज़ार लोगों ने चुनाव बहिष्कार का निर्णय लिया है । अपने अधिकारों को जान चुके लोगों ने नेताओं से जवाब तलब शुरु कर दिया है । इतना ही नहीं इन लोगों ने अब तक किसी भी सियासी पार्टी के नुमाइंदे को इलाके में घुसने नहीं दिया है ।
यूथ फ़ॉर इक्वेलिटी की पहल पर निवाड़ी गाँव में चालीस गाँवों के सरपंच इकट्ठा हुए और उन्होंने नेताओं को सबक सिखाने का फ़ैसला लिया । ग्रामीण क्षेत्रों के लोग अब अपने अधिकारों को जानने समझने लगे हैं । ऎसे में शहरी इलाकों के पढ़े-लिखे मतदाताओं की चुप्पी अखरने वाली है । उम्मीद है हम सब भी लोकतंत्र के इस महापर्व में अधिकार समझकर या फ़िर कर्तव्य मानकर अपने जागरुक होने का परिचय ज़रुर देंगे । पोलिंग बूथ ज़रुर जाएँ, उम्मीदवार पसंद नहीं तो धारा 49(o) के तहत नकार कर आएँ । फ़िर अगले चुनाव तक चैन की बाँसुरी बजायें, किसने रोका है ?
इस क्षेत्र के करीब चालीस गाँवों के एक लाख से ज़्यादा मतदाताओं ने चुनाव में किसी को भी वोट नहीं देने का अहम फ़ैसला ले लिया है । लेकिन नेताओं से नाराज़ ये लोग मतदान के दिन घर पर नहीं बैठेंगे, बल्कि सभी लोग पोलिंग बूथ पर जाकर सभी उम्मीदवारों को नकार देने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करेंगे ।
भारतीय लोकतंत्र में एक साथ इतनी बड़ी तादाद में राइट टु नो वोट का उपयोग करने का संभवतः यह पहला मामला होगा । मोदीनगर इलाके के करीब चालीस गाँवों में से छब्बीस बागपत संसदीय सीट और बाकी गाज़ियाबाद लोकसभा क्षेत्र में आते हैं । इन गाँवों से गुज़रने वाली सड़क की बदहाली से बेज़ार लोगों ने चुनाव बहिष्कार का निर्णय लिया है । अपने अधिकारों को जान चुके लोगों ने नेताओं से जवाब तलब शुरु कर दिया है । इतना ही नहीं इन लोगों ने अब तक किसी भी सियासी पार्टी के नुमाइंदे को इलाके में घुसने नहीं दिया है ।
यूथ फ़ॉर इक्वेलिटी की पहल पर निवाड़ी गाँव में चालीस गाँवों के सरपंच इकट्ठा हुए और उन्होंने नेताओं को सबक सिखाने का फ़ैसला लिया । ग्रामीण क्षेत्रों के लोग अब अपने अधिकारों को जानने समझने लगे हैं । ऎसे में शहरी इलाकों के पढ़े-लिखे मतदाताओं की चुप्पी अखरने वाली है । उम्मीद है हम सब भी लोकतंत्र के इस महापर्व में अधिकार समझकर या फ़िर कर्तव्य मानकर अपने जागरुक होने का परिचय ज़रुर देंगे । पोलिंग बूथ ज़रुर जाएँ, उम्मीदवार पसंद नहीं तो धारा 49(o) के तहत नकार कर आएँ । फ़िर अगले चुनाव तक चैन की बाँसुरी बजायें, किसने रोका है ?
लेबल:
धारा 49(o),
बागपत,
मतदाता,
लोकतंत्र लोकसभा चुनाव
शनिवार, 18 अप्रैल 2009
सभी प्रत्याशियों को नकारने का अधिकार (नोटा)
चुनाव सुधार की दिशा में किए जाने वाले तमाम प्रयासों में से एक महत्वपूर्ण प्रयास है ‘नोटा’ से लोगों को परिचित कराना और इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में इसके लिए बटन की व्यवस्था करवाना। नोटा यानी खडे उम्मीदवारों में से कोई नहीं (None of the above) के विकल्प से सर्वसाधारण से परिचय कराते हुए उन्हें यह औजार मुहैया कराया जाना चाहिए। ऐसा हो जाने पर जनभावना सही तरह से चुनाव में परिलक्षित हो सकती है।
चुनाव आयोग के नियम 49-ओ के अनुसार जो कोई मतदाता मतदान केंद्र के अंदर अपना बहुमूल्य मत किसी भी उम्मीदवार को देना नही चाहते हैं उनके लिए चुनाव आयोग ने प्रावधान किया है कि वे निर्वाचन अधिकारी को अपनी पहचान कराने के एवं तर्जनी पर स्याही का निशान लेने के बाद, वोट देने से मना कर सकते हैं तथा अपना आशय पीठासीन अधिकारी को बता, उसके सम्मुख वोटर रजिस्टर में फार्म 17-अ पर दस्तखत करके अथवा अंगूठा लगा कर बैरंग लौट सकते हैं । मतगणना के समय ऐसा मत ‘किसी को भी नहीं’ मत के रूप में गिना जाता है। यदि ऐसे मतों की संख्या, सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार से ज्यादा हो गई तो विस्फोटक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। चुनाव स्थगित होने की नौबत आ सकती है । हारे हुए उम्मीदवार, सबसे ज्यादा वोट लाने वाले प्रत्याशी को विजेता घोषित नही होने देंगे क्योंकि उसके खिलाफ जीते हुए मतों से ज्यादा नामंज़ूरी के मत हैं।
नोटा वोट की अधिकता होने पर ऐसे उम्मीदवार को विजेता घोषित करना चुनाव आयोग के लिए आसान नहीं होगा। भ्रष्ट, आपराधिक एवं नाकाबिल उम्मीदवारों को धता बताने का यह बहुत ही नायाब तरीका है। पर इस जानकारी का प्रचार नहीं है। पीठासीन अधिकारी के समक्ष रजिस्टर मे अंगूठा लगाने या दस्तखत करने से मतदाता के ‘किसी को भी मत नहीं’ की गोपनीयता समाप्त हो जाती है तथा कई स्थितियों में उसे खतरा भी हो सकता है। इसलिए इसकी व्यवस्था वोटिंग मशीन में ही किए जाने की जरूरत है ताकि खारिज करने के मत से वहां मौजूद लोग वाकिफ नहीं हो सकें।
मतदाताओं के इस अधिकार की बाबत भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति स्वर्गीय श्री कृष्णकांत ने आवाज उठाई थी। उन्होंने मांग की थी कि विजेता उसी उम्मीदवार को घोषित किया जाए जिसे पचास पफीसदी से अधिक वोट मिलें। साथ ही मतदाता को उम्मीदवार पसंद ना होने पर उसे नामंजूर करने का अधिकार हो। सबसे कम खराब प्रत्याशी को चुनने की मजबूरी ना हो। प्रथम सुझाव मान लेने पर जातिगत और धर्मगत आधार पर चुनाव लड़ना और जीतना मुश्किल हो जाता। द्वितीय सुझाव राजनीतिक पार्टियों पर जिम्मेदार एवं साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवार खड़े करने की बाध्यता उत्पन्न करता है। इन सुझावों की सराहना तो बहुत हुई लेकिन किसी भी पार्टी ने इन्हें स्वीकारा नहीं।
1999 में 15वें लॉ कमीशन के चेयरमैन जस्टिस बी पी जीवन रेड्डी ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में मतदाता को यह अधिकार ईवीएम मशीन में अलग से ‘किसी को भी नहीं’ बटन की व्यवस्था करने की बात की थी। कमीशन ने 50 प्रतिशत वोट के आधार पर विजेता घोषित करने की बात का भी समर्थन किया । 2001 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त जे एम लिंगदोह ने पत्र लिख कर प्रधानमंत्री से ईवीएम में नोटा बटन लगवाने की बात रखी । 2003 में चुनाव सुधार पर हुई सर्वदलीय बैठक में भी इस बात पर चर्चा हुई, परंतु सहमति नहीं बन सकी। जुलाई 2004 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री टी.एस. कृष्णमूर्ति ने पुन: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अधिशासकीय पत्र लिखकर अगले चुनाव से पूर्व ईवीएम में नोटा बटन लगाने की सिफारिश की ।
इस मामले में अब तक न तो सरकार ने कोई कदम उठाया है । हैरत की बात है की बांग्लादेश जैसे छोटे और पिछड़े देश ने भी यह सम्यक व्यवस्था 29 दिसंबर 2008 को हुए आम चुनाव में कर ली थी । हमारे यहां कानून मे व्यवस्था रहने के बावजूद ईवीएम में यह बटन नहीं लगाया जा रहा है। भारत ने अपनी निर्वाचन प्रणाली मूलत: कनाडा से ली है। जब हमने 1992 में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग पध्दति लागू की तो उस समय नोटा के प्रावधान को भुला दिया। नोटा का प्रावधान फ़्रांस, कोलंबिया, स्पेन, नेवाडा (अमेरिका), स्विट्जरलैंड, थाइलैंड, यूक्रेन के लोगों के पास भी है।
इस व्यवस्था से सत्ता की दौड़ में शामिल राजनीतिक दलों के लिए मुश्किल खड़ी होगी और इसलिए वे इसे लागू करवाने से बिदक रहे हैं। लेकिन चुनाव आयोग इस बारे में क्यों गंभीर प्रयास नहीं कर रहा है, यह बड़ा सवाल है । लोगों को चुनाव देने के लिए प्रेरित करते समय चुनाव आयोग उन्हें क्यों नहीं यह भी बताता कि वे यदि चाहें तो सभी उम्मीदवारों को नकार भी सकते हैं?
राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग की जो भी मजबूरी हो लेकिन सामाजिक संगठनों के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। उन्हें नोटा के अधिकार के लिए भरपूर दबाव बनाना चाहिए और इसके लिए मीडिया सहित देशहित में सोचने वाले सभी लोगों की मदद लेनी चाहिए। नोटा का अधिकार भारतीय लोकतंत्र को और अधिक सक्षम बनाने की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम साबित होगा। गरीबपरस्त और भारतपरस्त राजनीति सुनिश्चित करने में इसकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन से साभार
चुनाव आयोग के नियम 49-ओ के अनुसार जो कोई मतदाता मतदान केंद्र के अंदर अपना बहुमूल्य मत किसी भी उम्मीदवार को देना नही चाहते हैं उनके लिए चुनाव आयोग ने प्रावधान किया है कि वे निर्वाचन अधिकारी को अपनी पहचान कराने के एवं तर्जनी पर स्याही का निशान लेने के बाद, वोट देने से मना कर सकते हैं तथा अपना आशय पीठासीन अधिकारी को बता, उसके सम्मुख वोटर रजिस्टर में फार्म 17-अ पर दस्तखत करके अथवा अंगूठा लगा कर बैरंग लौट सकते हैं । मतगणना के समय ऐसा मत ‘किसी को भी नहीं’ मत के रूप में गिना जाता है। यदि ऐसे मतों की संख्या, सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले उम्मीदवार से ज्यादा हो गई तो विस्फोटक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। चुनाव स्थगित होने की नौबत आ सकती है । हारे हुए उम्मीदवार, सबसे ज्यादा वोट लाने वाले प्रत्याशी को विजेता घोषित नही होने देंगे क्योंकि उसके खिलाफ जीते हुए मतों से ज्यादा नामंज़ूरी के मत हैं।
नोटा वोट की अधिकता होने पर ऐसे उम्मीदवार को विजेता घोषित करना चुनाव आयोग के लिए आसान नहीं होगा। भ्रष्ट, आपराधिक एवं नाकाबिल उम्मीदवारों को धता बताने का यह बहुत ही नायाब तरीका है। पर इस जानकारी का प्रचार नहीं है। पीठासीन अधिकारी के समक्ष रजिस्टर मे अंगूठा लगाने या दस्तखत करने से मतदाता के ‘किसी को भी मत नहीं’ की गोपनीयता समाप्त हो जाती है तथा कई स्थितियों में उसे खतरा भी हो सकता है। इसलिए इसकी व्यवस्था वोटिंग मशीन में ही किए जाने की जरूरत है ताकि खारिज करने के मत से वहां मौजूद लोग वाकिफ नहीं हो सकें।
मतदाताओं के इस अधिकार की बाबत भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति स्वर्गीय श्री कृष्णकांत ने आवाज उठाई थी। उन्होंने मांग की थी कि विजेता उसी उम्मीदवार को घोषित किया जाए जिसे पचास पफीसदी से अधिक वोट मिलें। साथ ही मतदाता को उम्मीदवार पसंद ना होने पर उसे नामंजूर करने का अधिकार हो। सबसे कम खराब प्रत्याशी को चुनने की मजबूरी ना हो। प्रथम सुझाव मान लेने पर जातिगत और धर्मगत आधार पर चुनाव लड़ना और जीतना मुश्किल हो जाता। द्वितीय सुझाव राजनीतिक पार्टियों पर जिम्मेदार एवं साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवार खड़े करने की बाध्यता उत्पन्न करता है। इन सुझावों की सराहना तो बहुत हुई लेकिन किसी भी पार्टी ने इन्हें स्वीकारा नहीं।
1999 में 15वें लॉ कमीशन के चेयरमैन जस्टिस बी पी जीवन रेड्डी ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में मतदाता को यह अधिकार ईवीएम मशीन में अलग से ‘किसी को भी नहीं’ बटन की व्यवस्था करने की बात की थी। कमीशन ने 50 प्रतिशत वोट के आधार पर विजेता घोषित करने की बात का भी समर्थन किया । 2001 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त जे एम लिंगदोह ने पत्र लिख कर प्रधानमंत्री से ईवीएम में नोटा बटन लगवाने की बात रखी । 2003 में चुनाव सुधार पर हुई सर्वदलीय बैठक में भी इस बात पर चर्चा हुई, परंतु सहमति नहीं बन सकी। जुलाई 2004 में चुनाव आयोग के मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री टी.एस. कृष्णमूर्ति ने पुन: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अधिशासकीय पत्र लिखकर अगले चुनाव से पूर्व ईवीएम में नोटा बटन लगाने की सिफारिश की ।
इस मामले में अब तक न तो सरकार ने कोई कदम उठाया है । हैरत की बात है की बांग्लादेश जैसे छोटे और पिछड़े देश ने भी यह सम्यक व्यवस्था 29 दिसंबर 2008 को हुए आम चुनाव में कर ली थी । हमारे यहां कानून मे व्यवस्था रहने के बावजूद ईवीएम में यह बटन नहीं लगाया जा रहा है। भारत ने अपनी निर्वाचन प्रणाली मूलत: कनाडा से ली है। जब हमने 1992 में इलेक्ट्रोनिक वोटिंग पध्दति लागू की तो उस समय नोटा के प्रावधान को भुला दिया। नोटा का प्रावधान फ़्रांस, कोलंबिया, स्पेन, नेवाडा (अमेरिका), स्विट्जरलैंड, थाइलैंड, यूक्रेन के लोगों के पास भी है।
इस व्यवस्था से सत्ता की दौड़ में शामिल राजनीतिक दलों के लिए मुश्किल खड़ी होगी और इसलिए वे इसे लागू करवाने से बिदक रहे हैं। लेकिन चुनाव आयोग इस बारे में क्यों गंभीर प्रयास नहीं कर रहा है, यह बड़ा सवाल है । लोगों को चुनाव देने के लिए प्रेरित करते समय चुनाव आयोग उन्हें क्यों नहीं यह भी बताता कि वे यदि चाहें तो सभी उम्मीदवारों को नकार भी सकते हैं?
राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग की जो भी मजबूरी हो लेकिन सामाजिक संगठनों के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। उन्हें नोटा के अधिकार के लिए भरपूर दबाव बनाना चाहिए और इसके लिए मीडिया सहित देशहित में सोचने वाले सभी लोगों की मदद लेनी चाहिए। नोटा का अधिकार भारतीय लोकतंत्र को और अधिक सक्षम बनाने की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम साबित होगा। गरीबपरस्त और भारतपरस्त राजनीति सुनिश्चित करने में इसकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन से साभार
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