शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

मध्यप्रदेश के चुनावी दंगल में ’उमा फ़ेक्टर’ की दह्शत

उमा भारती ने चुनावी समर में हुंकार भर कर बीजेपी की नींद उडा दी है । साध्वी प्रज्ञा सिंह को भारतीय जन शक्ति पार्टी से चुनाव लडने का न्यौता देकर उन्होंने बीजेपी की जान सांसत में डाल दी है । उमा ने साध्वी के ज़रिए भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधा है और उसे उसी के हिन्दू कार्ड से मात देने की पूरी बिसात बिछा दी है । प्रज्ञा सिंह के मामले से कुछ दिन पहले तक पल्ला झाडती नज़र आ रही बीजेपी को मजबूरी में ही सही इस मसले पर सामने आना पडा है ।

उमा भारती के राजनीतिक भविष्य पर विराम की संभावनाएं तलाशते भाजपाई नेता दोबारा गद्दीनशीं होने का रास्ता सीधा - सपाट मान बैठे थे । मध्य प्रदेश कांग्रेस की आपसी सर फ़ुटौव्वल के कारण उनका ये खवाब हकीकत में बदलने की गुंजाइश भी साफ़ - साफ़ नज़र आ रही थी ,लेकिन हाशिए पर जा चुकी उमा ने प्रहलाद पटेल के साथ सुलह करके बीजेपी की राह में कांटे बिछा दिए हैं । बिखराव की राजनीति के सहारे आगे बढना नामुमकिन है , इस हकीकत से वाकिफ़ होने के बाद दोनों नेताओं ने समय रहते गिले - शिकवे भुलाकर ऎक साथ आने में ही भलाई समझी । दोनों का मकसद एक है और मंज़िल भी एक ही ।

भाजपा को कांग्रेस से कडी चुनौती तो मिलना तय है ,लेकिन चुनाव में उमा फ़ेक्टर को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता । उमा भी बीजेपी को हर हाल में सत्ता से बाहर रखने की जुगत भिडाने में लगी हैं । छोटे - छोटे दल भी सत्तारुढ पार्टी का सिरदर्द बन गये हैं । इस मर्तबा प्रदेश के चुनावी जंग में प्रमुख दलों के अलावा छोटी पार्टियां भी निर्णायक भूमिका निबाहेंगी ।

मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश में अपने पैर मज़बूती से जमा लिए हैं । इसके अलावा राष्ट्रीय जनता दल , गोंडवाना गणतंत्र पार्टी , लोक जनशक्ति पार्टी और वामपंथी दलों ने भी अपने स्तर पर बीजेपी और कांग्रेस को घेरने की तैयारी कर ली है । मुखतलिफ़ राजनीतिक विचारधारा के बावजूद सीटों के तालमेल पर उमा की प्रांतीय दलों से पटरी बैठ सकती है । ऎसे में मायावती का साथ यदि उमा को मिल गया , तो प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरण बनेंगे । सत्ता की आस लगाए बैठी कांग्रेस तथा बीजेपी को नाकों चने चबाना होंगे ।

लगता है उमा का चुनावी मोटो है - हम तो डूबेंगे सनम ,तुम को भी ले डूबेंगे .......।

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

हिन्दू अतिवाद की सियासत में सेना बनी मोहरा

’ ये तेरा सच ,ये मेरा सच , किसी को देखना है गर
तो पहले आकर मांग ले मेरी नज़र ,तेरी नज़र । ’
देश में इन दिनों हालात कुछ ऎसे ही हैं । हर शख्स हरेक घटना को अपने नज़रिए से देखने का आदी हो चुका है । हिन्दू आतंकवाद के नए चेहरे के खुलासे के बाद से तथाकथित सेक्युलर दलों की बांछें खिलीं हुईं हैं । फ़िज़ा में चारों तरफ़ हिन्दू कट्टरवाद के दिल दहला देने सच के बेनकाब होने की किस्सागोई फ़ैली हुई है । समाचार चैनलों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के पूर्व अधिकारियों को जिस अंदाज़ में पेश किया है , लगता है मानो पूरा देश इनकी ही बदौलत बारुद के ढेर पर बैठा हो ।

राजनीतिक नफ़े नुकसान को ध्यान में रखकर गढी गई शाब्दिक परिभाषाओं का सच अब खुद- ब-खुद सामने आने लगा है । बहुसंख्यकों की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाता है । अब अल्पसंख्यकों की चिंता में घडियाली आंसू बहाना धर्म निरपेक्श्ता और बहुसंख्यकों के बुनियादी मसलों की चर्चा सांप्रदायिकता है । हालात इतने बिगड चुके हैं कि ८० करोड लोगों के बारे में बोलना कट्टरवादी या सांप्रदायिक होने का लेबल लगाने का पर्याप्त आधार बन गया है ।

महाराष्ट्र एटीएस जांच के बहाने मीडिया ने प्रज्ञा सिंह को रातों रात हिन्दू अतिवादी बना दिया है । इसमें साज़िश की बू आती है । मालेगांव और मोडासा बम धमाकों का आरोप मढने के पीछे मकसद देश की बडी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना है । ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए रची गई इस राजनीतिक साज़िश के नतीजे खतरनाक होने वाले हैं । ओछी राजनीति ने देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्शा को भी दांव पर लगा दिया है ।

बटला हाउस एनकाउंटर पर मचे बवाल ने पुलिस का मनोबल तोडा है । ज़बानी युद्ध लडने वाले नेताओं ने जांबाज़ अफ़सर की कुर्बानी पर सवाल खडॆ कर सियासी फ़ायदा भले ही ले लिया हो ,लेकिन देश की आंतरिक हिफ़ाज़त में जुटे तबके को निराशा से भर दिया है । लगता है इन घर फ़ूंक तमाशबीनों की तबियत इससे भी नहीं भरी । अब ये सैन्य अधिकारियों को आतंकी साज़िश का हिस्सा बताने पर तुले हैं । सेना के पूर्व अधिकारियों के साथ सेवारत अफ़सरों को भी लपेटे में लिया जा रहा है । हिन्दू अतिवादियों का मददगार बता कर सेना के खिलाफ़ मीडिया पर दिन - दिन भर चलाई जा रही खबरों का असर कहां - कहां तक और कितना गंभीर होगा ,इस पर सोचा है किसी ने ?

देश की सीमाओं की हिफ़ाज़त करने वाले जांबाज़ों की ओर उठने वाली शक भारी निगाहें क्या गुल खिलाएंगी । इसकी कल्पना मात्र से मन चिंता और डर से भर जाता है । अब तो सेना में मज़हब आधारित सर्वे का शिगूफ़ा भी इसी साज़िश का हिस्सा नज़र आता है । जब केंद्र में कमज़ोर शासक होता है , सूबे के सियासतदान अपने फ़ौरी फ़ायदों के लिए सिर उठाने लगते हैं । मज़हब , प्रांत , भाषा की लडाइयां इसी का नतीजा हैं । देश में लंबे समय से वैसे ही आपसी संघर्ष के हालात हैं । ऎसे में इस नई चुनौती का सामना करने की कुव्वत क्या देश में बाकी है ?

हादिसा कितना कडा है कि सरे - मंज़िले - शौक
काफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नज़र आता है

सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

आह को चाहिए इक उम्र ......

मलिका - ए - गज़ल को गुज़रे ३४ साल बीत चुके हैं ,लेकिन उनकी दिलकश आवाज़ अब भी फ़िज़ा में गूंजती है । जब कभी भी बेगम अख्तर की पुरनम आवाज़ कानों में पड जाती है ,ऎसा मालूम होता है मानो वक्त ठहर गया हो । उनकी खनकती आवाज़ की कशिश अपनी ओर खींचती है ।

बेगम ने मीर , गालिब , दाग और मोमिन जैसे नामचीन शायरों के अशारों को खास बंदिशों में पेश कर कमाल कर दिया । अगर कहा जाए कि बेगम अख्तर ने गालिब को हर दिल अज़ीज़ बनाने का काम किया ,तो कुछ गलत नहीं होगा । गालिब की गज़ल - ’आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक , कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक ’ और ’कोई उम्मीद बर नहीं आती ,कोई सूरत नज़र नहीं आती ,मौत का एक दिन मुअय्यिन है नींद क्यों रात भर नहीं आती , को श्रोताओं ने खूब पसंद किया ।

उन्होंने नए दौर के शायरों के कलाम को भी बडी सादगी से , मगर बेहद अलग अंदाज़ में पेश किया । शकील बदायुंनी की गज़ल ’ ए मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया / जाने क्यों आज सरे शाम से रोना आया ’ तो आज तक हर दिल में जवां है । उन्होंने कैफ़ी आज़मी , जिगर मुरादाबादी , हसरत जयपुरी के कलाम को भी सुरों की शक्ल में बखूबी ढाला । सुदर्शन फ़ाकिर की गज़ल - हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब / आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड दिया ’ अब तक लोगों की ज़बां पर है ।

गज़ल को लोकप्रिय बनाने और आम आदमी तक पहुंचाने में बेगम अख्तर का अहम किरदार रहाहै । हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रति समर्पित होने की वजह से जब वो गज़ल गाती , तो वह शास्त्रीय रागों से सजी होती थी । एक ही गज़ल को कई मर्तबा वो अलग - अलग रागों में तैयार करती थीं । उनकी गायकी में लखनवी नज़ाकत और नफ़ासत का मुज़ाहिरा होता है । गज़ल के साथ उनकी गायी होली , खयाल , ठुमरी , दादरा भी खूब पसंद किए गये ।

पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में हुए कंसर्ट काफ़ी मकबूल हुए । २६ अक्टूबर १९७४ को अहमदाबाद में स्टेज पर गाते हुए उन्हें दिल का दौरा पडा । वे उस वक्त - ’ऎ मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया ’ गज़ल गा रही थीं । इन लाइनों को गाने के दौरान ही वे गिर पडीं । चार दिन बाद ३० अक्टूबर को बेगम अख्तर फ़ानी दुनिया से रुखसत हो गईं । लेकिन उनकी आवाज़ का नशा अब भी लोगों को दीवाना बना देता है । उनके खनकती आवाज़ के मुरीद अब भी गुनगुनाते हैं - ज़रा धीरे से बोलो कोई सुन लेगा , ज़रा धीरे ,तुम धीरे ........।

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2008

बिहार में मचे बवाल पर सुलगते सवाल


बिहार में पिछले तीन दिनों से चल रहे बवाल का मकसद समझ से बाहर है । इम्तेहान देने गये बिहारी युवकों की मुम्बई में पिटाई पर भी इतना हंगामा नहीं हुआ । यहां तक कि राज की गिरफ़्तारी और ज़मानत पर छूटने के स्क्रिप्टेड ड्रामे पर भी खामोशी का आलम रहा । फ़िर एकाएक ऎसा क्या गुज़्रर गया , जो बिहार में ट्रेनें जलाने , रेलगाडियां रद्द करने या मारपीट की नौबत आ गई । राज का गुस्सा अपने ही प्रदेश में अपने ही लोगों पर निकाल कर आखिर क्या साबित करने की कोशिश हो रही है ?

बिहार के युवाओं का ये गुस्सा आखिर किस पर है - राज ठाकरे , शिव सेना , लालू यादव या फ़िर अपने आप पर । राज ठाकरे के आग उगलते बयानों ने दफ़न हो चुके बुनियादी मुद्दों को सतह पर ला दिया है । मेरी नज़र में लंबे समय से बदहाली का जीवन गुज़ार रहे बिहार के युवाओं को राज ने एक मौका दिया है सूबे के रहनुमाओं से जवाब तलब करने का । बिहार में बेवजह हो रहे इस फ़साद के मकसद को समझना बेहद ज़रुरी है । कहीं ऎसा तो नहीं कि युवा जोश को सियासी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है ।

वैसे तो राजनीतिक समझ के मामले में बिहार का आम आदमी भी होशियार माना जाता है । हिन्दी अखबारों के दफ़्तरों में आज भी धुरंधर पत्रकारों की फ़ेहरिस्त में ज़्यादातर नाम बिहारी ही मिलेंगे । ऎसे में ये समझ पाना बडा ही मुश्किल है कि राज को गुंडा , आतंकवादी और देशद्रोही करार देने वाले लोग अपने प्रदेश के नेताओं से राज्य के हालात का लेखा जोखा क्यों नहीं मांगते ?

देश - दुनिया के राजनीतिक हालात , और तो और दफ़्तर की उठापटक में घंटॊं सिर खपाने वाले ये धुरंधर आखिर अपने राज्य के दिनोंदिन बदतर होते हालात पर क्यों खामोशी अख्तियार किए हैं । ट्रेनें रद्द करने का यकबयक लिया गया फ़ैसला भी हैरानी में डालने वाला है । राजस्थान के गुर्जर आंदोलन के दौरान भी तब तक रेल सेवा जारी रही , जब तक हालात हिंसक होकर बेकाबू नहीं हो गये । रोज़ी की जुगाड में अन्य राज्यों में बसे बिहारियों को ऎन दीपावली पर घर लौटने से रोककर आखिर कौन सी सियासती चाल चली जा रही है ।

अगर ये ट्रेनों के ज़रिए राजनीति चमकाने की बेहूदा कोशिश हो रही है , तो इसे पहचान कर तुरंत रोकने की ज़रुरत है ,क्योंकि आखिर में ये बिहार को ही नुकसान पहुंचाने वाला कदम साबित होगा । अगर ये बिहार की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार नेताओं के खिलाफ़ फ़ूटा गुस्सा है , तो काबिले गौर है । बिहार के युवाओं को सियासतदानों से हिसाब मांगना ही होगा अपने भविष्य और अपने अतीत का भी ........।
हम वो राही हैं जो मंज़िल की खबर रखते हैं
पांव कांटों पे , शिगूफ़ो पे नज़र रखते हैं
कितनी रातों से निचोडा है उजाला हमने
रात की कब्र पे बुनियादे सहर रखते हैं

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

इठलाती , बल खाती , गुनगुनाती .......


पूर्ब से पश्चिम की तरफ़ जाने वाली नर्मदा देश की एकमात्र ऎसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है । नर्मदा परिक्रमा के अनुष्ठान की परंपरा कब शुरु हुई ये कह पाना तो ज़रा मुश्किल होगा । लेकिन हर साल करीब पांच लाख से ज़्यादा श्रद्धालु नर्मदा की परिक्रमा पर निकलते है । आमतौर पर अमरकंटक से यात्री अपना सफ़र शुरु करते हैं और रेवा सागर संगम तक करीब १३३५ किलोमीटर का रास्ता तय कर पहले चरण को अंजाम तक पहुंचाते हैं । दूसरे चरण में उत्तर तट से अमरकंटक तक १८३६ किलोमीटर की यात्रा होती है ।
सरदार सरोवर , ओंकारेश्वर और रानी अवंतिबाई बांध बनने से परिक्रमा मार्ग का बडा हिस्सा डूब चुका है । बची खुची कसर प्रस्तावित महेश्वर बांध पूरी कर देगा । नर्मदा में आस्था रखने वालों के लिए राज्य सरकार ने बडे ज़ोर शोर से सर्वे कराया । परिक्रमा मार्ग को व्यवस्थित और सुविधाओं भरा बनाने के लिये नामचीन हस्तियों की कमेटी का एलान हुआ और भारी - भरकम कार्य योजना का खाका तैयार किया गया । मगर हमेशा की तरह नतीजा सिफ़र ।
नर्मदा के भक्त तो तमाम मुश्किलात के बावजूद अपनी मंज़िल तक पहुंच ही जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के कामकाज के लिए बस यही कहा जा सकता है - नौ दिन चले अढाई कोस । दरअसल सरकार ने नर्मदा के तीरे जगह - जगह होटल , ढाबे और यात्री निवास बनाने के साथ पक्का परिक्र्मा मार्ग तैयार करने का प्रस्ताव बनाया है । यानी लोग तीर्थाटन के बहाने पर्यटन का लुत्फ़ भी ले सकेंगे । लेकिन परिक्रमा मार्ग तय करने में नौकरशाही का अडंगा श्रद्धालुओं की परेशानी का सबब बन गया है । सरकारी मशीनरी की कछुआ चाल के चलते लोगों को अपनी तीर्थयात्रा को सुगम बनाने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड सकता है ।
नदियों से हमारे जीवन का आध्यात्मिक पहलू भी जुडा है । हालांकि बदलते वक्त में पाप - पुण्य की परिभाषा भी उलट गई है । ऎसे में ये कह पाना बडा ही मुश्किल है कि नर्मदा में डुबकी लगाते ही पाप नष्ट होते हैं या नहीं । हां ,इतना ज़रुर है कि सतत प्रवाहिणी रेवा की जलधारा जीवन की कठिनाइयों से बैचेन मन का ताप हर लेती है । रेवा तट पर प्राक्रतिक सौंदर्य से लबरेज़ कई जगहें हैं जहां सुकून मिलने के अलावा कुदरत के साथ एकाकार होने का एहसास होता है । पवित्र धार्मिक ग्रंथों में आता है कि गंगा में स्नान करने से पापों का नाश होता है , जबकि नर्मदा का दर्शन मात्र ही जन्म - मरण के चक्र से मुक्ति देता है । किंवदंती है कि गंगा भी साल में एक बार काली गाय के रुप में नर्मदा में स्नान करने आती है ।
क़रीब तेरह सौ किलोमीटर के सफ़र में नर्मदा मध्य प्रदेश , गुजरात और महाराष्ट्र के बडे हिस्से में प्रवाहित होती है । भडौंच के नज़दीक खंबात की खाडी में अपने अस्तित्व को अथाह सागर में समाहित करने वाली नर्मदा वन अंचलों से लेकर ग्रामीण इलाकों तक समान रुप से वंदनीय है । गायन और संगीत प्रधान सामवेद में नर्मदा की महिमा का बखान किया गया है । नर्मदा भी सागर तक की अपनी यात्रा गाते - गुनगुनाते हुए करती है । कहते हैं गंगा कनखल और सरस्वती कुरुख्शेत्र में सबसे अधिक पवित्र मानी जाती है । परंतु नर्मदा की महिमा का कोई पार नहीं । वो तो गांव - गांव और डगर - डगर , सब जगह हर रुप में पवित्र हैं ।
मैदानी इलाकों में शांत और गंभीर नज़र आने वाली ये पुण्य सलिला वनांचलों के बीच कहीं चट्टानों से टकराकर उन्हें शिकस्त देने के मद में इठलाती हुई आगे बढती है । अपनी मंज़िल तक पहुंचने की बेताबी में कुंलाचे भरती रेवा ऊंची चट्टानों की परवाह भी नहीं करती । यहीं देखा जा सकता है जल प्रपातों का अदभुत सौंदर्य । चट्टानों से टकराकर ,उछल - उछल कर ’ रव ’ यानी ’ध्वनि’ करती है , इसीलिए तो रेवा कहलायी ।
कभी नज़र से नज़र मिलाकर , कभी नज़र से नज़र बचाकर
डुबो रही थी , मिटा रही थी , पिला रही थी , छका रही थी ।

बुधवार, 22 अक्टूबर 2008

राज की सियासत और बिहार की ज़मीनी हकीकत

महाराष्ट्र सरकार के लचर रवैए ने पूरी मुंबई और कई बडे शहरों को आग में झोंक दिया । एक खत्म हो चुके नेता को इतना बडा हो जाने दिया कि अब हालात बेकाबू हो चले हैं । महाराष्ट्र में राज समर्थक और बिहार में राज विरोधियों का उत्पात लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गया है । कहते हैं समझदार बागबान वही होता है जो बगीचे की खूबसूरती में खलल डालने वाले जंगली पौधों को शुरुआत में ही जड से उखाड फ़ेंके । लेकिन राज के मामले में तो बीज को खाद - पानी देकर दरख्त बनने का मौका दिया गया । पेड के तने को काटने की ज़हमत अब उठाई है ,जब उस पर फ़लों की आमद हो चुकी है ।
इस बीच बिहार के कई शहरों में राज के खिलाफ़ नफ़रत की आग ज़ोर पकडने लगी है । लेकिन बुनियादी सवाल अब भी वहीं का वहीं है । आखिर क्यों बिहार से दूसरे राज्यों को जाने वाली ट्रेनें खचाखच भरी रहती हैं ? गंगा किनारे की उपजाऊ ज़मीन जो पूरे देश का पेट भर सकती है , वहां लोगों को भूखे पेट सोना पडता है । बहुमूल्य खनिज संपदा से जिस इलाके को कुदरत ने नवाज़ा हो , वहां का आम आदमी अपनी पहचान और दो जून की रोटी की तलाश में भटकता है ।
नेपाल की सडकें हों या मुम्बई या फ़िर चैन्नई हर जगह मायूसी और बेचारगी से भरे कुछ चेहरे आपको दिख जाएंगे । उबले चनों की चाट या सब्ज़ी का ठेला चलाते ये लोग किसी बडॆ हसीन खवाब की तलाश में घर से दूर नहीं आते । वो क्या कारण हैं कि ये लोग इतने छोटे - छोटे कामों की तलाश में हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय करने को मजबूर हैं ।
मौर्य और नंद वंश के वैभवशाली इतिहास के गवाह बने इस इलाके के मौजूदा हालात के लिए यहां के नेता सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं । धाकड नेताओं की लंबी फ़ेहरिस्त देने वाला बिहार इन्हीं नेताओं की बेरुखी की सज़ा भुगत रहा है । नैसर्गिक संपदा के अथाह भंडार का प्रदेश की जनता के हित में यदि सदुपयोग नहीं हो सका ,तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ?
लालू यादव जब तक प्रदेश में राज करते रहे उन्हें कभी बिहारियों की सुध नहीं आई । रेल मंत्री बनते ही बिहार के बेरोज़गार युवाओं के उद्धार के इस जनसेवी कदम की हकीकत कुछ और ही है । छन - छनकर आने वाली खबरें बताती हैं कि रेलवे में अपना भविष्य तलाशने वाले युवाओं को खेत , ज़मीन और मकान के रुप में कीमत चुकाना पडी है । बिहार में नेताओं और अफ़सरों के गठजोड ने आम आदमी को पलायन के लिए मजबूर किया है । बिहार ने देश को कई प्रतिभावान पत्रकार दिए हैं लेकिन बेहद अफ़सोसनाक पहलू ये भी है कि यहां के हालात में रद्दो बदल पर ईमानदारी से अब तक किसी ने कलम नहीं चलाई ।
और अब कुछ तथ्य आंकडों की ज़ुबानी -
१ . २००१ की जनगणना के मुताबिक़ दिल्ली की आबादी १ करोड़ ३७ लाख के क़रीब , इसमें २७ लाख से अधिक बिहारी ।
२ २००१ में बिहार की आबादी ८ करोड़ २८ लाख ७८ हजार ।
३. मोटे तौर बिहार के साढ़े तीन फीसदी लोग अकेले दिल्ली में आ बसे ।
४. अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार से दो से तीन लाख लोग बिहार से बाहर जाते हैं
५। फ़िलहाल कम से कम एक करोड़ बिहारी बिहार से बाहर हैं ।
जिस बात का खतरा , सोचो कि वो कल होगी
ज़रखेज़ ज़मीनों में बीमार फ़सल होगी
स्याही से इरादों की तस्वीर बनाते हो
गर खून से बनाओ , तो तस्वीर असल होगी ।

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2008

अकेले राज ही तो कसूरवार नहीं ..........

आखिरकर राज की गिरफ़्तारी को लेकर चल रही कश्मकश का फ़िलहाल तो खात्मा हो गया लगता है । गैर मराठियों को महाराष्ट्र के रंग में रंगने की चाहत के साथ सियासी जंग में किस्मत आज़माने निकले राज ठाकरे की राजनीतिक हैसियत बढाने में मीडिया , कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का खास रोल है । अपने सियासी नफ़े नुकसान को मद्देनज़र रखकर इन द्लों ने बयानबाज़ी की । राज्य सरकार ने शुतुरमुर्गी रवैया अख्तियार कर मामले को हवा दी । शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को हासिल करने के लिए शुरु हुई वर्चस्व की लडाई को दूसरे द्लों ने अपने - अपने फ़ायदे के लिए तूल दिया । हालांकि यह पहली बार नहीं है कि मुंबई में बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों को ऐसे हालात का सामना करना पडा हो । इससे पहले शिवसेना ऐसा कहती और बहुत कुछ करती रही है ।देश की वाणिज्यिक राजधानी की जीवनशैली पश्चिमी जीवनशैली के खुलेपन से ख़ासी प्रभावित है । इस शहर में ऐसा कौन सा प्रदेश है जहाँ के लोग न रह रहे हों और इसे अपना शहर न मानते हों । यह और बात है कि बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों की संख्या बाक़ी प्रदेश के लोगों से कुछ ज़्यादा है । इस बात से न शिवसेना इनकार कर सकती है और न महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना कि मुंबई की कई ऐसी मूलभूत सेवाएँ हैं जो इन्हीं बिहार और उत्तरप्रदेश से आए लोगों के भरोसे चलती हैं । निश्चित तौर पर बाल ठाकरे और राज ठाकरे इस आबादी को अपने वोट बैंक का हिस्सा नहीं मानते और उन्हें यह डर सताता रहता है कि कहीं इस आबादी की अपनी राजनीति मुंबई में इतनी हावी न हो जाए कि वे ही दरकिनार कर दिए जाएँ । आश्चर्य होता है कि उसी प्रदेश में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे दूसरे राजनीतिक दल भी इस तरह की राजनीति का वैसा विरोध नहीं करते जैसा कि राष्ट्रीय पार्टी को करना चाहिए । विरोध का स्वर उठाने वाले लालू यादव , मुलायम सिंह और नीतिश कुमार जैसे नेता हैं , जो खुद सवालों के घेरे में हैं । केवल दिखावे के लिए विरोध करने वाले इन नेताओं ने क्या कभी ईमानदारी से सोचा कि बिहार और उत्तरप्रदेश के ही लोगों को इतनी बड़ी संख्या में क्यों पलायन करके मुंबई जाना पड़ता है । क्यों उन्हें जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों की विषम परिस्थितियों में जीते हुए जान जोख़िम में डालकर रहना पड़ता है । क्या कभी इस तरह की राजनीति करने वालों ने विचार किया है कि जम्मू-कश्मीर और बस्तर के अबूझमाड़ जैसे सघन आदिवासी इलाके में देश के दूसरे हिस्सों से आने वाले नागरिकों के लिए नियम क़ायदे कुछ अलग हैं , लेकिन वे फिर भी वैसे नहीं हैं जिसका पाठ ये दोनों दल मिलकर पढ़ाना चाहते हैं । गनीमत है कि ब्रिटेन में अभी ठाकरे जैसे राजनीतिज्ञ नहीं हैं जो दीवाली और लोहड़ी मनाने वाले भारतीयों को वापस भारत भेजने की बात कहें या अमरीका में कोई फ़तवा जारी नहीं कर रहा है कि नियमित रुप से चर्च न जाने वाले भारतीय सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों के वीज़ा रद्द कर दिए जाएँ । बिहार और उत्तर प्रदेश से लाखों लोग आजीविका की तलाश में पलायन कर गए हैं । भारत के नागरिकों को मिले मूलभूत अधिकारों का हिस्सा है कि वह देश के किसी भी हिस्से में जाए वहाँ रहें रोज़गार तलाश करे और ज़मीन जायदाद ख़रीदकर वहाँ बस जाएं । तो ये कौन लोग हैं जो आज़ादी के इकसठ साल और संविधान लागू होने के ५९ साल बाद नागरिकों से उनके मूलभूत अधिकार छीनने की धमकी दे रहे हैं । कौन दे रहा है उन्हें यह अधिकार ....? उन्हें क्या हक़ पहुँचता है कि वे महाराष्ट्र के भीतर अपना राष्ट्र स्थापित करने की कोशिश करें ? कभी श्रीनगर में गिलानी ग़ैर-कश्मीरियों को निकालने की बात करते हैं और कभी असम में हिंदीभाषी लोगों को मार दिया जाता है । अगर किसी को अपने गाँव अपने शहर और अपने राज्य में रोज़गार के पर्याप्त और अच्छे अवसर मिलेंगे तो कोई क्यों इस तरह अपमानित होने और अपनी जान से हाथ धोने जाएगा ।भारत के कुछ राज्यों में उठने वाले ये सवाल जटिल नहीं हैं और न उनके जवाब कठिन हैं लेकिन इस पूरे मसले को राजनीति और वोट बैंक से अलग होकर देखना होगा जिसकी गुंजाइश फिलहाल भारतीय राजनीति में थोड़ी कम नज़र आती है । चुनावों में बिहार का पलायन कोई मुद्दा ही नहीं बनता । किस्तों में विस्थापित हो रहे इन लोगों की न तो बिहार के चुनाव में कोई सीधी भागीदारी है और न ही वहां के नेताओं को उनकी फ़िक्र । मुम्बई के अलावा दिल्ली और कोलकाता के साथ ही पंजाब और हरियाणा में भी बड़ी संख्या में बिहारी रोज़ी रोटी की तलाश में जा बसे हैं । वे रिक्शा चलाने और खोमचे-ठेले पर सब्जियां बेचने से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दफ्तरों तक में छाए हुए हैं । आँकड़े गवाही दे रहे हैं कि दस से पंद्रह सालों में पलायन बढ़ा है। । वैसे १९७० के दशक में पंजाब और हरियाणा में हरित क्रांति के दौर में बिहार , उत्तर प्रदेश , उड़ीसा और मध्यप्रदेश से जमकर पलायन हुआ । इनमें भी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग ज्यादा थे । वजह ये सस्ते खेतिहर मजदूर थे । बाद के दशकों में हसीन सपने लेकर दिल्ली और मुंबई जाने वाले युवकों की संख्या बढ़ गई । बेशक इनमें से कई ऊंचों पदों पर बैठे हैं । लेकिन ऊंचे सपने लेकर दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर की राह पकड़ने वाले न जाने कितने लोग बिहारी और भइया बनकर रह गए । बरसों पहले बिहार से बाहर जा बसे लोग मानते हैं कि बिहार की बदहाली ने लोगों को बाहर निकलने के लिए मजबूर कर दिया । अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार से दो से तीन लाख लोग रोजी रोटी की तलाश में बिहार से बाहर चले जाते हैं । आंकडों की ज़बान का यकीन करें तो अभी कम से कम एक करोड़ बिहारी बिहार से बाहर हैं । यह आंकड़े नहीं महत्वपूर्ण सूचनाएँ हैं कि बिहार देश का सबसे पिछड़ा राज्य है । वहां प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है ४२।३ फ़ीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं । लेकिन क्या बिहार के राजनीतिक क्या इन आँकड़ों को सुन-पढ़ रहे हैं । राज ठाकरे को कोसने की बजाय उस मुद्दे पर गौर किया जाए , जो बिहार के लोगों को सतरंगी सपने पूरे करने के लिए नहीं महज़ दो वक्त की रोटी की जुगाड में अपना घरबार छोडकर बाहर निकलने पर मजबूर करता है ।
हैरत की बात है कि वहां जी रहे थे लोग
गो शहर में कहीं भी हवा का गुज़र न था ।