मानव मन के उल्लास और उमंग को अभिव्यक्त करने के कई अनूठे तौर तरीके अनादि काल से चले आ रहे हैं । समय - समय पर भरने वाले मेले सामयिक संदर्भों से जुड़ने की जीवंत परंपरा के साथ ही विभिन्न अँचलों में ग्राम और लोक देवताओं को याद करने के बहाने होते हैं ।
देश की मौलिक संस्कृति में मेलों की सतरंगी छटा चारों ओर बिखरी दिखाई देती है । मेलों का ग्राम्य स्वरुप प्रचलित भी है और प्रसिद्ध भी । हालाँकि अब शहरों में भी मेलों का आकर्षण बढने लगा है लेकिन उनमें गाँव के मेलों सा सौंधापन कहाँ......? इन मेलों के मूल में कोई अन्तर्कथा है ,संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है कि इन आयोजनों का "लोक आस्था का मूल तत्व" तमाम अपसंस्कृति के बावजूद अब तक मिट नहीं सका है ।
मेले का अनूठापन ही है कि लोग स्वतः स्फ़ूर्त प्रेरणा से नियत तिथि और निश्चित स्थल पर साल दर साल जुड़ते रहते हैं , बगैर आमंत्रण की प्रतीक्षा किए ....। दशकों क्या सदियों से यही परंपरा चली आई है । लेकिन आज एक समाचार पढ़कर मन आशंकाओं से भर गया । एक साथ कई सवाल उठने लगे ज़ेहन में । मध्यप्रदेश में हर साल छोटे - बड़े करीब डेढ़ हज़ार मेले लगते हैं । धार्मिक ,सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े इन मेलों पर अब राज्य सरकार का रहमो करम होने जा रहा है । दर असल यही सरकारी पहल ऊहापोह का सबब बनी है ।
मध्यप्रदेश लोककला और संस्कृतियों की विविधता को समेटे हुए है । प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में लगने वाले मेलों पर नज़र रखने के लिए राज्य सरकार मई तक मेला प्राधिकरण बनाने की तैयारी में है । यह सरकारी महकमा मेलों के इंतज़ाम के अलावा कलाकार जुटाने और पैसे के हिसाब किताब का ज़िम्मा भी सम्हालेगा । यूँ तो ये प्राधिकरण संस्कृति विभाग के अधीन ही काम करेगा मगर इसकी एक अलग समिति होगी । हर ज़िले में उप समितियाँ बनाई जाएँगी । दलील दी जा रही है कि मेलों में अश्लीलता के नाम पर जम कर विवाद होते रहे हैं । सरकार के मुताबिक इन घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए प्राधिकरण बनाने की ज़रुरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी । संस्कृति विभाग चाहता है कि धार्मिक मेले धर्ममय होने चाहिए ।
अब इन दलीलों पर क्या कहा जाए ? मेरे शहर में कई मेले लगते हैं । इनमें मुम्बइया आइटम गर्ल्स के धमाल और दर्शकों के बवाल पर किसी की निगाह नहीं जाती । राजधानी में सरकारी ज़मीन पर बड़े- बड़े उद्योग घराने बरसों से निजी किस्म के मेले लगाते चले आ रहे हैं । व्यापारियों से स्टॉल लगाने के एवज़ में मोटी रकम लेते हैं और सरकार से तमाम तरह की छूट भी । हाल के सालों में इन बेशकीमती ज़मीनों को आयोजन समितियों के हवाले करने की माँग भी ज़ोर पकड़ने लगी है , जबकि ये मेले शुद्धतः व्यापारिक लाभ के लिए लगाये जाते हैं । इनमें संस्कृति या परंपरा को बचाये रखने जैसा कोई सरोकार नहीं है ।
ग्रामीण मेले लम्बे समय से बिना किसी व्यवधान के बेहतरीन ढंग से लगते चले आ रहे हैं । वैसे भी ग्रामीण अँचल की संस्कृति से जुड़े मेलों में अब तक तो कोई ऎसी शिकायतें सुनने में नहीं आईं । लगता है -" पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए ।" ग्रामीण संस्कृति को बचाने के लिए वाकई ईमानदार कोशिश करना है , तो उसे सरकारी नियंत्रण से दूर ही रखना होगा । पंचायतों के ज़रिए गाँवों तक स्वराज पहुँचाने के ख्वाब का हश्र इस बात की पुष्टि करता है ।
कल ही मैं एक प्रादेशिक चैनल पर देख रही थी कि टीकमगढ ज़िले में किस तरह गाँव के लोगों ने बिना किसी सरकारी मदद के लम्बी चौड़ी नहर खोद डाली । जब सूबे के कई बड़े शहरों में पानी के लिए हाहाकार मचा है ,तब इस इलाके के कई गाँव ना सिर्फ़ अपनी और अपने मवेशियों की प्यास बुझा रहे हैं , बल्कि खेतों को लहलहाता देखकर आह्लादित भी हैं । सरकारी मदद के भरोसे ना जाने कितने वित्तीय साल बीत जाते ...? बजट आता लेकिन काग़ज़ी योजना को हकीकत में शायद कभी नहीं बदल पाता । मेरी राय में योजना के खर्च का एस्टीमेट ईमानदारी से बना कर पैसा उन सभी लोगों में बाँट दिया जाना चाहिए , जिन्होंने इस भगीरथी प्रयास को अंजाम दिया ।
एक तरफ़ तो योजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है । दूसरी तरफ़ नेताओं और अधिकारियों की जेबें भरने के लिए प्राधिकरण बनाया जा रहा है । क्या यह फ़ैसला " तुगलकी फ़रमान" नहीं ....?
( चुनाव पूर्व चेतावनी - राजनीतिक दलों तक अपनी बात पहुँचाएँ , उन्हें बताएँ कि अब मतदाता पार्टी को नहीं ईमानदार और साफ़ छबि वाले उम्मीदवार को वोट देगा । पार्टियाँ जिस दिन इस बात को जान जाएँगी, तब " जीत की गारंटी वाला " आपराधिक छबि का प्रत्याशी चुनना आपकी मजबूरी नहीं होगी । यानी दिखावे पर ना जाएँ अपनी अकल लगाएँ । )
8 टिप्पणियां:
sareetha jee,
aap saamyik muddon ko uthakar apnee lekhnee se unhein saarthak kar detee hain. aap se sahmat shat pratishat.
आपने बहुंत ही सामयिक (अपितु समयपूर्व) महत्वपूर्ण, आवश्यक और गम्भीर बात उठाई है।
मेरे विचार से, सरकारी तन्त्र को मनमानी करने से रोकने के लिए, नागरिकों की ओर ऐसे मेलों की रूपरेखा भेजी जानी चाहिए। यह काम व्यक्तिगत अथवा सामूहिक/संस्थागत रूप से किया जा सकता है। ऐसा किसी एक व्यक्ति/संगठन पर नहीं छोडा जाना चाहिए। अधिकाधिक लोग/संगठन ऐसी रूपरेखा वाले सुझाव भेजें। इसके दो प्रभाव होने की आशा है। पहला-सरकारी अमले को जन-भावना का अनुमान होग। दूसरा-किस प्रकार के कार्यक्रम किए जाने चाहिए, यह अधिक स्पष्ट हो सकेगा।
यह काम जिला स्तर पर भी किया जाना चाहिए। लोगों की चुप्पी, सरकारी अमले को मनमानी करने की सुविधा देती है।
आपकी इस पोस्ट से मुझे यह विचार मिला है। मेरे जिले में यदि ऐसा मेला आयोजित हुआ तो मैं प्रयास करूंगा कि ऐसी रूपरेखाएं सम्बन्धित अमले को भेजी जाएं।
यदि ऐसा कर पाया और तदनुसार उस पर अमल हो पाया तो इसका समूचा श्रेय आपके खाते में।
प्राधिकरण बनाकर मेले लगाने का एक मतलब तो साफ है कि मेला प्राधिकरण की आमदनी होगी और अधिकारियों का दखल बढ़ेगा। समितियां दिखावे की होंगी। अधिकारियों की जेब गर्म होंगी।
yes, i also agree with u. narayan narayan
"बिना किसी सरकारी मदद के लम्बी चौड़ी नहर खोद डाली"
बहुत गलत काम किया है, अब इस पर मंतरी और संतरी को कमीशन कैसे मिलेगा?
एसे लोगों को तो पकड़ कर बंद कर देना चाहिये जी
आप ने ठीक कहा है. सर्कार जहाँ जहाँ दखल देती है वहीँ बँटा ढार होता है. कमाई का एक और ज़रिया. आभार.
एक सामयिक विषय पर वस्तुनिष्ठ चर्चा!!
सस्नेह -- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
अगर सरकार की मंशा सुविधायें प्रदान करना है तो सही कदम है अन्यथा ... इतर उद्देश्यों से तीर चलाना लोकतंत्र में चिंताएं उत्पन्न करता है.
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