मंगलवार, 20 जनवरी 2009

डॉक्टरों के नहले पर जब पडा दहला ......!!!

इस खबर को पढ कर ज़रा सोचिए कौन सी कहावत सबसे सटीक बैठती है :

* सेर को सवा सेर

* नहले पर दहला

* चोर के घर चोरी

* तू डाल डाल मैं पात - पात


किस्से अभी और भी हैं जाइएगा नहीं ..................
भोपाल के निजी नर्सिंग होम्स में मरीज़ों की सेहत के साथ खिलवाड के मामले आम हैं । मनमानी वसूली और मरीज़ के शरीर पर जमकर प्रयोग करने की शिकायतें भी अक्सर सुनने मिलती रहती हैं । जनता की सेवा के लिए सरकार से सस्ती दरों पर ली गई बेशकीमती ज़मीनों पर आलीशान होटल की मानिंद अस्पताल खडे कर दिये गये हैं , जिनमें नौसीखिए डॉक्टर अपना चिकित्सकीय ज्ञानार्जन कर रहे हैं ।

कुछ समय पहले मेरे छोटे बेटे कार्तिकेय के कारण जे पी अस्पताल का चक्कर लगाना पड गया । वहां के अनुभव ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया । हम सरकारी अस्पताल को हमेशा ही हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं । छोटी - छोटी बातों के लिए नर्सों - डॉक्टरों को कोसने लगते हैं । लेकिन मैंने पाया कि कम सुविधा साधनों के बावजूद इन कर्मचारियों का स्नेहिल बर्ताव मरीज़ों और उनके परिजनों के लिए मानसिक संबल का काम करता है ।

वार्ड में दमोह से अपने पचपन साल के जीजा को इलाज के लिए भोपाल लाए एक व्यक्ति से बातचीत के दौरान पता चला कि वे शहर के मशहूर हार्ट अस्पताल में एक हफ़्ता गंवाने के बाद हार कर सरकारी अस्पताल की शरण में आए हैं । निजी अस्पताल प्रबंधन ने उन्हें 30-35 हज़ार रुपए का बिल थमा दिया जबकि रोगी हालत में सुधार आना तो दूर दिनबदिन गिरावट ही आती जा रही थी । आखिर में उन्होंने किसी तरह अस्पताल से छुटकारा पाया । बिना मांगे ही मुफ़्त सलाह देना , दूसरे के दुख में दुबला होना और गलत के खिलाफ़ आवाज़ उठाना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है , इसलिए मैंने उन्हें बताया कि ये केस न्यूरोलॉजी से संबंधित है ना कि हृदय रोग से ।

इसी तरह पिछले दिनों एक और वाकया मेरे साथ ही गुज़रा । मेरी माताजी को भूख ना लगने की शिकायत के चलते और भी कई पाचन संबंधी दिक्कतों ने घेर लिया । दो - तीन दिन घरेलू उपचार के बाद हमने डॉक्टर से परामर्श का मन बनाया । घर के सबसे नज़दीक होने के कारण हम भी इसी अस्पताल पहुंचे । हमॆ रिसेपशनिस्ट ने लॉबी में बैठने को कहा । साथ ही इत्तला दी कि डॉक्टर करीब एक - दो घंटॆ बाद आएंगे । हम सभी इंतज़ार कर ही रहे थे कि एक वार्ड बॉय व्हील चेयर लेकर आ गया और पूछने लगा कि मरीज़ कौन है ? हम चौंके ...। बताया कि रोगी की हालत इतनी गंभीर नहीं है कि वो चल फ़िर भी नहीं सके । तब उसने कहा कि डॉक्टर साहब को आने में वक्त लगेगा और उन्होंने मरीज़ को आईसीयू में दाखिल करने का इंस्ट्रक्शन दिया है । ये सुनने के बाद तो हम सब हक्के बक्के रह गये और वहां से भाग निकलने में ही अपनी खैरियत समझी ।

बाद में हम तुरंत ही एक क्लीनिक पहुंचे , जहां केवल सौ रुपए फ़ीस लेकर एक दो दवाएं लिखीं और खानपान का खास ध्यान रखने की हिदायत देते हुए कहा कि बढती उम्र के साथ रेशेदार फ़ल - सब्ज़ियां खाएं , चिंता की कोई बात नहीं । कहना ना होगा कि तीसरे दिन ही मेरी माताजी चुस्त - स्फ़ूर्त हो गईं ...।

पिछले महीने कार्तिकेय को निजी अस्पताल में दिखाने की सज़ा भी हमने खूब पाई । छोटा सी दिक्कत के चलते डॉक्टर ने सोनोग्राफ़ी तक करा डाली । दवा के नाम पर ना जाने क्या लिख डाला कि रात होते तक मेरा दुबला पतला बेटा सूमो पहलवान हो गया । पूरी रात रोते-रोते बिताई उसने । सुबह डॉक्टर का पता ठिकाना तलाशते उनके घर पहुंचे ।

डॉक्टर दंपति का गैर पेशेवराना रवैया देखकर गुस्सा भी आया और हैरानगी भी । दवा के रिएक्शन से पूरे शरीर पर आई सूजन देख लेने के बावजूद उनका कहना - " हम घर पर मरीज़ को नहीं देखेंगे और क्लीनिक दस बजे खुलेगा ।" काफ़ी बहस के बाद उन्होंने बच्चे को देखा और कहा कि ये तो किसी गंभीर बीमारी का शिकार है , दवा के रिएक्शन का असर नहीं ।

सारा माजरा समझते ही हमने उसे रेडक्रास अस्पताल में दिखाया और दिक्कतों से छुटकारा पाया । डॉक्टर ने सभी दवाएं देखने के बाद बताया कि इनमें से एक दवा ऎसी है , जो अक्सर रिएक्शन करती है । उन्होंने पुरानी दवा बंद करके एंटी एलर्जिक दे दी और बच्चा दो दिन में ही उछलने कूदने लगा । नर्सिंग हो्म्स की कहानियां यानी हरि अनंत हरि कथा अनंता , बहु विधि कहहिं सुनहिं सब संता .......।










7 टिप्‍पणियां:

विवेक सिंह ने कहा…

अब डॉक्टर भी आदमी हो गए हैं !

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

आपने एक दम सही चिट्ठा लिखा है सरिता जी,
आज कल के कुछ चिकित्सक वाकई डाकुओं और हैवानों से कम नहीं हैं, लाश को तब तक रखे रहेंगे जब तक बिल न चुका दो. आपको ऐसा लूट लेंगे कि आपके पास घर जाने को भी पैसे न हों
किसी जमाने में भगवान् का दर्जा पाने वाले डाक्टर्स को आज पैसों का भूत चढा हुआ है.
- विजय

संगीता पुरी ने कहा…

पहले डाक्‍टरों को भगवान का रूप कहा जाता था....अब यह क्षेत्र भी बदनाम हो गया है।

विष्णु बैरागी ने कहा…

डरे हुओं को और डरा कर आपको क्‍या मिला? कभी कभार थोडी हिम्‍मत हो जाती थी डाक्‍टर के पास जाने की। आपकी पोस्‍ट पढ कर वह भी जाती रही।
और कैसे बताएं कि आपकी पोस्‍ट शानदार नहीं, जानदार है?

BrijmohanShrivastava ने कहा…

आज में एक ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी पढ़ रहा था पत्रकार वाबत /आप भी पत्रकार है और आपने जानना चाह कि आप किस श्रेणी की पत्रकार है ?देखिये लेखक लेख लिखता है /प्रत्येक लेखक चाहे वह किसी भी युग का हो वह अपने समय की विचारधारा ,मान्यता और धारणाओं से पूर्णत प्रभावित होता है /साहित्यकार अपने को किसी एक सांचे में फिट नहीं मान सकता ,मेरे द्रष्टि में आपका पूछना औचित्य पूर्ण नहीं था /खैर /
अस्पतालों का विवरण ठीक लिखा है ,यहा के कडवे अनुभवों से सभी वाकिफ है /सटीक विवरण अच्छा लगा

बेनामी ने कहा…

हम आपसे एकदम सहमत हैं. किसी को अस्पताल का मुह न देखना पड़े. सरकारी हो या फिर निजी. भोपाल के तो जितने भी सुंदर नाम वाले अस्पताल हैं सभी तालिबानी हैं. आभार.

अवाम ने कहा…

डॉक्टर के लिए मरीज अब ग्राहक बन गये हैं.