शनिवार, 15 नवंबर 2008

गदहा मलाई सूंत गया ..............


उज्जैन को खबरों में बने रहने का बडा चस्का है । मज़े की बात ये कि उज्जैनियों को खबरें बनाने के गुर भी बखूबी आते हैं । माधव और सुदामा , महाकवि कालिदास और विक्र्म बेताल की किस्सागोई अब तक लोगों के ज़ेहन में ताज़ा हैं । सिंहासन बत्तीसी की पुतलियों ने भी कोई कसर नहीं छोडी शहर को ख्याति दिलाने में ।

महाकाल की तो शान ही निराली है । मदिरापान करने वाले काल भैरव के उपासकों के लिए उज्जैन से बडा शायद ही कोई सिद्ध पीठ हो । तंत्र साधकों के पसंदीदा साधना स्थलों में उज्जयिनी का नाम सबसे ऊपर आता है । यहां के टेपा सम्मेलन की भी देश में खासी धूम है । टेपा समागम में महामूर्ख के खिताब से नवाज़ा जाना किसी बडे सम्मान से कम नहीं । सिंहस्थ की निराली छ्टा को निहारने के लिए देश - विदेश के सैलानियों का जमावडा अपने आप में अद्भुत अनुभव है ।

इन सब के बीच उज्जैन में गदहों के मेले का ज़िक्र ना करना नाइंसाफ़ी होगी । सारी दुनिया मंदी की मार झेल रही है , लेकिन गदहों के भाव आसमान छू रहे हैं । हैरत है कि हर साल लगने वाले गदर्भराज मेले में इस मर्तबा राजा नाम के गदहे के दाम १५ से २० हज़ार रुपए तक बोले गये ,जबकि चेतन राजा नाम के घोडे की कीमत भी इतनी ही आंकी गई ।

क्या ज़माना आ गया । पहले मेरे साथ कहीं भी नाइंसाफ़ी होती थी , तो मुंह से यक ब यक जुमला निकलता था कि गदहे घोडों में कुछ तो फ़र्क समझिए । लेकिन अब गदहों की पूछ परख ही नहीं बढी उनके दाम भी सातवें आसमान पर पहुंचने की तैयारी में हैं ।

घोडों को पूछने वाला कोई नहीं है । गदहे की तलाश सभी को है । कोई सवाल नहीं , कोई तर्क - वितर्क नहीं । सदैव मालिक के प्रति आभार का भाव । कोई शिकायत भी नहीं । हो भी क्यों ...? मालिक की जी हुज़ूरी बजा लाने का ईनाम भी तो भरपूर पाता है गदहा । मुझ मूर्ख को ये ब्रह्म ग्यान अब जा कर प्राप्त हुआ । हाल ही में घोडे होने की कीमत चुकाने के बाद अब जाना कि गदहा होना आज के वक्त में कितने फ़ायदे का सौदा है ।

अब तो गदहों के मलाई सूंतने का ही दौर है । कबीरदास जी कह गये हैं - माटी कहे कुम्हार को ,तू क्या रौंदे मोहे इक दिन ऎसा होएगा मैं रौंदूंगी तोहे । तो जनाब घोडों के दिन पूरे हुए , अब तो गदहों की ही चलेगी । गदहे हुक्म चलाएंगे और घोडॆ बोझा ढोते नज़र आएंगे .......। कलियुग है भई घोर कलियुग .....। नाम के फ़ेर में पड कर हिचकना -झिझकना छोडकर तय कर लीजिए किस जमात में शामिल होना है .......।

किसी से खुश भी नहीं है कोई खफ़ा भी नहीं ,
किसी का हाल कोई मुड के पूछता भी नहीं ।

10 टिप्‍पणियां:

सतीश पंचम ने कहा…

गदहों की कीमत हमेशा से ही ज्यादा रही है, ये अलग बात है कि हम अभी तक इस अर्थशास्त्र को समझ नहीं पाये थे :)

दरअसल जो जितना ज्यादा गदहा होता है, उससे तीव्र गति से कार्य करने की उम्मीद उतनी ही न के बराबर होती है और यही बात आज हर क्षेत्र में देखने मिल रही है ।

एक आदमी जो अपना सरकारी काम करवाने सरकारी दफ्तर जाता है उससे सरकारी बाबू पान चबाते जरूर कहता है - जरा ठहरो यार....जब देखो घोडे पर सवार रहते हो, जरा दम लेने दो :)
अच्छा लेख।

sandeep sharma ने कहा…

गदहों की बिरादरी के बारे में आप बहुत अच्छा जानती हैं... बधाई....

संगीता-जीवन सफ़र ने कहा…

बहुत सही है पर घोडे तो घोडे हैं हमेशा से ही गदहों से एक कदम आगे/

विवेक सिंह ने कहा…

मेरा गधा गधों का लीडर ,
कहता है दिल्ली जाकर,
एक बार हफ्ते में खाने को मिलें टमाटर,
नहीं तो मैं घास न खाऊँगा .

बेनामी ने कहा…

हम तो जी मलाई के साथ हैं। गदहों की जय हो और आपकी और हमारी भी।

Gyan Darpan ने कहा…

चुनाव का समय है हर पार्टी आलाकमान को भी गधों के चरित्र समान उम्मीदवार की खोज है जो गधे की तरह उनके प्रति वफादार रहे |

Shastri JC Philip ने कहा…

कमाल है कि गधों की कीमत आसमान छू रही है.

सच है, सौ दिन सुनार की तो एक दिन (या अधिक) लुहार की!!



-- शास्त्री जे सी फिलिप

-- बूंद बूंद से घट भरे. आज आपकी एक छोटी सी टिप्पणी, एक छोटा सा प्रोत्साहन, कल हिन्दीजगत को एक बडा सागर बना सकता है. आईये, आज कम से कम दस चिट्ठों पर टिप्पणी देकर उनको प्रोत्साहित करें!!

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

बढ़िया गधापुराण रहा
आपको साधुवाद

विष्णु बैरागी ने कहा…

यह लोकतन्‍त्र है । गधों को भी नमस्‍कार करते रहिए और केवल गधों को ही नमस्‍कार मत करते रहिए ।

Jimmy ने कहा…

bouth he aacha post kiyaa aapne keep it up


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