रविवार, 4 जनवरी 2009

इंसानों के बाद जानवरों को गोद लेने की परंपरा........

भोपाल के राष्ट्रीय उद्यान वन विहार ने वन्यप्राणियों के संरक्षण के लिए अनूठी पहल की है -जानवरों को गोद लेने की । इस योजना में अब कोई भी संस्था या व्यक्ति प्राणियों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी ले सकेगा । योजना में बाघ ,शेर , तेंदुआ से लेकर मगरमच्छ ,घडियाल और रीछ - भालू भी शामिल किए गये हैं । शेर को गोद लेने के लिए एक लाख ग्यारह हज़ार रुपए खर्च करना हों गे , जबकि बाघ की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए सवा लाख रुपए जमा कराने पडेंगे ।

अगर आप पशु प्रेमी तो हैं लेकिन ये खर्च आपके बजट से बाहर की बात है , तो भी चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि वन विभाग ने मध्यम वर्ग का ख्याल रखते हुए जेब पर भारी ना पडने वाले जानवरों को भी फ़ेहरिस्त में जगह दी है । अजगर छह हज़ार रुपए के खर्च में आपका हो सकता है । अगर यह फ़ीस भी ज़्यादा है , तो भी निराश होने की ज़रुरत नहीं है । सालाना दो हज़ार रुपए में साँप पालना भी बुरा सौदा नहीं है । वैसे भी शहरी ज़िंदगी में लोगों का आए दिन अजगरों से साबका पडता है । चाहे अनचाहे "आस्तीन के साँप" पल ही जाते हैं । ऎसे में घोषित तौर पर होर्डिंग पर नाम दर्ज कराकर साँप-अजगर , घडियाल ,मगरमच्छ पालने में बुराई भी क्या है ...?

खबर है कि एक छात्रा ने अजगर पालने का फ़ैसला लेकर योजना का श्रीगणेश भी कर दिया है । मेरे जैसे शख्स के लिए तो साँप भी बजट से बाहर है । लेकिन इस मुहिम में भागीदार नहीं बन पाना आगे चलकर कई लोगों के लिए फ़्रस्ट्रेशन का सबब भी बन सकता है । समाज में , अपने सर्किल में क्या मुंह दिखाएंगे ..? किस तरह लोगों की हिकारत भरी निगाहों का सामना कर पाएंगे....? उम्मीद है वन विभाग हम जैसों का ख्याल भी ज़रुर रखेगा । मुझे तो लगता है कि केन्द्र सरकार ने जिस तरह मध्यम वर्ग का खयाल रखकर घर ,कार वगैरह के लिए सस्ता कर्ज़ देने की मुहिम छेडी है । उसी तर्ज़ पर वन विभाग को भी आम जनता की माँग पर बिच्छू , केंचुए, सेही , मॆढक , गिरगिट जैसे सस्ते जीव - जन्तुओं के पालनहार ढूंढना होंगे ।

कुछ साल पहले भोपाल में इतनी बारिश हुई थी कि बाढ के हालात बन गए थे । नाले की ज़मीन पर कब्ज़ा कर घर बना कर रहने वालों के घर पूरी तरह तबाह हो गए थे । तब मैंने पढा था कि पानी के घर में घुसोगे तो पानी एक दिन तुम्हारे घर में घुसेगा । इंसानी गल्ती के लिए पानी को कोसना बेतुका और बेमानी है । दो तीन दिन पहले धार के रिहाइशी इलाके में घुस आए तेंदुए को लोगों ने बेरहमी से पीट - पीट कर मार डाला । भोपाल के नज़दीक नाले पर पानी पीने आए भालू को भी लोगों ने अधमरा कर दिया ।

ऎसी ही दर्दनाक घटनाएं देश के अलग अलग इलाकों से आए दिन सुनने मिलती हैं । अपने लालच के चलते खेतों - जंगलों का सफ़ाया करके शहरों का विस्तार करने वाले इंसान ने वन्य प्राणियों को उनके ही घर से बेदखल कर दिया है । अब इन्हीं जानवरों को गोद लेने की नायाब तरकीब का हवाला देकर कौन सी अनोखी बात होने जा रही है देखना होगा ।

जंगल कट रहे हैं , जानवर बेघर हो रहे हैं । वन विभाग के अपने तर्क हैं ,कभी बजट ,कभी अमला ,तो कभी संसाधनों की कमी का रोना । साल दर साल कांक्रीट का जंगल विस्तार पा रहा है और हरा भरा नैसर्गिक जंगल अस्तित्व खो रहा है । मध्यप्रदेश में 1960- 61 में 173 हज़ार वर्ग किलोमीटर जंगल था ,जो 1980- 81 के आने तक सिकुड कर 155 हज़ार वर्ग किलोमीटर रह गया । मौजूदा आंकडों के मुताबिक राज्य में जंगल अब महज़ 95 हज़ार 221वर्ग किलोमीटर है ।

एक समय था जब प्रदेश यह दावा करता था कि देश का लगभग एक चौथाई वनक्षेत्र होने के कारण वन आधारित उद्योग इसी अनुपात में प्रदेश को दिए जाना चाहिए । लेकिन अब तस्वीर रफ़्ता रफ़्ता बदल रही है । सरकारी आंकडों के मुताबिक प्रदेश में 31 फ़ीसदी वन भूमि है लेकिन वन आच्छादित क्षेत्र अब 25 प्रतिशत ही है । वास्तविक वनक्षेत्र अब बमुश्किल 15 से 18 फ़ीसदी के बीच रह गया है ।

मेरे पिताजी मुझसे अक्सर कहा करते हैं कि जिस भी इलाके में नया थाना खुलता है ,वहां एकाएक अपराधों की तादाद में इज़ाफ़ा देखा जाता है । कमोबेश यही स्थिति वन अमले के साथ भी है । वन विभाग में अफ़सरों की तादाद जैसे जैसे बढती गई ,जंगल भी उसी रफ़्तार से गायब होते गये ।
इस बीच दिल को सुकून देने वाली खबर है कि खरबों रुपए खर्च करके भी जो काम सरकारी अमला नहीं कर सका । उसे एक शख्स की दृढइच्छा शक्ति और मज़बूत इरादों ने हकीकत में बदल दिया । भोपाल के उमर अलीम ने राजधानी के नज़दीक अपने पैतृक गांव हिनौतिया जागीर की बंजर पहाडी पर हरियाली की चादर बिछा दी । पैंसठ एकड की सूखी पहाडी के पन्द्रह एकड हिस्से में उमर अलीम ने चौबीस साल पसीना बहाकर सागौन के बारह हज़ार पेड जवान कर दिए । दस लाख रुपए की लागत और खुद की मेहनत के बूते जंगल खडा कर उमर अलीम ने तमाम सरकारी अमले के मुंह पर करारा तमाचा जडा है और किन्तु - परन्तु के फ़ेर में बहाने बनाने वालों के लिए मिसाल कायम की है ।

पचास के दशक में प्रकाशित पुस्तक "द वाइल्ड लाइफ़ ऑफ़ इंडिया" की प्रस्तावना में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने लिखा था - "वन्यप्राणी - यह नाम हमने वनों के उन वन्यपशुओं और पक्षियों को दिया है जिनके बिना जीवन अधूरा है और जंगल सूने हैं । काश ! यदि यह प्राणी बोल पाते और हम इनकी भाषा समझ पाते तो हमें पता चल जाता कि इनके विचार हमारे बारे में बहुत अच्छे नहीं हैं ।"

नेहरु जी की ये टिप्पणी आज भी उतनी ही सटीक है । वन्यप्राणियों के विचार प्रश्न बन गए हैं । प्रश्न जो मरणासन्न श्रवण कुमार ने दशरथ से किया था , जो आज हर शिकार अपने शिकारी से करता है । सदियों से ये सवाल आकाश में गूंज रहा है लेकिन आज तक कोई जवाब धरती पर नहीं उतरा है । शब्दबेधी बाण का नतीजा तो दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण देकर भोगा । लेकिन उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो भीषण वन और वन्यप्राणी संहार हुआ उसका परिणाम कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि हमारी आने वाली कई नस्लें भयावह पर्यावरण असंतुलन से उपजी प्राकृतिक आपदाओं के रुप में भुगतेंगी ।

शनिवार, 3 जनवरी 2009

क्या काँधे पर बैठा बेताल बनने देगा " बी पॉज़ीटिव "

दीवार पर टंगा कैलेंडर बदलने को ही यदि बदलाव माना जाए , तो वाकई तब्दीली आ चुकी है । दिसम्बर खत्म होने पर जनवरी माह का आना तय है । उत्सवधर्मिता के चलते इसे नया मान लिया जाए , तो यकीनन सब कुछ नया - नया है । मेरी निगाह में हर दिन नया दिन , हर शाम नई शाम ...।

इसके लिए किसी खास दिन को नया दिन ; नया साल मान लेना ही काफ़ी नहीं । बहरहाल जहां बहुमत , वहां जनमत .....। सो चाहें ना चाहें मानें ना मानें । शामिल हों या चुपचाप दूर बैठे तमाशा देखें....... । मगर सब कह रहे हैं तो सुन [ मानते नहीं} लेते हैं कि नया साल आ गया । सुना है नए साल पर रिज़ोल्यूशन "संकल्प" लेने की परंपरा भी है । साल नया सो संकल्प भी नया । सब लेते हैं तो हम भी ले लेते हैं ।

अक्सर लोग मुझे "बी पॉज़ीटिव " रहने की सलाह देते हैं । मगर मैं समझ नहीं पाती कि "ओ नेगेटिव" भला किस साइंटिफ़िक तरीके से बी पॉज़ीटिव हो सकता है । नैसर्गिक रुप से मिली कुछ चीज़ें शायद ज़िन्दगी में कभी बदली नहीं जा सकती । हां कोई "स्टेम सेल" इसे बदल सके ,तो बात और है । वैज्ञानिक जब तकनीक ईजाद करेंगे ,तब करेंगे ,लोगों के संतोष के लिए ही सही मुझे कुछ तो बदलना ही होगा ।

खैर ..., सवाल संकल्प का । इसलिए मेरा संकल्प है कि अब से दुनिया में चारों तरफ़ खुशहाली , हरियाली देखी जाएगी । बदहाली ,तंगहाली ,फ़टेहाली जैसे मुद्दों की ओर से पूरी तरह आंखें मूंद लेने पर ही तो चारों तरफ़ उजियारा नज़र आ सकेगा ....।

लेकिन एक बात और भी है जो मेरे लिए परेशानी का सबब बना हुआ है । मेरे काँधे पर बैठा बेताल ....। जब तक ये मौन रहेगा तब तक मैं भी चुप ..। मगर इसने सवालात की झडी लगाई , कब , कहां ,क्यों ,कैसे पूछने का , कान में फ़ुसफ़ुसाने का सिलसिला जारी रखा ,तो मजबूरन मुझे इसके यक्ष प्रश्नों का उत्तर देने के लिए मुंह खोलना ही पडेगा । देखें ये बेताल कितने दिन यूं ही चुपचाप काँधे पर सवार रहकर सफ़र तय करता है......। ये बोला, मैंने मुंह खोला और संकल्प ......????????

निराली जस्त {छलांग] करना है , नए रस्ते पे चलना है
नए शोलों में तपना है , नए सांचे में ढलना है
यही दो चार सांसें , जो अभी मुझको सम्हाले हैं
इन्हीं दो चार सांसों , में ज़माने को बदलना है ।

मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

हिन्दी ब्लॉगिंग पर टिड्डी दल का हमला

सावधान ब्लॉगर बंधुओं .....। हिन्दी के विकास के लिए काम करने वाले मठाधीशों के टिड्डी दल हमले की तैयारी में है । राजभाषा हिन्दी के उद्धारकों की निगाह हिन्दी ब्लॉगिंग पर पड गई है और जल्दी ही ये खेमा पूरे लाव लश्कर के साथ धावा करने वाला है । लार्वा और प्यूपा तो काफ़ी समय से नज़र आ रहे थे , लेकिन टिड्डी दल का आक्रमण हम जैसे तमाम छोटे - छोटे नौसीखिए ब्लॉगरों की नई उगती फ़सल को मिनटों में सफ़ाचट कर देगा । हिन्दी पर कृपादृष्टि बरसाने वाले पतित पावनों को अब ब्लॉग जगत के उद्धार [बंटाढार] की फ़िक्र सताने लगी है ।

कविता , व्यंग्य , निबंध और कहानी पाठ के माध्यम से हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के हथकंडे आज़मा रहे ’चुके हुए लोग” अब हिन्दी ब्लॉग पाठ के प्रयोग को सफ़ल बनाने पर उतारु हैं । इस कवायद से हिन्दी का कितना भला हो सकेगा ये तो वक्त ही बताएगा । लेकिन इस नई पहल से हिन्दी के मठाधीशों का भला होना तय है ।

मेरा मानना है कि सरकारी अनुदान और प्रश्रय पाकर हिन्दी की चिन्दी ही हुई है । अंग्रेज़ीदां हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को किताबी भाषा बनाकर रख दिया है । गोष्ठियों , चर्चाओं तक सिमट कर रह गई राजभाषा की इस दुर्दशा के लिए हिन्दी के ही स्वनामधन्य विद्वान ज़िम्मेदार हैं । "किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही प्रतिबिम्बित करती है ।" शैलेश मटियानी के इस कथन को यदि थोडा और विस्तार दिया जाए तो कहा जा सकता है - किसी देश की स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता को भाषा ही संरक्षित भी रखती है ।

जिस तरह स्मृति ,संस्कृति और राष्ट्रीयता के प्रश्न किसी जाति की अस्मिता से जुडे होते हैं , उसी तरह भाषा का प्रश्न भी हमारी अस्मिता और हमारे अस्तित्व से जुडा है । लेकिन आज मुश्किल ये है कि ये सवाल चंद मुट्ठी भर लोगों के चिंतन का विषय बनकर रह गया है । इस जमात में भी कई लोग ऎसे हैं , जो खुद भी अपने कहे और सोचे पर अमल करने में नाकाम हैं । बाकी बचे वे लोग जो कुछ करने की स्थिति में हैं ,मगर निहित स्वार्थों के वशीभूत आँखें मूंद रखी हैं और देश को उसके हाल पर छोड दिया है , जबकि इस जनतंत्र में जन की तो अभी ठीक से आँखें भी पूरी तरह नहीं खुलीं हैं । मूंदने या सच को देखने या फ़िर अनदेखा करने की तो बात ही कौन कहे ...?

बहरहाल मुख्य मुद्दा ये है कि ब्लॉग पाठ के ज़रिए हिन्दी को जनप्रिय बनाने की कोशिश कितनी कारगर साबित होगी । आप मुझे कुएं का मेंढक करार दे सकते हैं ,लेकिन मैं तो भोपाल को केन्द्र में रखकर ही चीज़ों को देखने समझने की आदी हो चुकी हूं । वैसे भी जिस तरह इंदौर को मुम्बई बच्चा कहा जाता है ,उसी तरह दिल्ली और भोपाल के मिजाज़ भी कमोबेश एक से हैं । सरकारी ढर्रा दोनों राजधानियों की तस्वीर को हमजोली बना देता है । ये और बात है कि दिल्ली का इतिहास काफ़ी लम्बा है और भोपाल महज़ डेढ - दो सौ सालों की यादें अपने में समेटे है ।

भोपाल में एक हिन्दी भवन है । जूते ,चप्पल ,कपडों की महासेल और विवाह समारोह के शोर शराबे के बीच यहां हिन्दी की सेवा कितनी हो पाती है भगवान ही जाने ...। यही हाल हिन्दी साहित्य सम्मेलन का भी है । इसी तरह की कुछ और भी हिन्दी सेवी संस्थाएं हैं , जो 14 सितम्बर [हिन्दी दिवस]के आसपास सुसुप्तावस्था से बाहर आती हैं और फ़िर ’हाइबरनेश’ में चला जाता है । हिन्दी का सारा ज्ञान ’सरकारी अनुदान’ हासिल करने की लिखत - पढत में ही काम आता है ।

कहावत है -" जहं - जहं पैर पडे संतन के , तहं - तहं बंटाढार ।" उसी तरह जिस जगह सरकार की कृपावर्षा हुई , उसका तो खुदा हाफ़िज़ ...। संगीत , नाटक , ललित कला , हस्तकला और लोक कलाओं के संरक्षण के लिए चिंतातुर बडे - बडे सरकारी संस्थान ’ सफ़ेद हाथी’ बन चुके हैं और कलाएं धीरे - धीरे दम तोड रही हैं । हाल ही में राजधानी में एक लोककला समारोह हुआ था , जिसका आमंत्रण पत्र किसी धनाढ्य के बेटे की शादी की पत्रिका से किसी भी मायने में कमतर नहीं था । उस कार्ड की कीमत सुन कर तो मेरे होश ही फ़ाख्ता हो गये । चार सौ रुपए कीमत के आमंत्रण पत्र वाले आयोजन पर सरकार ने कितना खर्च किया होगा , इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है , लेकिन इससे लोक कलाकारों की ज़िन्दगी में क्या बदलाव आया ..?लोक कलाकारों के लिए ये आयोजन -’चार दिन की चांदनी , फ़िर अंधियारी रात।’

इसलिए एक बार फ़िर आपको आगाह किए देते हैं कि बचा सको तो , बचा लो हिन्दी ब्लॉगिंग को ...। हिन्दी के मठाधीशों के जैविक हमले से बचने के उपाय सोचो , वरना हिन्दी ब्लॉगिंग की ’भ्रूण हत्या’ की पूरी आशंका है । जिस भी विधा में आम को ठेल कर खास लोग आते हैं , वह संग्रहालय में प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह जाती है । जागो ब्लॉगर जागो ............

रविवार, 28 दिसंबर 2008

शनिदेव की न्यायप्रियता पर उठते सवाल

देश के श्रद्धालुओं के दिलों में इन दिनों शनि महाराज का वास है । तमाम मुश्किलात से दो चार हो चुके प्रवचन किंग आसाराम का सिंहासन बिनाका गीतमाला का सरताज बना रहने में कामयाब है । प्राणायाम और कपालभाति सिखाते - सिखाते बाबा रामदेव योग गुरु से राजनीति के गुरु घंटाल बनने की जुगत भिडाने में जुट गये हैं । राज कपूर ने राम जी को मैली होती गंगा की दुहाई दी थी ,लेकिन तब ना सरकार जागी ना ही जनता चेती । अब जब कुछ उद्योग घरानों को विलुप्त होती गंगधारा में खज़ाना नज़र आने लगा है , तो भागीरथी को बचाने के लिए सरकारी तौर पर प्रयास शुरु करने की बात कही जा रही है

इस बीच न्याय के देवता कहे जाने वाले शनिदेव के आराधकों का ग्राफ़ दिनोंदिन ऊर्ध्वगामी होता जा रहा है । ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा जब लोग शनि की दृष्टिपात से भी खौफ़ज़दा रहते थे । शनि का दान देते समय सावधान्र रहते थे । शनि दान लेने वाले के प्रति भी नज़रिया ज़रा तंग ही होता था । लेकिन जय हो टीवी देव की...........।

कहते हैं ना , वक्त का फ़ेर है । समय होत बलवान । सो चैनलों ,समाचार पत्रों , ज्योतिषियों और चंद स्वनाम धन्य शनि उपासकों के गठजोड ने ’छाया मार्तंड” को त्रिलोक का अधिष्ठाता बना दिया । पिछले चार - पांच सालों में भोपाल में कदम कदम पर शनि महाराज ने डेरा डाल लिया है । हर मोर्चे पर नाकाम रहे एक शख्स ने एक ज़मीन पर बलात कब्ज़ा किया , फ़िर शनि की महिमा का बखान किया । घर पर शनि का दरबार सजाया , लोगों को शनि के दंड का डर दिखाया । आज वह करोडों की ज़मीन का स्वामी है ।

न्याय के इस आधुनिक देवता ने इस उपासक पर इतनी कृपा बरसाई कि ४० हज़ार रुपए स्क्वाय्रर फ़ुट की न्यू मार्केट की ज़मीन उसकी झोली में डाल दी । यहां नगर निगम के पार्किंग स्थल पर पिछले एक साल में शनिदेव ने अपना झंडा ना सिर्फ़ गाड दिया बल्कि करीब पांच हज़ार स्क्वाय्रर फ़ुट पर देखते ही देखते शिंगनापुर के शनि महाराज का प्राकट्य हो गया । कल की शनिश्चरी अमावस्या ने भी आराधक पर खूब कृपा वर्षा की । हज़ारों भक्तों ने काले तिल , महंगे तेल और काले वस्त्रों का दान कर शनिदेव का भरपूर आशीर्वाद लिया ।

शनिदेव की बढती लोकप्रियता ने तो तैंतीस करोड देवताओं में से कुछ लोकप्रिय और सर्वव्यापी भगवानों को भी पीछे छोड दिया है । शबरी के राम और कुब्जा के कृष्ण की तो कौन कहे , हर पुलिस चौकी में पीपल के नीचे विराजमान रामभक्त पवनपुत्र हनुमान की पूछपरख भी कम हो चली है । मेरे घर के चार किलोमीटर के दायरे में सरकारी ज़मीनों पर अब तक मैं कम से कम दस शनिधाम देख चुकी हूं ।

जिस तरह बालीवुड में तीन खानों का बोलबाला है । उसी तरह आस्था के बाज़ार में शनिदेव सहित तीन देवताओं ने धूम मचा रखी है । जब से शनिदेव के साथ धन की देवी लक्ष्मी का उल्लेख किया जाने लगा है , भौतिकवाद का उपासक समाज एकाएक शनिदेव का आराधक हो गया है ।
मैंने तो शनि को न्याय के देवता के रुप में जाना - समझा । बेशर्मी से ज़मीन हथियाने और लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने वाले लोगों को रातों रात धनाढ्य होते देख कर मन संशय से भर उठता है ।

क्या वाकई शनि न्याय प्रिय हैं ...? अगर हैं , तो क्या धर्म और न्याय की परिभाषा बदल गई है .....? शनि गलत काम करने वालों को तत्काल दंडित करते हैं ऎसा कहा गया है । यदि ये सच है तो फ़िर ये माना जाए कि बेजा कब्ज़ा , दूसरों का माल हडपना , रिश्वतखोरी , चंदाखोरी , गुंडागर्दी और कायदे कानूनों का उल्लंघन अपराध नहीं हैं । शनि देव तो हो सकता है कुछ वक्त लगाएं ,लेकिन जिन अधिकारियों और नेताओं की नाक के नीचे ये सब काम होता है और जिसे रोकना उनकी ज़िम्मेदारी है , वो क्यों आंखें मूंदे बैठे रह्ते हैं .....? इनकी आंखें कब और कैसे खुलेंगी ....... खुलेंगी भी या नहीं .......? कह पाना बडा ही मुश्किल है .....?

शनिदेव से निराशा हाथ लगने के बाद अब तो मेरी निगाहें कल्कि अवतार पर ही टिकी हैं । हे कल्कि देव सफ़ेद घोडे पर हो कर सवार जल्दी लो अवतार ........।

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयाँ और

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयाँ और ।
उर्दू अदब में यूँ तो बडे - बडॆ उस्तादों ने अपने अशारों से शायरी को नए मकाम तक पहुंचाया , लेकिन मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ’गालिब’ का अंदाज़ ही निराला है । गालिब के शे’र सिर्फ़ मोहब्बत की शायरी की शिनाख्तगी ही नहीं हैं । उनका सारा फ़लसफ़ा इस दुनिया में आज भी उतना ही चलन में है , जितना शायद उनके दौर में रहा हो । गालिब की शायरी में हमें अपने आसपास के हर रंग की मौजूदगी का एहसास मिलता है । कमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ गालिब की शायरी का है । वे एक दौर के शायर नहीं हैं ।
गालिब की गज़लें जब पहली मर्तबा ईरान से निकलकर दिल्ली की गलियों तक पहुंची और फ़िर दिल्ली से जो सफ़र शुरु हुआ , उसके करीबन सौ साल बाद फ़ैसला हुआ कि गालिब अपने दौर की सबसे अलहदा और उम्दा आवाज़ थी । तब से लेकर अब तक कई बेहतरीन सुखनवर हुए लेकिन गालिब के कद को तो छोडिए कोई अब तक उनके कंधे तक भी नहीं पहुंच पाया । मीर दुनिया से बेज़ार थे ,वहीं गालिब दुनिया के हर रंग से वाकिफ़ थे । उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से ज़िंदगई के सारे पहलुओं को छुआ ।
ग़ालिब उर्दू के सबसे मशहूर शायर हैं। वे बहादुरशाह जाफ़र के ज़माने में हुए और 1857 का गदर उन्होंने देखा। अव्यवस्था और निराशा के उस ज़माने में वे अपनी पुरसुकूं शख्सियत, मानव-प्रेम, सीधा स्पष्ट यथार्थ और इन सबसे अधिक, दार्शनिक दृष्टि लेकर साहित्य में आये। शुरू में तो लोगों ने उनकी मौलिकता की हंसी उड़ाई लेकिन बाद में उसे इतनी तेज़ी से बढ़ावा मिला कि शायरी दुनिया का नज़ारा ही बदल गया।
पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या
ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादहख़्वार होता
यह केवल मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की सादगी ही है , जो बादहख़्वार होने के कारण उन्होंने अपने ‘वली’ होने का दावा नहीं किया । जहां तक उर्दू अदब का ताल्लुक है और इससे भी ज़्यादा साहित्य और ज़िंदगी के जुडाव है, ‘ग़ालिब’ न केवल अपने ज़माने के ‘अदबी बली’ (साहित्यिक अवतार) थे, न केवल आधुनिक युग के ‘अदबी अली’ हैं, बल्कि जब तक उर्दू भाषा और उसका साहित्य मौजूद रहेगा, उनका स्थान ‘अदबी वली’ के रूप में हमेशा कायम रहेगा। परम्पराओं से विद्रोह करने और लीक से हटकर बात कहने के जुर्म में ज़माना जो बर्ताव हर ‘वली’ से करता रहा है , वैसा ही ‘ग़ालिब’ के साथ भी हुआ।

‘ग़ालिब’ से पहले उर्दू शायरी में भाव-भावनाएं तो मौजूद थीं, मगर भाषा और शैली के ‘चमत्कार’ ‘गुलो-बुलबुल’, ‘जुल्फ़ो-कमर’ (माशूक़ के केश और कमर) ‘मीना-ओ-जाम’ (शराब की सुराही और प्याला) की कसीदाकारी तक सिमट कर रह गए थे। बहुत हुआ तो किसी ने तसव्वुफ़ (सूफ़ीवाद) का सहारा लेकर संसार की असारता और नश्वरता पर दो-चार आँसू बहा दिए। ऐसे समय में, जबकि अधिकांश शायर :
सनम सुनते हैं तेरी भी कमर है,
कहां है ? किस तरफ़ है ? औ’ किधर है ?
सितारे जो समझते हैं ग़लतफ़हमी है ये उनकी
फ़लक पर आह पहुंची है मेरी चिनगारियां होकर।
को ‘नाजुक-ख़याली’ और शायरी का शिखर मान रहे थे, ‘ग़ालिब’ ने
दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक ?
और
है परे सरहदे-इदराक से अपना मसजूद
क़िबला को अहले-नज़र क़िबलानुमा कहते हैं।
की बुलंदी से ग़ज़लगो शायरों को, और :
बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअ़त मेरे बयां के लिए ।
की बुलंदी से नाजुकमिज़ाज ग़ज़ल को ललकारा तो नींद के मातों और माशूक़ की कमर की तलाश करने वालों ने चौंककर इस उद्दण्ड नवागान्तुक की ओर देखा। कौन है यह ? यह किस दुनिया की बातें करता है ? फब्तियां कसी गईं। मुशायरों में मज़ाक उड़ाया गया। किसी ने उन्हें मुश्किल-पसंद (जटिल भाषा लिखने वाला) कहा, तो किसी ने मोह-मल-गो (अर्थहीन शे’र कहने वाला) और किसी ने तो सिरे से सौदाई ही कह डाला। लेकिन, जैसा कि होना चाहिए था, ‘ग़ालिब’ इन तमाम विरोधों और तानाकाशी को सहन करते रहे-हंस-हंसकर.. . .
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मेरे अशआ़र में माने न सही।
कहते हुए जीवन के गीत गाते रहे। यहां तक कि उनके क़लम की आवाज़ रुहानी आवाज़ का रूप धारण कर गई और आज वही रुहानियत हमारे दिलो- दिमाग पर तारी होकर नये-नये रास्ते सुझा रही है। ‘ग़ालिब उर्दू भाषा के एकमात्र शायर हैं जिनके व्यक्तित्व और साहित्य पर सबसे अधिक लेख, समालोचनात्मक पुस्तकें लिखी गई हैं। (उनके अपने ‘दीवान’ के तो इतने संस्करण निकल चुके हैं कि उसकी गिनती नामुमकिन है ) और जिनके शे’रों को जितनी बार पढ़ा जाए, उतनी बार नये भावार्थ के साथ सामने आते हैं।
मिर्ज़ा असद-उल्ला खां ‘ग़ालिब’ जो पहले ‘असद’ उपनाम से और फिर ‘ग़ालिब’ उपनाम से प्रसिद्ध हुए, 27 दिसम्बर 1797 ई। को आगरा में पैदा हुए। गोत्र, वंश के बारे में एक जगह उन्होंने खुद लिखा है -
‘‘असद-उल्ला खां उर्फ़ ‘मिर्ज़ा नौशा’, ‘ग़ालिब’ तख़ल्लुस (उपनाम), क़ौम का तुर्क, सलजूक़ी सुलतान बरकियारुक़ सलजूक़ी की औलाद में से, उसका दादा क़ौक़ान बेग ख़ां, शाह आलम के अहद (शासन-काल) में समरकंद से दिल्ली में आया। पचास घोड़े और नक़्क़ारा निशान से बादशाह का नौकर हुआ। पहासू का परगना, जो समरू बेगम को सरकार से मिला था, उसकी जायदाद में मुक़र्रर था। बाप असद-उल्ला खां मज़कूर (उल्लिखित) का बेटा अब्दुला बेग ख़ां दिल्ली की रियासत छोड़कर अकबराबाद (आगरा) में जा रहा। असद उल्ला ख़ां अकबराबाद में पैदा हुआ। अब्दुल्ला बेग ख़ां अलवर में रावराजा बख़्तारसिंह का नौकर हुआ और वहाँ एक लड़ाई में बड़ी बहादुरी से मारा गया। जिस हाल में कि असद-उल्ला ख़ां मज़कूर पाँच-छः बरस का था उसका हक़ीक़ी (सगा) चचा नस्रउल्ला बेग ख़ा मरहटों की तरफ से अकबराबाद का सूबेदार था।
तेरह बरस के मिर्ज़ा का निकाह दिल्ली के लोहारु कुल की उमराव बेग़म के साथ पढा गया । शादी के दो-तीन साल बाद वे हमेशा के लिए दिल्ली के हो गए , जिसे एक जगह उन्होंने कुछ यूँ बयान किया है :
‘‘सात रजब 1225 (9 अगस्त, 1810) को मेरे वास्ते हुक्मे-दवामे-हब्स (स्थायी क़ैद का हुक्म) सादिर हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िंदान (क़ैदखाना) मुक़र्रर किया और मुझे उस ज़िंदान में डाल दिया।’’
शे’रों-शायरी की लटक तो पहले से थी। अब दिल्ली पहुँचे तो यहाँ के शायराना वातावरण और आए दिन के मुशायरों ने क़लम में और तेज़ी भर दी। लेकिन नियमित रूप से शायरी में वे किसी के शागिर्द नहीं बने, बल्कि अपने फ़ारसी भाषा तथा साहित्य के अध्ययन और ज्ञान के कारण उन्हें शब्दावली और शे’र कहने की कला में ऐसी अनगनत खामियां नज़र आईं । उन्होंने उस्तादों पर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी। उनकी राय में हर पुरानी लकीर सिराते-मुस्तकीम {सीधा-मार्ग) नहीं है और अगले जो कुछ कह गए हैं, वह पूरी तरह सनद (प्रमाणित बात) नहीं हो सकती।’’
उम्र के पच्चीसवें पायदान पर कदम रखने तक उन्होंने लगभग 2000 शे’र ‘बेदिल’ के रंग में कह डाले, जिस पर उर्दू के नामचीन शायर और उस्ताद मीर तक़ी ‘मीर’ ने भविष्यवाणी की कि ‘‘अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा।’’
यह कामिल उस्ताद ‘ग़ालिब’ को कहीं बाहर से नहीं मिला, बल्कि यह उनकी आलोचनात्मक दृष्टि थी जिसने न केवल उस काल के 2000 शे’रों को बड़ी ही बेदिली से काट फेंकने की प्रेरणा दी बल्कि आज जो छोटा-सा ‘दीवाने-ग़ालिब’ हमें मिलता है और जिसे मौलाना मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ (प्रसिद्ध आलोचक) के कथनानुसार हम ऐनक की तरह आँखों से लगाए फिरते हैं, उसका संकलन करते समय ‘ग़ालिब’ ने अपने सैकड़ों शे’र नज़र-अंदाज़ कर दिए थे।
रंज से ख़ूगर हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज
रह मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।
ऐसे उच्चकोटि के अनुभवपूर्ण शे’र निकले। यह मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ ही की विशेषता थी कि उन दिनों, जबकि साहित्य-समालोचना का लगभग अभाव था, उन्होंने शायरी का यह भेद पा लिया कि शे’र शून्य में टामक-टोइयाँ मारने का नहीं, किसी अनुभव के व्यक्तिगत प्रकटीकरण का नाम है और बड़ा शायर केवल वही हो सकता है जो अपने काल की विडम्बनाओं तथा संघर्षों को सहिष्णुता और आत्म-सम्मान में रचे हुए संकेतों में प्रकट कर सके। आने वाली पीढ़ियों में बिना उपदेशक बने यह अनुभूति उत्पन्न कर सके कि उनको भी अपने आत्म सम्मान को सबसे ऊपर रखना चाहिए ।
मैं हरएक काम खुदा की तरफ़ से समझता हूँ और खुदा से लड़ नहीं सकता। जो कुछ गुज़रा, उसके नंग (लज्जा) से आज़ाद, और जो कुछ गुज़रने वाला है उस पर राज़ी हूँ। मगर आरजू करना आईने-अबूदियत (उपासना के नियम) के खिलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरजू है कि अब दुनिया में न रहूँ और अगर रहूँ तो हिन्दोस्तान में न रहूँ।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

भारत - पाक युद्ध पर आमादा रणबाँकुरा मीडिया

भारत लगातार युद्ध टालने की कोशिश में जुटा है । पाकिस्तान भी युद्ध की धमकी तो देता है पर बीच बीच में उसके सुर में नरमी भी नज़र आने लगती है । ये और बात है कि सीमा पार सेना की तैनाती लगातार बढ रही है , मगर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री दोनों मुल्कों के बीच शांति और बेहतर ताल्लुकात की बात भी कर रहे हैं । कुल जमा नज़ारा कुछ ऎसा समझ में आता है - मुँह में राम बगल में छुरी ।

दोनों देशों के बीच युद्ध होगा या नहीं , इसे लेकर तरह तरह के कयास लगाये जा रहे हैं । इतना तो तय है कि वाक युद्ध में दोनों ओर से जमकर गोलाबारी हो रही है । इसी ज़बानी गर्मागर्मी को भारतीय मीडिया ने भुनाने का बंदोबस्त कर लिया है । युद्ध हो चाहे न हो मगर मीडिया खासतौर पर खबरिया चैनलों ने भारत और पाकिस्तान के बीच लडाई की हवा बनाना शुरु कर दी है । नौसीखिए नौजवान छोकरे- छोकरियाँ चैनलों पर लगातार पूरी ऊर्जा के साथ चीख रहे हैं । कहीं कुछ मिनट में युद्ध छिडने का दावा हो रहा है । कहीं नाभिकीय युद्ध की रुपरेखा बताई जा रही है , तो कोई हवाई और ज़मीनी हमलों से जुडे तथ्यों को लेकर बहस में मसरुफ़ है ।

नई पीढी ने तो भारत - पाक युद्ध नहीं देखा है । चैनलों की दीवानी युवा पीढी ने भारत - पाक युद्ध की थीम पर बनी ’बॉर्डर’ जैसी फ़िल्मों के माध्यम से ही जंग को जाना - समझा है । खिलौने के तौर पर हाथ में बंदूक लेकर वक्त गुज़ारने वाले नए दौर के बच्चों के लिए युद्ध एक रोमांचक घटना है । मीडिया इसी रहस्य - रोमांच को भुनाने की फ़िराक में है । आखिर इराक युद्ध दिखाकर ही सीएनएन कामयाबी की बुलंदियों को छू सका । इसलिए मंदी के दौर में दोनों देशों की सेनाएं भिडें और ज़बरदस्त फ़ुटेज मिले यह माहौल न्यूज़्ररुम्स में बन रहा है ।

चिंता की बात यह भी है कि मीडिया की तल्खियाँ दोनों देशों के बीच तनाव बढाने का सबब भी बन सकती हैं । कई तरह के कपोल कल्पित बयानों के हवाले से माहौल को उन्मादी बनाने में भी कोई कसर नहीं छोडी जा रही है । हालात ऎसे हैं कि हो सकता है दोनों देशों के राजनेता , अफ़सर और सैन्य अधिकारी ठंडे दिमाग से बात कर रहे हों , मगर मीडिया के जोशीले जवान खबरों के प्रसारण के दौरान तीखी टिप्पणियों के ज़रिए जांबाज़ी का प्रदर्शन करने को ही अपना पेशागत धर्म मान रहे हैं । कमोबेश यही हाल सीमापार के मीडिया का भी है ।

पिछले दो दशकों में जंग के कम से कम छह मौके आए लेकिन दोनों ओर के मीडिया के ताल्लुकात इतने खराब कभी नहीं रहे । आखिर मीडिया की इस तल्खी की क्या वजह हो सकती है ? क्या मीडिया वाकई जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है ? क्या मंदी की भंवर में फ़ंसा मीडिया खुद को इसकी जद से बाहर लाने की कोशिश में जुटा है ? क्या इसके पीछे टीआरपी का अर्थशास्त्र है ..? या फ़िर मीडिया पर युद्ध की नई टेक्नालॉजी के प्रयोग में सहयोग का कोई दबाव है ...? वजह चाहे जो भी हो पर मीडिया पहले समाज के प्रति जवाबदेह है । उसकी वफ़ादारी बाज़ार, सरकार और देश से भी पहले जनहित के लिए होना चाहिए , जिसकी चिंता के दावे पर ही मीडिया की विश्वसनीयता टिकी है ।

दरअसल , मीडिया वास्तविक अर्थों में तभी आज़ाद है, जब वह सरकार के अलावा मुनाफ़े के दबाव से भी मुक्त हो । मीडिया अपनी ताकत का इस्तेमाल युद्ध के विकल्प सुझाने में करे , तो शायद वह अपनी भूमिका को सार्थक कर सकेगा । युद्ध का माहौल बनाने से संभव है मीडिया का फ़ायदा बढ जाए लेकिन किस कीमत पर ...? इस वक्त सख्त ज़रुरत है दोनों देशों के बीच तनाव कम करने और मसले को शान्ति से निपटाने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने की ।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

पाकिस्तान ने फ़िर तरेरी आँखें


पाकिस्तान ने आज सारी दुनिया के सामने खुद को पाक साफ़ बताते हुए युद्ध की संभावनाओं से इंकार किया है । बेनज़ीर की मज़ार पर पाक प्रधानमंत्री युसूफ़ रज़ा गिलानी ने भारत के साथ रिश्ते सामान्य होने की बात कही । साथ ही कहा कि उनका मुल्क जंग नहीं चाहता । गिलानी ने उल्टे भारत पर तोहमत जड दी कि भारतीय प्रधानमंत्री पर युद्ध का भारी दबाव है । यानी उल्टा चोर कोतवाल को डांटे ...।

एक तरफ़ तो मीडिया के सामने शांति का राग अलापा जा रहा है । वहीं दूसरी ओर राजस्थान से सटी सीमा पर भारी तादाद में सेना का जमावडा किया जा रहा है । शांति की बात हाथ में बंदूक लेकर तो नहीं की जाती ...? पाकिस्तान से इसी तरह के दोगलेपन की उम्मीद है ।

गिलानी इतने पर ही नहीं रुके । उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि करांची धमाके में मुम्बई हमले की बनिस्बत कहीं ज़्यादा लोग मारे गये थे । ये भी खूब रही । पाक हर चाल बडी ही चतुराई से चल रहा है और फ़ौरी तौर पर तो यही लग रहा है कि वो कामयाब भी हो रहा है । हर रोज़ नए दांव चलकर पाकिस्तान शातिराना तरीके से भारत को पीछे ठेल रहा है । मज़े की बात तो ये है कि पाकिस्तान ने आज भारत पर आर्थिक पाबंदी लगाने की धमकी तक दे डाली । लीजिए साहब, चूहे ने हाथी की चड्डी भी चुरा ली । लेकिन हाथी तो हाथी है । उसकी सहनशीलता तो देखो वो ऎसी छोटी मोटी बातों पर कुछ नहीं कहता .....।

दांव पेंच में माहिर पाकिस्तान ने एक और शिगूफ़ा छोडा है ,बल्कि यूं कहें कि नई चाल चली है । कसाब के मुद्दे पर घिरते पाकिस्तान ने नहले पर दहला जड कर दुनिया को चौंका दिया है ।
पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसियों ने बुधवार की देर रात एक आदमी को पकड़ा । सतीश आनंद शुक्ला उर्फ मुनीर नाम के इस शख्स के बारे में कहा गया कि वह लाहौर में हुए बड़े बम धमाके का अभियुक्त है। पाक सरकार के अनुसार कोलकाता का मूल निवासी सतीश आनंद शुक्ला उर्फ मुनीर पहले लंदन में भारतीय उच्चायोग में काम कर चुका है। ये अधिकारी दावा करते हैं कि शुक्ला उर्फ मुनीर वास्तव में रॉ का अधिकारी है और जल्दी ही भारत को उसकी पूरी शिनाख्त बता दी जाएगी। साथ ही उसके साथियों की भी सरगर्मी से बहावलपुर में तलाश करने की कवायद की जा रही है , ताकि दावे को पुख्ता किया जा सके । चारों ओर से घिरता दिखाई दे रहा पाकिस्तान आंखें तरेरने से बाज़ नहीं आ रहा ।

लगातार बढ़ते जा रहे तनाव को देखते हुए पाकिस्तान का ताज़ातरीन इल्ज़ाम स्तब्ध कर देने वाला है। पाकिस्तान बहुत पहले से आरोप लगाता रहा है कि भारत की प्रति गुप्तचर एजेंसी रॉ लगातार पाकिस्तान को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है और दुनिया के देश इस मामले में सिर्फ पाकिस्तान को ही दोषी ठहरा रहे हैं।

पाकिस्तान मुम्बई हमले के बाद से लगातार पैंतरेबाज़ी कर भारत को उलझा रहा है । हर रोज़ नए - नए दावे ..। नए नए खुलासे ..। कभी हमलों में हिन्दू आतंकियों का हाथ होने की बात कह कर । कभी कसाब को नेपाल का कैदी बताकर । कसाब लगातार पाकिस्तान से मदद की गुहार लगा रहा है । मगर पाक सरकार उससे पल्ला झाड रही है । उसने पाक उच्चायोग को पत्र भेजा है। खत में पाक नागरिक होने के नाते उसे कानूनी मदद देने की अपील की है । उधर पाक प्रधानमंत्री के आंतरिक सुरक्षा सलाहकार रहमान मलिक ने कहा है कि जब तक कसाब का पाकिस्तानी नागरिक होना साबित नहीं हो जाता तब तक उसे कानूनी सहायता देने का सवाल ही नहीं उठता।

कल तक कसाब के पाक नागरिक होने में नवाज़ शरीफ़ को कोई संदेह नहीं था ,लेकिन अब उनके सुर भी बदल गये हैं । दूसरी तरफ़ हमारे देश के नेता अब तक ये ही तय नहीं कर पा रहे कि आखिर वे चाहते क्या हैं ....? वोट की राजनीति ने देश को गृह युद्ध की ओर धकेलने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड रखी है ।

कालिदास को भी अक्ल आ गई थी कि जिस शाख पर बैठे हों उसे नहीं काटा जाता , मगर इन बजरबट्टुओं को तो सामने आ पडी मुसीबत भी एकजुट नहीं कर पा रही ।
हालात ऎसे ही रहे तो हो सकता है आने वाले दिनों में पाकिस्तान भारत की दादागीरी का शिकार बनकर दुनिया की नज़रों में बेचारा बन जाए और भारत को आतंकी देश घोषित कराने के लिए ज़बरदस्त लाबिंग में कामयाब रहें । सही मायनों में देखा जाए तो फ़िलहाल पाकिस्तान हर मामले में भारी पड रहा है भारत पर ...।