मंगलवार, 11 अगस्त 2009

गोडसे ने नहीं मारा गाँधी को ......

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के शरीर में लगी गोलियाँ गोडसे के रिवॉल्वर की नहीं थीं। अदालत के फैसले में इस बात का उल्लेख उनकी हत्या पर कई सवाल ख़ड़े करता है। गाँधीगीरी शब्द बौद्धिक लुच्चापन है। फिल्म में इसका प्रयोग कोई खास बात नहीं है। कुछ इस तरह के सवाल उठाए हैं गाँधीवादी चिंतक प्रो. कुसुमलता केडिया ने।

सुश्री केडिया गाँधी विद्या संस्थान वाराणसी की निदेशक हैं। समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र की जानकार सुश्री केडिया संस्था प्रज्ञा प्रवाह द्वारा गाँधीजी की पुस्तक "हिन्द स्वराज्य" के शताब्दी वर्ष पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने इंदौर आई थीं । उन्होंने नईदुनिया के साथ बातचीत में गाँधीवाद की सरेआम उड़ाई जा रही धज्जियों पर कड़ा एतराज़ जताया । चर्चा के कुछ अंश-

आप जिस कार्यक्रम में आई हैं, वह संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की है। गाँधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को संघ की विचारधारा से प्रेरित माना जाता है। क्या गाँधीवादी लोगों ने संघ को स्वीकारना प्रारंभ कर दिया है?

एक अखबार में दी गई जानकारी के अनुसार गाँधी हत्याकांड के फैसले में उल्लेख है कि गाँधीजी को जो गोलियाँ लगी थीं वे गोडसे के रिवॉल्वर की नहीं थीं। गोडसे की स्वीकारोक्ति भी कानूनी रूप से वैध नहीं है। इस हत्याकांड में चश्मदीद गवाह के परीक्षण में मनु और आभा की गवाही भी नहीं हुई थी। गोली रिवॉल्वर की नहीं बंदूक की थी। ऐसी परिस्थितियों के बाद गाँधीजी की हत्या के इस फैसले पर देश में व्यापक चर्चा नहीं होना दुर्भाग्य की बात है। न गाँधीवादी और न ही कोई अन्य संगठन सच को सामने लाने का प्रयास कर रहा है। दूसरा पहलू यह है कि हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध तो लगा दिया गया था पर एफआईआर दर्ज नहीं की गई थी। बाद में इसे बिना शर्त के समाप्त कर दिया गया था। संघ कहाँ दोषी था इस बात की जानकारी नहीं है।

आपने इसके लिए क्या प्रयास किए?

कई बार गाँधीवादी लोगों को फैसले की प्रति के लिए पत्र लिखे।

गाँधीगीरी के नाम पर राजनीति चल रही है। क्या युवाओं के बीच गाँधी को लाने का यह सही तरीका है?

गाँधीगीरी शब्द बौद्धिक लुच्चापन है। फिल्म में इसका उपयोग खास बात नहीं है। लेकिन शासक वर्ग द्वारा इसे सिर च़ढ़ाना बौद्धिक दिवालियापन है। इसकी बजाए युवाओं को राष्ट्रपिता की देशभक्ति व स्वाभिमान से परिचित कराया जाए तो उन्हें सही मार्गदर्शन मिलेगा।

गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को क्यों नहीं उजागर किया गया?

भारत के विभाजन के बाद देश में प्रचंड हिन्दू आक्रोश जागा था। जनमत भी शरणार्थियों की विपदा देख कर शासन के विरुद्ध हो गया था। शासन में बने रहने के लिए ऐसे तत्वों के समर्थन की जरूरत थी जिनकी हिन्दू संवेदना क्षीण हो किंतु देश को भी स्वीकार हो। इसलिए प्रयोजनपूर्वक गाँधीजी के प्रखर हिन्दुत्व के चेहरे को ढँका गया। मशीन विरोध, वकील विरोध को उभारा गया। जिससे गाँधीजी अप्रासंगिक हो जाएँ।

देश में नेता पवित्र खादी को पहन कर काले कारनामे कर रहे हैं, जबकि आम आदमी इससे दूर है।

नेताओं ने खादी छो़ड़ दी है। बहुत सारे नेता अब इसका उपयोग डिजाइनर ड्रेस के रूप में कर रहे हैं। पहले खादी राजनीतिक पहचान होती थी। आजकल फैशन का पर्याय बनती जा रही है।

देश के सरकारी ऑफिसों में गाँधीजी की तस्वीर के नीचे खुलेआम रिश्वत ली जा रही है। गाँधीवादी इसे हटाने की माँग क्यों नहीं करते हैं?

रिश्वत, व्यवस्था के नंगेपन को उजागर कर रही है। सरकारी कार्यालयों में गाँधीजी की तस्वीर लगी होने के कारण ही देश ठाठ से चल रहा है। यहाँ पर गाँधीजी के साथ स्वामी विवेकानंद व सुभाषचंद बोस की तस्वीर भी लगा दी जानी चाहिए। जिससे नंगापन दिखाने वालों को कुछ शर्म आए।

गरीबी दूर करने व गाँवों के विकास में गाँधी दर्शन कितना प्रासंगिक है?

देश में पिछले ६० सालों में आर्थिक समृद्धि ब़ढ़ी है। गरीबी के हल के लिए गाँधी के सिद्धांतों की जरूरत नहीं है। शासक वर्ग को संयमित व संतुलित कर दिया जाए तो देश संपन्न हो जाएगा। कांग्रेस ने पिछले २० सालों में गाँधी के ग्राम स्वावलंबन के सिद्धांत को लागू नहीं किया है। उन्होंने पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। यह ग्राम स्वराज्य से भिन्न है। इससे गाँवों का विकास नहीं विनाश हुआ है।

गाँधीवादी सिद्धांतों के बारे में आप क्या सोचती हैं?

देश का शासक वर्ग गाँवों को मजबूत करने की बजाए शहरों को मजबूत करने में लगा है। गाँधीजी के विचारों के विपरीत माहौल है। जबकि प्राणवान (देश व समाज को चलाने वाला) वर्ग गाँधी परंपरा के अनुरूप कार्य कर रहा है।

नईदुनिया से साभार

सोमवार, 10 अगस्त 2009

वाकई जानलेवा है स्वाइन फ़्लू .....?

आखिरकर मीडिया की छह महीने की मेहनत रंग ले ही आई । एक बार तो लगा था कि हो हल्ला मचाने में माहिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का हर वार ,हर पैंतरा इस बार खाली ही चला जाएगा और स्वाइन फ़्लू के जीवाणु को गुमनामी की मौत ही मर जाना होगा । लेकिन देर से ही सही भारत की जनता ने स्वाइन फ़्लू के जीवाणु के आगे घुटने टेक ही दिये । अब अमीर देशों की दवा कंपनियों की चाँदी है और मास्क बनाने वाले कुटीर उद्योग के ज़रिये लाखों हाथों को मंदी के दौर में काम मिल गया है ।

स्वाइन फ़्लू जानलेवा है या नहीं यह अब भी बहस का मुद्दा बना हुआ है । मगर उससे मौत का आँकड़ा एकाएक बढ़ना वाकई चौंकाने वाला है । मीडिया एक बार फ़िर या तो अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे बौना साबित हो गया या बड़ी दवा कंपनियों और विदेशी ताकतों से आर्थिक लाभ लेने के लालच में फ़ँस कर देश की आम जनता को गुमराह करने का काम कर रहा है ।

ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा है ,जब आर्थिक तरक्की की राह पर कुलाँचे भर रहे चीन की रफ़्तार थामने के लिये उस पर "सार्स" फ़ैलाने की तोहमत जड़ी गई थी । आज सार्स का जीवाणु कहाँ है ,कोई नहीं जानता । इसी तरह बर्ड फ़्लू के नाम पर मीडिया की मिलीभगत से हौव्वा खड़ा किया गया था । कहा जाता है कि युवाओं की चिकन में बढ़ती दिलचस्पी ने रेड मीट के कारोबार को ठंडा कर दिया था । माँस व्यवसायियों ने अपना धंधा चमकाने के लिये मीडिया की मदद से लाखों - करोडों मुर्गियों को तंदूर और कड़ाही में भुनने की बजाय गड्ढ़ों में दफ़्न होने के लिये माहौल बना दिया ।

बहरहाल मुझे लगता है कि इससे डरने की कतई ज़रुरत नहीं है । इन दिनों दाल काफ़ी महँगी चल रही है , ऎसे में दाल का नाम लेने से भी बजट बिगड़ता सा लगता है । मगर फ़िर भी कहना ही पड़ेगा कि स्वाइन फ़्लू के मामले में दाल में कुछ काला तो ज़रुर है । वैसे आप मेरे बात पर ऎतबार ना करना चाहें , तो मर्ज़ी आपकी । मीडिया की बात पर गौर करते हुए सावधानी बरतना चाहें ,तो कोई हर्ज़ भी नहीं ।

वैसे स्वाइन फ़्लू का होम्योपैथी से इलाज करने का मुम्बई के एक मेडिकल प्रैक्टिशनर ने दावा किया है। डॉ. मुकेश बत्रा का दावा है कि टैमीफ्लू ही इस बीमारी के उपचार की एकमात्र दवा नहीं है। लोग स्वाइन फ्लू से बचाव और उपचार के लिए होम्योपैथी की दवाएं ले सकते हैं। इन दवाओं को चिकित्सकीय परीक्षण में कारगर पाया गया है।

डॉ. बत्रा के अनुसार, ‘ओसिलोकोकिनियम 30’ और ‘इन्फ्लूएंजियम 200’ नाम की दवाएं स्वाइन फ्लू की रोकथाम के साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाती हैं। एक और होम्योपैथिक दवा ‘जेलसेमियम 30’ को भी फ्रांस के डॉक्टरों ने स्वाइन फ्लू के इलाज में कारगर पाया है। इस बात के प्रमाण ब्रिटिश पत्रिका क्लीनिकल मेडिसिन में भी मौजूद हैं। बत्रा ने कहा कि 1917-18 के दौरान फैले स्पैनिश फ्लू के समय होम्योपैथी की दवा के कारण इस बीमारी से मरने वालों की दर 30 से घटकर एक फीसदी रह गई थी।

उधर पीने वालों को पीने का बहाना खोजने वालों के लिये भी खुशखबरी है । रूस में स्वाइन फ्लू से निपटने के लिए एक नया तरीका इजाद किया गया है। रूसी फुटबाल फैंस एसोसिएशन ने खेल प्रेमियों को स्वाइन फ्लू से बचने के लिए व्हिस्की पीने की सलाह दी है। अब खुद ही तय कर लीजिये कि इस अजीबो ग़रीब बीमारी से दो-दो हाथ करने के लिये आप कौन सा तरीका अख्तियार करना पसंद करेंगे ।

बावजूद इसके ,यह याद रखना ज़रुरी है कि आदमी मौत से नहीं मौत के खौफ़ से मात खा जाता है । बीमारी से मरने वालों की तादाद शायद उतनी नहीं होती ,जितनी बीमारी से खौफ़ज़दा होकर दम तोड़ने वालों की । बाबू मोशाय , ज़िन्दगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है । कोई डर नहीं । मास्क लगाकर नहीं खुलकर साँस लीजिये । तीन लेयर वाले ये मास्क दमघोंट देने के लिये काफ़ी हैं ।

( करीब दो महीने बाद ब्लॉग जगत में वापसी हो सकी है । अपने बड़े बेटे दुष्यन्त के लिये बेहतर भविष्य की तलाश की व्यस्तता ने कुछ और सोचनेका मौका ही नहीं दिया । देश में तरह- तरह के कोटे सामान्य श्रेणी के प्रतिभावान छात्रों के लिये अभिशाप बन चुके हैं । कट ऑफ़ में रियायत देने के बावजूद करीब पचास फ़ीसदी सीटें रिज़र्व करने का औचित्य समझ से परे है । कुछ साल पहले तक समाज के जो वर्ग सामान्य थे वो लालू,मुल्लू ,पासवान जैसे लोगों की बदौलत अब पिछड़े वर्ग की आरक्षण की मलाई सूंतने में लग गये हैं । बहरहाल , दुष्यन्त राँची के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ाउंड्री एंड फ़ोर्ज टेक्नॉलॉजी में मेटलरजी ब्राँच मे दाखिला पा चुके हैं । पंद्रह दिनों में दो बार राँची जाना हुआ । काफ़ी अच्छा शहर है और वहाँ के लोग भी बेहद सहज- सरल तथा मददगार लगे । )

गुरुवार, 11 जून 2009

नशे में कौन नहीं है,मुझे बताओ ज़रा...!

नशा शराब में होता तो नाचती बोतल......। सदी के महानायक ने अपनी पहली पारी की मशहूर फ़िल्म "शराबी" में देवताओं के प्रिय पेय यानी सुरा की पैरवी करते हुए ऎसा ज़बरदस्त तर्क दिया कि आज तक उसका तोड़ कोई नहीं ढ़ूँढ़ पाया । अपने चारों ओर नज़र घुमाकर देखो तो "शराबी" की बात में दम दिखाई देता है । मदिराप्रेमी तो बेचारे मुफ़्त ही बदनाम हैं । नशा कहाँ नहीं और किसका नहीं है । यकीन ना हो तो वामपंथियों से पूछ देखिये । कार्ल मार्क्स के अनुयायी आपको बतायेंगे कि धर्म एक अफ़ीम है जो धार्मिक आस्था में डूबे लोगों को रोज़मर्रा की जद्दोजहद से दूर ले जाकर हमेशा गा़फ़िल रखती है ।

मुझे भी अब इन सब बातों पर यकीन सा हो चला है । आजकल भोपाल में किस्म-किस्म के नशे में चूर लोग आमने-सामने हैं । धर्म के ठेकेदार शराब ठेकेदारों के खिलाफ़ लामबंद होकर सत्ता के अड़तियों ललकार रहे हैं । प्रदेश में शराब सस्ती और पानी दुर्लभ है । आलम ये है कि पुण्य कमाने के लिये प्याऊ खोलने वालों का टोटा पड़ गया है । पानी का पाउच महँगा और लाल पानी सस्ता है । हर चौराहे पर पानी की टंकी मिले ना मिले, देशी-विदेशी शराब की दुकान देर रात खुली मिलने की पूरी गारंटी है । आखिर हो भी क्यों ना ! बोतल में भरी शराब का नशा तो गले से नीचे उतरने पर ही चढ़ता है लेकिन सत्ता के मद में चूर नेताओं की शराब ठेके बढाने की नीति का जवाब भला है किसी के पास ?

जब से बीजेपी ने सत्ता संभाली है प्रदेश में तीन चीज़ें बेतहाशा बढ़ी हैं- सड़क किनारे गुमटियाँ,कदम-कदम पर मंदिर और गली-मोहल्लों में शराब की दुकानें । अब हालत ये है कि इधर सिंदूर पुते गोलमटोल हनुमानजी बिराजे हैं और उधर सड़कों पर लोट लगाते सुराप्रेमी हैं । इधर बोतल गटकते बच्चे-बूढ़े और जवान हैं,तो उधर शिंगनापुर से पधारे न्याय के देवता शनिदेव सौ रुपए लीटर तक जा पहुँचे सरसों के तेल से मल-मल कर अंगराग कर रहे हैं । कायदे से देखा जाये तो एक ही जगह सभी की पसंद का ख्याल रखा गया है । आप चाहें तो अंगूर की बेटी से दोस्ती कर लें या फ़िर धर्म की अफ़ीम चाटकर दानपेटी के रास्ते अपने पाप धो लें । हर मढ़िया पर जंज़ीरों में जकड़ी ताले की पहरेदारी में रखा दानपात्र दुनिया का हर पाप कर्म धोकर "सुपर रिन की चमकार" का भरोसा दिलाता है ।

घोड़ी नहीं चढ़े तो क्या बारातें तो खूब देखी हैं । कहने का मतलब ये कि शराब के हैंगओवर से बाहर आने के लिये पियक्कड़ तरह- तरह की तरकीब आज़माते हैं । इसी तरह धर्म की अफ़ीम को हेरोइन,ब्राउन शुगर और कोकेन में तब्दील करने के लिये यज्ञ,हवन,प्रवचन,प्राणप्रतिष्ठा और शोभायात्रा की भट्टी चढ़ाई जाती है ।

आजकल अपनी ज़िम्मेदारियों से जी चुराकर भागे लोगों में भगवा चोला धारण करने का चलन कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है । इन निठल्ले और निकम्मे लोगों ने जगह-जगह मंदिर तान लिये हैं । एक अनुमान के मुताबिक पिछले पाँच सालों में केवल भोपाल में चालीस हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा की सरकारी ज़मीन मंदिर माफ़ियाओं के कब्ज़े में जा चुकी है । ठेला लगाकर रोज़ी-रोटी कमाने वालों पर नगर निगम की गाज गिरने में वक्त नहीं लगता । राजधानी के न्यू मार्केट, एमपी नगर , कमलापार्क जैसे कई व्यस्ततम इलाकों में करोड़ों की ज़मीन पर रातों रात पक्के मंदिर खड़े हो गये और नगर निगम को पता भी नहीं चला ....?????

हद तो तब हो गई, जब भोपाल की संस्कृति को सजाने-सँवारने का दावा पेश करने वाले समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका ने इन मंदिरों के रखरखाव के लिये आर्थिक मदद की माँग कर डाली । इन मंदिरों की तस्वीर के साथ खबर छाप कर अखबार कौन सी संस्कृति तैयार कर रहा है ? जिन अतिक्रमणकारियों और उनके खैरख्वाहों को जेल में ठूँस कर कोड़ों से उधेड़ देना चाहिये,धर्म की आड़ लेकर उनकी वकालत करना कहाँ की समझदारी है ?

हाल ही में दम तोड़ चुके बड़े तालाब को आखिरी सलाम देने के लिये लेक व्यू रोड के रास्ते पर बने सरकारी श्रमदान (शर्मदान) स्थल पर जाने का मौका मिला । देखकर हैरानी हुई कि कल तक जहाँ पानी हिलोरें मारता था वहाँ बड़ा भारी पक्का चबूतरा बन चुका है । कई सिंदूर पुते पत्थर सजीव हो चले हैं । गौर करने वाली बात ये है कि यहाँ नगर निगम का अमला रोज़ सैकड़ों ट्रक मिट्टी निकालने का काम करता है । आये दिन मुख्यमंत्री,मंत्री,आला अधिकारी और नेता श्रमदान के फ़ोटो सेशन के लिये पधारते रहते हैं ।
बहरहाल, अतिक्रमणकारी छद्म बाबाओं ने आजकल शराब की दुकाने हटाने के मुद्दे को लेकर राजधानी में बवाल मचा रखा है । मेरी राय में सरकार को शराब की दुकान हटाने से पहले सभी मंदिरों को नेस्तनाबूद कर देना चाहिये । मुफ़्त की रोटियाँ तोड़-तोड़कर ये निठल्ले लोग गर्रा गये हैं । गुर्राने से शुरु हुए ये निकम्मे अब गरियाने लगे हैं । भोपाल को अपनी रियासत समझकर दरबार सजाने वाले नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर से भी सवाल है कि भोपाल को स्विटज़रर्लैंड बनाने का ख्वाब दिखाने के बाद पिछले छह सालों में क्या दिया उन्होंने ? चारों तरफ़ गड्ढे, बेतहाशा बढ़ते झुग्गियों के जंगल और बिल्डरों के लालच के चलते डायनामाइट के विस्फ़ोट में अपना अस्तित्व गवाँ चुकी खूबसूरत पहाडियाँ ...???? नशे में कौन नहीं है,मुझे बताओ ज़रा...!

शनिवार, 6 जून 2009

पर्यावरण की चिंता या चिंता का नाटक

देश- दुनिया में कल का दिन पर्यावरण के नाम रहा । लोगों ने बिगड़ते पर्यावरण पर खूब आँसू बहाये, बड़े होटलों में सेमिनार किये, भारी भरकम शब्दावली के साथ बिगड़ते मौसम की चिंता की,मिनरल वॉटर के साथ सेंडविच-बर्गर का स्वाद लिया और इतनी थका देने वाली कवायद के साथ ही दुनिया की आबोहवा में खुशनुमा बदलाव आ गया । देश-दुनिया का तो पता नहीं लेकिन हमारे भोपाल में तो नौकरशाह और नेताओं में पर्यावरण के प्रति जागरुकता लाने की होड़ सी मची रही । नेता वृक्ष लगाते हुए फ़ोटो खिंचा कर ही संतुष्ट नज़र आए वहीं स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति कर रहे वरिष्ठों की सफ़लता से प्रेरणा लेते हुए कुछ नौकरशाहों ने पर्यावरण के बैनर वाली दुकान सजाने की तैयारी कर ली ।

हमारे शहर का चार इमली (वास्तविक नाम चोर इमली) नौकरशाहों के बसेरे के लिये जाना जाता है । जिस जगह इन आला अफ़सरों की आमद दर्ज़ हो जाती है,उसके दिन फ़िरना तो तय है । इसलिये चार इमली का सुनसान इलाका अब चमन है और कई खूबसूरत पार्कों से घिरा है । पास ही एकांत पार्क है,कई किलोमीटर में फ़ैला यह उद्यान नौकरशाहों की पहली पसंद है और यहाँ की "सुबह की सैर" का रसूखदार तबके में अपना ही महत्व है । लिहाज़ा लोग दूर-दूर से मॉर्निंग वॉक के लिये मँहगी सरकारी गाड़ियों में सवार होकर पार्क पहुँचते हैं और हज़ारों लीटर पेट्रोल फ़ूँकने के बाद ये लोग गाड़ी से उतर कर पार्क में चर्बी जलाते हैं । मज़े की बात है कि सुबह की शुद्ध हवा में पेट्रोल-डीज़ल के धुएँ का ज़हर घोलने वाले ही कुछ खास मौकों पर पर्यावरण के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं ।

बहरहाल नौकरशाहों और रसूखदार लोगों की संस्था ग्रीन प्लेनेट साइकिल राइडर्स एसोसिएशन ने कल का दिन नो कार-मोटर बाइक डे के रुप में मनाया । इसके लिये अपने संपर्कों और रसूख का इस्तेमाल करते हुए संचार माध्यमों के ज़रिये माहौल बनाया गया । ऑस्ट्रेलिया से आयातित साइकलों पर सवार होकर मंत्रालय जाते हुए वीडियो तैयार कराये गये । सेना को भी इस मुहिम में शामिल किया गया । सो सेना के ट्रकों में लाद कर रैली स्थल तक साइकलें पहुँचाई गई । भोपाल से दिल्ली तक इस रैली की फ़ुटेज और आयोजक की बाइट दिखाई गई । लेकिन सवाल फ़िर वही कि क्या वास्तव में ये लोग पर्यावरण को लेकर गंभीर हैं ? क्या सचमुच बिगड़ता मौसम इन्हें बेचैन करता है या यह भी व्यक्तिगत दुकान सजाकर रिटायरमेंट के बाद का पक्का इंतज़ाम करने और प्रसिद्धि पाने की कवायद मात्र है ।

प्रदेश में हर साल बरसात में हरियाली महोत्सव मनाया जाता है । ज़ोर-शोर से बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण समारोह होते हैं । मंत्री और अधिकारी पौधे लगाते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं । हर ज़िले के वृक्षारोपण के लम्बे चौड़े आँकड़े अखबारों की शोभा बढ़ाते हैं । यदि इन में से चौथाई पेड़ भी अस्तित्व में होते, तो अब तक मध्यप्रदेश में पैर रखने को जगह मिलना मुश्किल होता । इधर मुख्यमंत्री जी कह रहे हैं कि वे और उनके मंत्रिमंडल के सभी सदस्य अब हर समारोह की शुरुआत पेड़ लगा कर करेंगे । लेकिन मुद्दे की बात यह भी है कि केवल पौधा लगा देने ही से तो काम नहीं बनता । शुरुआती सालों में उसकी देखभाल का ज़िम्मा कौन लेगा ? जंगलों में राजनीतिक संरक्षण में चल रही कटाई को कौन रोकेगा ?

बाघों और अन्य वन्य प्राणियों की मौतों के बढ़ते ग्राफ़ के लिये चर्चा में रहने वाले वन विभाग ने भी जानवरों के बाद अब पेड़ों को गोद देने की स्कीम तैयार की है । मध्यप्रदेश सरकार में इन दिनों एक अजीब सी परंपरा चल पड़ी है । घोषणावीर मुख्यमंत्री ने कहना शुरु कर दिया है कि हर काम सरकार के बूते की बात नहीं । जनता को भी आगे बढ़कर सहयोग करना होगा । ये बात कुछ हज़म नहीं हुई । जनता के पैसों पर सत्ता- सुख भोगें आप ,सरकारी खज़ाने को दोनों हाथों से लूटे सरकार और आखिर में काम करे जनता.....!!! ऎसे में सरकार या नेताओं की ज़रुरत ही कहाँ है ? जनता से सहयोग चाहिये,तो योजनाओं का पैसा सीधे जनता के हाथों में सौंपा जाए ।


मैं आज तक यह समझ नहीं पाई कि सड़कों पर नारे लगाने,रैली निकालने या सेमिनार करने से कोई भी समस्या कैसे हल हो पाती है । पर्यावरण नारों से नहीं संस्कारों से बचाया जा सकता है । बच्चों को शुरु से ही यह बताने की ज़रुरत होती है कि इंसानों की तरह ही हर जीव और वनस्पति में भी प्राण होते हैं । हमारी ही तरह वे सब भी धरती की ही संतानें हैं । इस नाते धरती पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा ...???

हमें समझना होगा की प्रकृति और इंसानी संसार में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । पर्यावरण तभी सुधरेगा जब हम अपने खुद के प्रति ईमानदार होंगे । हमारी दुनिया में हर चीज़ पैसे के तराज़ू पर तौली जाती है,लेकिन प्रकृति ये भेद नहीं जानती । वह कहती है कि तुम मुझसे से भरपूर लो लेकिन ज़्यादा ना सही कुछ तो लौटाओ । अगर वो भी ना कर सको तो कम से कम जो है उसे तो मत मिटाओ ।

खैर, प्राकृतिक संसाधनों और धरोहरों को सहेजने का जज़्बा रखने वाले लोगों को प्रकृति किस तरह नवाज़ती है । इसकी बानगी देखी जा सकती है जमशेदपुर में , जहाँ तालाब करा रहा है गरीब कन्याओं का विवाह -
पैसे के लिए अपनों से भी बैरभाव को आम बात मानने वाले इस भौतिकवादी युग में आपसी सहयोग और सहकारिता की अनूठी मिसाल पेश करने वाला एक गांव ऐसा है जहाँ स्वयं की निर्धनता को भूल ग्रामीण पिछले लगभग डे़ढ़ दशक से सामूहिक मछलीपालन के जरिए गरीब लडकियों की शादी करा रहे हैं। झारखंड के नक्सल प्रभावित पूर्वी सिंहभूम जिले के ब़ड़ाजु़ड़ी गांव के ग्रामीणों ने यह अनुकरणीय मिसाल पेश की है। लीज पर लिये सरकारी तालाब में मछलीपालन के जरिए अब तक एक सौ से अधिक निर्धन लड़कियों के हाथ पीले किये गये हैं । ७९ सदस्यों की प्रबंधन कमेटी संयुक्त बैंक खाते में जमा रकम की देखरेख करती है। ग्रामीणों ने तालाब में सामूहिक मछलीपालन की योजना लगभग पंद्रह साल पहले उस समय बनाई थी जब पैसे के अभाव में एक गरीब कन्या के विवाह में कठिनाई पैदा हो गई थी। गांव के कुछ लोगों की पहल पर तालाब लीज पर लिया गया तथा प्रबंधन कमेटी बनाई गई। इस कमेटी ने मछलीपालन की कमाई से पहले ही साल सात निर्धन कन्याओं की शादी कराई थी। अब तक यह आंक़ड़ा एक सौ की संख्या को पार कर गया है। ग्रामीण बुलंद हौसले के साथ अब भी इस नेक काम में लगे हैं।

गुरुवार, 4 जून 2009

भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाते नौकरशाह

नौतपा कभी तीखे तो कभी नरम तेवर दिखाकर बिदा हो गया । उमस भरे माहौल में अब सभी लोग आसमान की ओर टकटकी लगाकर निहारने लगे हैं कि झूमकर कब बरसेंगे काले बादल ! मानसून के मौसम के आने की आहट ने सरकारी महकमों में भी हलचल मचा दी है । विधानसभा चुनावों की भारी सफ़लता पर इतराती भाजपा को आम चुनावों में मतदाताओं ने ठेंगा दिखा दिया । अचानक मिले इस आघात को सत्तारुढ़ दल अब तक पचा नहीं पा रहा है । लेकिन हकीकत तो हकीकत ही रहेगी । सो आधे-अधूरे मन से सच्चाई को कभी स्वीकारते तो कभी नकारते हुए पार्टी आगे बढ़ चली है ।

कहावत है " कुम्हार कुम्हारिन से ना जीते,तो दौड़ गधैया के कान उमेठे ।" सो प्रदेश में भाजपा भी अपनी अँदरुनी कमियों की ओर से आँखें मूँदकर नौकरशाही और सरकारी अमले पर हार का ठीकरा फ़ोड़ने पर आमादा है । सरकारी अधिकारियों को हार के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है कि अमले ने सरकार की योजनाएँ ठीक तरह से जनता तक नहीं पहुँचाईं । ज़ाहिर है अपराध किया है तो दंड भी मिलेगा । सरकार की नाराज़गी मलाईदार पदों से हटाने की कवायद के तौर पर सामने आना लगभग तय है । एक स्थानीय चैनल मंदी के दौर में भी ’तबादला उद्योग’में एकाएक आई तेज़ी का ब्यौरा दे रहा था कि जैसा पद वैसी भेंट-पूजा । लिपिक वर्ग के लिये पच्चीस हज़ार से शुरु होने वाला आँकड़ा नौकरशाहों तक पहुँचते-पहुँचते लाखों में तब्दील हो जाता है ।

बहरहाल राजधानी में हींग लगे ना फ़िटकरी वाले इस मुनाफ़े के व्यवसाय के कर्ता-धर्ता सक्रिय हो चुके हैं । दलालों ने भी अपनी जुगाड़ लगाना शुरु कर दी है । कई छुटभैये नेता और पत्रकार तो तबादलों के मौसम में इतनी चाँदी काट लेते हैं कि उन्हें अगले कुछ साल हाथ-पैर हिलाने की कोई ज़रुरत ही नहीं । मगर हमेशा की तरह मेरी मोटी बुद्धि में यह बात नहीं घुस पाती कि तबादलों के ज़रिये प्रशासनिक सर्जरी के नाम पर हर साल तबादलों पर सरकारी खज़ाने से करोड़ों रुपए फ़ूँक दिये जाते हैं । महीने-दो महीने सारी मशीनरी ठप्प पड़ जाती है । कुछ दिन बाद पैसा ,पॉवर और संपर्कों के दम पर जहाँ था-जैसा था की स्थिति बन ही जाती है ।

ये बात गौर करने वाली है कि नौकरशाही का काम सरकार की योजनाओं का प्रचार-प्रसार करना नही,बल्कि उन्हें सही तरीके से अंजाम देना है । अगर वह अपने काम को बखूबी अंजाम देने में नाकाम रहती है तो राजनेता भी अपनी ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते,क्योंकि घुड़सवारी का नियम कहता है कि घोड़े की क्षमता घुड़सवार की काबीलियत पर निर्भर करती है । बार- बार तबादले करने की रणनीति नेताओं की तिजोरी तो भर सकती है लेकिन सरकारी अमले के मनोबल और खज़ाने पर इसका विपरीत असर ही पड़ता है । तबादले दंडित करने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चाहत अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के सिवाय कुछ भी नहीं ।

वैसे नौकरशाह भी कुछ कम नहीं । आमतौर पर नेताओं के भ्रष्टाचार को लेकर तो लोग खूब बातें करते हैं और गाहे बगाहे उनका गुस्सा फ़ूटते भी देखा गया है । लेकिन दीमक की तरह सरकारी खज़ाने को बरसों-बरस चट करने वाले नौकरशाहों का क्या कीजियेगा ? प्रक्रियात्मक पेचीदगियों के बूते कानून और अधिकारों को अपने कब्ज़े में रखने वाली नौकरशाही पर लगाम लगाना किसी भी सरकार के लिये आसान काम नहीं है । देश के विकास और जनकल्याण की राह में लालफ़ीताशाही सबसे बड़ा रोड़ा है ।

देश में नौकरशाहों के "नौ दिन चले अढ़ाई कोस" वाले रवैये से तो सब वाकिफ़ हैं ,लेकिन कामकाज और क्षमता के मामले में भी वे फ़िसड्डी साबित हुए हैं । दूर देश में हुए सर्वे की रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक करती है । एशिया के 12 देशों में काम कर रहे 1275 विशेषज्ञों रायशुमारी के आधार पर तैयार सर्वे कहता है कि भारत में आम आदमी को प्रशासनिक प्रणाली के सुस्त रवैये से हर दिन रुबरु होना पड़ता है । केन्द्र और राज्य स्तर के सभी अधिकार इन्हीं के पास रहते हैं । हांगकांग की पॉलिटिकल और इकॉनॉमिक रिस्क कंसलटेंसी की ओर से कराये गये सर्वे में सिंगापुर कामकाज के मामले में लगातार तीसरी बार अव्वल रहा,वहीं भारत बारह देशों के इस सर्वे में सबसे आखिरी पायदान पर है ।

वैसे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हमारे यहाँ के नौकरशाह काम करने के मामले चाहे जितने फ़िसड्डी हों लेकिन भ्रष्ट आचरण के मामले में नेताओं के साथ "ताल से ताल " मिलाते नज़र आते हैं । हाल के सालों में भ्रष्टाचार के शिखर पर काबिज़ राजनेताओं का अनुसरण करने में नौकरशाह ’बेजोड़’साबित हुए हैं । बर्लिन की संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर 2009 जारी किया है ,जिसके आँकड़े बताते हैं कि भारत में राजनीतिक दल सबसे भ्रष्ट संस्था है । सर्वे में 58 फ़ीसदी लोगों ने माना कि राजनीतिज्ञ सबसे ज़्यादा भ्रष्ट हैं । 13 लोगों ने नौकरशाहों को घूसखोरी के मामले में दूसरे नम्बर पर रखा है । ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संगठन ने ही साल 2005 में एक अध्ययन कराया था जिसमें कहा गया था कि भारत में लोग बुनियादी सेवाएँ हासिल करने के लिए चार अरब अमरीकी डॉलर के बराबर रक़म हर साल रिश्वत के रूप में देते हैं । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सालाना 210 अरब रुपए रिश्वत में दिए जाते हैं ।

एशिया के भ्रष्ट देशों की सूची में भारत नौवें स्थान पर है तो विश्व के 158 देशों की सूची में भारत 88वें स्थान पर है। भारत में भ्रष्टाचार की चर्चा जितनी चाहे हो चुकी हो फिर भी ये आंकड़े चौंका देते हैं । सुन कर लगता है मानो पूरे देश ने भ्रष्टाचार के सामने घुटने ही टेक दिए हों। हम इसके प्रति इतने उदासीन हो गए हैं कि भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है । मगर भ्रष्टाचार क्या देश की सांस्कृतिक सच्चाई बन गया है या इसके दूसरे कारण भी हैं ।

कई लोग कहते हैं कि देश में लोकतंत्र की परिपक्वता की कमी की वजह से भ्रष्टाचार फैल रहा है । दूसरी तरफ़ यह कड़वी सच्चाई है कि लोकतंत्र की जड़ें और कमज़ोर करने में भी भ्रष्टाचार की बड़ी भूमिका होती है । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 40 प्रतिशत न्यायिक मामल रिश्वत के बल पर प्रभावित किए जाते हैं और भ्रष्ट सरकारी अमलों में पुलिस सबसे ऊपर है । यह समझने के लिए किसी अर्थशास्त्री की ज़रूरत नहीं है कि ग़रीबों का सबसे बड़ा दुश्मन भ्रष्टाचार ही है जो उसे रोटी,अवसर और अधिकारों से दूर करता है । नेताओं को तो चुनाव में जनता सबक सिखा ही देती है ,लेकिन नियुक्ति के बाद चालीस-पैंतालीस साल बेखौफ़ और बेफ़िक्र होकर सरकार को चूना लगानी वाली बेलगाम नौकरशाही की नाक में नकेल कौन कसेगा और कैसे ....??????

मंगलवार, 19 मई 2009

सत्ता सुख की चाहत में शेर बने मेमने

कहते हैं वक्त बदलते वक्त नहीं लगता। यह कहावत भारतीय राजनीति के मौजूदा दौर पर शब्दशः चरितार्थ हो रही है । कल तक जो नेता मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी से अपने समर्थन की भरपूर कीमत वसूलते थे और आये दिन आँखें भी तरेरते थे, वे ही आज बिन माँगा समर्थन देने के लिये ना सिर्फ़ उतावले हैं,बल्कि राष्ट्रपति को चिट्ठी देने के लिये दौड़े चले जा रहे हैं। मज़े की बात ये भी है कि जो काम वे खुद कर रहे हैं, वही काम करने वाले प्रतिद्वंद्वी उनकी नज़र में अवसरवादी और मौकापरस्त हैं।

परमाणु करार के बहाने सरकार के नीचे से ज़मीन खींच लेने का मुग़ालता पालने वाले वामपंथियों को राजनीति के महान दलाल ने करारी शिकस्त दे दी। गु़स्से से लाल हो रहे वामपंथियों को ममता बनर्जी की आड़ में जनता ने इस कदर धो डाला कि अब करात दंपति के साथ साथ सभी का चेहरा ज़र्द पड़ गया है। यूपीए गठबँधन में शामिल तीन तरह की काँग्रेस ने कुछ और सहयोगियों की मदद से विरोधी खेमे के सभी रंग उड़ा दिये हैं।

मायावती का हाथी भी सत्ता की चौखट पर हीला-हवाला किये बग़ैर बँधने को आतुर है। चार बार उत्तर प्रदेश की मुखिया की ज़िम्मेदारी सम्हालने वाली मायावती की निगाह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर लगी थी। हो भी क्यों ना आखिर वे एक दलित की बेटी हैं। इसी नाते हक़ है उनका ख्वाब देखने का। खैर हाल फ़िलहाल यह सपना टूट गया तो क्या, वो नहीं बड़ा भाई ही सही कुर्सी तो घर में ही है । माया मेम साब ने जनता को याद दिलाया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें अपनी छोटी बहन बता चुके हैं ।

ये सब वही लोग हैं जो कल तक कह रहे थे-हमारे सारे विकल्प खुले हुए हैं। हम काँग्रेस के साथ भी जा सकते हैं, भाजपा और तीसरे मोर्चे के साथ भी। सभी ने अजीब सी रहस्यमयी मुस्कुराहट पहन ली थी । हर कोई १६मई के इंतज़ार की बात कह अपने पत्ते खोलने से बच रहा था। यहाँ तक कि वामपंथी दल भी, जो तीसरा मोर्चा बनाए बैठे थे। नीतिश कुमार ने भी अपनी दुकान खूब सजाई और तख्ती टाँग दी कि बिहार को विशेष पैकेज दो और हमारा समर्थन ले जाओ । सब अपनी छोटी-छोटी दुकानें सजाए बैठे थे। १६ मई आए और मैं ग्राहक की जेब खाली कराऊँ......।

तय तारीख आई और चली गई। सजी हुई दुकानों पर किसी ने झूठमूठ भी भाव तक नहीं पूछा। शाम तक दुकानों पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगीं। दुकानदार में इतना उत्साह भी नहीं रहा कि उन्हें भगाए। रात होने से पहले-पहले दुकानों पर ताले जड़ गए। सारे विकल्प खोलकर बैठने वाले अब गली-गली फ़ेरी लगा रहे हैं । ठेले पर बिक रहे समर्थन का कोई खरीददार नहीं है। टेर लगाने वालों के गले सूख गये हैं और बिकाऊ माल सड़ने की आशंका में चेहरे मुरझा गये हैं । कल तक अपनी शर्तों पर साथ देने वाले आज बिना शर्त सत्ता के दरवाज़े खूँटे से बँधी गाय बनने को बेताब हैं,लेकिन खरीददार इतना बेरहम हो सकता है ये इन सबने कभी सोचा नहीं था ।

अब ये तो बेरहमी की इंतेहा हो गई । वे बेचारे इसके बदले कुछ माँग भी तो नहीं रहे। उन्हें मंत्री पद की चाहत भी नहीं । वे तो बस काँग्रेस का हाथ अपने साथ चाहते हैं। वे चाहते हैं तो बस इतना कि यूपीए में थोड़ी सी जगह मिल जाये। हम सत्ताधारी पार्टी कहलाएँ,बस इतना-सा संदेश पूँजीपतियों तक जाना चाहिए। बाकी हम अपना इंतजाम खुद कर लेंगे। वे समर्थन देना चाहते हैं और कांग्रेस है कि ले नहीं रही है। कोई धेले को पूछ नहीं रहा। बिहार के चतुर-सुजानों की सारी हेकड़ी धरी की धरी रह गई ।

उधर साइकल की हवा निकल चुकी है,लेकिन इससे क्या? पुराने रिश्ते यूँ पल में झटके से नहीं टूट जाया करते । दिग्विजय सिंह,कमलनाथ जैसे "छुटभैये नेता" अमरसिंह सरीखे महानतम राजनीतिज्ञ पर टीका-टिप्पणी करते हुए शोभा नहीं देते । अमरवाणी के मुताबिक तीसरे और चौथे दर्ज़े के नेताओं की छींटाकशी काँग्रेस से उनके एकतरफ़ा प्रेम की लौ को बुझा नहीं सकती । तभी तो निस्वार्थ भाव से राजनीति के ज़रिये देश सेवा पर उतारु "पॉवर ब्रोकर" महोदय देर किये बग़ैर मीडिया को दिखाते हुए समर्थन की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन पहुँच गये।



लालू की लालटेन की लौ क्या टिमटिमाने लगी,उनके चेहरे का तो मानो नूर ही चला गया । कल तक बिहार में काँग्रेस के लिये तीन सीटों से ज़्यादा नहीं छोड़ने की ज़िद पकड़े बैठे लालू आज अपना समर्थन देने पर आमादा हैं। बार-बार झिड़की खाकर भी पुराने संबंधों की दुहाई देकर लालू एक बार फ़िर सत्ता की मलाई खाने को उतावले हैं । हद तो ये है कि चुनाव के दौरान काँग्रेस पर दहाड़ने वाले लालू प्रसाद अब मिमिया रहे हैं। लेकिन फ़िर भी उनकी खिलाफ़त कर रहे काँग्रेस के दिग्गज नेताओं को दोयम दर्ज़े का बताने से बाज़ नहीं आ रहे। वे अपनी फ़रियाद सोनिया दरबार तक पहुँचाने के लिये उतावले हैं ।

आखिर सत्ता का नशा होता ही है मदमस्त कर देने वाला । जब तक कुर्सी की ताकत रहती है व्यक्ति रहता है मदहोश और जब वह हैसियत छिन जाती है तो वह बेबस और लाचार व्यक्ति " जल बिन मछली" की तरह छटपटाने लगता है । इसी लिये सत्ता सुंदरी के चारों ओर भँवरे से मँडराते ये नेता किसी कीमत पर काँग्रेस से जुदा नहीं होना चाहते । इन सभी नेताओं का दर्द और पीड़ा कमोबेश एक सी है । सितारों ने साथ छोड़ा तो सत्ता भी पकड़ से दूर चली गयी । कल तक जो अपने थे वो सब एकाएक पराये हो गये और इनमें से ज़्यादातर को डर है कि पुराने दिनों की ब्लैक मेलिंग का बदला कहीं अब गिन-गिन कर नहीं लिया जाये ।

नतीजे आने तक लालू, मुलायम,पासवान, करात,शरद पवार, लालकृष्ण आडवाणी, मायावती जैसे नेता दिन में भी प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने लगे थे । लेकिन रोज़-रोज़ की तू-तू मैं-मैं से आज़िज़ आ चुकी जनता ने ऎसा दाँव चला कि इन सभी के " दिल के अरमां आँसुओं में बह गये।" जो दल व्यक्तिवादी थे उन्हें हवा के बदले रुख के मुताबिक "शरणम गच्छामि" में ही समझदारी दिखाई दे रही है । इन मौकापरस्तों को एकतरफ़ा प्रेम से भी कोई गुरेज़ नहीं है । दरअसल इस बहाने ये सभी अपने आने वाले कल के अँधियारे को हरसंभव रोकना चाहते हैं । अब सुनहरे सपनों की बजाय अँधियारी काल कोठरी का डरावना ख्याल रातों की नींद उड़ाने लगा है ।

शनिवार, 9 मई 2009

कलाकार की आह और कराह, संस्कृति बनी चारागाह

शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पंडित कुमार गंधर्व के बेटे और मशहूर ध्रुपद गायक मुकुल शिवपुत्र के भोपाल के एक मंदिर में बदहाल स्थिति में मिलने की खबर से कला जगत में मायूसी छा गई। सरकारी अमला एक बार फ़िर समस्या से मुँह चुराता और गंभीर मुख मुद्रा बनाये सच्चाई पर पर्दा डालता दिखाई दिया। अपनी धरोहरों और संस्कृतिकर्मियों का सरकार कितना खयाल रखती है, मुकुल का मामला इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
कला और संस्कृति के संरक्षण का दम भरने वाली मध्य प्रदेश सरकार का ध्यान भी पाई-पाई के लिए मोहताज मुकुल पर तब गया ,जब उनका कोई पता नहीं चल रहा है। हालाँकि मुख्यमंत्री ने फ़क्कड़ तबियत मुकुल शिवपुत्र को ढ़ूँढ़ कर उनके सम्मानपूर्वक पुनर्वास की बात कही है। उन्होंने मुकुल को राज्य की सांस्कृतिक धरोहर बताते हुए कहा कि उनका पता लगाने की हर संभव कोशिश की जाएगी।

कम उम्र में ही शास्त्रीय संगीत में ऊंचा मुकाम हासिल करने वाले मुकुल शिवपुत्र अब भीख माँगकर गुजारा करने पर मजबूर हैं। गौर तलब है कि 53 वर्षीय मुकुल पिछले कुछ दिनों से बदहाल हालत में भोपाल के साँईं बाबा मंदिर परिसर में रह रहे थे। यहाँ तीन दिन पहले ही उनकी पहचान उजागर हुई और इसके एक दिन बाद वह गायब हो गए। कला बिरादरी ने इस पर चिंता जताई है। लेकिन इस घटना ने एक साथ कई सवालों को हमारे सामने ला खड़ा किया है। मध्यप्रदेश में कला-संस्कृति के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। उसके बावजूद प्रदेश में कलाकारों की स्थिति दयनीय बनी हुई है।

चापलूस और चाटुकार अफ़सरों से घिरे नेता आखिरकार प्रदर्शनियों,मेलों,सेमिनारों और गोष्ठियों के उदघाटन में उलझकर रह गये हैं। कुछ अधिकारी नेताओं को साधने की काबिलियत के दम पर एक साथ कई महकमों को सम्हाले हुए हैं। फ़िल्म विकास निगम बंद होने के बाद श्रीराम तिवारी ने अचानक ऎसी कौन की योग्यता हासिल कर ली कि वे एक साथ वन्या प्रकाशन,स्वराज संस्थान और संस्कृति संचालक के पद पूरी कुशलता से सम्हाल रहे हैं ? महँगी पुस्तकें छपवाकर स्टोर रुम में दीमकों के हवाले करने,महँगे निमंत्रण पत्र छपवाकर वितरित करने या राजधानी के अखबारों के तीन-चार पत्रकारों को साधकर कला संस्कृति से जुड़ी खबरों का बेहतरीन डिस्प्ले ही कला जगत के विकास और उत्थान का पैमाना हो,तो बात दूसरी है ।

सरकारी उपेक्षा झेलते हुए ध्रुपद गायिका असगरीबाई के लिये जीने से ज़्यादा मरना मुश्किल हो गया था । सरकारी तंत्र अपनी भूल स्वीकारने या सुधारने की बजाय बेहयाई से उससे पल्ला झाड़ने का प्रयास करता रहा है । एक बारगी मान भी लिया जाये कि मुकुल शराब या किसी और तरह के नशे के आदी हैं,तो क्या उनके पुनर्वास का दायित्व सरकार का नहीं ..? इतने बड़े कलाकार को लोगों से दो-दो रुपए माँगना पड़े क्या ये सरकार के दामन पर दाग नहीं ? ये नौबत क्यों आई क्या इसका पता लगाना सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं । कुमार गंधर्व की विरासत को सम्हालने वाले इतने नामचीन कलाकार की देखभाल का ज़िम्मा भी क्या संस्कृति महकमा नहीं उठा सकता? यह वाकया विभाग के अफ़सरों की कार्यप्रणाली और संवेदनशीलता की कलई खोलने के लिये काफ़ी है।

मुख्यमंत्री की छबि गढ़ने का श्रेय लेने वाले एक स्वनामधन्य कवि हृदय आला अफ़सर का तर्क है कि हर कलाकार का अपना अंदाज़ होता है । जिसे हम दुर्दशा मान रहे हों,हो सकता है मुकुल शिवपुत्र को उस तरह का जीवन रास आता हो । उन्हें सरकार की ओर से किये जा रहे प्रयासों में कोई कमी नज़र नहीं आती । बल्कि वे तो इस तरह की खबरें उजागर करने वालों को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं ।

इनकी समझ की दाद देना ही चाहिए। माना कि कलाकार मस्तमौला प्रकृति का होता है। संगीत शिरोमणि पं.कुमार गंधर्व के ज्येष्ठ चिरंजीव मुकुल शिवपुत्र के बारे में ये बात काफ़ी हद तक सच भी है। उन्हें बचपन से ही घर आँगन में सुर की संगत मिली । ख्याल के अलावा भक्ति और लोकगीत पसंद करने वाले मुकुल ने संस्कृत में भी संगीत रचनाएँ तैयार कीं। सूफ़ियाना तबियत के मुकुल ऐसे गायक हैं जिन्हें अपने आपको बताने और अपना गाना सुनाने की कोई उत्तेजना नहीं है । मन लग गया तो गाएंगे-आपके जी में आए जो कर लीजिये। जैसे एक कलाकार होता है फ़क्कड़ तासीर और बिना किसी उतावली वाला । वे पूछते हैं मन की वीणा के सुरों से कि आज परमात्मा का क्या आदेश है मेरे गले के लिये। वे ऐसे कलाकार हैं ,जो बस अपने आप को सुनना चाहते हैं।

मुकुल के बहाने प्रदेश के कला कर्मियों को मौका मिला है कि वे सीधे मुख्यमंत्री तक अपनी बात पहुँचा सकें । प्रदेश में सत्ता और प्रशासन से नज़दीकियाँ बढ़ाकर मलाई खाने वाले संस्कृति कर्मियों से कहीं बड़ी तादाद उन लोगों की है,जो सही मायनों में कला साधक और सृजक हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे संस्कृति विभाग में इनकी कोई सुनवाई नहीं ।

कोई कथा-कहानी के लिये कलम थामने की बजाय इलाज की खातिर खतो-किताबत में मसरुफ़ है, तो कोई दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में रचनाओं की बजाय घर का सामान एक-एक कर बेचने के लिये मजबूर है। कहते हैं साहित्यकार और कलाकार किसी भी राज्य की खुशहाली और समृद्धि का आईना होते हैं। कलाकारों की आह और कराह लेकर क्या कोई भी राज्य तरक्की के सोपान पर कदम आगे बढ़ा सकेगा ?