आखिरकर मीडिया की छह महीने की मेहनत रंग ले ही आई । एक बार तो लगा था कि हो हल्ला मचाने में माहिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का हर वार ,हर पैंतरा इस बार खाली ही चला जाएगा और स्वाइन फ़्लू के जीवाणु को गुमनामी की मौत ही मर जाना होगा । लेकिन देर से ही सही भारत की जनता ने स्वाइन फ़्लू के जीवाणु के आगे घुटने टेक ही दिये । अब अमीर देशों की दवा कंपनियों की चाँदी है और मास्क बनाने वाले कुटीर उद्योग के ज़रिये लाखों हाथों को मंदी के दौर में काम मिल गया है ।
स्वाइन फ़्लू जानलेवा है या नहीं यह अब भी बहस का मुद्दा बना हुआ है । मगर उससे मौत का आँकड़ा एकाएक बढ़ना वाकई चौंकाने वाला है । मीडिया एक बार फ़िर या तो अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे बौना साबित हो गया या बड़ी दवा कंपनियों और विदेशी ताकतों से आर्थिक लाभ लेने के लालच में फ़ँस कर देश की आम जनता को गुमराह करने का काम कर रहा है ।
ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा है ,जब आर्थिक तरक्की की राह पर कुलाँचे भर रहे चीन की रफ़्तार थामने के लिये उस पर "सार्स" फ़ैलाने की तोहमत जड़ी गई थी । आज सार्स का जीवाणु कहाँ है ,कोई नहीं जानता । इसी तरह बर्ड फ़्लू के नाम पर मीडिया की मिलीभगत से हौव्वा खड़ा किया गया था । कहा जाता है कि युवाओं की चिकन में बढ़ती दिलचस्पी ने रेड मीट के कारोबार को ठंडा कर दिया था । माँस व्यवसायियों ने अपना धंधा चमकाने के लिये मीडिया की मदद से लाखों - करोडों मुर्गियों को तंदूर और कड़ाही में भुनने की बजाय गड्ढ़ों में दफ़्न होने के लिये माहौल बना दिया ।
बहरहाल मुझे लगता है कि इससे डरने की कतई ज़रुरत नहीं है । इन दिनों दाल काफ़ी महँगी चल रही है , ऎसे में दाल का नाम लेने से भी बजट बिगड़ता सा लगता है । मगर फ़िर भी कहना ही पड़ेगा कि स्वाइन फ़्लू के मामले में दाल में कुछ काला तो ज़रुर है । वैसे आप मेरे बात पर ऎतबार ना करना चाहें , तो मर्ज़ी आपकी । मीडिया की बात पर गौर करते हुए सावधानी बरतना चाहें ,तो कोई हर्ज़ भी नहीं ।
वैसे स्वाइन फ़्लू का होम्योपैथी से इलाज करने का मुम्बई के एक मेडिकल प्रैक्टिशनर ने दावा किया है। डॉ. मुकेश बत्रा का दावा है कि टैमीफ्लू ही इस बीमारी के उपचार की एकमात्र दवा नहीं है। लोग स्वाइन फ्लू से बचाव और उपचार के लिए होम्योपैथी की दवाएं ले सकते हैं। इन दवाओं को चिकित्सकीय परीक्षण में कारगर पाया गया है।
डॉ. बत्रा के अनुसार, ‘ओसिलोकोकिनियम 30’ और ‘इन्फ्लूएंजियम 200’ नाम की दवाएं स्वाइन फ्लू की रोकथाम के साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाती हैं। एक और होम्योपैथिक दवा ‘जेलसेमियम 30’ को भी फ्रांस के डॉक्टरों ने स्वाइन फ्लू के इलाज में कारगर पाया है। इस बात के प्रमाण ब्रिटिश पत्रिका क्लीनिकल मेडिसिन में भी मौजूद हैं। बत्रा ने कहा कि 1917-18 के दौरान फैले स्पैनिश फ्लू के समय होम्योपैथी की दवा के कारण इस बीमारी से मरने वालों की दर 30 से घटकर एक फीसदी रह गई थी।
उधर पीने वालों को पीने का बहाना खोजने वालों के लिये भी खुशखबरी है । रूस में स्वाइन फ्लू से निपटने के लिए एक नया तरीका इजाद किया गया है। रूसी फुटबाल फैंस एसोसिएशन ने खेल प्रेमियों को स्वाइन फ्लू से बचने के लिए व्हिस्की पीने की सलाह दी है। अब खुद ही तय कर लीजिये कि इस अजीबो ग़रीब बीमारी से दो-दो हाथ करने के लिये आप कौन सा तरीका अख्तियार करना पसंद करेंगे ।
बावजूद इसके ,यह याद रखना ज़रुरी है कि आदमी मौत से नहीं मौत के खौफ़ से मात खा जाता है । बीमारी से मरने वालों की तादाद शायद उतनी नहीं होती ,जितनी बीमारी से खौफ़ज़दा होकर दम तोड़ने वालों की । बाबू मोशाय , ज़िन्दगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है । कोई डर नहीं । मास्क लगाकर नहीं खुलकर साँस लीजिये । तीन लेयर वाले ये मास्क दमघोंट देने के लिये काफ़ी हैं ।
( करीब दो महीने बाद ब्लॉग जगत में वापसी हो सकी है । अपने बड़े बेटे दुष्यन्त के लिये बेहतर भविष्य की तलाश की व्यस्तता ने कुछ और सोचनेका मौका ही नहीं दिया । देश में तरह- तरह के कोटे सामान्य श्रेणी के प्रतिभावान छात्रों के लिये अभिशाप बन चुके हैं । कट ऑफ़ में रियायत देने के बावजूद करीब पचास फ़ीसदी सीटें रिज़र्व करने का औचित्य समझ से परे है । कुछ साल पहले तक समाज के जो वर्ग सामान्य थे वो लालू,मुल्लू ,पासवान जैसे लोगों की बदौलत अब पिछड़े वर्ग की आरक्षण की मलाई सूंतने में लग गये हैं । बहरहाल , दुष्यन्त राँची के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ाउंड्री एंड फ़ोर्ज टेक्नॉलॉजी में मेटलरजी ब्राँच मे दाखिला पा चुके हैं । पंद्रह दिनों में दो बार राँची जाना हुआ । काफ़ी अच्छा शहर है और वहाँ के लोग भी बेहद सहज- सरल तथा मददगार लगे । )