शनिवार, 27 दिसंबर 2008

कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयाँ और

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयाँ और ।
उर्दू अदब में यूँ तो बडे - बडॆ उस्तादों ने अपने अशारों से शायरी को नए मकाम तक पहुंचाया , लेकिन मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ’गालिब’ का अंदाज़ ही निराला है । गालिब के शे’र सिर्फ़ मोहब्बत की शायरी की शिनाख्तगी ही नहीं हैं । उनका सारा फ़लसफ़ा इस दुनिया में आज भी उतना ही चलन में है , जितना शायद उनके दौर में रहा हो । गालिब की शायरी में हमें अपने आसपास के हर रंग की मौजूदगी का एहसास मिलता है । कमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ गालिब की शायरी का है । वे एक दौर के शायर नहीं हैं ।
गालिब की गज़लें जब पहली मर्तबा ईरान से निकलकर दिल्ली की गलियों तक पहुंची और फ़िर दिल्ली से जो सफ़र शुरु हुआ , उसके करीबन सौ साल बाद फ़ैसला हुआ कि गालिब अपने दौर की सबसे अलहदा और उम्दा आवाज़ थी । तब से लेकर अब तक कई बेहतरीन सुखनवर हुए लेकिन गालिब के कद को तो छोडिए कोई अब तक उनके कंधे तक भी नहीं पहुंच पाया । मीर दुनिया से बेज़ार थे ,वहीं गालिब दुनिया के हर रंग से वाकिफ़ थे । उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से ज़िंदगई के सारे पहलुओं को छुआ ।
ग़ालिब उर्दू के सबसे मशहूर शायर हैं। वे बहादुरशाह जाफ़र के ज़माने में हुए और 1857 का गदर उन्होंने देखा। अव्यवस्था और निराशा के उस ज़माने में वे अपनी पुरसुकूं शख्सियत, मानव-प्रेम, सीधा स्पष्ट यथार्थ और इन सबसे अधिक, दार्शनिक दृष्टि लेकर साहित्य में आये। शुरू में तो लोगों ने उनकी मौलिकता की हंसी उड़ाई लेकिन बाद में उसे इतनी तेज़ी से बढ़ावा मिला कि शायरी दुनिया का नज़ारा ही बदल गया।
पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या
ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादहख़्वार होता
यह केवल मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की सादगी ही है , जो बादहख़्वार होने के कारण उन्होंने अपने ‘वली’ होने का दावा नहीं किया । जहां तक उर्दू अदब का ताल्लुक है और इससे भी ज़्यादा साहित्य और ज़िंदगी के जुडाव है, ‘ग़ालिब’ न केवल अपने ज़माने के ‘अदबी बली’ (साहित्यिक अवतार) थे, न केवल आधुनिक युग के ‘अदबी अली’ हैं, बल्कि जब तक उर्दू भाषा और उसका साहित्य मौजूद रहेगा, उनका स्थान ‘अदबी वली’ के रूप में हमेशा कायम रहेगा। परम्पराओं से विद्रोह करने और लीक से हटकर बात कहने के जुर्म में ज़माना जो बर्ताव हर ‘वली’ से करता रहा है , वैसा ही ‘ग़ालिब’ के साथ भी हुआ।

‘ग़ालिब’ से पहले उर्दू शायरी में भाव-भावनाएं तो मौजूद थीं, मगर भाषा और शैली के ‘चमत्कार’ ‘गुलो-बुलबुल’, ‘जुल्फ़ो-कमर’ (माशूक़ के केश और कमर) ‘मीना-ओ-जाम’ (शराब की सुराही और प्याला) की कसीदाकारी तक सिमट कर रह गए थे। बहुत हुआ तो किसी ने तसव्वुफ़ (सूफ़ीवाद) का सहारा लेकर संसार की असारता और नश्वरता पर दो-चार आँसू बहा दिए। ऐसे समय में, जबकि अधिकांश शायर :
सनम सुनते हैं तेरी भी कमर है,
कहां है ? किस तरफ़ है ? औ’ किधर है ?
सितारे जो समझते हैं ग़लतफ़हमी है ये उनकी
फ़लक पर आह पहुंची है मेरी चिनगारियां होकर।
को ‘नाजुक-ख़याली’ और शायरी का शिखर मान रहे थे, ‘ग़ालिब’ ने
दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक ?
और
है परे सरहदे-इदराक से अपना मसजूद
क़िबला को अहले-नज़र क़िबलानुमा कहते हैं।
की बुलंदी से ग़ज़लगो शायरों को, और :
बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअ़त मेरे बयां के लिए ।
की बुलंदी से नाजुकमिज़ाज ग़ज़ल को ललकारा तो नींद के मातों और माशूक़ की कमर की तलाश करने वालों ने चौंककर इस उद्दण्ड नवागान्तुक की ओर देखा। कौन है यह ? यह किस दुनिया की बातें करता है ? फब्तियां कसी गईं। मुशायरों में मज़ाक उड़ाया गया। किसी ने उन्हें मुश्किल-पसंद (जटिल भाषा लिखने वाला) कहा, तो किसी ने मोह-मल-गो (अर्थहीन शे’र कहने वाला) और किसी ने तो सिरे से सौदाई ही कह डाला। लेकिन, जैसा कि होना चाहिए था, ‘ग़ालिब’ इन तमाम विरोधों और तानाकाशी को सहन करते रहे-हंस-हंसकर.. . .
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मेरे अशआ़र में माने न सही।
कहते हुए जीवन के गीत गाते रहे। यहां तक कि उनके क़लम की आवाज़ रुहानी आवाज़ का रूप धारण कर गई और आज वही रुहानियत हमारे दिलो- दिमाग पर तारी होकर नये-नये रास्ते सुझा रही है। ‘ग़ालिब उर्दू भाषा के एकमात्र शायर हैं जिनके व्यक्तित्व और साहित्य पर सबसे अधिक लेख, समालोचनात्मक पुस्तकें लिखी गई हैं। (उनके अपने ‘दीवान’ के तो इतने संस्करण निकल चुके हैं कि उसकी गिनती नामुमकिन है ) और जिनके शे’रों को जितनी बार पढ़ा जाए, उतनी बार नये भावार्थ के साथ सामने आते हैं।
मिर्ज़ा असद-उल्ला खां ‘ग़ालिब’ जो पहले ‘असद’ उपनाम से और फिर ‘ग़ालिब’ उपनाम से प्रसिद्ध हुए, 27 दिसम्बर 1797 ई। को आगरा में पैदा हुए। गोत्र, वंश के बारे में एक जगह उन्होंने खुद लिखा है -
‘‘असद-उल्ला खां उर्फ़ ‘मिर्ज़ा नौशा’, ‘ग़ालिब’ तख़ल्लुस (उपनाम), क़ौम का तुर्क, सलजूक़ी सुलतान बरकियारुक़ सलजूक़ी की औलाद में से, उसका दादा क़ौक़ान बेग ख़ां, शाह आलम के अहद (शासन-काल) में समरकंद से दिल्ली में आया। पचास घोड़े और नक़्क़ारा निशान से बादशाह का नौकर हुआ। पहासू का परगना, जो समरू बेगम को सरकार से मिला था, उसकी जायदाद में मुक़र्रर था। बाप असद-उल्ला खां मज़कूर (उल्लिखित) का बेटा अब्दुला बेग ख़ां दिल्ली की रियासत छोड़कर अकबराबाद (आगरा) में जा रहा। असद उल्ला ख़ां अकबराबाद में पैदा हुआ। अब्दुल्ला बेग ख़ां अलवर में रावराजा बख़्तारसिंह का नौकर हुआ और वहाँ एक लड़ाई में बड़ी बहादुरी से मारा गया। जिस हाल में कि असद-उल्ला ख़ां मज़कूर पाँच-छः बरस का था उसका हक़ीक़ी (सगा) चचा नस्रउल्ला बेग ख़ा मरहटों की तरफ से अकबराबाद का सूबेदार था।
तेरह बरस के मिर्ज़ा का निकाह दिल्ली के लोहारु कुल की उमराव बेग़म के साथ पढा गया । शादी के दो-तीन साल बाद वे हमेशा के लिए दिल्ली के हो गए , जिसे एक जगह उन्होंने कुछ यूँ बयान किया है :
‘‘सात रजब 1225 (9 अगस्त, 1810) को मेरे वास्ते हुक्मे-दवामे-हब्स (स्थायी क़ैद का हुक्म) सादिर हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िंदान (क़ैदखाना) मुक़र्रर किया और मुझे उस ज़िंदान में डाल दिया।’’
शे’रों-शायरी की लटक तो पहले से थी। अब दिल्ली पहुँचे तो यहाँ के शायराना वातावरण और आए दिन के मुशायरों ने क़लम में और तेज़ी भर दी। लेकिन नियमित रूप से शायरी में वे किसी के शागिर्द नहीं बने, बल्कि अपने फ़ारसी भाषा तथा साहित्य के अध्ययन और ज्ञान के कारण उन्हें शब्दावली और शे’र कहने की कला में ऐसी अनगनत खामियां नज़र आईं । उन्होंने उस्तादों पर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी। उनकी राय में हर पुरानी लकीर सिराते-मुस्तकीम {सीधा-मार्ग) नहीं है और अगले जो कुछ कह गए हैं, वह पूरी तरह सनद (प्रमाणित बात) नहीं हो सकती।’’
उम्र के पच्चीसवें पायदान पर कदम रखने तक उन्होंने लगभग 2000 शे’र ‘बेदिल’ के रंग में कह डाले, जिस पर उर्दू के नामचीन शायर और उस्ताद मीर तक़ी ‘मीर’ ने भविष्यवाणी की कि ‘‘अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा।’’
यह कामिल उस्ताद ‘ग़ालिब’ को कहीं बाहर से नहीं मिला, बल्कि यह उनकी आलोचनात्मक दृष्टि थी जिसने न केवल उस काल के 2000 शे’रों को बड़ी ही बेदिली से काट फेंकने की प्रेरणा दी बल्कि आज जो छोटा-सा ‘दीवाने-ग़ालिब’ हमें मिलता है और जिसे मौलाना मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ (प्रसिद्ध आलोचक) के कथनानुसार हम ऐनक की तरह आँखों से लगाए फिरते हैं, उसका संकलन करते समय ‘ग़ालिब’ ने अपने सैकड़ों शे’र नज़र-अंदाज़ कर दिए थे।
रंज से ख़ूगर हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज
रह मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।
ऐसे उच्चकोटि के अनुभवपूर्ण शे’र निकले। यह मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ ही की विशेषता थी कि उन दिनों, जबकि साहित्य-समालोचना का लगभग अभाव था, उन्होंने शायरी का यह भेद पा लिया कि शे’र शून्य में टामक-टोइयाँ मारने का नहीं, किसी अनुभव के व्यक्तिगत प्रकटीकरण का नाम है और बड़ा शायर केवल वही हो सकता है जो अपने काल की विडम्बनाओं तथा संघर्षों को सहिष्णुता और आत्म-सम्मान में रचे हुए संकेतों में प्रकट कर सके। आने वाली पीढ़ियों में बिना उपदेशक बने यह अनुभूति उत्पन्न कर सके कि उनको भी अपने आत्म सम्मान को सबसे ऊपर रखना चाहिए ।
मैं हरएक काम खुदा की तरफ़ से समझता हूँ और खुदा से लड़ नहीं सकता। जो कुछ गुज़रा, उसके नंग (लज्जा) से आज़ाद, और जो कुछ गुज़रने वाला है उस पर राज़ी हूँ। मगर आरजू करना आईने-अबूदियत (उपासना के नियम) के खिलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरजू है कि अब दुनिया में न रहूँ और अगर रहूँ तो हिन्दोस्तान में न रहूँ।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

भारत - पाक युद्ध पर आमादा रणबाँकुरा मीडिया

भारत लगातार युद्ध टालने की कोशिश में जुटा है । पाकिस्तान भी युद्ध की धमकी तो देता है पर बीच बीच में उसके सुर में नरमी भी नज़र आने लगती है । ये और बात है कि सीमा पार सेना की तैनाती लगातार बढ रही है , मगर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री दोनों मुल्कों के बीच शांति और बेहतर ताल्लुकात की बात भी कर रहे हैं । कुल जमा नज़ारा कुछ ऎसा समझ में आता है - मुँह में राम बगल में छुरी ।

दोनों देशों के बीच युद्ध होगा या नहीं , इसे लेकर तरह तरह के कयास लगाये जा रहे हैं । इतना तो तय है कि वाक युद्ध में दोनों ओर से जमकर गोलाबारी हो रही है । इसी ज़बानी गर्मागर्मी को भारतीय मीडिया ने भुनाने का बंदोबस्त कर लिया है । युद्ध हो चाहे न हो मगर मीडिया खासतौर पर खबरिया चैनलों ने भारत और पाकिस्तान के बीच लडाई की हवा बनाना शुरु कर दी है । नौसीखिए नौजवान छोकरे- छोकरियाँ चैनलों पर लगातार पूरी ऊर्जा के साथ चीख रहे हैं । कहीं कुछ मिनट में युद्ध छिडने का दावा हो रहा है । कहीं नाभिकीय युद्ध की रुपरेखा बताई जा रही है , तो कोई हवाई और ज़मीनी हमलों से जुडे तथ्यों को लेकर बहस में मसरुफ़ है ।

नई पीढी ने तो भारत - पाक युद्ध नहीं देखा है । चैनलों की दीवानी युवा पीढी ने भारत - पाक युद्ध की थीम पर बनी ’बॉर्डर’ जैसी फ़िल्मों के माध्यम से ही जंग को जाना - समझा है । खिलौने के तौर पर हाथ में बंदूक लेकर वक्त गुज़ारने वाले नए दौर के बच्चों के लिए युद्ध एक रोमांचक घटना है । मीडिया इसी रहस्य - रोमांच को भुनाने की फ़िराक में है । आखिर इराक युद्ध दिखाकर ही सीएनएन कामयाबी की बुलंदियों को छू सका । इसलिए मंदी के दौर में दोनों देशों की सेनाएं भिडें और ज़बरदस्त फ़ुटेज मिले यह माहौल न्यूज़्ररुम्स में बन रहा है ।

चिंता की बात यह भी है कि मीडिया की तल्खियाँ दोनों देशों के बीच तनाव बढाने का सबब भी बन सकती हैं । कई तरह के कपोल कल्पित बयानों के हवाले से माहौल को उन्मादी बनाने में भी कोई कसर नहीं छोडी जा रही है । हालात ऎसे हैं कि हो सकता है दोनों देशों के राजनेता , अफ़सर और सैन्य अधिकारी ठंडे दिमाग से बात कर रहे हों , मगर मीडिया के जोशीले जवान खबरों के प्रसारण के दौरान तीखी टिप्पणियों के ज़रिए जांबाज़ी का प्रदर्शन करने को ही अपना पेशागत धर्म मान रहे हैं । कमोबेश यही हाल सीमापार के मीडिया का भी है ।

पिछले दो दशकों में जंग के कम से कम छह मौके आए लेकिन दोनों ओर के मीडिया के ताल्लुकात इतने खराब कभी नहीं रहे । आखिर मीडिया की इस तल्खी की क्या वजह हो सकती है ? क्या मीडिया वाकई जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है ? क्या मंदी की भंवर में फ़ंसा मीडिया खुद को इसकी जद से बाहर लाने की कोशिश में जुटा है ? क्या इसके पीछे टीआरपी का अर्थशास्त्र है ..? या फ़िर मीडिया पर युद्ध की नई टेक्नालॉजी के प्रयोग में सहयोग का कोई दबाव है ...? वजह चाहे जो भी हो पर मीडिया पहले समाज के प्रति जवाबदेह है । उसकी वफ़ादारी बाज़ार, सरकार और देश से भी पहले जनहित के लिए होना चाहिए , जिसकी चिंता के दावे पर ही मीडिया की विश्वसनीयता टिकी है ।

दरअसल , मीडिया वास्तविक अर्थों में तभी आज़ाद है, जब वह सरकार के अलावा मुनाफ़े के दबाव से भी मुक्त हो । मीडिया अपनी ताकत का इस्तेमाल युद्ध के विकल्प सुझाने में करे , तो शायद वह अपनी भूमिका को सार्थक कर सकेगा । युद्ध का माहौल बनाने से संभव है मीडिया का फ़ायदा बढ जाए लेकिन किस कीमत पर ...? इस वक्त सख्त ज़रुरत है दोनों देशों के बीच तनाव कम करने और मसले को शान्ति से निपटाने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने की ।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

पाकिस्तान ने फ़िर तरेरी आँखें


पाकिस्तान ने आज सारी दुनिया के सामने खुद को पाक साफ़ बताते हुए युद्ध की संभावनाओं से इंकार किया है । बेनज़ीर की मज़ार पर पाक प्रधानमंत्री युसूफ़ रज़ा गिलानी ने भारत के साथ रिश्ते सामान्य होने की बात कही । साथ ही कहा कि उनका मुल्क जंग नहीं चाहता । गिलानी ने उल्टे भारत पर तोहमत जड दी कि भारतीय प्रधानमंत्री पर युद्ध का भारी दबाव है । यानी उल्टा चोर कोतवाल को डांटे ...।

एक तरफ़ तो मीडिया के सामने शांति का राग अलापा जा रहा है । वहीं दूसरी ओर राजस्थान से सटी सीमा पर भारी तादाद में सेना का जमावडा किया जा रहा है । शांति की बात हाथ में बंदूक लेकर तो नहीं की जाती ...? पाकिस्तान से इसी तरह के दोगलेपन की उम्मीद है ।

गिलानी इतने पर ही नहीं रुके । उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि करांची धमाके में मुम्बई हमले की बनिस्बत कहीं ज़्यादा लोग मारे गये थे । ये भी खूब रही । पाक हर चाल बडी ही चतुराई से चल रहा है और फ़ौरी तौर पर तो यही लग रहा है कि वो कामयाब भी हो रहा है । हर रोज़ नए दांव चलकर पाकिस्तान शातिराना तरीके से भारत को पीछे ठेल रहा है । मज़े की बात तो ये है कि पाकिस्तान ने आज भारत पर आर्थिक पाबंदी लगाने की धमकी तक दे डाली । लीजिए साहब, चूहे ने हाथी की चड्डी भी चुरा ली । लेकिन हाथी तो हाथी है । उसकी सहनशीलता तो देखो वो ऎसी छोटी मोटी बातों पर कुछ नहीं कहता .....।

दांव पेंच में माहिर पाकिस्तान ने एक और शिगूफ़ा छोडा है ,बल्कि यूं कहें कि नई चाल चली है । कसाब के मुद्दे पर घिरते पाकिस्तान ने नहले पर दहला जड कर दुनिया को चौंका दिया है ।
पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसियों ने बुधवार की देर रात एक आदमी को पकड़ा । सतीश आनंद शुक्ला उर्फ मुनीर नाम के इस शख्स के बारे में कहा गया कि वह लाहौर में हुए बड़े बम धमाके का अभियुक्त है। पाक सरकार के अनुसार कोलकाता का मूल निवासी सतीश आनंद शुक्ला उर्फ मुनीर पहले लंदन में भारतीय उच्चायोग में काम कर चुका है। ये अधिकारी दावा करते हैं कि शुक्ला उर्फ मुनीर वास्तव में रॉ का अधिकारी है और जल्दी ही भारत को उसकी पूरी शिनाख्त बता दी जाएगी। साथ ही उसके साथियों की भी सरगर्मी से बहावलपुर में तलाश करने की कवायद की जा रही है , ताकि दावे को पुख्ता किया जा सके । चारों ओर से घिरता दिखाई दे रहा पाकिस्तान आंखें तरेरने से बाज़ नहीं आ रहा ।

लगातार बढ़ते जा रहे तनाव को देखते हुए पाकिस्तान का ताज़ातरीन इल्ज़ाम स्तब्ध कर देने वाला है। पाकिस्तान बहुत पहले से आरोप लगाता रहा है कि भारत की प्रति गुप्तचर एजेंसी रॉ लगातार पाकिस्तान को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है और दुनिया के देश इस मामले में सिर्फ पाकिस्तान को ही दोषी ठहरा रहे हैं।

पाकिस्तान मुम्बई हमले के बाद से लगातार पैंतरेबाज़ी कर भारत को उलझा रहा है । हर रोज़ नए - नए दावे ..। नए नए खुलासे ..। कभी हमलों में हिन्दू आतंकियों का हाथ होने की बात कह कर । कभी कसाब को नेपाल का कैदी बताकर । कसाब लगातार पाकिस्तान से मदद की गुहार लगा रहा है । मगर पाक सरकार उससे पल्ला झाड रही है । उसने पाक उच्चायोग को पत्र भेजा है। खत में पाक नागरिक होने के नाते उसे कानूनी मदद देने की अपील की है । उधर पाक प्रधानमंत्री के आंतरिक सुरक्षा सलाहकार रहमान मलिक ने कहा है कि जब तक कसाब का पाकिस्तानी नागरिक होना साबित नहीं हो जाता तब तक उसे कानूनी सहायता देने का सवाल ही नहीं उठता।

कल तक कसाब के पाक नागरिक होने में नवाज़ शरीफ़ को कोई संदेह नहीं था ,लेकिन अब उनके सुर भी बदल गये हैं । दूसरी तरफ़ हमारे देश के नेता अब तक ये ही तय नहीं कर पा रहे कि आखिर वे चाहते क्या हैं ....? वोट की राजनीति ने देश को गृह युद्ध की ओर धकेलने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड रखी है ।

कालिदास को भी अक्ल आ गई थी कि जिस शाख पर बैठे हों उसे नहीं काटा जाता , मगर इन बजरबट्टुओं को तो सामने आ पडी मुसीबत भी एकजुट नहीं कर पा रही ।
हालात ऎसे ही रहे तो हो सकता है आने वाले दिनों में पाकिस्तान भारत की दादागीरी का शिकार बनकर दुनिया की नज़रों में बेचारा बन जाए और भारत को आतंकी देश घोषित कराने के लिए ज़बरदस्त लाबिंग में कामयाब रहें । सही मायनों में देखा जाए तो फ़िलहाल पाकिस्तान हर मामले में भारी पड रहा है भारत पर ...।

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

ब्रेकिंग न्यूज़ - कसाब होगा दुनिया से रुबरु

देश के सीधे साधे प्रधानमंत्री और शेयर बाज़ार के उतार चढाव को भी काबू ने ना कर पाने वाले चिदाम्बरम साहब गृहमंत्री बनकर भी कुछ खास नहीं कर पा रहे पाकिस्तान के खिलाफ़ । अब लगता है सरकार के नाकारापन से थक हार चुके खुफ़िया अधिकारियों ने ही पाकिस्तान को घेरने के लिए कमर कस ली है । इंतज़ार है सिर्फ़ केंद्र से हरी झंडी मिलने का ।

योजना को मंज़ूरी मिली तो कसाब टीवी पर लाइव प्रसारण के ज़रिए आतंक के आकाओं को बेपर्दा करेगा । वह खुद बताएगा सारी दुनिया को मुम्बई हमले का मकसद । पाकिस्तान का हाथ होने के सारे सबूत कसाब की मुंह ज़बानी सुनने के बाद देखना होगा कि बीच के बंदर की भूमिका निभा रहा अमेरिका क्या रुख अपनाता है ।

कहीं ऎसा ना हो कि दो बिल्लियों की लडाई में बंदर पूरी रोटी हज़म कर जाए और चालाक बिल्ली [पाकिस्तान ] बंदर को अलग ले जाकर इस तमाशे की कीमत वसूल ले और मूर्ख बिल्ली [भारत ] इसे किस्मत का खेल मानकर सब कुछ भगवान के भरोसे छोडकर अगले आतंकी हमले का इंतज़ार करे । वैसे भी पाकिस्तान की बीन पर हिंदुस्तान नाच रहा है । सबूत पर सबूत ,सबूत पर सबूत ..... ,मगर नतीजा सिफ़र ...?

वैसे भी इंटरपोल चीफ़ रोनाल्ड के. नोबल भारत में तफ़्तीश का नाटक करते रहे । पाकिस्तान पहुंचते ही जांच में पाकिस्तान के खिलाफ़ कोई सबूत ना मिलने की बात कह कर सब को चौंका दिया । आखिर क्या है पाकिस्तान की सरज़मीं में ,जो वहां कदम रखते ही सभी के सुर बदल जाते हैं । कहीं कोई ब्लैक मैजिक तो नहीं .....?

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

चुनाव जीतते ही जान के पडे लाले

मध्यप्रदेश में हाल ही में चुन कर आए विधायकों को जान का खतरा है । चंद दिन पहले तक आम जनता के बीच बेखौफ़ जाने वाले नेताओं को वोटों की गिनती में विरोधी से आगे निकलते ही जान का डर सताने लगा है । कल तक जिन नेताओं की जान जनता में बसती थी , जीत मिलते ही उनमें ज़िंदगी की हिफ़ाज़त के लिए सुरक्षा की चाहत सिर उठाने लगी है ।

इस की पुष्टि मध्यप्रदेश पुलिस मुख्यालय की इंटेलीजेंस शाखा को मिले चार दर्जन से ज़्यादा आवेदन करते हैं । क्षेत्रीय नेता के तौर पर बरसों से निडर घूमने वाले नेता एकाएक इतने असुरक्षित कैसे हो गये ..?

प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के चालीस से अधिक विधायकों ने जान जोखिम में बताकर गनमैन की गुहार लगाई है । नए विधायकों ने गनमैन हासिल कर रौब रुतबा गालिब करने के लिए बहाने भी खूब गढे हैं । किसी को अपने इलाके के डकैतों से खतरा है ,तो कोई नक्सलियों की गोलियों से खौफ़ज़दा है । जितने नेता , उतने बहाने ......। अभी तक करीब एक दर्ज़न विधायकों को अस्थाई तौर पर गनमैन दे दिए गए हैं ।

पुलिस के आला अफ़सर भी मानते हैं कि ज़्यादातर नेताओं के लिए बंदूकधारी के साए में चलना स्टॆटस सिंबल के अलावा कुछ नहीं । एक आईपीएस की टिप्पणी काबिले गौर है ” जब जनप्रतिनिधि ही असुरक्षित हैं ,तो ऎसे में राज्य की छह करोड से अधिक जनता का भगवान ही मालिक है ।" उनका कहना है कि जहां केन्द्र सरकार वीआईपी सुरक्षा में कटौती कर रही है ,वहीं प्रदेश में जनप्रतिनिधि लगातार गनमैन की मांग उठाकर जनता में कानून व्यवस्था के प्रति संदेह पैदा कर रहे हैं ।

मुम्बई हमले के बाद नेताओं के खिलाफ़ जनता का गुस्सा फ़ूट पडा था और उनकी हिफ़ाज़त के लिए सुरक्षा बलों की तैनाती पर भी सवालिया निशान लगाए गये । लोगों ने सडकों पर आकर नेताओं की जमकर मज़म्मत की और सुरक्षा घेरे से बाहर आकर आम जनता सा जीवन जीने की हिदायत दे डाली । दो - चार दिन के शोर शराबे के बाद जनता ने अपनी राह पकड ली और नेता अपने तयशुदा रवैए के साथ एक मर्तबा फ़िर उसी रंग में नज़र आने लगे । नेताओं के प्रति जनता का गुस्सा यानि चार दिन की चांदनी फ़िर अंधेरी रात ....।

देश में कुल सेना 37 लाख 89 हजार तीन सौ है तो राजनीति करने वाले चुने हुये नुमाइन्दों की तादाद 38 लाख 67 हजार 902 है । यह तादाद सिर्फ जनता का वोट लेकर आए नेताओं की है। सांसद से लेकर ग्राम पंचायत तक मतों के ज़रिए चुन कर आने का दावा करने वालों की संख्या का ब्यौरा तैयार किया जाए , तो यह आंकडा करोड़ तक पहुंचने में वक्त नहीं लगेगा ।

किसी ज़माने में जन सेवा का दर्ज़ा हासिल करने वाली राजनीति ने अब संगठित व्यवसाय का बाना पहन लिया है । शालीनता और विनम्रता के कारण राजनेताओं के लिए आदर सम्मान का भाव हुआ करता था । लेकिन अब सियासत में कारपोरेट कल्चर के दखल के चलते रौब दाब और रसूख का बोलबाला है । देश में राजनीति एक सफ़ल उभरते उद्योग की शक्ल ले चुका है । यही वजह है कि मंदी की खौफ़नाक तस्वीर के बीच भारतीय राजनीति अब भी सबसे ज्यादा रोजगार देनी वाली संस्था कही जा सकती है ।

राजनीति परवान चढ रही है सुरक्षाकर्मियों के भरोसे । देश में मिलेट्री शासन नही लोकतंत्र है , यह कहने की जरुरत नही है। लेकिन लोकतंत्र सुरक्षा घेरे में चल रहा है यह समझने की जरुरत जरुर है। पुलिसकर्मियों में से तीस फीसदी पुलिस वालो का काम वीआईपी सुरक्षा देखना है। यानि उन नेताओं की सुरक्षा करना जिन्हें जनता ने चुना है। औसतन एक पुलिसकर्मी पर महिने में उसकी पगार , ट्रेनिग और तमाम सुविधाओ समेत पन्द्रह हजार रुपये खर्च किये जाते है। देश के साठ फीसदी पुलिसकर्मियों को दो वक्त की रोटी के इंतज़ाम जितनी ही त्तनख्वाह मिलती है ।

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

सियासी गलियारों में लडखडाहट भरे आगे बढते कदम

आज भोपाल में शिवराज मंत्रिमंडल का गठन हो गया । लोगों की उम्मीद के मुताबिक ज़्यादातर मंत्रियों के चेहरे जाने पहचाने हैं । मंत्रिमंडल में बडे पैमाने पर रद्दोबदल ना तो मुख्यमंत्री के बूते की बात है और ना ही पार्टी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र कोई बडा जोखिम लेने की स्थिति में है । शिवराज सिंह ने अपनी टीम में दो महिला विधायकों को भी शामिल किया है , लेकिन ये आंकडा आधी दुनिया की नुमाइंदगी के लिहाज से नाकाफ़ी लगता है ।

प्रदेश में सर्वाधिक 85 हज़ार 362 वोट बटोर कर बुरहानपुर सीट जीतने वाली अर्चना चिटनीस को मंत्री बनाया गया है । इसी तरह मनावर से जीती रंजना बघेल को राज्यमंत्री के तौर पर जगह मिली है । 13 वीं विधान सभा में राज्य की जनता ने 25 महिलाओं को अपने क्षेत्र की आवाज़ बुलंद करने का दायित्व सौंपा है । 230 सीटों की विधान सभा में 25 का आंकडा काफ़ी छोटा मालूम देता है , लेकिन प्रदेश में ऎसा तीसरी बार हुआ है ,जब दस फ़ीसदी से अधिक महिलाओं को विधान सभा में दाखिल होने का मौका मिल सका है ।

मध्यप्रदेश के इतिहास में विधान सभा पहुंचने वाली महिलाओं का आंकडा हमेशा ही निराशाजनक रहा है । अब तक सबसे अधिक 11.80 फ़ीसदी प्रत्याशी 1957 में जीतीं थी ,लेकिन इन आंकडों से तुलना बेमानी होगा क्योंकि तब छत्तीसगढ भी प्रदेश का ही हिस्सा था और सीटों की कुल संख्या 320 थी हालांकि ये संख्या काबिले गौर भी है ,क्योंकि ये उस दौर की बात है जब महिलाओं के लिए समाज में आगे बढने के अवसर बेहद सीमित थे । घर की चहारदीवारी में कैद महिलाओं के लिए सियासी मसले पेचीदा माने जाते रहे और राजनीति में महिलाओं के दखल को समाज में खास तवज्जो भी नही दी जाती थी । मौजूदा दौर में महिलाओं पर आधुनिकता का रंग तो खूब चढा लेकिन विधान सभा की दहलीज़ पर कदम रखने में अभी भी हिचकिचाहट बरकरार है ।

उत्साहजनक बात ये है कि इस बार 25 महिलाएं चुनकर आई हैं , जबकि पिछली मर्तबा 19 महिला विधायक थीं । बीजेपी से 15 महिलाओं को सफ़लता मिली है , जबकि 8 महिलाएं विधान सभा में कांग्रेस की नुमाइंदगी करेंगी । उमा भारती की भारतीय जन शक्ति और समाजवादी पार्टी ने भी एक - एक महिला विधायक को सदन तक पहुंचाने में कामयाबी पाई है ।

हाल ही में विधानसभा चुनावो में भाजपा को महिला मतदाताओं से मिलने वाले वोटों में इज़ाफ़ा हुआ है । सांगठनिक ढांचे में 33 फ़ीसदी आरक्षण देने वाली भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर मानते हैं ,“ भाजपा मानती है कि जब तक देश की 50 फ़ीसदी महिलाओं की आबादी सक्षम नहीं होगी तब तक देश का विकास अधूरा रहेगा ।”
तू फ़लातूनो- अरस्तू है तू ज़ुहरा परवीं
तेरे कब्ज़े में है गर्दूं , तेरी ठोकर में ज़मीं
हां , उठा , जल्द उठा पाए -मुकद्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं ,वक्त भी रुकने का नहीं
लडखडाएगी कहां तक कि संभलना है तुझे ।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

दो लोगों ने लिख दी दो मुल्कों की तकदीर ......

लम्हों ने खता की थी , सदियों ने सज़ा पाई ।
यह शेर भारत के मौजूदा हालात के मद्देनज़र बिल्कुल मौजूं है । चंद सियासतदानों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की कीमत लाखॊं जानों ने तब चुकाई और आने वाली कई पीढियां ना जाने कब तक इस फ़ैसले से उपजे वैमनस्य का विषपान करती रहेंगी ।

जिस तरह आज भारत के ज़ाती मामलों के फ़ैसले अमेरिका और ब्रिटेन ले रहे हैं , उसी तरह देश छोड कर जाते वक्त भी मुल्क के बँटवारे का फ़ैसला अंग्रज़ों ने ही अपने तईं ले लिया । हिंदुस्तान को अपनी मिल्कियत समझ अपना हक मांगने की चाहत में नेहरु - जिन्ना ने अखंड भारत के बाज़ू काटने में अंग्रेज़ हुकूमत की भरपूर मदद की । आज हालात बताते हैं कि
ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम
ना इधर के रहे , ना उधर के हम ।

हाल ही में कुछ ऎसे दस्तावेज़ों का खुलासा हुआ है ,जो भारत-पाकिस्तान बँटवारे की त्रासदी पर नई रोशनी डालते हैं । मुल्क के बँटवारे के गवाह रहे एक ब्रिटिश नौकरशाह के अप्रकाशित दस्तावेजों के मुताबिक़ सिर्फ़ दो लोगों ने भारत के बँटवारे और दो मुल्कों की तक़दीर को तय किया था
नौकरशाह क्रिस्टोफ़र बोमांट 1947 में ब्रिटिश न्यायाधीश सर सिरिल रेडक्लिफ़ के निजी सचिव थे रेडक्लिफ़ भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा निर्धारण आयोग के अध्यक्ष थे सचिव होने के नाते बोमांट इस विभाजन का अहम हिस्सा रहे क्रिस्टोफ़र के पुत्र राबर्ट बोमांट ने इन दस्तावेजों के आधार पर दावा किया कि लार्ड माउंटबेटन के निजी सचिव सर जार्ज एबेल की 1989 में मृत्यु के बाद अब सिर्फ़ वह ही दोनों देशों के विभाजन का सच जानते हैं । क्रिस्टोफ़र बोमांट की मृत्यु 2002 में हो गई थी ।

दस्तावेज़ों के मुताबिक़ हिन्दुस्तान के तत्कालीन वायरसराय लार्ड माउंटबेटेन और रेडक्लिफ़ ने ही मिलकर दोनों देशों के बंटवारे का खाक़ा खीच दिया था । ब्रिटिश जज रैडक्लिफ़ को दोनों देशों के बीच सीमा का निर्धारण करने का दायित्व सौंपा गया था ।
रैडक्लिफ़ न तो इससे पहले भारत आए थे और न ही इसके बाद कभी आए । इसके बावजूद उन्होंने दोनों देशों के बीच जो सीमारेखा खींची उससे करोड़ों लोगों अंसतुष्ट हो गए ।

जल्दबाज़ी में किए गए इस विभाजन ने 20वीं शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक को जन्म दिया । धार्मिक आधार पर हुए इस बँटवारे में चालीस करोड़ लोगों की तक़दीर तय की गई । इन दस्तावेज़ों में " ब्रिटिश भारत " के आख़िरी दिनों की स्थिति का विश्लेषण किया गया है । इसमें कहा गया कि बँटवारे के काम को बेहद जल्दबाज़ी में अंज़ाम दिया गया था ।

बोमांट ने दस्तावेज़ों में लिखा है कि वायसराय माउंटबेटन को पंजाब में हुए भीषण नरसंहार का ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , जिसमें महिलाओँ, बच्चों समेत लगभग पाँच लाख लोग मारे गए थे. एक अनुमान के अनुसार बँटवारे में दोनों ओर से लगभग 1 करोड 45 लाख लोग पलायन को मज़बूर हुए थे ।

आज़ादी के दो दिन बाद ही जब यह घोषणा हो गई कि सीमाएं कहाँ होंगी , तो पंजाब हिंसा की आग में जल उठा । ट्रेनों में सीमा पार कर रहे लोगों की लाशें भेजी जाने लगीं और कई बार तो उनके अंग भी क्षत-विक्षत होते थे. दोनो तरफ ही महिलाएं हिंसा और बलात्कार की शिकार हुईं ।

भारत की आबादी पाकिस्तान की तीन गुनी थी और ज़्यादातर लोग हिंदू थे । करोड़ों मुस्लिम सीमा के एक तरफ़ और हिंदू-सिख दूसरी तरफ पहुँच गए । भारी संख्या में दोनों तरफ़ के लोगों को सीमा के पार जाना पड़ा । तनाव बढ़ा और सांप्रदायिक संघर्ष शुरू हो गए. इसमे कितने लोग मारे गए इसका सही आँकड़ा कोई नहीं बता सका । इतिहासकार मानते हैं कि पाँच लाख से अधिक लोग मारे गए । 10 हज़ार महिलाओं के साथ या तो बलात्कार हुआ या फिर उनका अपहरण हो गया । एक करोड़ से भी अधिक लोग शरणार्थी हो गए जिसका असर आज भी दक्षिण एशिया की राजनीति और कूटनीति पर दिखता है ।

''एक बड़े क्षेत्र के बहुसंख्यकों को उनकी इच्छा के विपरीत एक ऐसी सरकार के शासन में रहने के लिए बाध्य नहीं किया सकता जिसमें दूसरे समुदाय के लोगों का बहुमत हो और इसका एकमात्र विकल्प है विभाजन ।''

इन शब्दों के साथ ही भारत में ब्रिटेन के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने घोषणा की कि ब्रिटेन एक देश को नहीं बल्कि दो देश को स्वतंत्रता देने जा रहा है । तब भारत की एकता बनाए रखने के साथ ही मुसलमानों के हितों को सुरक्षित रखने के ब्रिटेन के सभी संवैधानिक फॉर्मूले विफ़ल हो चुके थे ।

माउंटबेटन ने अपना यह बयान 3 जून 1947 को दिया था और उसके 10 सप्ताह बाद ही उन्होंने दोनों देशों के स्वतंत्रता दिवस समारोह में भाग भी लिया । 14 अगस्त को कराची में वे स्पष्ट मुस्लिम पहचान के साथ गठित राष्ट्र के गवाह बने और इसके अगले दिन दिल्ली में भारत के पहले स्वतंत्रता दिवस समारोह में हिस्सा ले रहे थे ।
भारत पिछली शताब्दी से ही स्वशासन की माँग कर रहा था और वर्ष 1920 से लेकर 1930 के बीच में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में इसने ज़ोर पकड़ा । भारत के मुस्लिम समुदाय में से कई लोगों की राय में हिंदू बहुल देश में रहना फ़ायदेमंद नहीं था । मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने इस माँग को काफ़ी मज़बूती से उठाया । मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अलग देश की माँग करने लगी थी. विश्व युद्ध के बाद राज्यों में हुए चुनावों में मुस्लिम लीग के मज़बूत प्रदर्शन के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि अलग पाकिस्तान की माँग ज़्यादा दिनों तक नज़र अंदाज़ नहीं की जा सकती है ।

इसके बाद से यह बहस का विषय बना हुआ है कि विभाजन सही था या ग़लत, इससे बचा जा सकता था या नहीं । लेकिन दक्षिण एशिया के इतिहासकार मानते हैं कि अगर ब्रिटेन ने विभाजन के लिए इतनी जल्दबाज़ी नहीं दिखाई होती और इसे थोड़ी तैयारी के साथ अंजाम दिया जाता तो काफ़ी हद तक कत्लेआम को टाला जा सकता था ।

जम्मू-कश्मीर मसले की वजह से दोनों देशों के बीच संघर्ष बढ़ा. यह राज्य भारत और पाकिस्तान की सीमा पर मुस्लिम बहुल राज्य था लेकिन यह किस देश के साथ जुड़े ये फ़ैसला जम्मू-कश्मीर के हिंदू शासक को करना था । आज़ादी के कुछ ही महीनों बाद कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान में युद्ध शुरू हो गया लेकिन इस विवाद का अब तक कोई हल नहीं निकल पाया ।