शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

दो लोगों ने लिख दी दो मुल्कों की तकदीर ......

लम्हों ने खता की थी , सदियों ने सज़ा पाई ।
यह शेर भारत के मौजूदा हालात के मद्देनज़र बिल्कुल मौजूं है । चंद सियासतदानों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की कीमत लाखॊं जानों ने तब चुकाई और आने वाली कई पीढियां ना जाने कब तक इस फ़ैसले से उपजे वैमनस्य का विषपान करती रहेंगी ।

जिस तरह आज भारत के ज़ाती मामलों के फ़ैसले अमेरिका और ब्रिटेन ले रहे हैं , उसी तरह देश छोड कर जाते वक्त भी मुल्क के बँटवारे का फ़ैसला अंग्रज़ों ने ही अपने तईं ले लिया । हिंदुस्तान को अपनी मिल्कियत समझ अपना हक मांगने की चाहत में नेहरु - जिन्ना ने अखंड भारत के बाज़ू काटने में अंग्रेज़ हुकूमत की भरपूर मदद की । आज हालात बताते हैं कि
ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम
ना इधर के रहे , ना उधर के हम ।

हाल ही में कुछ ऎसे दस्तावेज़ों का खुलासा हुआ है ,जो भारत-पाकिस्तान बँटवारे की त्रासदी पर नई रोशनी डालते हैं । मुल्क के बँटवारे के गवाह रहे एक ब्रिटिश नौकरशाह के अप्रकाशित दस्तावेजों के मुताबिक़ सिर्फ़ दो लोगों ने भारत के बँटवारे और दो मुल्कों की तक़दीर को तय किया था
नौकरशाह क्रिस्टोफ़र बोमांट 1947 में ब्रिटिश न्यायाधीश सर सिरिल रेडक्लिफ़ के निजी सचिव थे रेडक्लिफ़ भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा निर्धारण आयोग के अध्यक्ष थे सचिव होने के नाते बोमांट इस विभाजन का अहम हिस्सा रहे क्रिस्टोफ़र के पुत्र राबर्ट बोमांट ने इन दस्तावेजों के आधार पर दावा किया कि लार्ड माउंटबेटन के निजी सचिव सर जार्ज एबेल की 1989 में मृत्यु के बाद अब सिर्फ़ वह ही दोनों देशों के विभाजन का सच जानते हैं । क्रिस्टोफ़र बोमांट की मृत्यु 2002 में हो गई थी ।

दस्तावेज़ों के मुताबिक़ हिन्दुस्तान के तत्कालीन वायरसराय लार्ड माउंटबेटेन और रेडक्लिफ़ ने ही मिलकर दोनों देशों के बंटवारे का खाक़ा खीच दिया था । ब्रिटिश जज रैडक्लिफ़ को दोनों देशों के बीच सीमा का निर्धारण करने का दायित्व सौंपा गया था ।
रैडक्लिफ़ न तो इससे पहले भारत आए थे और न ही इसके बाद कभी आए । इसके बावजूद उन्होंने दोनों देशों के बीच जो सीमारेखा खींची उससे करोड़ों लोगों अंसतुष्ट हो गए ।

जल्दबाज़ी में किए गए इस विभाजन ने 20वीं शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक को जन्म दिया । धार्मिक आधार पर हुए इस बँटवारे में चालीस करोड़ लोगों की तक़दीर तय की गई । इन दस्तावेज़ों में " ब्रिटिश भारत " के आख़िरी दिनों की स्थिति का विश्लेषण किया गया है । इसमें कहा गया कि बँटवारे के काम को बेहद जल्दबाज़ी में अंज़ाम दिया गया था ।

बोमांट ने दस्तावेज़ों में लिखा है कि वायसराय माउंटबेटन को पंजाब में हुए भीषण नरसंहार का ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , जिसमें महिलाओँ, बच्चों समेत लगभग पाँच लाख लोग मारे गए थे. एक अनुमान के अनुसार बँटवारे में दोनों ओर से लगभग 1 करोड 45 लाख लोग पलायन को मज़बूर हुए थे ।

आज़ादी के दो दिन बाद ही जब यह घोषणा हो गई कि सीमाएं कहाँ होंगी , तो पंजाब हिंसा की आग में जल उठा । ट्रेनों में सीमा पार कर रहे लोगों की लाशें भेजी जाने लगीं और कई बार तो उनके अंग भी क्षत-विक्षत होते थे. दोनो तरफ ही महिलाएं हिंसा और बलात्कार की शिकार हुईं ।

भारत की आबादी पाकिस्तान की तीन गुनी थी और ज़्यादातर लोग हिंदू थे । करोड़ों मुस्लिम सीमा के एक तरफ़ और हिंदू-सिख दूसरी तरफ पहुँच गए । भारी संख्या में दोनों तरफ़ के लोगों को सीमा के पार जाना पड़ा । तनाव बढ़ा और सांप्रदायिक संघर्ष शुरू हो गए. इसमे कितने लोग मारे गए इसका सही आँकड़ा कोई नहीं बता सका । इतिहासकार मानते हैं कि पाँच लाख से अधिक लोग मारे गए । 10 हज़ार महिलाओं के साथ या तो बलात्कार हुआ या फिर उनका अपहरण हो गया । एक करोड़ से भी अधिक लोग शरणार्थी हो गए जिसका असर आज भी दक्षिण एशिया की राजनीति और कूटनीति पर दिखता है ।

''एक बड़े क्षेत्र के बहुसंख्यकों को उनकी इच्छा के विपरीत एक ऐसी सरकार के शासन में रहने के लिए बाध्य नहीं किया सकता जिसमें दूसरे समुदाय के लोगों का बहुमत हो और इसका एकमात्र विकल्प है विभाजन ।''

इन शब्दों के साथ ही भारत में ब्रिटेन के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने घोषणा की कि ब्रिटेन एक देश को नहीं बल्कि दो देश को स्वतंत्रता देने जा रहा है । तब भारत की एकता बनाए रखने के साथ ही मुसलमानों के हितों को सुरक्षित रखने के ब्रिटेन के सभी संवैधानिक फॉर्मूले विफ़ल हो चुके थे ।

माउंटबेटन ने अपना यह बयान 3 जून 1947 को दिया था और उसके 10 सप्ताह बाद ही उन्होंने दोनों देशों के स्वतंत्रता दिवस समारोह में भाग भी लिया । 14 अगस्त को कराची में वे स्पष्ट मुस्लिम पहचान के साथ गठित राष्ट्र के गवाह बने और इसके अगले दिन दिल्ली में भारत के पहले स्वतंत्रता दिवस समारोह में हिस्सा ले रहे थे ।
भारत पिछली शताब्दी से ही स्वशासन की माँग कर रहा था और वर्ष 1920 से लेकर 1930 के बीच में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में इसने ज़ोर पकड़ा । भारत के मुस्लिम समुदाय में से कई लोगों की राय में हिंदू बहुल देश में रहना फ़ायदेमंद नहीं था । मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने इस माँग को काफ़ी मज़बूती से उठाया । मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अलग देश की माँग करने लगी थी. विश्व युद्ध के बाद राज्यों में हुए चुनावों में मुस्लिम लीग के मज़बूत प्रदर्शन के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि अलग पाकिस्तान की माँग ज़्यादा दिनों तक नज़र अंदाज़ नहीं की जा सकती है ।

इसके बाद से यह बहस का विषय बना हुआ है कि विभाजन सही था या ग़लत, इससे बचा जा सकता था या नहीं । लेकिन दक्षिण एशिया के इतिहासकार मानते हैं कि अगर ब्रिटेन ने विभाजन के लिए इतनी जल्दबाज़ी नहीं दिखाई होती और इसे थोड़ी तैयारी के साथ अंजाम दिया जाता तो काफ़ी हद तक कत्लेआम को टाला जा सकता था ।

जम्मू-कश्मीर मसले की वजह से दोनों देशों के बीच संघर्ष बढ़ा. यह राज्य भारत और पाकिस्तान की सीमा पर मुस्लिम बहुल राज्य था लेकिन यह किस देश के साथ जुड़े ये फ़ैसला जम्मू-कश्मीर के हिंदू शासक को करना था । आज़ादी के कुछ ही महीनों बाद कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान में युद्ध शुरू हो गया लेकिन इस विवाद का अब तक कोई हल नहीं निकल पाया ।

3 टिप्‍पणियां:

P.N. Subramanian ने कहा…

अब इस तरह उत्पन्न की गयी समस्या से तो हम लोगों को ही जूझना होगा. आज पाकिस्तान में हिंदू पूर्णतः असुरक्षित हैं. सोची समझी नीति के तहत शनै शनै उनको अपने यहाँ बसने की सुविधा यदि प्रदान की जाती है तो कम से कम हमारे लोग वहाँ सड़ने से बचेंगे. पाकिस्तान को पूर्णतः इस्लामी राज्य ही बने रहने दिया जावे. इसका प्रभाव यहाँ के मुसलमानों पर भी पड़ेगा और वे अपने आपको संयमित करने के लिए वाध्य होंगे.

विष्णु बैरागी ने कहा…

माउण्‍टबेटन को भारत भेजा ही इसलिए गया था कि वे विभाजन जितना जल्‍दी हो सके, करवा दें । इस बाबत जितनी भी बैठकें होती थीं उनमें वे अपनी बात कहने के बाद 'मेरी इस बात के जवाब में आप कहेंगे कि...' कह कर खुद ही उसका उत्‍तर देना शुरु कर दिया करते थ्‍ो । ऐसी तमाम बैठकों में माउण्‍टबेटन के अतिरिक्‍त उपस्थित लोगों को तो बोलने का अवसर ही नहीं मिलता था ।
माउण्‍टबेटन, भारत विभाजन का 'श्रेय' लेने को अत्‍यातुर थे । उनके लिए 'अपना काम' सर्वोच्‍च प्राथमिकता पर था । उसके परिणामों के प्रति वे तनिक भी चिन्तित नहीं थे ।
बाद में उन्‍होंने अपना यह दुष्‍‍कृत्‍य स्‍वीकार भी किया था ।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

इतिहास को कुरेदने से कुछ लोगों की गलतियां, ज़्यादतियां आदि कही जा सकती है पर इससे इतिहास को नहीं बदला जा सकता। हां, इतिहास से सबक लिया जा सकता है। आज जो परिस्थिति बन रही है, क्या उससे नहीं लगता कि १९४७ की पुनरावत्ति के प्रयास हो रहे हैं और हमारे नेताओं के साथ हमारी जनता को भी सजग होने का समय आ गया है???