आज एक ब्लॉग पर वॉयस ऑफ़ इंडिया के दफ़्तर में चल रही उठापटक की खबर ने एक बार फ़िर सोच में डाल दिया । १९९२ की अप्रैल का महीना याद आ गया , जब वीओआई के मुकेश कुमार जी दैनिक नईदुनिया भोपाल में थे और अपने हक की लडाई लडने के संगीन जुर्म में मुझे बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारी की जा रही थी । खबर पढकर लगा कि इतने बरसों बाद भी पत्रकारॊं की दुनिया में कोई उत्साहजनक बदलाव नहीं आया ।
इस व्यावसायिक दौर में भी सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले पत्रकारों की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है । समाज के सभी वर्गों के शोषण को उजागर करने और उसके खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले ज़्यादातर खबरनवीस मालिकों के आगे घुटने टेक देते हैं ।
आज़ादी की लडाई के दौर में मिशन मानी जाने वाली पत्रकारिता ने अब प्रोफ़ेशन का रुप ले लिया है । अब तो इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया उद्योग में तब्दील होने लगा है । समाचार पत्र छापने वाले प्रतिष्ठान कंपनी कहलाने लगे हैं । लेकिन बडी हैरत की बात है कि सरकारी छूट का लाभ उठाने वाले इन संस्थानों में पत्रकारों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । सरकारी नियम कायदों और श्रम कानूनों की धज्जियां उडाते हुए समाचार पत्र और चैनल लगातार फ़ल फ़ूल रहे हैं । पत्रकारों के नाम पर मिलने वाले फ़ायदों की बंदर बांट भी मालिकों में ही हुई है ।
ये और बात है कि समय के साथ परिपक्वता बढने की बजाय दिनों दिन यह पेशा बचकानापन अख्तियार करता जा रहा है । मालिक के चाटुकार पहले भी मौज उडाते थे और आज भी मलाई सूंत रहे हैं । लेकिन मूल्यों की वकालत करने वालों के लिए ना पहले जगह थी ,ना ही अब है ।
अखबार बाज़ार का हिस्सा बन चुके हैं । खबरों और आलेखॊं की शक्ल में तरह - तरह के प्राडक्ट के विज्ञापन दिखाई देते हैं । समझना मुश्किल है कि क्या समाचार है और क्या इश्तेहार ? सरकारी अंकुश को अपनी जेब में रखकर अखबार मालिक , पाठक और पत्रकार दोनों के ही शोषण पर आमादा हैं ।
पाठक को बेवजह वह सब पढने पर मजबूर किया जा रहा है , जिसमें उसकी कतई रुचि नहीं । लेकिन विज्ञापन दाताओं का बाज़ार बढाने के लिए ऎसी ही बेहूदा खबरें बनाई और बेची जा रही हैं । मुझे तो
कई बार लगता है कि दिन की शुरुआत में ही हम हर रोज़ ढाई से तीन रुपए की ठगी के शिकार हो जाते हैं । हम तो न्यूज़ पेपर लेते हैं खबरों के लिए , लेकिन वहां समाचार तो छोडिए कोई विचार भी नहीं होते । वहां तो होता है व्यापार .... या कोरी बकवास....... ।
कायदे से तो इन अखबार वालों से पाठकों को मासिक तौर पर नियमित पारिश्रमिक का भुगतान मिलना चाहिए । गहराई में जाएं , तो पाएंगे कि पाठक भी इस व्यवसाय का बराबर का भागीदार है । मेरी निगाह में सर्कुलेशन के आधार पर होने वाली विज्ञापन की आय का लाभांश का हकदार पाठक ही है । पाठकों को संस्थानों पर मुफ़्त में अखबार देने के लिए दबाव बनाना चाहिए या अपने शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए अखबारों का बहिष्कार करना चाहिए ,ताकि समाचारों के नाम पर छपने वाले कचरे से निजात मिल सके ।
यह गुलो बुलबुल का अफ़साना कहाँ
यह हसीं ख्वाबों की नक्काशी नहीं
है अमानत कौम की मेरी कलम
मेरा फ़न लफ़्ज़ों की अय्याशी नहीं ।
8 टिप्पणियां:
यह चैनलो की आपसी प्रतिस्पर्धा की लडाई है। एक पाठक के रुप मे मेरा जितना शोषण सी.एन.एन.-आई.बी.एन और एन.डी.टी.वी के राजदीप और प्रणव राय ने किया है उतना किसी ने नही किया। यह दोनो चैनल वेटीकन के दलाल है और भारत मे हिन्दु-मुस्लीम घृणा पैदा करने के लिए समाचार गढते रहते है। यह दोनो चैनल हरेक न्युज को कुछ इस तरह तोड-मरोड करते है जिससे देश्द्रोही सोनिया को लाभ मिले। विओआई अन्धेरे मे रोशनी की किरण है। मै विओआई से बेहद खुश हुं। लगता है कोई उनके विरुद्ध षडयंत्र कर रहा है।
साबुन, तेल, मंजन, पान. न्यूज़ चैनल... सब दुकानदारी बस मुनाफे के लिए है ... नैतिकता जैसे बड़े बड़े और भारी भरकम शब्दों के व्यर्थ प्रयोग का कोई औचित्य ही कहाँ है
आपकी बातें और आपकी पीडा शब्दश: सही है । लेकिन जब समूचा समाज ही स्खलन का शिकार हो तो पत्रकारिता इससे कैसे बच सकती है । एक समय वह था जब प्रबन्धन पक्ष वालों को अखबार के कार्यालयो में हेय दृष्टि से देखा जाता था । आज एकदम उलट दशा है । प्रबन्धन विभाग के लोग हावी हैं और सम्पादकीय विभाग के लोग दयनीय, विनयावनत मुद्रा में खडे हैं । अखबार 'प्राडक्ट' बन गए हैं और सम्पादन के नाम पर मार्केटिंग हो रही है ।
लेकिन यह भी एक 'टेम्परेरी फेज' है । यह वक्त भी गुजर जाएगा ।
सहर होने को है, शम्मा जलाए रखिए ।
बिल्कुल सही कहा आपने. यथार्थ.
यथार्थ है आपकी बातें .
aapki baat bilkul sahi hai ,
jin par hamen sabse jyada yakin hai , unke saath ye waywahaar.
umeed hai ,ki aapki ye koshish rang layengi
badhai
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
यह गुलो बुलबुल का अफ़साना कहाँ
यह हसीं ख्वाबों की नक्काशी नहीं
है अमानत कौम की मेरी कलम
मेरा फ़न लफ़्ज़ों की अय्याशी नहीं ।...................वो सब तो ठीक है...........लेकिन सब कुछ उजागर करने करने वाले अखबारों की दुनिया भी उतनी ही काली है...
जितनी उनके किस्से....!!
आपसे सहमत हें इसी सन्दर्भ में एक पोस्ट
आतंकवाद पर मीडिया और नेताओं की भूमिका
देखें|
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