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शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

नारों- वादों के शोर में मुद्दे हुए नदारद

मध्य प्रदेश में चुनाव सर पर हैं और प्रमुख पार्टियों में टिकट को लेकर मचे घमासान का नज़ारा जनता खूब चाव से देख रही है । हफ़्ते भर पहले तक उमा के तेवरों और कांग्रेस से कडी टक्कर मिलने की आशंका ने बीजेपी की बैचेनी बढा दी थी । मगर कांग्रेस ने चुके हुए नेताओं को टिकट देकर सत्तारुढ दल की मुश्किलें आसान कर दी हैं । रही बात उमा भारती की , तो वे अपनी दुश्मन खुद हैं । ह्फ़्ते भर पहले तक साध्वी मामले में खुलकर सामने आने के कारण उमा लीड लेती लग रही थीं ,लेकिन छिंदवाडा में पार्टी पदाधिकारी की सरेआम पिटाई ने किए कराए पर पानी फ़ेर दिया । उमा ने भगवा चोला भले ही धारण कर लिया हो ,मगर अब तक अपने स्वभाव को भी ठीक तरह से नहीं साध सकीं हैं।

मतदान को लगभग २० दिन बचे हैं । चुनावी माहौल ज़ोर पकडने लगा है । लेकिन इस बार के चुनाव कुछ अलग हैं । मैंने पहले भी चुनाव देखे हैं , रिर्पोटिंग भी की है । प्रदेश में पहली बार शायद ऎसा मौका आया है ,जब पार्टियों के पास जनता के बीच जाने के लिए कोई मुद्दा नहीं । प्रजातंत्र में इससे बुरा दौर और क्या हो सकता है ? मुद्दों का अकाल यानी लोकतंत्र के लिए संकट का काल । जनता रोज़मर्रा की दिक्कतों से बेज़ार है लेकिन नेता बेखबर । मुद्दाविहीन राजनीति नेताओं क्के लिए फ़ायदे का सौदा हो सकती है ,लेकिन लोकतंत्र के हित में ये संकेत शुभ नहीं ।

झंडे ,बैनर ,पोस्टर सज गये हैं । सडकों पर वाहन रैलियों और नारों का शोर है । मगर पिछले पांच सालों के कामकाज का लेखा जोखा मांगने की ना तो किसी को सुध है और ना ही हिसाब देने वालों को कोई परवाह । राजनीतिक दीवालिएपन का आलम ये है कि कांग्रेस और बीजेपी अब तक चुनावी घोषणा पत्र भी जनता के सामने नहीं रख सके हैं ।

मुझे लगता है कि प्रदेश की अवाम भी भ्रम की स्थिति में है । काग्रेसी उम्मीदवारों से किसी तरह की उम्मीद करना बेमानी है और बीजेपी की ओर से दागी मंत्रियों की लंबी फ़ेहरिस्त दोबारा चुनावी दंगल में भेजी गई है । टिकटों की खरीद फ़रोख्त की खबरें ज़ोरों पर रहीं । हर कोई विधायक पद का प्रबल दावेदार है । कोई धन के बूते , कोई धर्म के नाम पर । अब तो राजनीति कइयों के लिए खानदानी पेशा बन गया है । जातिगत गणित भी खूब काम कर रहा है । हमें चुनना है खराब में से कम खराब । यानी इधर नागनाथ , तो उधर सांपनाथ ।

मेरा नज़र में इस चुनाव में मुद्दों के साथ - साथ विकल्प का भी अकाल है ।, छोटे दलों के प्रत्याशी भी कुछ उम्मीद नहीं जगाते । टिकट ना मिलने से नाराज़ कई नेताओं ने बागी तेवर अपनाकर इन द्लों का रुख कर लिया है । ऎसे में प्रदेश के विकास की बात कौन करे ? राजनीति में धन बल , बाहुबल और जात -पांत के समीकरणों का तोड ढूंढने के की शुरुआत कब होगी और कैसे ? यह बुनियादी सवाल हर पांच साल बाद आ खडा होता है ...... जवाब की तलाश में....... ?

मुंह खुला है उधर खज़ाने का , मुड रहा है वरक ज़माने का
और इधर कहत दाने - दाने का , कस्द [निश्चय] फ़िर भी पहाड ढहाने का ।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

मध्यप्रदेश के चुनावी दंगल में ’उमा फ़ेक्टर’ की दह्शत

उमा भारती ने चुनावी समर में हुंकार भर कर बीजेपी की नींद उडा दी है । साध्वी प्रज्ञा सिंह को भारतीय जन शक्ति पार्टी से चुनाव लडने का न्यौता देकर उन्होंने बीजेपी की जान सांसत में डाल दी है । उमा ने साध्वी के ज़रिए भारतीय जनता पार्टी पर निशाना साधा है और उसे उसी के हिन्दू कार्ड से मात देने की पूरी बिसात बिछा दी है । प्रज्ञा सिंह के मामले से कुछ दिन पहले तक पल्ला झाडती नज़र आ रही बीजेपी को मजबूरी में ही सही इस मसले पर सामने आना पडा है ।

उमा भारती के राजनीतिक भविष्य पर विराम की संभावनाएं तलाशते भाजपाई नेता दोबारा गद्दीनशीं होने का रास्ता सीधा - सपाट मान बैठे थे । मध्य प्रदेश कांग्रेस की आपसी सर फ़ुटौव्वल के कारण उनका ये खवाब हकीकत में बदलने की गुंजाइश भी साफ़ - साफ़ नज़र आ रही थी ,लेकिन हाशिए पर जा चुकी उमा ने प्रहलाद पटेल के साथ सुलह करके बीजेपी की राह में कांटे बिछा दिए हैं । बिखराव की राजनीति के सहारे आगे बढना नामुमकिन है , इस हकीकत से वाकिफ़ होने के बाद दोनों नेताओं ने समय रहते गिले - शिकवे भुलाकर ऎक साथ आने में ही भलाई समझी । दोनों का मकसद एक है और मंज़िल भी एक ही ।

भाजपा को कांग्रेस से कडी चुनौती तो मिलना तय है ,लेकिन चुनाव में उमा फ़ेक्टर को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता । उमा भी बीजेपी को हर हाल में सत्ता से बाहर रखने की जुगत भिडाने में लगी हैं । छोटे - छोटे दल भी सत्तारुढ पार्टी का सिरदर्द बन गये हैं । इस मर्तबा प्रदेश के चुनावी जंग में प्रमुख दलों के अलावा छोटी पार्टियां भी निर्णायक भूमिका निबाहेंगी ।

मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश में अपने पैर मज़बूती से जमा लिए हैं । इसके अलावा राष्ट्रीय जनता दल , गोंडवाना गणतंत्र पार्टी , लोक जनशक्ति पार्टी और वामपंथी दलों ने भी अपने स्तर पर बीजेपी और कांग्रेस को घेरने की तैयारी कर ली है । मुखतलिफ़ राजनीतिक विचारधारा के बावजूद सीटों के तालमेल पर उमा की प्रांतीय दलों से पटरी बैठ सकती है । ऎसे में मायावती का साथ यदि उमा को मिल गया , तो प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरण बनेंगे । सत्ता की आस लगाए बैठी कांग्रेस तथा बीजेपी को नाकों चने चबाना होंगे ।

लगता है उमा का चुनावी मोटो है - हम तो डूबेंगे सनम ,तुम को भी ले डूबेंगे .......।