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बुधवार, 5 नवंबर 2008

भोपाल की मुस्लिम औरतें और तलाक

लगातार चार पीढ़ियों तक बेगमों की हुकूमत देख चुके भोपाल में मुसलमान महिलाओं के मिज़ाज बदल रहे हैं और इसका असर यह है कि इस समाज में अब मर्दों के मुकाबले औरतें आगे बढ़कर अपने शौहर से तलाक़ ले रही हैं आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष २००४ में तलाक़ के जितने मामले दर्ज हुए उनमें से तीन चौथाई यानी ७५ प्रतिशत से ज़्यादा औरतों की ओर से लिए गए तलाक़ थे ।

भोपाल और आसपास के इलाकों में मुस्लिम समुदाय में तलाक के बढते मामलों ने समाज के रहनुमाओं को भी चिंता में डाल रखा है । २००६ -२००७ में ४९८८ निकाह रजिस्टर्ड हुए और इसी साल ३२० तलाक हुए । इसी तरह साल २००७ - ८ में ५४१२निकाह पढे गये और शादी से बाहर आने वालों की तादाद रही - ३३२ । इस साल अक्टूबर आते तक २५३ जोडों ने अपनी राह जुदा कर लेने का फ़ैसला कर लिया , जबकि इस दौरान निकाह हुए ४५२५ । तलाक के ये आंकडॆ किसी भी लिहाज़ से काफ़ी चौंकाने वाले हैं ।

इस्लाम में इजाज़त दी गई चीज़ों में तलाक़ सबसे ज़्यादा नापसंद बताया गया है । इसके बावजूद तलाक का सिलसिला कहीं थमता दिखाई नहीं देता । लगता है लंबे समय से एकतरफा तलाक़ की तकलीफ सह रही महिलाएँ अब आज़िज़ आ चुकी हैं । भोपाल के कज़ीयात में मौजूद रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो लगता है औरतें अब मर्दों के जुल्म सहने के लिए तैयार नहीं । आँकड़ों के मुताबिक़ २००४ में हुए २४१ तलाक़ में से १८५ में महिलाओं ने अपनी मर्ज़ी से वैवाहिक रिश्ते को ख़त्म किया । यानी ७७ फ़ीसदी तलाक़ महिलाओं ने लिए । समाज में आया ये बदलाव मज़हबी गुरू, महिलाओं और मनोवैज्ञानिकों को भी हैरान करने वाला है । मुसलमान महिलाओं का बदलता स्वरूप इन सबकी निगाह में किसी भी तरह से अच्छा नहीं है ।

ज़्यादातर बुज़ुर्गों का मानना है कि परिवार टूटने का सबसे ज़्यादा खमियाज़ा बच्चे उठाते हैं । परिवारों के बिखराव को देखने का हर शख़्स का अपना नज़रिया है । किसी की निगाह में इसके लिए नैतिक मूल्यों में आई गिरावट ज़िम्मेदार है , तो कोई इसके पीछे महिलाओं की आर्थिक रुप से खुद मुख्तियारी देख रहा है । महिलाओँ के हक़ की लडाई लड़ने वाले संगठन भी महिलाओं में तलाक़ लेने की प्रव्रत्ति पर नाखुशी ज़ाहिर करते हैं । मुस्लिम बुद्धिजीवियों का कहना है कि इस्लाम तलाक़ को मान्यता और इजाज़त देता है. मगर अभी तक उसे एक हथियार के तौर पर ही आदमी अपनी ताकत दिखाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है ।

कुछ लोग इसे सामाजिक मूल्यों में आ रहे बदलाव और भोपाल में १२० साल तक औरतों की हुकूमत से जोड कर भी देखते हैं । भोपाल में नवाब शाहजहाँ बेगम, सिकंदरजहाँ बेगम और सुल्तानजहाँ बेगम ने समाज में भारी बदलाव किया और औरत को वो मुकाम दिया जो मुल्क में दूसरी जगह उन्हें हासिल नहीं था ।

सामाजिक और आर्थिक असमानता भी बहुत सी औरतों को अपने शौहर से अलग होने के लिए मजबूर कर रही है । कई मामलों में आर्थिक मज़बूती औरतों को दमघोटू रिश्ते को ख़त्म करने का हौसला दे रही है । आर्थिक मज़बूती और आत्मनिर्भरता का असर सिर्फ़ भोपाल में ही इस तरह दिखाई दे रहा है या फिर दूसरी जगह भी इसका असर वैसा ही है , इसका पता लगाना बेहद ज़रुरी है । तलाक के मामले में पहल मर्द करे या फ़िर औरत , टूटता हर हाल में परिवार ही है , जो ना उस घर सदस्यों के लिए अच्छा है और ना ही पूरे समाज के लिए ...... ।

झुक गयी होगी जवां - साल उमंगों की ज़बीं
मिट गयी होगी ललक , डूब गया होगा यकीं
छा गया होगा धुआं , घूम गयी होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरौंदे को जो ढहाया होगा ।

सोमवार, 3 नवंबर 2008

.............. झील की मौत पर गिद्ध भोज की तैयारी !

ताल - तलैयों के शहर के तौर पर मशहूर भोपाल की पहचान खतरे में है । यहां की बडी झील शायद पूरे भारत की एकमात्र मानव निर्मित विशालकाय जल संरचना होगी । मुझे याद है वो दिन जब हम गर्मी की छुट्टियां बिताने इंदौर जाया करते थे और अप्रैल - मई की तपते दिनों में भी भोपाल से ४० किलोमीटर दूर सीहोर से कुछ किलोमीटर पहले तक बडा तालाब हमें बिदाई देने आया करता था । हिलोरें लेता तालाब बालमन में अथाह समुद्र की छबि साकार कर देता ।

बूंद - बूंद पानी के लिए जद्दोजहद करते इंदौरियों के बीच " हमारा बडा तालाब " हमें अजीब सी ठसक और फ़्ख्र से भर देता । लेकिन हमारा वही गुमान अब अंतिम सांसे गिन रहा है । तालाब दम तोड रहा है । लेकिन झील की मौत पर सोगवार होने वाले लोग ढूंढे से नहीं मिल रहे । हां ,जगह - जगह चील गिद्ध मृतयुभोज की तैयारियों में मसरुफ़ हैं । लोगों ने पोस्टर बैनर झाड - पोंछकर तैयार कर लिए हैं । मंहगा पेट्रोल फ़ूंक कर सडकों पर गाडियां दौडाते हुए पानी बचाने की सीख दी जा रही है ।

इस बीच एक बडे समूह को भी पानी की कीमत का एहसास हो ही गया । सो ’ जल है ,तो कल है ’ के नारे के साथ शहर में जल सैनिक बनाने की मुहिम छेड दी गई है । जल सत्याग्रह की ये कोशिश कितनी ईमानदार है , इसका खुलासा तो वक्त ही करेगा । भोज वेटलैंड परियोजना के नाम पर विदेशी मदद के अरबों रुपए पानी में बह गये ,मगर बडी झील का पानी नहीं बचाया जा सका ।

बेशर्मी का आलम ये है कि सूखी झील पर फ़सलें लहलहाने लगीं , तब कहीं प्रशासन को होश आया । यूं तो बडा तालाब ३१ वर्ग किलोमीटर में फ़ैला था लेकिन इस साल बारिश की कमी के कारण अब सिर्फ़ १० वर्ग किलोमीटर दायरे में सिमट कर रह गया है । भू माफ़िया ने १५० एकड से ज़्यादा हिस्से में खेती शुरु कर दी । बहरहाल देर से ही सही प्रशासन को होश तो आया । फ़िलहाल ज़मीन का बेज़ा कब्ज़ा हटा दिया गया है । आगे भगवान मालिक ........।

झील की लाश पर मौज उडाने वाले ये भूल बैठे हैं कि पानी कारखानों में बनने वाला प्राडक्ट नहीं है । कुदरत की इस नायाब नियामत की नाकद्री मंहगी पडेगी हमें भी और आने वाली नस्लों को भी । लोग पैसा बचा रहे हैं और पानी बहा रहे हैं । नल की टोंटी खोलते ही आसानी से मिल जाने वाला पानी आने वाले वक्त में इस लापरवाही की क्या कीमत वसूलेगा । इसके महज़ एहसास से रुह कांप उठती है ।

राजधानी के पुराने इलाके में नवाबी दौर की करीब २५० बावडियां और कुएं बदहाली के शिकार हैं । किसी ज़माने में ये पारंपरिक जल स्त्रोत लोगों की प्यास बुझाते थे । साथ ही उनके रोज़मर्रा के कामों के लिए भी भरपूर पानी मुहैया कराते थे । हैरानी है कि भारी उपेक्षा के बावजूद १०० से ज़्यादा बावडियों का वजूद अब भी कायम है । हम सभी को समझना होगा कि जल है तो जीवन है या जल है तो कल है जैसे लोक लुभावन नारों के उदघोष से काम नहीं बनने वाला । पानी की मित्तव्ययिता का संस्कार पैदा करना होगा । एक बार फ़िर लौटना होगा अपनी परंपराओं की ओर जो हमें प्रकृति से लेना ही नहीं वापस लौटाना और संरक्षण की सीख भी देती हैं । पानी की अहमियत को समझाने के लिए ये दोहा है -

रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून ,
पानी गये ना उबरे मोती , मानस , चून ।

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

अजगर करे ना चाकरी ....!

अजगर करे ना चाकरी , पंछी करे ना काम ।
दास मलूका कह गये , सबके दाता राम ।
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री की खातिरदारी का लुत्फ़ उठाने के बाद पंद्रह फ़ुटा अजगर निश्चित ही ये लाइनें गुनगुना रहा होगा । ८५ किलो वज़नी इन महाशय ने सिक्योरिटी के तमाम इंतज़ामात को धता बताते हुए श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री निवास में घुसपैठ कर ली थी । और तो और वहां एक पालतू कुत्ते की दावत उडाने की भी कोशिश की । अजगर की भूख शांत करने के लिए उसे मुर्गों का ज़ायका लेने का मौका भी मिला ।
अखबार की सुर्खियों में रहे इस आराम तलब जीव ने चुनावी माहौल में कई दिग्गज नेताओं को बहुत कुछ संकेत दे दिए हैं । सीधे -सादे नज़र आने वाले शिवराज सिंह को जब सत्ता सौंपी गई थी , तब उन्हें रबर स्टैंप मानते हुए घाघ नेताओं ने भी खास तवज्जो नहीं दी थी । कमज़ोर माने जाने वाले इस नेता ने धीरे धीरे कई धुरंधरों को उनकी हैसियत बता दी है ।
राजधानी में काफ़ी चर्चा है इस वाकये की । लोगों का कहना है कि शिव के घर नाग आया , लेकिन अब तक के शिवराज के राजनीतिक सफ़र को देखते हुए इसे दो दोस्तों की सौजन्य भेंट का नाम दिया जाए तो गलत ना होगा । ये अलग बात है कि पूर्व निर्धारित नहीं होने के कारण अजगर महाशय मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं कर पाए ।
वैसे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास में इससे पहले भी जंगल के कई नुमाइंदे अलग -अलग काल में मुख्यमंत्रियों से मेल मुलाकात का ख्वाब संजोये हुए ज़बरिया प्रवेश करते रहे हैं । मोतीलाल वोरा के शासनकाल में मगरमच्छ का आना चर्चा का मुद्दा बना ,तो एक तेंदुए ने दिग्विजय सिंह से मुलाकात की हसरत पाली । देखना दिलचस्प होगा कि अजगर नामा आने वाले चुनावों में क्या रंग दिखाएगा ।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

शायरी का सफ़र - फ़क्कड मिजाज़ , अलमस्त अंदाज़


भोपाल की शुरु से ही इल्म - अदब और शायरी के मैदानों मे खास हैसियत रही है । इस शहर ने कई बडे शायर पैदा किए और उर्दू शायरी की दुनिया में अपना अलग मकाम बनाया । यही वजह है कि भोपाल की शायरी को लखनऊ और दिल्ली की शायरी से बेहतर माना जाता है ।
" शहरे गज़ल " के नाम से मशाहूर इस शहर को शायरी से ही पहचाना गया । यहां शायरी का दौर गज़ल से ही शुरु हुआ । दरअसल भोपाल में कसीदा , मसनवी और मर्सिया वगैरह का रिवाज़ कभी रहा ही नहीं । भोपाल की मिट्टी से पैदा हुए मशहूर शायर सिराज मीर खां सहर भी गज़ल से ही पहचाने गयॆ । उनकी गज़ल का शेर - सीने में दिल है , दिल में दाग ;दाग में सोज़ो-साज़े इश्क ।पर्दा ब पर्दा निहां,पर्दानशीं का राज़े इश्क । पूरे देश में भोपाल की पहली शिनाख्त था ।
खैर भोपाल की शायरी पर तफ़सील स्र चर्चा फ़िर कभी । मरहूम अख्तर सईद खां कहा करते थे कि इस शहर का मिजाज़ और मौसम ही कुछ ऎसा है जो यहां आया वो यहीं का होकर रह गया । फ़िर गज़ल की परवरिश के लिए जिस शोले की तपिश और शबनम की ठन्डक चाहिए वो यहां के खुशगवार मौसम में भी मौजूद है । मौसम की कैफ़ियत कुछ ऎसी थी कि ना ज़्यादा गर्मी ,ना ज़्यादा सर्दी और शहर के बाशिंदों के मिजाज़ में भी मौसम की यही रुमानियत घुलमिल गयी ।
शायरों से जुडा एक दिलचस्प किस्सा भी उस दौर के भोपाल की खुशमिजाज़ तबियत की दास्तान बयां करता है । शहर के उर्दू अदब का कारवां अल्लामा इकबाल और जिगर मुरादाबादी के ज़िक्र के बगैर अधूरा है । जिगर साहब कुछ फ़क्कड और अलमस्त तबियत के शख्स थे । जिगर साह्ब का मानना था कि बेहतर शायर होने के लिए अच्छा इंसान होना ज़रुरी है । १९२८ - २९ में वो पहली मर्तबा हामिद सईद खां के बुलावे पर भोपाल आए और फ़िर तो वो अक्सर आने लगे । उसी दौर में फ़क्कड शायरों का एक अनोखा क्लब बना नाम रखा गया - दारुल काहिला
मज़े की बात ये थी कि चुनिदा शायरों की इस जमात ने क्लब के मेम्बरान के लिए कुछ कास किस्म के कायदे तय किए थे । मसलन - सबसे ज़रुरी शर्त तो ये कि हरेक सदस्य को अपना तकिया साथ लेकर आना होगा । नियमों में एक ये भी था कि लेटा हुआ बैठे हुए को ,बैठा हुआ खडे हुए को और खडा हुआ चलते हुए को हुक्म दे सकता था । इसका नतीजा ये हुआ कि काहिला क्लब का हरेक सदस्य लेटकर ही क्लब में दाखिल होने लगा ताकि उसे किसी का हुक्म बजाने की नौबत ही ना आ सके ।
और आखिर में जिगर साहब का ही इक शेर -
साकी की हर निगाह पे बल खा के पी गया ,
लहरों पे खेलता हुआ , लहरा के पी गया ।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

बेतकल्लुफ़ी का शहर

भोपाल शायद देश का ऎसा इकलौता शहर होगा , जिसकी ढेरो लेकिन परस्पर विरोधी छवियां एक साथ उभरती हैं । पटिएबाज़ों का ये शहर अपनी लतीफ़ेबाज़ी और बतोलेबाज़ी के लिए भी हमेशा चर्चा में रहा है । आज भी ठेठ भोपाली अपने बातूनीपन के लिए ही जाना जाता है । अरे खां मियां -हमारा नाम सूरमा भोपाली ऎसे ही थोडे ही है ।
भोपाल फ़िरकापरस्तों की नहीं , फ़िकरापरस्तों की नगरी है । फ़िकरापरस्ती यानी बेवजह की बातों पर बतियाना ,वाणी विलासिता । फ़िकराकशी में भोपालियों का कोई सानी नहीं । बेलौस तरीके से अपनी बात कहने का भोपा्ली अंदाज़ निराला है । लोगों के बातूनी मिजाज़ के पीछे फ़ुर्सत और बेफ़िक्री की वो संस्क्रति है , जो मुस्लिम शासनकाल में उपजी, पली और परवान चढी । पर्दा ,गर्दा , ज़र्दा और नामर्दा के लिए मशहूर इस शहर को आज भले ही गैस त्रासदी के लिए पहचाना जाने लगा हो ,लेकिन अपने हर अनूठे अंदाज़ की भोपाली पहचान यहां की झीलों की तरह कभी सूख नहीं सकती । झील धीरे - धीरे सिमट रही है , भोपाल की तस्वीर बदल रही है , लोगों के मिजाज़ बदल रहे हैं , लेकिन उम्मीद करना चाहिए कि शहर का पाक - साफ़ मिजाज़ सदियों तक यूं ही बरकरार रहेगा ....।
आमीन ........... ।