बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

मप्र के आदिवासी देशी खेती सीखने जाएँगे परदेस....!

"कोई भरम मत पालिये । साफ़ बात यह है कि लेखक दुनिया नहीं बदलता । वह बदल ही नहीं सकता । दुनिया बदलने वाले दुनिया बदलते हैं ।"

लीजिए साहब , अब मध्य प्रदेश के किसान खेती की बेहतर तकनीक सीखने के लिए सात समुंदर पार भेजे जाएँगे । आदिम जाति कल्याण विभाग आदिवासियों को विदेशों में खेती किसानी सिखाने भेजने की तैयारी में जुट गया है । राज्य के किसान अमेरिका ,चीन ,जापान सहित कई देशों से खेती के गुर सीख कर आएँगे । शुरुआती दौर में दस किसान खरीफ़ मौसम में पंद्रह दिन से एक महीने का प्रशिक्षण लेने भेजे जाएँगे । अधिकारियों का कहना है कि चावल की अच्छी माँग होने के कारण धान की जैविक खेती के बारे में जानकारी दी जाएगी ।

खेती - किसानी के मामले में आज भी भारत कई देशों से आगे है । लोकोक्तियाँ और कहावतें मौसम के मिजाज़ को समझने और उसके मुताबिक फ़सल लेने तक का सटीक ज्ञान देने में सक्षम हैं । अनुभवी किसान हवा का रुख देख कर भाँप जाता है कि बरसात कब- कब होगी और कितनी । इतना ही नही नक्षत्रों और मिट्टी की किस्म से ग्रामीण फ़सल का अनुमान लगा सकते हैं । लेकिन हम अपने देश के वैदिक और पारंपरिक ज्ञान के प्रति हमेशा से लापरवाह रहे हैं । "फ़ॉरेन रिटर्न" की मानसिकता इस कदर हावी है कि देश की चीज़ जब तक विदेशी ठप्पा लगवाकर नहीं आये , हम उसे संदेह की निगाह से ही देखते हैं ।

वैज्ञानिकों ने गायत्री मंत्र के ज़रिए उपचारित बीजों से हैरत में डाल देने वाला फ़सल उत्पादन हासिल होने की बात स्वीकारी है । लोगों की बेरुखी के कारण सड़कों पर पन्नियाँ खा कर दम तोड़ती गायें भी खेती की मूलभूत ज़रुरत में से एक है । गाय का मूत्र और गोबर जमीन की उर्वरा शक्ति बढाता है । साथ ही फ़सलों को नुकसान पहुँचाने वाले अनगिनत जीवाणुओं और कीड़ों की रोकथाम करता है । अनुभवी कहते हैं गौमूत्र के नियमित छिड़काव से पथरीली ज़मीन भी उपजाऊ और भुरभुरी हो जाती है ।

गायत्री शक्तिपीठ ने खेती को भारतीय पद्धति से करने के कई सफ़ल प्रयोग किये हैं और जैविक खेती की तकनीक पर शोध भी किये हैं । मेरे अपने प्रदेश में ऎसे कई प्रगतिशील किसान हैं , जिन्होंने अपनी हिकमत और हिम्मत से खेती के पारंपरिक स्वरुप को नया जीवनदान दिया है । इतना ही नहीं ये साबित भी किया है कि प्राकृतिक नुस्खे अपना कर खेती की लागत घटा कर भरपूर पैदावार ली जा सकती है ।

अब सवाल ये कि जिस विषय के बारे में हमारे यहाँ ज्ञान का भंडार मौजूद है ,उसके लिए विदेश का रुख करना कहाँ तक जायज़ है ? वास्तव में हमारे नेता और अफ़सर कभी बीमारी , तो कभी प्रशिक्षण के नाम से सरकारी खर्च पर दूसरे देशों के सैर सपाटे का बहाना तलाशते रहते हैं । ज़ाहिर सी बात है कि गाँव की पगडंडी छोड़कर शहर की सड़कों तक आने में घबराने वाले ठेठ ग्रामीण परिवेश से निकले ये आदिवासी अकेले तो विदेश जा नहीं सकेंगे........। अँग्रेज़ीदाँ वातावरण में किसानों को समझाने और हौसला देने के लिए हो सकता है अधिकारियों की लम्बी चौड़ी फ़ौज भी साथ जाए ।

वैसे एक और जानकारी काबिले गौर है । शिवरात्रि पर भोपाल के नज़दीक प्रसिद्ध स्थल भोजपुर में उत्सव के उदघाटन समारोह में मुख्यमंत्री ने एक जानकारी दी । उन्होंने बताया कि पिछले साल संस्कृति विभाग के ज़रिए 17 करोड़ रुपए प्रदेश की सभी पंचायतों की भजन मंडलियों को दिये गये । यानी प्रदेश का लोक कलाकार भी खासा अमीर हो गया शिवराज के राज में .....?????? क्या वाकई ....????? और हाँ संस्कृति मंत्री ने समारोह में लोक कलाकारों की पंचायत बुलाने की माँग भी कर डाली । हाल ही में "घोषणावीर मुख्यमंत्री" हाथठेला और रिक्शा चालकों की पंचायत कर चुके हैं । पिछले कार्यकाल में उन्होंने सत्रह पंचायतें कीं । इन लोगों का कितना भला हो सका ये शोध का विषय है, लेकिन अधिकारियों और इंतज़ाम में लगे ठेकेदारों को तत्काल लाभ मिल ही गया ।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

संस्कृति बचाने का तुगलकी फ़रमान

मानव मन के उल्लास और उमंग को अभिव्यक्त करने के कई अनूठे तौर तरीके अनादि काल से चले आ रहे हैं । समय - समय पर भरने वाले मेले सामयिक संदर्भों से जुड़ने की जीवंत परंपरा के साथ ही विभिन्न अँचलों में ग्राम और लोक देवताओं को याद करने के बहाने होते हैं ।

देश की मौलिक संस्कृति में मेलों की सतरंगी छटा चारों ओर बिखरी दिखाई देती है । मेलों का ग्राम्य स्वरुप प्रचलित भी है और प्रसिद्ध भी । हालाँकि अब शहरों में भी मेलों का आकर्षण बढने लगा है लेकिन उनमें गाँव के मेलों सा सौंधापन कहाँ......? इन मेलों के मूल में कोई अन्तर्कथा है ,संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है कि इन आयोजनों का "लोक आस्था का मूल तत्व" तमाम अपसंस्कृति के बावजूद अब तक मिट नहीं सका है ।

मेले का अनूठापन ही है कि लोग स्वतः स्फ़ूर्त प्रेरणा से नियत तिथि और निश्‍चित स्थल पर साल दर साल जुड़ते रहते हैं , बगैर आमंत्रण की प्रतीक्षा किए ....। दशकों क्या सदियों से यही परंपरा चली आई है । लेकिन आज एक समाचार पढ़कर मन आशंकाओं से भर गया । एक साथ कई सवाल उठने लगे ज़ेहन में । मध्यप्रदेश में हर साल छोटे - बड़े करीब डेढ़ हज़ार मेले लगते हैं । धार्मिक ,सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े इन मेलों पर अब राज्य सरकार का रहमो करम होने जा रहा है । दर असल यही सरकारी पहल ऊहापोह का सबब बनी है ।

मध्यप्रदेश लोककला और संस्कृतियों की विविधता को समेटे हुए है । प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में लगने वाले मेलों पर नज़र रखने के लिए राज्य सरकार मई तक मेला प्राधिकरण बनाने की तैयारी में है । यह सरकारी महकमा मेलों के इंतज़ाम के अलावा कलाकार जुटाने और पैसे के हिसाब किताब का ज़िम्मा भी सम्हालेगा । यूँ तो ये प्राधिकरण संस्कृति विभाग के अधीन ही काम करेगा मगर इसकी एक अलग समिति होगी । हर ज़िले में उप समितियाँ बनाई जाएँगी । दलील दी जा रही है कि मेलों में अश्लीलता के नाम पर जम कर विवाद होते रहे हैं । सरकार के मुताबिक इन घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए प्राधिकरण बनाने की ज़रुरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी । संस्कृति विभाग चाहता है कि धार्मिक मेले धर्ममय होने चाहिए ।

अब इन दलीलों पर क्या कहा जाए ? मेरे शहर में कई मेले लगते हैं । इनमें मुम्बइया आइटम गर्ल्स के धमाल और दर्शकों के बवाल पर किसी की निगाह नहीं जाती । राजधानी में सरकारी ज़मीन पर बड़े- बड़े उद्योग घराने बरसों से निजी किस्म के मेले लगाते चले आ रहे हैं । व्यापारियों से स्टॉल लगाने के एवज़ में मोटी रकम लेते हैं और सरकार से तमाम तरह की छूट भी । हाल के सालों में इन बेशकीमती ज़मीनों को आयोजन समितियों के हवाले करने की माँग भी ज़ोर पकड़ने लगी है , जबकि ये मेले शुद्धतः व्यापारिक लाभ के लिए लगाये जाते हैं । इनमें संस्कृति या परंपरा को बचाये रखने जैसा कोई सरोकार नहीं है ।

ग्रामीण मेले लम्बे समय से बिना किसी व्यवधान के बेहतरीन ढंग से लगते चले आ रहे हैं । वैसे भी ग्रामीण अँचल की संस्कृति से जुड़े मेलों में अब तक तो कोई ऎसी शिकायतें सुनने में नहीं आईं । लगता है -" पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए ।" ग्रामीण संस्कृति को बचाने के लिए वाकई ईमानदार कोशिश करना है , तो उसे सरकारी नियंत्रण से दूर ही रखना होगा । पंचायतों के ज़रिए गाँवों तक स्वराज पहुँचाने के ख्वाब का हश्र इस बात की पुष्टि करता है ।

कल ही मैं एक प्रादेशिक चैनल पर देख रही थी कि टीकमगढ ज़िले में किस तरह गाँव के लोगों ने बिना किसी सरकारी मदद के लम्बी चौड़ी नहर खोद डाली । जब सूबे के कई बड़े शहरों में पानी के लिए हाहाकार मचा है ,तब इस इलाके के कई गाँव ना सिर्फ़ अपनी और अपने मवेशियों की प्यास बुझा रहे हैं , बल्कि खेतों को लहलहाता देखकर आह्लादित भी हैं । सरकारी मदद के भरोसे ना जाने कितने वित्तीय साल बीत जाते ...? बजट आता लेकिन काग़ज़ी योजना को हकीकत में शायद कभी नहीं बदल पाता । मेरी राय में योजना के खर्च का एस्टीमेट ईमानदारी से बना कर पैसा उन सभी लोगों में बाँट दिया जाना चाहिए , जिन्होंने इस भगीरथी प्रयास को अंजाम दिया ।

एक तरफ़ तो योजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है । दूसरी तरफ़ नेताओं और अधिकारियों की जेबें भरने के लिए प्राधिकरण बनाया जा रहा है । क्या यह फ़ैसला " तुगलकी फ़रमान" नहीं ....?
( चुनाव पूर्व चेतावनी - राजनीतिक दलों तक अपनी बात पहुँचाएँ , उन्हें बताएँ कि अब मतदाता पार्टी को नहीं ईमानदार और साफ़ छबि वाले उम्मीदवार को वोट देगा । पार्टियाँ जिस दिन इस बात को जान जाएँगी, तब " जीत की गारंटी वाला " आपराधिक छबि का प्रत्याशी चुनना आपकी मजबूरी नहीं होगी । यानी दिखावे पर ना जाएँ अपनी अकल लगाएँ । )

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

नमक के बाद अब शिवराज का " कोयला सत्याग्रह "

लोकसभा चुनाव की दस्तक ने सियासी दाँव- पेंच तेज़ कर दिये हैं । मध्यप्रदेश में ज़बरदस्त बहुमत के साथ दोबारा सत्ता में लौटी भाजपा पर " सिर मुँडाते ही ओले पड़े" कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही है । साम - दाम - दंड - भेद की नीति पर चल कर सत्ता सुख हासिल करने में भले ही भाजपा कामयाब रही हो ,लेकिन प्रकृति के कड़े तेवरों ने पार्टी के हाथ - पाँव फ़ुला दिये हैं ।

पूरे प्रदेश में पानी के लिए हाहाकार मचा है । हालाँकि सूरज ने तो अभी अपनी भृकुटी तानना तो छोड़िए , निगाहें तिरछी भी नहीं की हैं । पानी नहीं , तो बिजली नहीं । इधर चुनावी मौसम की गर्मी बढेगी , उधर बिजली -पानी की कमी से दो चार होती जनता का पारा चढेगा । राज्य सरकार ने हालात पर काबू पाने के सभी दरवाज़े बँद होते देख सारी मुसीबतों का ठीकरा केन्द्र सरकार के सिर फ़ोड़ने का मन बना लिया है ।

’पाँव- पाँव वाले भैया’ के नाम से मशहूर शिवराज सिंह ने अब गेंद केन्द्र के पाले में डालने के लिए ’सत्याग्रह’ का रास्ता चुना है । एक सत्याग्रह गाँधीजी कर गये और अब दूसरा शिवराज कर रहे हैं । वे नमक के लिए लड़े , ये कोयले के लिए । लेकिन भारत में "नमक" का नाता आन- बान - शान से है । मगर कोयले की शोहरत कुछ अच्छी नहीं.........! कोयले की दलाली में हाथ काले करने वालों को कभी भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता ।

शिवराज का कहना है कि आँख पर पट्टी बाँधे बैठी केन्द्र सरकार पर आग्रह , धरना , उपवास , प्रदर्शनों का तो कोई असर हो नहीं रहा । प्रधानमंत्री को राज्य के हालात से रुबरु कराने का हर नुस्खा नाकाम हो जाने के बाद अब वे ’न्याय यात्रा’ के माध्यम से बात पहुँचाएँगे । कल भोपाल से शुरु हुई उनकी यह न्याय यात्रा मंडीदीप , औबेदुल्लागंज , बुधनी , होशंगाबाद होते हुए इटारसी और सारणी (बैतूल) पहुँची । उन्होंने सारणी से पाथाखेड़ा तक का सफ़र पैदल तय किया । इस पाँच किलोमीटर की ऎतिहासिक यात्रा को नाम दिया गया - कोयला सत्याग्रह ।

वैसे कोयले और बिजली के कोटे में कटौती के अलावा भी कई ऎसे मसले हैं , जिन पर केन्द्र और राज्य सरकार में ठनी है । मुख्यमंत्री की शिकायत है कि सूखा राहत , समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न की खरीद के लिए अनुदान , सर्व शिक्षा अभियान के लिए धन राशि समेत कई मदों में प्रदेश को केन्द्र की ओर से दी जाने वाली आर्थिक मदद समय पर नहीं मिल रही है । केन्द्र से पैसा मिलने की आस में ब्याज पर उठाया गया कर्ज़ भी दिन ब दिन बढता ही जा रहा है । इससे प्रदेश का बजट ही गड़बड़ा गया है । जिससे केन्द्र- राज्य के बीच की खाई गहरी होती जा रही है ।

प्रदेश सरकार के मुताबिक सर्व शिक्षा अभियान में इस साल 980 करोड़ रुपए खर्च किए गये । इसमें से 650 करोड़ रुपए केन्द्र से मिलना थे , मगर अब तक केवल 300 करोड़ रुपए ही मिले । इसी तरह समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदी के लिए अक्टूबर 2008 से इस वर्ष मार्च तक मिलने वाले अनुदान की राशि 741 करोड़ रुपए भी अब तक नहीं मिल पाए हैं । राज्य सरकार ने अनाज खरीदी के लिए रिज़र्व बैंक से 13 फ़ीसदी पर कर्ज़ लिया है , जिस पर कर्ज़ की अदायगी समय से नहीं होने के कारण एक प्रतिशत का दांडिक ब्याज भी लग रहा है ।

मुख्यमंत्री के ’ कोयला सत्याग्रह’ को लेकर भाजपा उत्साहित है , ऎसे में काँग्रेस भी कब पीछे रहने वाली है । काँग्रेस ने पलटवार करते हुए शिवराज को पाँच सवालों पर खुली बहस की चुनौती दे डाली है । यानी तू डाल - डाल मैं पात- पात का खेल लगातार जारी है ।

बेचारी जनता कभी उस ओर आस भरी निगाहों से ताकती है , तो कभी इधर टकटकी लगाए निहारती है । नेता भी बेचारे क्या करें चुनाव होने तक टाइम पास भी करना है और जनता को भरमाए भी रखना है । हम तो दर्शक हैं । कभी मज़ा लेते हैं । कभी ताली पीटते हैं । मन आये तो वाहवाही करने लगते हैं या फ़िर पाला बदल - बदल कर अपना अनुभव बढाते रहते हैं । पब्लिक जो ठहरे .......! सो नौटंकी , खेल - तमाशा ,बाज़ीगरी जो चाहे कहिए , सभी कुछ जारी है ।
( चुनाव पूर्व चेतावनी - चोर- लुटेरों की फ़ौज से किसी को भी चुनने की बजाय " वोट" बेकार करने का हुनर सीखिए और इन तत्वों से छुटकारा पाइए )

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

युवाओं के खिलाफ़ शिवराज का फ़रमान

मध्यप्रदेश सरकार ने एक बार फ़िर उदारता का मुज़ाहिरा किया है । दक्षिणपंथी विचारधारा के लेखकों और कलाकारों को दरकिनार कर वामपंथियों को सिर माथे बिठाने वाली भाजपा सरकार ने प्रदेश के दरवाज़े बाहरी छात्रों के लिए खोल दिए हैं । अब मप्र लोक सेवा आयोग की परीक्षा में प्रदेश से बाहर के उम्मीदवार भी हिस्सा ले सकेंगे । केबिनेट के इस फ़ैसले से राज्य के युवाओं के लिए प्रतिस्पर्धा कडी हो जाएगी ।

वर्ष 1996 से प्रदेश में नियम था कि पीएससी परीक्षा में वे ही प्रत्याशी शामिल हो सकेंगे जो मप्र के मूल निवासी होंगे । इसके लिए उम्मीदवार का मध्यप्रदेश से हायर सेकंडरी या डिग्री लेना ज़रुरी था । शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल में भी ये मामला केबिनेट में आया था , लेकिन कुछ मंत्रियों ने इस प्रस्ताव की जमकर मुखालफ़त की थी । उस वक्त मंत्रिमंडल सदस्य अखंडप्रताप सिंह ने इस मुद्दे पर अपनी ही सरकार को जमकर लताडा था ।

सुनने में आया है कि सामान्य प्रशासन विभाग ने इस बारे में अपने स्तर पर ही आदेश जारी कर दिए थे । मामला सामने आने पर उसे कानूनी जामा पहनाने के लिए केबिनेट में भेज दिया गया । इस मामले से दो बातें तो एकदम साफ़ हैं । पहली तो ये कि करोडों रुपए फ़ूँक कर कार्पोरेट कल्चर में रंग जाने को बेताब सरकार निहायत ही निकम्मी और काठ की उल्लू है । बजरबट्टू नेता पूरी तरह नौकरशाहों के शिकंजे में फ़ँसे हुए हैं । साथ ही इनके पास राज्य के विकास के लिए कोई समग्र सोच नहीं है । एक ही काम है इन नेताओं का ...। भज कलदारम , भज कलदारम हो गया प्रदेश का बंटाढारम .....।

प्रदेश में शिक्षा की स्थिति शर्मनाक हो चुकी है । बच्चों का भविष्य राम भरोसे है । मेरे घर के नज़दीक ,बल्कि उसे ऎसे कहें कि शिक्षा मंत्री के बंगले से महज़ दो - ढाई किलोमीटर की दूरी पर एक ऎसा स्कूल है , जहाँ एक कमरे में पाँच कक्षाएँ लगती हैं । यह स्कूल कम और रेलवे स्टेशन का क्लॉक रुम ज़्यादा नज़र आता है । पढाई की तो बात ही मत कीजिए । शिक्षिका के पसीने छूट जाते हैं ,बच्चों को चुप बैठाए रखने में । इतना ही नहीं प्रदेश का हर चौथा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे है । डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि प्रदेश के 84 हज़ार से ज़्यादा प्राइमरी स्कूलों में से 27 हज़ार में महज़ एक टीचर तैनात है ।

स्कूली शिक्षा के हाल बताते हैं प्रदेश की शिक्षा का स्तर , जबकि दूसरे राज्यों में पढाई का स्तर काफ़ी ऊँचा है । ज़ाहिर तौर पर ऎसे में प्रतियोगी परीक्षाओं में दूसरे राज्यों के छात्र बाज़ी मार ले जाएँगे । बढते क्षेत्रवाद के चलते दूसरे प्रदेशों में मप्र के युवाओं के लिए वैसे भी अवसर ना के बराबर ही हैं । अपने ही मतदाताओं के हक पर कुठाराघात करने वाली सरकार की अकल पर पडे पाले ने लोगों को सन्न कर दिया है ।

इस मसले पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भाजपा पर युवाओं के हितों को तिलांजलि देने का आरोप लगाते हुए शिवराज सिंह को पत्र लिखा है । मुख्यमंत्री ने दलील दी है कि हाईकोर्ट का आदेश मानना सरकार की मजबूरी थी । इस सफ़ाई ने सरकार की निर्णय क्षमता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । सरकार युवाओं के हित में कानूनी लडाई लडने के लिए इच्छा शक्ति प्रदर्शित कर सकती थी । मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकती थी ।

युवा हैरान हैं सरकार के फ़ैसले से । वे जानना चाहते हैं कि यदि उन्हें अपने ही प्रदेश में ठौर नहीं मिलेगा तो कहाँ जाएँगे......? जो सरकार जनता की पालनहार होने का ,उसके दुख दर्द समझने का दावा करती हो ,यदि वही दर्द देने पर आमादा हो जाए , तो आम जनता अपनी फ़रियाद लेकर किसके पास जाए........????? गरीबों की सुनवाई नहीं । बिजली नहीं ,पानी के लिए पूरे प्रदेश में हाहाकार । किसान बेज़ार । कर्मचारी सरकार की वायदा खिलाफ़ी से खफ़ा । और अब युवाओं के खिलाफ़ जाता ये सरकारी फ़रमान .....। क्या करना चाहती है ये सरकार ....????? दो महीनों में ये हाल .....। " इब्तदाए इश्क है रोता है क्या , आगे - आगे देखिए होता है क्या ? "

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

मध्यप्रदेश के नौनिहाल भूख से बेहाल

बेस्ट ई-गवर्नेंस का प्रतिष्ठापूर्ण अवार्ड हासिल कर पूरे देश में नाम कमाने वाले मध्यप्रदेश के नौनिहाल भूख से मर रहे हैं । हाल ही में दिल्ली से आई बाल संरक्षण अधिकार आयोग की टीम ने सतना ज़िले के मझगवां जनपद में किरहाई पोखरी गांव में कुपोषण के जो हालत देखे , उससे लगता है कि पिछले साल प्रदेश के कई ज़िलों में कुपोषण से हुई मौतों के बावजूद राज्य सरकार ने कोई सबक नहीं लिया ।

टीम के सदस्यों के मुताबिक गांव के हालात ’दयनीय’ शब्द को भी लजाते हैं । अपनी माताओं की छाती से चिपके ज़्यादातर मासूम क्षेत्र मे कुपोषण के फ़ैलते आतंक की कहानी बयान करते हैं । बच्चों के शरीर महज़ "हड्डियों के ढांचे" हैं । आलम ये है कि इन मासूमों की उम्र का अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है । गांव में दो से तीन साल तक के कई बच्चे हैं जो अब तक अपने पैरों पर चल भी नहीं पाते । गली - मोहल्ले में किलकारियां भरकर खेलने की उम्र के ये बच्चे अपनी मांओं के सीने से चिपके बेवजह रोते रहते हैं । टीम को गांव में ढूंढे से एक भी स्वस्थ बच्चा नहीं मिला । गांव के हालात देखकर ऎसा लगता था मानो यहां की महिलाएं कुपोषित बच्चे पैदा करने के लिए अभिशप्त हैं ।

आयोग की चाइल्ड स्पेशलिस्ट इलाके के सत्तर फ़ीसदी बच्चों को कुपोषित बताती हैं । वे हैरान हैं कि मुख्य मार्ग के नज़दीक बसे गांव में हर दूसरा बच्चा कुपोषण की पहली और दूसरी श्रेणी का कैसे हो सकता है ...? सरकारी दावे चाहे जो हों हकीकत से मीलों दूर हैं । वास्तविकता भयावह है और सरकारी आंकडों में दर्ज़ योजनाओं की सफ़लता की पोल - पट्टी खोल कर रख देती है । आंगनबाडी कार्यकर्ता , प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र , स्वयंसेवी संगठन ,यूनीसेफ़ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रयासों का कच्चा चिट्ठा हैं ये नौनिहाल ....।

प्रदेश में छह महीने पहले कुपोषण से मौतों का मामला गरमाया था । मीडिया में खबरें , विधान सभा में हंगामा , आरोप - प्रत्यारोप और कई जांच कमेटियां ....। इस सारी कवायद का नतीजा निकला शून्य । पुराना सब छोड भी दें पिछले छह महीनों में ही ईमानदारी दिखाई होती , तो हो सकता है जांच टीम को क्षेत्र का हर बच्चा हंसता -मुस्कराता तंदुरुस्त नज़र आता ।लेकिन हमारी रग - रग में बेईमानी समा चुकी है । एक राजा ने अपने राज्य में ईमानदारी की स्थिति का पता लगाने के लिए मुनादी करा दी कि सूखे तालाब में अमावस्या की रात सभी लोगों को अनिवार्य रुप से एक - एक लोटा दूध डालना होगा । अगले दिन सूरज उगने पर तालाब में पानी के सिवाय कुछ नहीं था । रात के अंधेरे में ईमान भी सो जाता है ।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक समिति ने वर्ष 2006 कहा था कि बच्चों की मृत्यु दर के मामले में मध्यप्रदेश के श्योपुर ज़िले की तुलना अफ़्रीका के सबसे ग़रीब और पिछड़े इलाकों से की जा सकती है । जाँच समिति ने पाया कि भुखमरी प्रभावित सबसे अधिक बच्चे सहरिया जनजाति के हैं । इलाके के हर 100 बच्चों में से 93 कुपोषण का शिकार हैं।

वर्ष 2007 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेताया था कि भारत में बच्चों के कुपोषण की दर दुनिया में सबसे अधिक है । मुख्यमंत्रियों को भेजे पत्र में मनमोहन सिंह ने कहा कि पोषण कार्यक्रम का 'क्रियान्वयन बेहद ख़राब तरीके' से किया जा रहा है। इसी तरह संयुक्त राष्ट्र बालकोष यानि यूनिसेफ़ की रिपोर्ट दक्षिण एशिया के बच्चों में कुपोषण की समस्या को रेखांकित करती है । रिपोर्ट के मुताबिक कुपोषित बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है ।

यूनिसेफ़ की रिपोर्ट कहती है कि पांच साल से कम के 25 प्रतिशत बच्चों के पास खाने को पर्याप्त भोजन नहीं है और दुखद तथ्य ये है कि ऐसे बच्चों में से 50 प्रतिशत बच्चे सिर्फ़ तीन देशों भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहते है । रिपोर्ट में भारत और चीन की तुलना की गई थी । इसमें कहा गया था कि बच्चों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने की दिशा में पिछले 15 वर्षों में चीन में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है जबकि भारत का प्रदर्शन अत्यंत ख़राब रहा है । रिपोर्ट में भारत में पांच साल से कम के आधे से अधिक बच्चों को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने पर भी चिंता जताई गई है ।

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

प्रेम के गुलाब और गुलाबी चड्डी का विवाद

लीजिये साहब , देश में सबसे गंभीर मुद्दे पर जमकर बहस शुरु हो चुकी है । लोग आमने -सामने हैं । भारत - पाक मसले पर चुप्पी लगाने वाले भी अब खुलकर सामने आ गये हैं । देश इस वक्त सबसे ज़रुरी मसले पर बहस - मुबाहिसे में मसरुफ़ है । मैंने तो अब तक चूहे और हाथी की चड्डी का किस्सा ही सुना था । एक ज़माना वो भी था जब सरेआम चड्डियां तार पर सुखाने पर भी पाबंदी थी । लेकिन अब दौर आज़ादी का हैं । लोग खाकी चड्डी से गुलाबी चड्डी तक पर विचार - विमर्श करने से नहीं चूक रहे ।

" जंगल - जंगल पता चला है चड्डी पहन कर फ़ूल खिला है ।” इस गीत ने चड्डी को एक नई पहचान दी । जिस शब्द को उच्चारते लोगों की ज़ुबान लटपटा जाती थी , उससे बचने के लिए ही पट्टेदार चड्डी को अंडरवियर पुकार कर हम गर्व महसूस करना सीखे । ये चड्डी शब्द के प्रति हमारी हिकारत ही थी , जो "खाकी चड्डी" अपशब्द की तरह इस्तेमाल होने लगा । आज वही चड्डी फ़िर से नए विचार के साथ हमारे बीच है । कहने वाले कह सकते हैं "गुलाबी चड्डी विरोध अभियान नहीं एक विचार है ।"

वास्तव में ये भारत बनाम इंडिया का मसला है । वहां चड्डियां छिपाई जाती हैं यहां चड्डियां दिखाई जाती हैं। गनीमत समझो श्रीराम सेना वालों , जो इन आंदोलनकारियों की बुद्धि भगवान ने फ़ेर दी और आप सबकी इज़्ज़त धूल में मिलने से बच गई । हो सकता था ये लोग गुलाबी चड्डियां गिफ़्ट करने की बजाय खुद धारण कर विरोध जुलूस निकालने पर आमादा हो जाती और विभिन्न सेनाओं के बांकुरों के सामने आ धमकतीं ....। तब क्या होता ....??????

भई वेलेंटाइन डे मनाने दो, इन बेचारियों को ....। आखिर बुराई ही क्या है.......? देश में दो तरह के नागरिक हैं । हिन्दुस्तानी और इंडियन ,अब इंडियन कुछ करना चाहते हैं , तो हिंदुस्तानियों को क्या परेशानी । वो चड्डी गिफ़्ट करें, हवा में उछालें , जला डालें , पहनें या .......। आपकी बला से ।

पूरा देश गुलाबी चड्डियों में उलझ कर रह गया है । जो गिफ़्ट के बक्से सजा रहे हैं ,वो तमतमा रहे हैं । खबरिया चैनल आने वाले कई दिनों का रसद पानी पाकर गुलाबी हुए जा रहे हैं । हम जैसे बुद्धू "चड्डी पुराण" सुन - सुन कर ही मारे शर्म के लाल नहीं "गुलाबी" हुए जा रहे हैं । भई क्या करें , लाल होने की इजाज़त इस वक्त किसी को नहीं है । इस वक्त देश का एकमात्र रंग - गुलाबी.....। इसलिए दुनिया की हर शह गुलाबी ..... , गाल गुलाबी , नैन गुलाबी .......।

हाल ही में पब कल्चर पर एक आलेख हाथ लगा । उसकी मानें तो पब और झुग्गी - बस्ती की कलारी में ज़्यादा फ़र्क नहीं है । कलारी पर दिन भर मेहनत मशक्कत के बाद थक कर चूर हुए मज़दूर देशी ठर्रा हलक से नीचे उतार कर सारी दुनिया को भूल जाना चाहते हैं । सस्ती शराब बेचने वाली कलारियों को मालिक वर्ग जान बूझकर प्रोत्साहित करता रहा है , ताकि कारखानों और निर्माण कार्यों में हाडतोड परिश्रम के बाद मज़दूर अपनी ज़िंदगी को नशे में गर्क कर सके । काम के दौरान उपजे मनोविकारों और अपनी ज़िन्दगी के अभावों को भुला सके । होश में आने के बाद एक बार फ़िर जोश के साथ काम में जुट जाए । पब में जाने वाले भी बौद्धिक कामगार होते हैं ।

औद्योगिक विकास का "पब कल्चर और शराब खानों" से सीधा संबंध है और इसका सीधा असर उत्पादकता पर पडता है । नई अर्थव्यवस्था के हिमायती पब कल्चर को बदलते भारत की तस्वीर के तौर पर देखते हैं । उनकी निगाह में सार्वजनिक रुप से महिलाओं का शराब पीना या स्त्री - पुरुषों का देर रात तक साथ साथ मौज - मस्ती करना समाज में आ रहे खुलेपन की निशानी है ।

वे नैतिक मूल्यों और पुरानी मर्यादा को गैरज़रुरी बताते हुए दलील देते हैं कि अगर काल सेंटर [बीपीओ]सेक्टर के उछाल को कायम रखना है , अगर श्रम शक्ति में महिलाओं को बराबर का भागीदार बनाना है , यदि उत्पादकता बढाने के लिए दफ़्तरों और शोरुम्स में महिलाओं का रात में काम करना ज़रुरी है , तो समाज को महिलाओं के लिए ’नाइट लाइफ़’ की गुंजाइश निकालना ही होगी । जो लोग पूरे हफ़्ते जम कर काम करेंगे , उनके लिए अगर वीक एंड पर विशेष आमोद - प्रमोद का इंतज़ाम नहीं होगा तो वे उसी गति और ऊर्जा के साथ काम नहीं कर पाएंगे ।
अपने को संभालो मित्र !
अभी ये कराहें और तीखी
ये धुआं और कडुवा
ये गडगडाहट और तेज़ होंगी ,
मगर इनसे भयभीत होने की ज़रुरत नहीं,
दिन निकलने से पहले ऎसा ही हुआ करता है ।

चलते - चलते एक और जानकारी -

वैसे ये खबर काबिले गौर है संत वेलेंटाइन के शहादत दिवस को प्रेम दिवस के रुप में मनाने वालों के लिए । पिछले साल सऊदी अरब की धार्मिक पुलिस ने प्रेमियों के त्यौहार वैलेंटाइन्स डे से पहले देश में लाल गुलाबों समेत सभी अन्य तरह के वैलेंटाइन्स उपहारों की ख़रीद और बिक्री पर रोक लगा दी थी । स्थानीय अख़बार ने दुकानदारों के हवाले से लिखा कि अधिकारियों ने उन्हें प्रेम के प्रतीक लाल गुलाब और उपहारों को लपेटने के कागज़ समेत लाल रंग के सभी सामान को हटाने को कहा । सऊदी अधिकारी के मुताबिक दूसरे सालाना जलसों की ही तरह वैलेंटाइन्स डे भी इस्लाम विरोधी है । अधिकारियों का यह भी मानना है कि वैलेंटाइन्स डे पुरुष और महिलाओं के विवाहेतर संबंधों को बढ़ावा देता है जो इस संकीर्ण समाज में माफ़ी के काबिल नहीं है ।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

देश को ’राम’ नहीं रोटी चाहिए.......

लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर राम मुद्दे को हवा दी है नागपुर में राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर बनाने का शिगूफ़ा छोड कर मतदाताओं की नब्ज़ टटोलने की कोशिश की है । " कोई माँ का लाल भगवान राम में हमारी आस्था और निष्ठा को डिगा नहीं सकता "
राजनाथ सिंह ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार पर निशाना साधा कि पिछले पांच सालों में केंद्र सरकार ने राम जन्मभूमि विवाद सुलझाने के लिए पाँच मिनट का समय भी नहीं दिया । राजनाथ सिंह ने बडी ही चतुराई भरी चाल चली है । शब्दों पर गौर करें तो लगेगा कि उन्होंने काफ़ी सफ़ाई से मतदाताओं को भरमाने की कोशिश की है । बकौल राजनाथ "जिस दिन भाजपा को अपने बलबूते बहुमत मिलेगा, पार्टी इस मुद्दे पर एक क़ानून लाएगी ।" यानी ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी ।

मंदी की मार से बेहाल लोगों को रोज़गार के लाले पडे हैं और बीजेपी को कुर्सी की चाहत में राम याद आने लगे हैं । लोगों के मुंह से निवाले छिन रहे हैं और देश की दूसरी सबसे बडी पार्टी भव्य राम मंदिर बनाने का सपना जनता की आंखों में भर रही है । गरीब की दो वक्त की रोटी का जुगाड नहीं है और धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं को अपनी झोली में समेटने की जुगत भिडाई जा रही है । सही मायनों में इस देश को राम की नहीं रोज़ी की दरकार है ,रोटी की ज़रुरत है -"भूखे भजन ना होवे गोपाला , ये ले तेरी कंठी - माला ।" भूखे पेट राम नहीं रोटी याद आती है । गरीब के लिए ’राम’ रोटी में बसते हैं । अगर लोगों को रोटी देने का प्रबंध कर दिया जाए , तो भी बीजेपी को ’राम’ मिल ही जाएंगे ।

गौरतलब है कि 1998 में भारतीय जनता पार्टी ने जब केंद्र में अन्य पार्टियों के सहयोग से सरकार बनाई थी, उस समय उसने अयोध्या, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और समान आचार संहिता जैसे विवादित मुद्दों को दरकिनार कर दिया था । लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी ने एक बार फिर राम मुद्दे पर बयान देना शुरू किया है । राम मंदिर के निर्माण का मामला विवादास्पद रहा है और हर बार चुनावों के समय विवाद गहरा जाता है । दिलचस्प बात है कि अयोध्या के ज़्यादातर मतदाताओं की नज़र में चुनाव का मुख्य मुद्दा 'विकास' है, न कि 'मंदिर निर्माण' । राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि दरअसल अयोध्या का आम आदमी मंदिर मुद्दे से कभी जुड़ ही नहीं पाया ।

अयोध्या के साधु-संतों ने भी भाजपा नेताओं को जमकर लताडा है । वे मानते हैं कि चुनाव के वक्त भाजपा को राम मंदिर याद आने लगता है । लेकिन सत्ता में आने के बाद मंदिर तो दूर राम भी याद नहीं रहते । हनुमान गढ़ी के महंत भवनाथ दास ने तो नागपुर में राम मंदिर की बात करने वालों को "वोटों का सौंदागर" तक करार दे डाला । गुस्साये महंत कहते हैं कि वोटों के लिए अब ये भगवान श्रीराम का भी सौदा करने निकले हैं। अब चुनाव आते ही भगवान राम के नाम पर राजनैतिक सौदेबाजी में जुट गए हैं। इन्हीं लोगों के कारण मंदिर निर्माण का मुद्दा हाशिए पर चला गया। सत्ता में थे तो अयोध्या झांकने तक नहीं आए। अब सत्ता की चाहत में मंदिर के नाम पर ठगने आ रहे हैं।

राम लहर पर सवार होकर केन्द्र की सत्ता में आ चुकी भारतीय जनता पार्टी को रह-रहकर सत्ता सुंदरी की याद सताने लगाती है । ऎसे में रह - रह कर याद आते हैं भगवान श्रीराम और उनका भव्य मंदिर । उत्तर प्रदेश में सबसे बुरी स्थिति में भाजपा ही है। जिसे देखते हुए संभवत: पार्टी ने एक बार फिर मंदिर का मुद्दा उठाया है। पर यह मुद्दा न राजनैतिक दलों को रास आ रहा है , न ही साधु-संतों और आम जनता को । राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास ने कहा-यह तो राजनैतिक बयान है। अयोध्या में राम का मंदिर तो है ही और पूजा भी हो रही है। भव्य राम मंदिर बनने की बात का अब कोई महत्व नहीं रह गया है। जब हिन्दू मानस जगेगा तो भव्य राम मंदिर का निर्माण हो ही जाएगा।

सरयू कुंज मंदिर के महंत युगल किशोर शरण शास्त्री ने कहा-राजनाथ सिंह का यह बयान भ्रमित करने वाला और धोखा देने वाला है। यह अदालत की अवमानना भी है। पार्टी असली मुद्दों बेरोजगारी, गरीबी और किसानों की उपजाऊ जमीन के अधिग्रहण को लेकर कभी आगे नहीं आती।

दूसरी ओर अयोध्या की हनुमान गढ़ी के महंत ज्ञान दास भावुक हो कर कहते हैं कि उन्हें ख़ून से सना नहीं , बल्कि दूध से बना मंदिर चाहिए । मंदिर आम राय से बने तभी उचित होगा । मुसलिम समुदाय की सहमति से निर्माण हो तभी भव्य मंदिर बन पाएगा। किसी को भी दुखी करके बनाए गए पूजा स्थल में ईश्वर का वास नहीं हो सकता ।

भाकपा बीजेपी के इस बयान में वोटों की सियासत देखती है । उसका कहना है कि इस पार्टी के पास देश के विकास का कोई माडल नहीं है । ये लोग अपने फ़ायदे के लिए राम का नाम बदनाम करने में जुटे हैं।

देश इस समय एक साथ कई तरह के संकटों से दो - चार हो रहा है । ऎसे वक्त में नई और व्यापक सोच की आवश्यकता है , जो ना केवल देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सके ,बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों में वैमनस्य की खाई को पाट सके । प्रजातंत्र की नींव को मज़बूत करने के लिए भ्रष्टाचार जैसी लाइलाज बीमारी का इलाज ढूंढना ज़रुरी है ।

लोगों का भरोसा न्यायपालिका ,कार्यपालिका और विधायिका से जिस तेज़ी से उठ रहा है ,ये भी बेहद चिंता का विषय है । इस विश्वास को दोबारा कायम करना चुनौती भरा और दुरुह काम है । राजनीतिक दलों की पहली चिंता देश हित होना चाहिए । देश के नागरिकों की खुशहाली , सुशासन और ईमानदार समाज पार्टियों का एजेंडा होना चाहिए । नेताओं को ये याद रखना होगा कि देश है तभी तक उनकी सियासत है ।