मंगलवार, 30 सितंबर 2008

गरबा बनाम आस्था का बाज़ार


आज से नवरात्र शुरु हो गये । शक्ति की आराधना का पर्व रफ़्ता -रफ़्ता पूरी तरह बाज़ार की गिरफ़्त में आ चुका है । महीनों पहले से गरबा क्लास में पसीना बहा रहे युवाओं की इंतज़ार की घडियां आखिर अब जा कर खत्म हुईं । महानगरों और छोटे -बडे शहरों को लांघते हुए गरबे का क्रेज़ अब कस्बे के किशोरों और युवाओं को भी दीवाना बना रहा है ।
दुर्गा पूजा पर अब बाज़ार का रंग पूरी चढ चुका है । विशालकाय पूजा पंडालों में देवी मां की प्रतिमा नहीं झांकी की साज सज्जा को खास तरजीह दी जाती है । पंडालों में हर जगह कंपनियों के बैनर ,पोस्टर और स्टाल कुछ इस तरह सजे होते हैं कि लोग का मन दुर्गा मां की भक्ति में की बजाय आधुनिक सुख -सुविधाओं को हासिल करने के सपने बुनने में लग जाता है ।
खबरिया चैनलों के ज़रिए तैयार किए गए भक्तों के सैलाब को घेर कर पूजा पंडालों तक लाने का टारगेट तो अब पूरा हो चुका है । इस लिए कार्पोरेट जगत ने आस्था के बढते बाज़ार को हथियाने के लिये नवरात्र पर्व को अपनी गिरफ़्त में लेने के लिए कमर कस ली है । हफ़्तों से गरबे के लिए चनिया -चोली और मैचिंग के गहनों को हासिल करने की होड के समाचार ना सिर्फ़ न्यूज़ चैनल बल्कि अखबारों में भी खूब जगह पा रहे हैं । और पाएं भी क्यों नहीं , आखिर हर मीडिया घराना किसी न किसी रुप में इस उभरते बाज़ार का हिस्सेदार जो ठहरा ...।
लोगों का शक्ति की उपासना में डूब जाना शुभ संकेत है । आस्थावान होना , परम सत्ता में विश्वास करना किसी के लिए भी चिंता का सबब बने , ऎसी तो कोई वजह नज़र नहीं आती , मगर ज़रा सा गौर करने पर हालाते हाज़रा खुद ब खुद हकीकत बयान करने लगते हैं । आंकडों की ज़बानी आस्था की कहानी जब बयान होती है , तो समझते देर नहीं लगती कि दुर्गा पूजा तो इक बहाना है , दरअसल आपको हर हाल में बाज़ार तक लाना है ।

गरबा जो गुजरात की संस्क्रति का प्रतीक है ,वह व्यावसायिकता के जंजाल में उलझ कर अपने मूल स्वरुप को ही खोता जा रहा है । कभी देवी जगदम्बा को प्रसन्न करने के लिए गरबा किया जाता था ,लेकिन अब इसका आध्यात्मिक त्तत्व पूरी तरह नदारद हो चुका है । आराधना और भक्ति की जगह ले ली है फ़ूहडता ने । गरबा के ज़रिए अब मां अम्बा के चरणों में जगह पाने की इच्छा तो शायद ही किसी सिरफ़िरे की हो ,ज़्यादातर युवाओं के लिए ये मीटिंग पाइंट से अधिक नहीं है । नवरात्र युवाओं के लिए ऎसा मौका बन चुका है जो उन्हें देर रात तक बेरोकटॊक आज़ादी देता है । कई लोगों के लिए ये प्रेमालाप के ठिकाने हैं तो कुछ ने गरबे की धूम को अय्याशी का अड्डा समझ लिया है । हो भी क्यों नहीं ,साल के ३६५ दिनों में से ये ९ दिन ही तो हैं जब मां-बाप खुद बच्चो गरबा खेलने की आज़ादी देते हैं । आधुनिकता की दौड में पिछड जाने का डर जो ना कराए सो कम .........., आखिर अभिभावकों की भी मजबूरी है ..........?

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

शर्म हमको मगर नहीं आती




मध्य प्रदेश की सेहत इन दिनों काफ़ी खराब है इतनी ज़्यादा कि नौनिहालों का पेट भी नहीं भर पा रहा मज़बूत भविष्य का भरोसा दिला कर एक बार फ़िर सत्ता पर कब्ज़ा जमाने की जुगाड में लगी बीजेपी कार्यकर्ता महाकुंभ के ज़रिए शक्ति प्रदर्शन में लगी है वहीं दूसरे राजनीतिक दल बयानबाज़ी में मशगूल हैं



प्रदेश के सतना , छिंदवाडा , ग्वालियर ,इंदौर , धार और झाबुआ ज़िले में हालात बेकाबू हो चुके हैं पोषण आहार के अभाव में बच्चे कुपोषण का शिकार हो कर असमय ही मौत के आगोश में समा रहे हैं बच्चों को स्वस्थ रखना तो दूर सरकार इन कुपोषित बच्चों के इलाज का इंतज़ाम करने में भी नाकाम रही है

प्रदेश में बाल कल्याण और स्वास्थय सेवाओं का हाल इस कदर बिगड चुका है कि ऎन राजधानी में सरकार की नाक के नीचे ४० कुपोषित बच्चों को स्टाफ़ की कमी का रोना रोकर हमीदिया अस्पताल में दाखिल करने से इंकार कर दिया गया जब राजधानी के सूरते हाल इस कदर बिगड गये हैं तो दूर -दराज़ के इलाकों के हालात का अंदाज़ा लगा पाना कोई मुश्किल काम नहीं

इससे भी ज़्यादा गंभीर बात ये है कि सरकार ये मानने को तैयार ही नहीं कि कोई बच्चा कुपोषण का शिकार बना है अपनी खामियों पर पर्दा डालने में जुटे मंत्री इसे मौसमी बीमारी का नाम देकर अपना पल्ला झाड्ने की कोशिश में लगे है बेशर्मी की हद तो तब हो गई , जब एक मंत्री ने सतना में ४० और खंडवा में ५३ बच्चों की मौत को वायरल फ़ीवर और उल्टी - दस्त का मामला बता कर सरकार के नाकारापन को उजागर कर दिया


गरीबों की हितैषी होने का दम भरने वाली सरकार ने बच्चों की जान बचाने के लिए कोई कदम उठाने की बजाय मामले की लीपापोती की कवायद शुरु कर दी है अफ़सोसनाक है कि अपनी नाकामी छुपाने के लिए जनता के नुमाइंदों ने गरीब आदिवासियों को अंधविश्वासी बताने से भी गुरेज़ नहीं किया मंत्री जी ने राजधानी में पत्रकारों का मजमा जुटाकर फ़रमाया कि खंडवा के खालवा ब्लाक के कोरकू और सतना के कोल जनजाति के लोग इलाज के लिए आज भी झाड -फ़ूंक का सहारा लेते हैं और ये ही बच्चों की मौत की असली वजह है


ये तथ्य भी कम हैरान करने वाला नहीं कि किसी पत्रकार ने आखिर मंत्रीजी से ये जानने की ज़हमत क्यों नहीं उठाई कि बुढा चुके देश में यदि अंधविश्वास की जडें मज़बूत बनी हुई हैं , तो जवाबदेही किसकी बनती है ...? किसी खबरनवीस ने ये सवाल खडा क्यों नहीं किया कि आखिर वो आंकडे कहां हैं जो मंत्रीजी के बयान को सही ठहरा सकें मौसमी बुखार हाल के दिनों में प्रदेश में इस हद तक जानलेवा कब और कैसे हुआ और सरकार अंजान ही रही ...? ऎसे मुद्दे जब भी सामने आते हैं ,सरकार के साथ -साथ पत्रकारों की भूंमिका भी संदेह के दायरे में जाती है सरकारी कामकाज पर नकेल कसने वाला तबका ही उसके साथ गलबहियां करने लगे तो इसे क्या नाम दें ?

रविवार, 21 सितंबर 2008

बाज़ार का गणित



तेज़ी से सफ़लता की पायदान लांघने का दावा करने वाला भोपाल का एक अखबार यूं तो हमेशा ही चर्चा में बना रहता है ,लेकिन इन दिनों एक खास तरह की खबर के लिए बहस का सबब बना हुआ है । भारतीय परंपराओं और शास्त्रों की नई व्याख्या के ज़रिए लोगों को बाज़ार की राह पकडने के लिए उकसाने के लिए अखबार ने पत्रकारिता के सभी मानदंडों को ताक पर
रख
दिया । उपभोक्तावाद
की तेज़ी से फ़ैलती पश्चिमी जीवन शैली को भारतीय जामा पहनाने के लिए अखबार ने पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों का भी जमकर मखौल उडाया है । देश में अखबार , रेडियो और विद्वानों के मत पर आज भी लोगों का पूरा भरोसा है । ऎसे लोगों की देश में कोई कमी नहीं है ,जो अखबार और ज्योतिष विद्वानों की कही बातों को ब्रह्म वाक्य से कम नहीं मानते हैं ।

कुछ दशक पहले तक बच्चे साइंस की किताब में पढते थे कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है लेकिन बदले दौर में ये जुमला उलट गया है । बाज़ार सामान से अटा पडा है और संचार माध्यमों ने उपभोक्ताओं को बाज़ार की ओर ठेलने का ज़िम्मा सम्हाल लिया है । सामाजिक सरोकारों से दूर हो चुकी पत्रकारिता बाज़ार के हाथॊ का खिलौना बन कर रह गई है । बाज़ार का अर्थशास्त्र लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के हर फ़ैसले में घुसपैठ कर चुका है ।

खैर , बात हो रही थी भरोसे की । तो आज सामाजिक सरोकारों से जुडी एक संस्था " दृष्टि " ने भोपाल में विचार गोष्ठी का आयोजन किया जिसके केन्द्र में था वो खबरनुमा इश्तेहार जो श्राद्ध
पक्ष में खरीददारी को शास्त्र सम्मत बताते हुए १६ दिनों में हर रोज़ अलग -अलग सामान खरीदने के शुभ मुहूर्त की जानकारी से भरा था ।


मज़े की बात ये है कि समाचार में जिन ज्योतिषाचार्य का हवाला दिया गया था वो ही कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे और जो खुलासा उन्होंने किया वह काफ़ी चौंकाने वाला था । उन्होंने दावा किया कि अखबार में उनके हवाले से छापी गई जानकारी का कोई आधार ही नहीं है ,क्योंकि समाचार पत्र ने इस बारे में उनसे कोई बात ही नहीं की । उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि वे पितृ पक्ष में खरीददारी के हिमायती कतई नहीं है ।

सवाल ये है कि समाचार पत्र अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहा वहां तक तो फ़िर भी माना जा सकता है कि व्यावसायिक मजबूरियां कई बार ऎसा करा देती हैं । पितृ पक्ष की परंपराओं को उचित ठहराना या उनको व्यवहार में लाना एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है , लेकिन किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के नाम का इस्तेमाल कर समाज में भ्रामक प्रचार करना कहां तक जायज़ है ? चिंता इस बात की भी है कि बाज़ार का गुणा - भाग कहीं लोगों की ज़िंदगी का गणित ना बिगाड दे ...।

शनिवार, 20 सितंबर 2008

शायद कोई मंज़र बदले




आतंकवादियों के साथ दिलेरी से मुकाबला करते हुए शहीद हुए मोहनचंद्र शर्मा का पार्थिव शरीर आज पंचतत्व में विलीन हो गया दिल्ली पुलिस के इस जांबाज़ की चिता की आग तो एक - दो दिन में शांत हो जाएगी लेकिन ये शहादत अपने पीछे कई सुलगते सवालात भी छोड गई है मीडिया में आज दिन भर श्री शर्मा की बहादुरी की खूब चर्चा रही ,लेकिन इस घटना ने मन में अजीब सी चुभन भी भर दी कि आखिर ये कुर्बानियां किसके लिए .....? क्यों दी जाएं ...?और आखिर कब तक ....?

मेरे एक मित्र इस मौके पर सेना में शामिल होकर दॆश के लिए अपनी सेवाएं नहीं दे पाने का अफ़सोस ज़ाहिर कर रहे थे देश के प्रति कुछ कर गुज़रने का ये जज़्बा काबिले तारीफ़ तो है लेकिन प्रश्न ये उठता है कि उद्योगपतियों और अधिकारियों की मदद से देश के खज़ाने को लूटकर अपनी तिजोरियां भरने वाले मदहोश नेताओं की स्वार्थ पूर्ति के लिए जान देने के क्या मायने ...?

देश में वोट बैंक को कब्ज़ाने की राजनीति इस हद तक पहुंच चुकी है कि लालू -मुलायम -पासवान जैसे नेता अल्पसंख्यकों को बरगला कर देश की सुरक्शा को भी दांव पर लगाने से नहीं चूक रहे देश के लगभग सभी हिस्सों में आज आम जनता का खून सड्कों पर पानी की तरह बह रहा है और सभी राजनीतिक दल अपने वोट बैंक को मज़बूत करने के गुणा भाग में लगे हैं

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पदक लेने पहुंची सेना के एक शहीद अधिकारी की पत्नी का करुण विलाप ह्र्दय को छलनी कर गया देश के लिए जान देने वाले बहादुर जवानों के परिजनों पर क्या गुज़रती होगी , जब वे उन्के परिवर के सदस्यों की कुर्बानी को यूं ही ज़ाया होते देखते होंगे

सीमापार से रहे आतंकवाद का नाम ले- लेकर पाकिस्तान को कोसने वाले नेताओं का देश की आंतरिक सुरक्शा पर हो रहे सीधे हमलों की तरफ़ से आंखें मूंद लेना खौफ़ज़दा करता है आंकडे बताते हैं कि सीमा की हिफ़ाज़त के लिए अब तक जितने जवान शाहीद हुए हैं ,उससे कई गुना ज़्यादा देश के भीतर हो रहे आतंकवादी हमलों में आम लोग और सेना तथा पुलिस के जवानों की जानें गई हैं

देश के मौजूदा हालात ऎसे हो चुके हैं कि आपस में लड रहे इन नेताओं से किसी तरह की उम्मीद लगाने से बेहतर है कि प्रजातत्र के सूत्रधार यानी आम जनता को आगे आना होगा

दो चार कदम हर रस्ता,पहले मुश्किल लगता है ,
शायद कोई मंज़र बदले , कुछ दूर तो चल कर देखें

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

मैं टल्ली हो गई ...


और अब इंसानों के बाद मयखाने की राह पकडी है तितलियॊं ने , चंडीगढ की अमीर घरों की शहज़ादियों से सबक लेकर अब भोपाल की रंगबिरंगी तितलियों ने भी टल्ली होने की ठान ली है । और उनके इस शौक को पूरा करने का ज़िम्मा सम्हाला है वन विभाग ने ।
वन विहार में इन दिनों तितलियों को रिझाने के लिए शराब का सहारा लिया जा रहा है । तितलियों की तादाद बढाने के लिये किए जा रहे इस प्रयोग में रम के साथ केले और शहद का भी इस्तेमाल किया जा रहा है । प्रबंधन का कहना है कि प्रयोग के उत्साह्जनक नतीजे आने की उम्मीद है ।
लेकिन तितलियों की ब्रीडिंग्के लिए अपनाई जा रही इस अप्राक्रतिक तरीके ने कुछ बातों पर एक बार फ़िर से गौर करने की ओर इशारा भी किया है । नेचर के साथ खिलवाड के कारण पैदा हुई समस्याओं का समाधान भी अगर हम इसी तरह तात्कालिक तौर पर ही ढूंढ्ते रहे , तो ये छोटी समस्याएं एक दिन विकराल रुप लेकर हमारे सामने खडी होंगी ।
विश्व भर में पशु- पख्हियों की प्रजातियां बडी तेज़ी से खत्म होती जा रही हैं । बर्ड लाइफ़ इंटरनेशनल के मुताबिक पक्शियों की प्रजातियों का १२ प्रतिशात हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा ,यानी करीब १२१२ प्रजातियॊं के सर पर खतरा मंडरा रहा है । धरती पर जीवन को कायम रखने में योगदान देने वाले जीव -जंन्तुओं की सारी प्रजातियां जीवन चक्र की महत्वपूर्ण कडियां हैं । इस जंज़ीर की कोई एक कडी भी बीच से टूट जाए तो एक तरह से पूरी चेन बेकार हो जाती है । एक प्रजाति के विलुप्त होने से बहुत सी दूसरी प्रजातियां सीधे तौर पर प्रभावित होती हैं ।
विश्व में कई जगहों पर खास किस्म के पक्शियों के विलुप्त होने से बागवानी पर असर पडा है । पेडों और जंगल के सफ़ाए से चिडियां ,कीट - पतंगों और मधुमक्खियों का अस्तित्व ही खतरे में पड गया है ।
वर्ष १९९७ में भारत में गिद्धों की जनसंख्या में भारी कमी हो गई ,जिससे मरे हुए जानवरों को खा कर सफ़ाई करने के काम में हो रही देरी का फ़ायदा आवारा कुत्तों ने जम कर उठाया । नतीजतन कुत्तों और चूहों की तादाद बेतहाशा बढने लगी । पर्यावरण पर काम कर रही वाशिंगटन की संस्था वर्ल्ड वाच के अनुसार भारत में बौराए कुत्तों के शिकार लोगों की संख्या तेज़ी से बढ रही है ।
ये चेतावनी है ,हम सबके लिए कि प्रक्र्ति से छेड्छाड किसी भी कीमत पर जायज़ नहीं । वरना सडकों पर झूमती तितलियां गाती नज़र आयेंगी ....मैं टल्ली हो गई ।

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

किले का निजीकरण

मध्यप्रदेश के नरसिंह्गढ का परमारकालीन किला जो कभी हमारी धरोहर थी ,विरासत मानी जाती थी , उसे अब निजी हाथों के हवाले कर दिया गया है । मालवा के कश्मीर के नाम से शोहरत हासिल करने वाले नरसिंह्गढ के किले को सजाने -संवारने का जिम्मा डेनमार्क की कंपनी को सौंपा गया है । देश -विदेश के सैलानियों की खातिरदारी के लिए विदेशी कंपनी को साझॆदार बनाया गया है । कंपनी ने किले को १४ करोड रुपए में खरीद लिया है और यहां जल्दी ही हेरिटेज होटल शुरु करने जा रही है । इस किले को १७ शताब्दी में परमार शासकों ने बनवाया था । फ़िलहाल यह राजपरिवार के पास था । लेकिन हेरिटेज योजना के तहत प्रदेश की जर्जर हो चुकी ऎतिहासिक इमारतों को नए रुप और नए कलेवर के साथ सैलानियों के सामने पेश करने की पर्यटन निगम की अनूठी पहल ने नरसिंहगढ के किले के दिन फ़ेर दिए हैं । किले के आसपास का इलाका पर्यटन निगम संवारेगा और कंपनी पांच सौ करोड रुपए की लागत से होटल बनाएगी । किले के आसपास करीब ५२ एकड में यह प्रोजेक्ट आकार लेगा । पर्यटन निगम के प्रबंध निदेशक को उम्मीद है कि अगले साल तक नरसिंहगढ पर्यटकों के बेहतरीन ठिकाने के तौर पर तैयार होगा । चारों तरफ़ फ़ैले जंगलों के कारण यह इलाका प्रक्रति प्रेमियों को भी खूब लुभाता है ।





शनिवार, 13 सितंबर 2008

गणपति बप्पा मोरिया

गणपति बप्पा मोरिया , अगले बरस तू जल्दी आ।
गणेश विसर्जन का वक्त आ चला है । दस दिन हमारे घरों में मेहमान रहने के बाद अब अगले वर्ष आने के वायदे के साथ गणनायक अब बिदाई ले लेंगे । लेकिन क्या विघ्नहर्ता श्रीगणेश इस भरोसे के साथ बिदा हो सकेगे कि वे इस वसुंधरा और समूची मानव जाति को जिस हाल में फ़िलहाल छोडकर जा रहे हैं क्या वे धरती को अगले साल भी उसी रुप में देख सकेंगे । पूरी दुनिया आतंकवाद के साये तले डर -डर कर जीने के लिऎ मजबूर है । विश्व को ग्लोबल विलेज कहने वाले लोग बाज़ारवाद की गिरफ़्त में आकर पूजा पंडालों को हाईटेक बनाने , स्पांसर तलाश कर भगवान की भक्ति के नाम पर ज़्यादा से ज़्यादा धन कमाने मॆं लग गये हैं । क्या भक्ति के बाज़ारीकरण को रोकने और ईश्वर के सही मायने तलाश्ने के लिए श्रीगणेश हम सभी को सदबुद्धि का वरदान देकर जायेंगे या फ़िर ............
गणपति बप्पा मोरिया , होने दे जो हो रिया ।