बुधवार, 17 दिसंबर 2008

राष्ट्र चिंतन पर सांप्रदायिकता का कलंक

सरस्वती शिशु मंदिरों में पढाए जा रहे पाठ्यक्रम को केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय सांप्रदायिक करार देने पर तुला है । हाल ही में एक कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में मंत्रालय की पेशकश का ही समर्थन किया है । सरसरी तौर पर लगता है वाकई इन स्कूलों में समाज में वैमनस्य फ़ैलाने का काम बडे पैमाने पर हो रहा है ।

हकीकत इससे एकदम उलट है । ये बात दावे के साथ मैं इस लिए कह सकती हूं क्योंकि मैंने भी सरस्वती शिशु मंदिर में ही पढाई की । हालांकि ये भी सच है कि इन शिक्षा संस्थानों में बहुत ही गैरज़रुरी और गैरकानूनी काम होता है वो है राष्ट्र भक्ति की भावना जगाना और उसे पल्लवित -पुष्पित करने के लिए उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना । रानी लक्ष्मीबाई , चेल्लम्मा , रानी दुर्गावती , आज़ाद , भगतसिंह ,रामप्रसाद बिस्मिल जैसे राष्ट्र्भक्तों के जीवन चरित्र पर आधारित पाठ कभी चरित्र निर्माण के लिए पढाए जाते थे । लेकिन अब वीर रस के राष्ट्र भक्तिपूर्ण गीत सांप्रदायिकता की श्रेणी में डाल दिए गये हैं ।

बदले माहौल में कई मर्तबा लगता है कि ये सब कुछ फ़िज़ूल है । ठोक -बजा कर दिलो दिमाग में भरे गये संस्कारों का अब कोई मोल ही नहीं रहा , इनके अनमोल होने की कौन कहे ...? सच तो ये है कि जब राष्ट्र के तौर पर हमारा कोई चरित्र ही नहीं बचा , राष्ट्र प्रेम की ज़रुरत ही कहां रही .....?

खैर , आज बात वैदिक ज्ञान की ओर विदेशियों के बढते रुझान की । देश में आज माहौल ऎसा हो गया है कि धार्मिक ग्रंथ संप्रदाय विशेष की मिल्कियत बन कर रह गये हैं , जबकि दूसरे मुल्क इन्हीं ग्रंथों को आधार बना कर पाठ्यक्रम तैयार कर रहे हैं । भारत में भले ही वैदिक पाठ्यक्रम का विरोध होता हो , लेकिन अमेरिका के न्यू जर्सी में 1856 में स्थापित स्वायत्त कैथोलिक सेटन हाल यूनिवर्सिटी में सभी छात्रों के लिए गीता पढना ज़रुरी कर दिया गया है । दुनिया में अपनी तरह का यह पहला निर्णय है । यहां ये जानना दिलचस्प होगा कि विश्वविद्यालय में लगभग तीन चौथाई छात्र ईसाई हैं ।

इधर ’हकीकी गीता’ के रुप में गीता का उर्दू अनुवाद तैयार करने वाले जाने माने शायर मुनीर बख्श ’आलम’ गीता को इंसानी बिरादरी की शरीयत बताते हैं । वे कहते हैं कि यह किसी खास ज़ात या धर्म की किताब नहीं है । गीता को सबसे बडा धर्म शास्त्र बताने वाले मुनीर बख्श कहते हैं " वेद , कुरान ,बाइबल सभी का चिंतन इसमें मौजूद है । राजनीति की उठापटक से बेज़ार और नाउम्मीद हो चुके बख्श साहब ईश्वर से कुछ इस अंदाज़ में दुआ मांगते हैं ........
कश्मकश में है वक्त का अर्जुन
इनको गीता का ज्ञान दे मौला ।

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

इस बार रोटी के पडेंगे लाले .......


देश भर में फ़ैली मालवी गेंहू की खुशबू इस बार मालवा के लोगों को ही मिल जाए तो बहुत बडी बात होगी । कम बरसात के कारण आधे से ज़्यादा खेतों में गेंहू की बुवाई ही नहीं हो पाई है । कुछ लोगों ने कम पानी वाली किस्मों की बोवनी की हिम्मत जुटाई है ,लेकिन उनमें मालवी गेंहू की वो खासियत कहाँ....?

’पग - पग रोटी . डग - डग नीर’ के लिए मशहूर मालव प्रदेश की धरती का आंचल सूख चुका है । प्यासी धरा से लोगों का पेट भरने लायक अनाज की उम्मीद भी दिन पर दिन फ़ीकी पडती जा रही है । मालवा में किसानों ने करीब 21 हज़ार हैक्टेयर में गेंहू की बनिस्बत 45, 600 हेक्टेयर में चना बोया है । कम पानी की दरकार के कारण किसानों को चने की फ़सल फ़ायदेमंद लग रही है । जल्दी ही इस समस्या से निपटने के उपाय नहीं तलाशे गये , तो गृहिणियों को पाक कला के नए गुर सीखना होंगे । आने वाले वक्त में गेंहू का होगा बेसन और चने का बनेगा आटा .....।

इस बीच अगले साल गेंहू की पैदावार में कमी के आसार ने लोगों के होश उडा दिये हैं । कई इलाकों में कम बारिश से गेंहू की बुवाई पर खासा असर पडा है । राज्य में 42 लाख हेक्टेयर के तय लक्ष्य से करीब चार लाख हेक्टेयर कम ज़मीन में गेंहू की बोवनी की बात कही जा रही है । प्रदेश में प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन दस से पंद्रह क्विंटल है । इस हिसाब से गेंहू उत्पादन तकरीबन पचास लाख क्विंटल कम होने की आशंका है । कृषि महकमा भी मान रहा है कि पानी की कमी रबी फ़सलों पर भारी पड रही है । नतीजतन बीस ज़िलों में गेंहू की कम बोवनी हुई है । मालवा , निमाड , मध्य भारत आदि अंचल सर्वाधिक प्रभावित हैं ।

विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर कुछ दिन और तापमान यूं ही बना रहा तो गेंहू के उत्पादन में 20 से 25 फ़ीसदी की गिरावट होगी । अन्य फ़सलों की पैदावार पर भी मौसम के बदलते तेवरों की परछाईं दिखाई देगी । मौसम की बेदर्दी से आई उत्पादन में कमी अनाज के दामों को बेकाबू कर देगी । ऎसे में मंदी की मार से टूटे लोगों पर मंहगाई का हंटर कहर बरपाएगा ।

ठंड के मौसम में सूरज के कडे तेवरों ने प्रदेश में रबी फ़सलों पर असर दिखाना शुरु कर दिया है । फ़सलों की बढवार रुक गई है। समय से पहले फ़सल पकने की आशंका ने किसान को चिंता में डाल दिया है । मौसम का मिजाज़ इस कदर बिगडा है कि दिसंबर के महीने में ठंड से निजात दिलाने वाली धूप इस मर्तबा परेशानी का सबब बन गई है । दोपहर में लोग तीखी धूप से बचने के तरीके तलाशते नज़र आते हैं ।

मौसम की बेरहमी गर्मी में हालत खराब कर सकती है । इस साल कम बारिश की वजह से प्रदेश में अभी से अकाल की आहट सुनाई देने लगी है । राज्य के 31 ज़िलों की 110 तहसीलों पर सूखे की मार ने लोगों के कंठ सुखा दिये हैं । इन जगहों पर पीने के पानी का ज़बरदस्त संकट पैदा हो गया है । सोना उगलने वाली धरती भी प्यासी है और उसने भी हाथ खडे कर दिये हैं ।

वर्षा की स्थिति और उसके असर पर ज़िलों से मंगाई गई रिपोर्ट में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं । सूबे के 139 नगरीय निकायों में एक दिन या उससे भी ज़्यादा अंतराल पर पीने का पानी मुहैया कराया जा रहा है । गांवों में तो स्थिति और भी विकट है । प्रशासनिक अमला भी गर्मी में पानी की मारामारी को लेकर परेशान है । पुलिस महकमे के आला अफ़सरान मानते हैं कि आने वाली गर्मियों में पानी का मसला कानून व्यवस्था के लिए सबसे बडा सिरदर्द होगा ।

मिल गया समंदर
फ़िर भी प्यास बाकी है
खारे पानी से ना बुझेगी
तलाश बाकी है
तपती दोपहर में भी
चातक की आंखें
लगी हैं नीले आसमान पर
आस अभी बाकी है ।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

आतंकी कसाब के मानव अधिकारों का वास्ता ........

आजकल मन में बडी ऊहापोह है । मुम्बई हमले का एकमात्र ज़िंदा पकडा गया चरमपंथी एकाएक मुझे हालात का मारा निरीह प्राणी नज़र आने लगा है । अपने मन की बात मैं किससे कहूँ ? और चुप भी कैसे रहूँ ? क्योंकि दिल की बात ज़बान पर आते ही देशप्रेमी जमात मेरी जान की दुश्मन हो जाएगी और चुप्पी की घुटन मुझे चैन से जीने नहीं देगी ।

ये भी संभव है कि इस साफ़गोई के बाद मेरा सिर कलम करने के लिए कई राष्ट्र भक्त फ़तवा जारी कर दें । लेकिन अब मुझे कोई परवाह नहीं क्योंकि मेरे साथ है देश का मीडिया ....। आखिर मैं उन्हीं की मुहिम को आगे बढाने का काम ही तो करुंगी ।

चैनलों को देख - देख कर ही मेरा ’ब्रेन वॉश’ हुआ है और हकीकत सामने आ सकी है । खबरची लगातार बता रहे हैं कि मोहम्मद अजमल आमिर कसाब को अमिताभ बच्चन की फ़िल्में पसंद हैं । वह लज़ीज़ मांसाहारी खाने का शौकीन है । यानि वो पूरी तरह बिल्कुल हमारी - आपकी तरह है । गरीबी का मारा कसाब बस कुछ पैसों के लालच में झाँसे में आ गया । आखिर उसकी उम्र ही क्या है ? लडकपन में तो ऎसी गल्तियां हो ही जाती हैं , तो क्या उसकी भूल पर रहमदिली नहीं अपनाना चाहिए ।

हाल ही में मानव अधिकार दिवस गुज़रा है । इस दिन हुई तमाम गोष्ठियों और सेमिनारों ने मेरी आँखें खोल दी हैं । मैंने जान लिया है कि मानवता ही जीवन का सार है । कोई कितना ही बडा अपराध क्यों ना कर दे हमें मानवतावाद का दामन थामे रहना चाहिए । इसी नाते हमें कसाब के साथ नरम रुख अख्तियार करना चाहिए । क़साब पर मुंबई पुलिस ने हत्या, हत्या का प्रयास, देश के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने, षड़यंत्र करने और विस्फोटक एवं हथियार अधिनियम कि विभिन्न धाराओं के तहत 12 मामले दर्ज़ किए हैं ।

चैनलों के ज़रिए मिली खबरों ने मुझे कसाब के प्रति अपना नज़रिया बदलने पर मजबूर किया है । हाल ही में जागृत मेरा मानव अधिकारवादी मन कसाब के हक में सरकार से मांग करता है कि उसके लिए हर रोज़ बेहतरीन मुगलई दस्तरखान सजाया जाए । डीवीडी पर मनपसंद फ़िल्में देखने की इजाज़त दी जाए । उसकी पैरवी के लिए जानेमाने वकीलों की टीम मुहैया कराई जाए । कसाब अम्मी को खत लिखना चाहता है , मगर टेक्नालाजी के इस दौर में सीधे हाट लाइन पर बात करने में भी क्या हर्ज़ है ?

अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के मानवतावादी यह मुद्दा हथियाएं , उससे पहले हमें इसे लपक लेना चाहिए । आप महानुभाव भी इस पुण्य कार्य में हाथ बंटाना चाहें , तो तहे दिल से स्वागत है आपका । तन ,मन खासतौर पर धन से दिल खोलकर मदद कीजिए । याद रखिए आज का निवेश कल की सुरक्षा ....। कल को देश दुनिया में नाम भी हो सकता है और विदेशी फ़ंडिंग की मार्फ़त दाम भी बढिया मिलेगा ..। तो फ़िर देर किस बात की ....? हाथ बढाइये । हाथ से हाथ मिलाइये ....।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

’राम राज्य’ की आस में शिव को सौंपा ताज

शिवराजसिंह चौहान की ताजपोशी के साथ बीजेपी सरकार की नई पारी की शुरुआत हो गई है । भोपाल के जम्बूरी मैदान पर उमडे अथाह जनसैलाब ने भाजपा को स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि छप्पर फ़ाड कर वोट देने के बाद जनता सरकार से जमकर काम लेने के लिए कमर कस चुकी है ।

प्रदेश की जनता ने जिस निष्ठा और विश्वास के साथ शिवराजसिंह चौहान पर भरोसा जताया है , उसकी कसौटी पर खरा उतरने के लिए मुख्यमंत्री को सूबे की कमान संभालते ही काम में जुट होगा । भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को दरकिनार कर राज्य की बागडोर भाजपा को सौंपने के पीछे सिर्फ़ एक ही कारण नज़र आता है कि मतदाताओं को शिवराज की कोशिशों में ईमानदारी दिखाई दी । लोगों ने ना पार्टी और ना ही स्थानीय नेता को चुना , बल्कि उन्होंने तो शिवराज के विकास के नारे पर अपने भरोसे की मोहर लगाई है ।

इस चुनाव में मतदाता ने स्पष्ट कर दिया है कि ना तो उसे बीजेपी से कोई खास लगाव है और ना ही कांग्रेस से कोई बैर । उसे मतलब है सिर्फ़ काम से । अच्छा काम करने की बात और विकास का वायदा तो लगभग सभी पार्टियों ने किया लेकिन मतदाताओं ने वायदा करने वालों की विश्वसनीयता को जांचा - परखा । यही वजह रही कि एक दूसरे को नीचा दिखाने में मशगूल कांग्रेस नेताओं के प्रति जनता ने बेरुखी अख्तियार कर ली । लोगों को लगा कि जब तक कांग्रेस अपना घर व्यवस्थित नहीं कर लेती , उसे प्रदेश का ज़िम्मा सौंपना ठीक नहीं होगा ।

दूसरी अहम बात रही शिवराज की विनम्र और ज़मीन से जुडे व्यक्ति की छबि । उन्होंने अपनी कमियाँ स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई । शायद इसीलिए तमाम खामियों के बावजूद शिवराज का जननायक के रुप में ’कायान्तरण” संभव हो सका । लेकिन अभी यह सफ़र का महज़ आगाज़ है । आगे का रास्ता काफ़ी कंटीला और दुर्गम है और यहीं से शुरु होगा जननायक की असली परीक्षा का दौर ...?

मध्यप्रदेश चुनावों की कुछ विशिष्टताओं पर विचार ज़रुरी है । हालांकि भाजपा के कई धडॆ इसे मानने को तैयार नहीं लेकिन हकीकतन आम जनता पर ’शिवराज फ़ेक्टर” हद दर्ज़े तक हावी रहा । गुजरात का ’मोदी माडल’ अपनी जगह है , मगर समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने के लिए वायदों की बरसात के ’ शिवराज फ़ार्मूला’ का कामयाब होना आगामी चुनावों की रणनीति पर सभी दलों को फ़िर से काम करने के लिए बाध्य करेगा । इस माडल की खामियां और खूबियां तो अगले पांच साल ही बता सकेंगे , लेकिन फ़िलहाल यह माडल मोदी माडल की तुलना में ज़्यादा कारगर साबित हुआ है ।

जनता ने ज़्यादातर शिवराज को वोट दिया है फ़िर चाहे उम्मीदवार कोई भी रहा हो । अममून देखा गया है कि लोकप्रियता का बढता ग्राफ़ संकट का स्रोत भी बन जाता है । जनता जहाँ असीमित आशाएँ- अपेक्षाएँ पाल लेती है , वहीं पार्टी के भीतर भी ईर्ष्या और द्वेष के नाग फ़न फ़ैलाने लगते हैं । ऎसे में उन्हें खुद के बनाए माडल से भी सावधान और चौक्कना रहना होगा ।

शिवराज सरकार के सामने कडी चुनौती होगी चुनावी घोषणा पत्र में किए गये वायदों को पूरा करने की । बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र ’जन संकल्प पत्र’ में जो वायदे किए हैं यदि वे सारे के सारे आने वाले पाँच साल में पूरे कर दिए जाते हैं तो मध्यप्रदेश हकीकत में स्वर्ग बन जाएगा ।

पिछले कार्यकाल में शिवराज ने राजधानी में किस्म - किस्म की महापंचायतें आयोजित कर ज़बानी जमा खर्च की तमाम रेवडियाँ बाँटी । प्रदेश का एक बडा हिस्सा उन घोषणाओं को लेकर तरह तरह के सपने बुन कर बैठा है । वायदों को हकीकत में बदलने के लिए सरकार को आर्थिक मोर्चे पर विशेष कोशिशें करना होंगी । योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए आय के नए स्रोत तलाशने के साथ ही वित्तीय स्थिति में मज़बूती के लिए मितव्ययिता अपनाना होगी । लेकिन सूबे के मुखिया के ’राजतिलक” पर दिल खॊलकर किए गए खर्च को देखते हुए फ़िलहाल वित्तीय अनुशासन की बात कहना बेमानी लगता है ।

बहरहाल शिवराज एकछत्र नेता के रुप में उभरे हैं । उन्हें सकारात्मक समर्थन मिला है ,लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या वे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर सकारात्मक राजनीति और रचनात्मक सुशासन का माडल तैयार कर सकेंगे.....?

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अकसर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का ।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

नेताओं के आगे प्रजातंत्र की शिकस्त

सत्ता के सेमीफ़ायनल का नतीजा आ चुका है । कहा जा सकता है कि मुकाबला बराबरी का रहा । कांग्रेस के पास खोने को सिर्फ़ दिल्ली था , लेकिन दिल्ली के साथ राजस्थान मे मिली जीत ने पार्टी को उम्मीद से दुगना पाने के एहसास भर दिया है । बीजेपी तीन राज्यों की सत्ता फ़िसलने की आशंका से घिरी थी , मगर हार मिली सिर्फ़ राजस्थान में । यानि दोनों ही खेमों के पास खुशियां और गम मनाने के कारण मौजूद हैं ।

हिन्दी बेल्ट के मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ , राजस्थान और दिल्ली के नतीजों से जो बात उभर कर आई है , वह ये कि देश की राजनीति में व्यक्तिवाद की पुनर्स्थापना । इन चारों राज्यों में चुनाव कुछ व्यक्तियों के इर्द - गिर्द ही केन्द्रित रहे । इन सभी प्रदेशों में पार्टियां और उनके सिद्धांत भी हाशिए पर चले गए ।

फ़ौरी तौर पर व्यक्तिवाद भले ही राजनीतिक दलों के लिए फ़ायदेमंद साबित हो , लेकिन आगे चलकर यह पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कतई फ़ायदेमंद नहीं कहा जा सकता । भले ही चुनाव हो गये , लेकिन मुद्दे अनुत्तरित हैं । वैसे जनतंत्र में लीडर से बडी पार्टी होती है लेकिन इन सबसे ऊपर है देश ...।

चुनाव नतीजों को लेकर बैचेनी काफ़ी बढ गई है । कई लोगों से बातचीत के बाद सामने आए तथ्य हैरान कर देने वाले हैं । कुछ साल पहले तक भ्रष्टाचार सामाजिक रुप से अनैतिक माना जाता था । धीरे - धीरे इसे मान्यता मिलने लगी और अब तो आलम ये है कि भ्रष्टाचारी ही समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित है ।

मतदाताओं के लिए भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा ही नहीं है । हर शख्स चाहता है कि उसका हरेक काम , गलत हो या सही , हर हाल में होना ही चाहिए , चाहे फ़िर इसकी कोई भी कीमत चुकाना पडे । मुम्बई हमले पर हाहाकार मचाने वाला यह देश सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों से ईमानदारी चाहता है , लेकिन खुद कदम - कदम पर घूस लेना चाहता है । गलत को सही का जामा पहनाने के लिए पैसे का ज़ोर आज़माने से भी कोई परहेज़ नहीं ।

पैसों का लेन देन अब दस्तूर बन चुका है । इस लिए मंहगाई भी कोई मुद्दा नहीं रही । इस चुनाव में देश में अमन चैन यानि आतंकवाद से निजात के मसले पर निजी हित भारी पडते दिखाई दिए । लोगों की सोच इतनी संकुचित हो गई है कि देशहित कहीं पीछे ,काफ़ी पीछे छूट गया है । कुछ युवाओं से बातचीत में पता चला कि उन्होंने सत्तारुढ दल को लाने के लिए थोकबंद वोट दिए , ताकि कालेज में संचालित पाठ्यक्रम पर लटक रही स्टे की तलवार से छुटकारा मिल सके । कुछ ने नियमित होने की लालसा और कुछ ने गली की सडक के सुधरने की आस में मौजूदा सरकार को ही दोबारा सत्ता सौंपने का फ़ैसला लिया ।

नेताओं ने इसे जनतंत्र की जीत बताया है । लेकिन क्या वाकई गणतंत्र जीत गया । नेताओं के छलावे में आकर बडे मुद्दों को दरकिनार करके देश कितने सालों तक प्रजातंत्र का जश्न मना सकेगा ...? कल चाहे जो भी पार्टियां जीती हों लेकिन देश एक बार फ़िर हार गया । जनतंत्र की इतनी करारी हार पर मन बहुत व्यथित है । चुनाव परिणाम डॉक्टर की उस जांच रिपोर्ट की मानिंद लगते हैं , जिसमें मरीज़ को लाइलाज बीमारी से ग्रस्त पाया गया हो । ६३ बरस के भारत की जर्जर - बीमार देह को भलिभांति सेवा टहल की सख्त ज़रुरत है । लेकिन बूढों के लिए आश्रम बनाने वाले इस खुदगर्ज़ समाज से क्या ये उम्मीद वाजिब है ............?
मियाँ मैं हूँ शेर , शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहज़ा नर्म भी कर लूं, तो झुंझलाहट नहीं जाती
किसी दिन बेखयाली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ , मुँह की कडवाहट नहीं जाती

रविवार, 7 दिसंबर 2008

पाठक और पत्रकार , शोषण के शिकार

आज एक ब्लॉग पर वॉयस ऑफ़ इंडिया के दफ़्तर में चल रही उठापटक की खबर ने एक बार फ़िर सोच में डाल दिया । १९९२ की अप्रैल का महीना याद आ गया , जब वीओआई के मुकेश कुमार जी दैनिक नईदुनिया भोपाल में थे और अपने हक की लडाई लडने के संगीन जुर्म में मुझे बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारी की जा रही थी । खबर पढकर लगा कि इतने बरसों बाद भी पत्रकारॊं की दुनिया में कोई उत्साहजनक बदलाव नहीं आया ।

इस व्यावसायिक दौर में भी सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले पत्रकारों की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है । समाज के सभी वर्गों के शोषण को उजागर करने और उसके खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले ज़्यादातर खबरनवीस मालिकों के आगे घुटने टेक देते हैं ।

आज़ादी की लडाई के दौर में मिशन मानी जाने वाली पत्रकारिता ने अब प्रोफ़ेशन का रुप ले लिया है । अब तो इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया उद्योग में तब्दील होने लगा है । समाचार पत्र छापने वाले प्रतिष्ठान कंपनी कहलाने लगे हैं । लेकिन बडी हैरत की बात है कि सरकारी छूट का लाभ उठाने वाले इन संस्थानों में पत्रकारों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं । सरकारी नियम कायदों और श्रम कानूनों की धज्जियां उडाते हुए समाचार पत्र और चैनल लगातार फ़ल फ़ूल रहे हैं । पत्रकारों के नाम पर मिलने वाले फ़ायदों की बंदर बांट भी मालिकों में ही हुई है ।

ये और बात है कि समय के साथ परिपक्वता बढने की बजाय दिनों दिन यह पेशा बचकानापन अख्तियार करता जा रहा है । मालिक के चाटुकार पहले भी मौज उडाते थे और आज भी मलाई सूंत रहे हैं । लेकिन मूल्यों की वकालत करने वालों के लिए ना पहले जगह थी ,ना ही अब है ।
अखबार बाज़ार का हिस्सा बन चुके हैं । खबरों और आलेखॊं की शक्ल में तरह - तरह के प्राडक्ट के विज्ञापन दिखाई देते हैं । समझना मुश्किल है कि क्या समाचार है और क्या इश्तेहार ? सरकारी अंकुश को अपनी जेब में रखकर अखबार मालिक , पाठक और पत्रकार दोनों के ही शोषण पर आमादा हैं ।

पाठक को बेवजह वह सब पढने पर मजबूर किया जा रहा है , जिसमें उसकी कतई रुचि नहीं । लेकिन विज्ञापन दाताओं का बाज़ार बढाने के लिए ऎसी ही बेहूदा खबरें बनाई और बेची जा रही हैं । मुझे तो
कई बार लगता है कि दिन की शुरुआत में ही हम हर रोज़ ढाई से तीन रुपए की ठगी के शिकार हो जाते हैं । हम तो न्यूज़ पेपर लेते हैं खबरों के लिए , लेकिन वहां समाचार तो छोडिए कोई विचार भी नहीं होते । वहां तो होता है व्यापार .... या कोरी बकवास....... ।

कायदे से तो इन अखबार वालों से पाठकों को मासिक तौर पर नियमित पारिश्रमिक का भुगतान मिलना चाहिए । गहराई में जाएं , तो पाएंगे कि पाठक भी इस व्यवसाय का बराबर का भागीदार है । मेरी निगाह में सर्कुलेशन के आधार पर होने वाली विज्ञापन की आय का लाभांश का हकदार पाठक ही है । पाठकों को संस्थानों पर मुफ़्त में अखबार देने के लिए दबाव बनाना चाहिए या अपने शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए अखबारों का बहिष्कार करना चाहिए ,ताकि समाचारों के नाम पर छपने वाले कचरे से निजात मिल सके ।

यह गुलो बुलबुल का अफ़साना कहाँ
यह हसीं ख्वाबों की नक्काशी नहीं
है अमानत कौम की मेरी कलम
मेरा फ़न लफ़्ज़ों की अय्याशी नहीं ।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

सेना पर तोहमत से पहले , मीडिया झांके अपनी गिरेबां

मुम्बई हमले के बाद सरकार गाइड लाइन बनाकर खबरिया चैनलों पर लगाम कसने की तैयारी में जुट गई है । सूचना और प्रसारण मंत्रालय की एडवायज़री को न्यूज़ चैनलों के संपादकों की संस्था ’ न्यूज़ ब्राडकास्टर्स अथारिटी ’ ने सिरे से खारिज कर दिया है । उलटा तोहमत जड दी है कि सरकार के नाकारापन और नेताओं की बददिमागी को जनता के सामने लाने से बौखला कर यह कदम उठाया जा रहा है । लेकिन बेलगाम और बेकाबू हो चुके खबरिया चैनलों का आरोप क्या सही है ?

ज़ी न्यूज़ पर नौसेना और कोस्ट गार्ड को निशाना बना कर एक ही खबर लगातार हर घंटे दिखाई जा रही है । धीर गंभीर नज़र आने वाले इन पत्रकारों में अचानक अपने पेशे के प्रति इतनी ईमानदारी कहां से पैदा हो गई ? सेना के खिलाफ़ मोर्चा खोलने का यही मौका मिला इन्हें ..? वैसे इन्हें देश की सुरक्षा एजेंसियों पर सरे आम कीचड उछालने का हक किसने दिया ? रक्षा संबधी दस्तावेज़ों को जगज़ाहिर कर महामना पुण्य प्रसून वाजपेयी पत्रकारिता के कौन से मानदंड स्थापित कर रहे है । ये तथ्य तो सभी ने मान लिया है कि केन्द्र सरकार के नाकारापन ने देश को ये दिन दिखाया है ,लेकिन चैनल देश की सेना का मनोबल तोड कर कौन से झंडे गाड रहे हैं ?

दाउद इब्राहीम ,अबू सलेम ,बबलू श्रीवास्तव जैसे लोगों की ’वीर गाथाए” गाने वालों को कोई हक नहीं बनता देश की सुरक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड करने का ..। राखी सावंत , मोनिका बेदी और ऎश्वर्या के प्रेम के चर्चे कर अपने खर्चे निकालने वाले बकबकिया चैनलों की देश को "घूस की तरह पोला " करने में खासी भूमिका रही है । प्रो. मटुकनाथ को ’ लव गुरु” के खिताब से नवाज़ कर सामाजिक दुराचार को प्रतिष्ठित करने वाले किस हक से सामाजिक सरोकारों का सवाल उठाते हैं ?

इलेक्ट्रानिक मीडिया को भाट - चारण भी नहीं कहा जा सकता । इन्हें मजमा लगाने वाला कहना भी ठीक नहीं होगा ,क्योंकि डुगडुगी बजा कर भीड जुटाने वाला मदारी भी तमाशबीनों के मनोरंजन के साथ - साथ बीच - बीच में सामाजिक सरोकारों से जुडी तीखी बात चुटीले अंदाज़ में कहने से नहीं चूकता । सदी के महानायक के इकलौते बेटे के विवाह समारोह में सार्वजनिक रुप से लतियाए जाने के बाद कुंईं -कुंई ..... करते हुए एक बार फ़िर उसी चौखट पर दुम हिलाने वाले ये लोग क्या वाकई देश के दुख में दुबले हो रहे हैं .........?

सबसे तेज़ होने का दम भरने वाले खबरची चैनल में काम कर चुके मेरे एक मित्र ने बताया था कि उन्हें सख्त हिदायत थी कि समाज के निचले तबके यानी रुख्रे - सूखे चेहरों से जुडे मुद्दों के लिए समाचार बुलेटिन में कोई जगह नहीं है । ये और बात है कि चैनल को नाग - नागिन के जोडे के प्रणय प्रसंग या फ़िर नाग के मानव अवतार से बातचीत का चौबीस घंटे का लाइव कवरेज दिखाने से गुरेज़ नहीं ।

क्या ये चैनल देश को भूत - प्रेत , तंत्र मंत्र , ज्योतिष , वास्तु की अफ़ीम चटाने के गुनहगार नहीं हैं ? इतना ही नहीं क्राइम और इस तरह की खबरों से परहेज़ का दावा करने वाले एक चैनल ने मानव अधिकारों और धर्म निरपेक्षता के नाम पर जहर फ़ैलाने के सिवाय कुछ नहीं किया । अमीरों और गरीबों के बीच की लकीर को गहरा करने का श्रेय भी काफ़ी हद तक इन्हीं को जाता है । इसी चैनल ने चमक - दमक भरे आधुनिक वातानुकूलित बाज़ारों में बिकने वाली चीज़ों का बखान कर मध्यम वर्ग को ललचाया । पहुंच से बाहर की चीज़ों को येन केन प्रकारेण हासिल करने की चाहत के नतीजे सबके सामने हैं । देश में ज़मीर की कीमत इतनी कम पहले कभी नहीं थी । तब भी नहीं जब लोगों के पास ना दो वक्त की रोटी थी और ना तन ढकने को कपडा ...। देश में फ़िलहाल सब कुछ बिकाऊ है ... सब कुछ .....जी हां सभी कुछ ..........।

इसका मतलब कतई ये नहीं कि सेना में अनियमितताएं नहीं हो रही । लेकिन मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करना ही होगा , क्योंकि इस समय एकजुट होकर सबसे बडी समस्या का मुकाबला करने की दरकार है । मीडिया इतनी ही गंभीर है , तो ये बातें पहले क्यों नहीं उठाई या देश हित में कुछ दिन रुकने का संयम और सब्र क्यों नहीं रखा ? पहले जनता को रासरंग में डुबो कर गाफ़िल बनाया , फ़िर मुम्बई हमले के लाइव कवरेज और गैर ज़िम्मेदाराना बातों से देश की स्थिति को अंतरराष्ट्रीय स्तर कमज़ोर करने का पाप किया , इस कुकर्म को छिपाने के लिए नेताओं के खिलाफ़ बन रहे माहौल भुनाने में कोर कसर नहीं छोडी और अब किसी भी तरह के नियंत्रण से इंकार की सीनाज़ोरी ......।

बडा कनफ़्यूज़न है । चैनल देश के लिए वाकई चिंतित हैं या कमाई के लिए देश के दुश्मनों के हाथ का खिलौना बन चुके हैं कह पाना बडा ही मुश्किल है । हे भगवान [ अगर वाकई तू है तो ...] इन शाख पर बैठे उल्लुओं को सदबुद्धि दे । इन्हें बता कि देश हित में ही इनका हित है । देश में हालात माकूल होंगे तभी इनका तमाशा चमकेगा । अफ़रा तफ़री के माहौल में तो बोरिया बिस्तर सिमटते देर नहीं लगेगी । सेना देश का आत्म सम्मान और गौरव है । उसके खिलाफ़ संदेह के बीज बो कर जाने - अनजाने दुश्मनों के हाथ मज़बूत करना राष्ट्रद्रोह है........

आते - आते आएगा उनको खयाल
जाते - जाते बेखयाली जाएगी ।


चित्र - बीबीसी हिन्दी डाट काम से साभार