सरस्वती शिशु मंदिरों में पढाए जा रहे पाठ्यक्रम को केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय सांप्रदायिक करार देने पर तुला है । हाल ही में एक कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में मंत्रालय की पेशकश का ही समर्थन किया है । सरसरी तौर पर लगता है वाकई इन स्कूलों में समाज में वैमनस्य फ़ैलाने का काम बडे पैमाने पर हो रहा है ।
हकीकत इससे एकदम उलट है । ये बात दावे के साथ मैं इस लिए कह सकती हूं क्योंकि मैंने भी सरस्वती शिशु मंदिर में ही पढाई की । हालांकि ये भी सच है कि इन शिक्षा संस्थानों में बहुत ही गैरज़रुरी और गैरकानूनी काम होता है वो है राष्ट्र भक्ति की भावना जगाना और उसे पल्लवित -पुष्पित करने के लिए उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना । रानी लक्ष्मीबाई , चेल्लम्मा , रानी दुर्गावती , आज़ाद , भगतसिंह ,रामप्रसाद बिस्मिल जैसे राष्ट्र्भक्तों के जीवन चरित्र पर आधारित पाठ कभी चरित्र निर्माण के लिए पढाए जाते थे । लेकिन अब वीर रस के राष्ट्र भक्तिपूर्ण गीत सांप्रदायिकता की श्रेणी में डाल दिए गये हैं ।
बदले माहौल में कई मर्तबा लगता है कि ये सब कुछ फ़िज़ूल है । ठोक -बजा कर दिलो दिमाग में भरे गये संस्कारों का अब कोई मोल ही नहीं रहा , इनके अनमोल होने की कौन कहे ...? सच तो ये है कि जब राष्ट्र के तौर पर हमारा कोई चरित्र ही नहीं बचा , राष्ट्र प्रेम की ज़रुरत ही कहां रही .....?
खैर , आज बात वैदिक ज्ञान की ओर विदेशियों के बढते रुझान की । देश में आज माहौल ऎसा हो गया है कि धार्मिक ग्रंथ संप्रदाय विशेष की मिल्कियत बन कर रह गये हैं , जबकि दूसरे मुल्क इन्हीं ग्रंथों को आधार बना कर पाठ्यक्रम तैयार कर रहे हैं । भारत में भले ही वैदिक पाठ्यक्रम का विरोध होता हो , लेकिन अमेरिका के न्यू जर्सी में 1856 में स्थापित स्वायत्त कैथोलिक सेटन हाल यूनिवर्सिटी में सभी छात्रों के लिए गीता पढना ज़रुरी कर दिया गया है । दुनिया में अपनी तरह का यह पहला निर्णय है । यहां ये जानना दिलचस्प होगा कि विश्वविद्यालय में लगभग तीन चौथाई छात्र ईसाई हैं ।
इधर ’हकीकी गीता’ के रुप में गीता का उर्दू अनुवाद तैयार करने वाले जाने माने शायर मुनीर बख्श ’आलम’ गीता को इंसानी बिरादरी की शरीयत बताते हैं । वे कहते हैं कि यह किसी खास ज़ात या धर्म की किताब नहीं है । गीता को सबसे बडा धर्म शास्त्र बताने वाले मुनीर बख्श कहते हैं " वेद , कुरान ,बाइबल सभी का चिंतन इसमें मौजूद है । राजनीति की उठापटक से बेज़ार और नाउम्मीद हो चुके बख्श साहब ईश्वर से कुछ इस अंदाज़ में दुआ मांगते हैं ........
कश्मकश में है वक्त का अर्जुन
इनको गीता का ज्ञान दे मौला ।
9 टिप्पणियां:
रानी लक्ष्मीबाई , चेल्लम्मा , रानी दुर्गावती , आज़ाद , भगतसिंह ,रामप्रसाद बिस्मिल के बारे में पढ़ाते हैं, क्यों पढ़ाते हैं जी, जिसके पीछे गांधी सरनेम न लगे वो काहे का महापुरुष हुआ जी!
पढ़ाना ही है तो गांधी परिवार में से ही किसी के बारे में पढ़ाईये, अभी तो माशा अल्लाह प्रियंका और राहुल भी देश को दिशा देने के लिये तैयार हो गये हैं
इतने सारें कलंक और कलंकियों को झेल झेल कर झेलानी बन गये हैं जी.
सरिता जी,
वही तेवर जो सीखे जाते हैं मातृभूमि की वंदना करते / अपने सहपाठी/पाठिन को भैया या बहिन कह कर संबोधित करने में. या नमस्ते सदा वत्सले मातॄभुमि...... को गाने दिखते हैं.
सार्थक चिंतन के लिये बधाई.
मुकेश कुमार तिवारी
उत्तम शिक्षा मदरसे ही दे रहें है, अतः अर्जून सिंह का सोचना सही है.
मुझे गर्व है मैं सरस्वती शिशु मन्दिर मे पढ़ कर बड़ा हुआ . वहां से मिले संस्कार ही मुझे आज तक सभी दुर्गुणों से बचाए हुए है . पर राजनीती ने शिशु मन्दिर जैसी संस्था को साम्प्रदायिक घोषित कर दिया .उसमे गलती सभी की है . संघ भी अपने मुख्य उधेशो से भटक गया है और मेरा शिशु मन्दिर विवादित हो गया .
हमारे राजनेता, खासकर अर्जुन सिंह सरीखे लोग ऐसे सुअर हैं जो गंदगी पसंद करते हैं, और अगर कोई साफ सुथरी जगह दिख जाये तो उसे भी गंदा करना चाहते हैं.
राष्ट्रवाद नहीं, इन सुअरों के लिये नोटवाद ही सबसे जरूरी है
जय हिन्द
सार्थक चिंतन...
भारतीय संस्कृति से जुड़े मूल्यों को बच्चों में विकसित करना जिन के भी नज़रिए से सांप्रदायिक है, उन्हें इस देश को छोड अन्यत्र बस जाना चाहिए.
धर्मनिरपेक्ष देश में सरस्वती तो धार्मिक नाम हुआ ना! यह तो देश की नीति और राजनीति के विरुद्ध है- वोट के आडे आ सकती है ना?
आपकी कौन सुनेगा मेडम /ये जो आधी रोटी पर दाल लेकर खाने वाले है अपनी ही चलाएंगे / हमारे राघोगढ़ में एक कहाबत है झूंठे के आगे सांचो रो मरे
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