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मंगलवार, 18 नवंबर 2008

एटीएस - एक कदम आगे दो कदम पीछे .......?

महाराष्ट्र एंटी टेरेरिस्ट स्क्वाड-एटीएस की हिन्दू आतंकवाद की सनसनीखेज़ कहानी में एकता कपूर के अंतहीन धारावाहिक ’क्योंकि सास ...’ की तरह हर रोज़ नए किरदार जुडते जा रहे हैं । कहानी में हर गुज़रते दिन के साथ नया टविस्ट आ रहा है । अब तो हालत ये है कि एटीएस को खुद पता नहीं कि मामले की शुरुआत कहां से की गई थी । अपने आकाओं के इशारे पर रोज़ ब रोज़ नए खुलासों का दम भरने वाली एटीएस खुद नहीं जानती कि उसका अगला कदम क्या होगा ।

कल तक समझौता ब्लास्ट मामले में आरडीएक्स का नामो निशान नहीं था । एफ़एसएल की रिपोर्ट को दरकिनार कर अचानक धमाके में आरडीएक्स के इस्तेमाल का शिगूफ़ा छोडने वाली जांच एजेंसी को पोल खुलते ही बैक फ़ुट पर जाना पडा । लेकिन हद तो तब हो गई ,जब हरियाणा पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी की बात को झुठलाते हुए कल एकाएक रेलवे पुलिस की महिला अधिकारी खबरिया चैनल पर समझौता एक्सप्रेस में हुए ब्लास्ट में आरडीएक्स के उपयोग की बात कहती नज़र आईं । लगता है लालू यादव रेल महकमे का इस्तेमाल राजनीतिक रोटियां सेंकने में कर रहे हैं । जांच की तेज़ रफ़्तार और नित नए विस्फ़ोटक खुलासों ने और कुछ किया हो या ना किया हो , मगर एटीएस की मंशा का पर्दाफ़ाश ज़रुर कर दिया ।

और कुछ करते या नहीं , कम से कम कहानी की स्क्रिप्ट तो कसी हुई बनाते । किसी फ़िल्मी स्क्रिप्ट राइटर से संपर्क करते , तो हर रोज़ फ़जीहत तो नहीं होती । मेरा दस साल का बेटा मुझसे दिन में कई मर्तबा पूछता है कि साठ किलो आरडीएक्स तो बहुत सारा होता है । अंकल सेना से छुपाकर कब और कैसे ले गये ..? क्या उन्हें किसी ने देखा नहीं ? उधर सेना में आरडीएक्स का उपयोग ही नहीं होने की बात ने लोगों को उलझन में डाल दिया है ।

हर रोज़ नया मोड लेती कहानी ने लोगों को भ्रमित कर दिया है । आम जनता हकीकत जानने को बेताब है । लेकिन सच्चाई पर झूठ के मुलम्मे इस कदर चढ चुके हैं कि लोगों का यकीन डगमगाने लगा है ।

मेरी एक रिश्तेदार ने ऎसा सवाल किया , जिससे मैं भी हैरत में पड गई । उन्होंने कहा कि साध्वी निश्चित ही धमाकों की साज़िश में शामिल है , लेकिन अपनी योग साधना के बूते वे चार -चार बार हुए नार्को टेस्ट को चकमा देने में कामयाब हो गई । ये बानगी है , उस जनता की जिसे राजनेता अपनी धूर्तता से आसानी से छलने में कामयाब हो जाते हैं ।

इस बीच खबर ये भी है कि एटीएस ने हिंदू आतंकवाद की कहानी को और आगे तक ले जाने की ठान ली है। उसकी सूची में कॉर्पोरेट क्षेत्र में काम कर रहे कई कश्मीरी पंडित, पत्रकार, फिल्मकार और कुछ रिटायर्ड अधिकारी शामिल हैं जिन्हें पूछताछ के लिए हिरासत में लेने की अनुमति उसने मुंबई पुलिस के कमिश्नर से मांगी हैं ।

एटीएस अपने ही रचे जाल में बुरी तरह फंस गई है । ले. कर्नल श्रीकांत पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा से हुई पूछताछ में उसे अब तक कोई ऐसी जानकारी हाथ नहीं लगी है जिसके आधार पर वह मामला आगे बढ़ा सके।

उधर कर्नल पुरोहित का नार्को टेस्ट भी विवादों में घिर गया है । सेना के अधिकारियों ने पुरोहित के नार्को टेस्ट की वीडियोग्राफ़ी के लिए अपना कैमरा लगाने की मांग की थी लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया । एटीएस अधिकारियों ने दावा किया कि परीक्षण का वीडियो बनाने का इंतजाम किया गया है , लेकिन बाद में पता चला कि वीडियो कैमरे में कुछ खराबी आ गई , जिससे रिकार्डिंग नहीं हो सकी । वैसे भी कर्नल पुरोहित पर जितने आरोप लगाए गए हैं, विस्फोटों के मामले में सिमी और दूसरे संगठनों के कार्यकर्ताओं के परीक्षण और बयानों से उन आरोपों की पुष्टि होने की कोई संभावना नहीं हैं ।


देश के अमन चैन के दुश्मन बन कर सत्ता हासिल करने की जुगाड में लगे राजनेताओं को अपने फ़ायदे के सिवाय कुछ नज़र नहीं आ रहा । असली देशद्रोही ये सेक्युलर नेता हैं , जो तुष्टिकरण का ज़हर बोकर देश की फ़िज़ा बिगाडने पर आमादा हैं । खबर है कि कल मस्ज़िद बचाओ तहरीक के नुमाइंदों ने हैदराबाद में साध्वी और ले. कर्नल पुरोहित का पुतला फ़ूंखा । देश के रहनुमाओं की हालत तो उस ऎय्याश ज़मींदार जैसी है , जो शराबखोरी और अय्याशी में सब कुछ गंवा देने के बाद भी बाज़ नहीं आता और अपनी रंगीन तबियत के चलते आने बच्चों को भी कर्ज़दार बना जाता है । कहते हैं - लम्हों ने खता की थी ,सदियों ने सज़ा पाई । ’

अपने सियासी नफ़े के लिए देश की अस्मिता से खिलवाड करने वाले इन रक्त बीजों को महज़ चुनाव में मज़ा चखाने का संकल्प लेना नाकाफ़ी है । इन्हें तो हर वक्त हर मोर्चे पर मुंह तोड जवाब देने की ज़रुरत है । ना जाने मेरे देश के लोग कब जागेंगे , कब आएगा उनमें इतना साहस कि वे इनसे हिसाब मांगें .........?

इसको मज़हब कहो , या सियासत कहो
खुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
बेलचे लाओ , खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहां दफ़्न हूं , कुछ पता तो चले ।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

सियासी दांव पेंचों में गुम अवाम की आवाज़

साध्वी प्रज्ञा सिंह की गिरफ़्तारी को लेकर उठ रहे सवालों की फ़ेहरिस्त हर गुज़रते दिन के साथ लंबी होती जा रही है । आज कैलाश सोलंकी ने इंदौर में मीडिया के सामने आकर बयान दिया कि उसने कोर्ट में कोई हलफ़नामा नहीं दिया है । उसने मामले के मोस्ट वांटेड आरोपी रामजी को जानने की बात त्तो मानी लेकिन साध्वी से जान पहचान की बात को सिरे से नकार दिया । कैलाश के मुताबिक प्रज्ञा सिंह और रामजी के बीच फ़ोन पर हुई बातचीत के बारे में उससे कुछ पूछा ही नहीं गया और ना ही वो इस बारे में कुछ जानता है ।

दूसरी तरफ़ मालेगांव धमाकों को लेकर एटीएस द्वारा हिरासत में लिए गए शिवनारायण और फ़रार रामजी के पिता गोपाल सिंह ने इंदैर में पत्रकारों के सामने अपने गायब होने की खबरों की हकीकत बयान कर एटीएस के दावों की हवा निकाल दी । उनका दावा है कि उनका परिवार अब भी शाजापुर ज़िले के गोपीपुर गांव में ही रहता है । ऎसे में पूरे मामले पर सवाल उठना लाज़मी है । पुलिस के आला अफ़सरान भी मानते हैं कि साध्वी प्रज्ञा सिंह के खिलाफ़ फ़िलहाल कोई ठोस सबूत नहीं । यही वजह है कि आरोप को पुख्ता बनाने के लिए नार्को टेस्ट का सहारा लेना पड रहा है ।

इस पूरे वाकये को कई दिन से टीवी चैनलों पर देखने के बाद एक बात जो मुझे लगातार परेशान कर रही है , वो है साध्वी के चेहरे का नकाब । हालांकि मेरे इस सवाल से की लोग इत्तेफ़ाक नहीं रखते हों । मगर मुझे लगता है कि प्रज्ञा सिंह बेकसूर हैं , तो चेहरा छुपाने की ज़रुरत उन्हें तो कतई नहीं । और अगर उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण इस घटना को वाकई अंजाम दिया है , तब भी यह मुंह छिपाने की नहीं गर्वोन्नत होने का मौका है । उनका इस तरह लोगों के बीच चेहरा ढंक कर आना क्या संकेत देता है , फ़िलहाल कह पाना बडा ही मुश्किल है ।

बहरहाल सवाल घूम फ़िर कर वही ? कहीं आतंकवाद का मुद्दा खत्म करने की रणनीति तो नहीं ? लेकिन क्या इसके नतीजों पर भी गौर किया गया है ? हिन्दुओं और मुसलमानों में खाई बढा देगी ये साज़िश । और अगर यह सच नहीं तो क्या सचमुच हिन्दुओं के सब्र का पैमाना छलकने लगा है ? क्या सीमा की हिफ़ाज़त के लिए कुर्बानी की कसम से बंधे जांबाज़ फ़ौजी सचमुच आतंकवादियों के प्रति सरकार के नरम रवैए से हताश हैं ? सेना से रिटायर अधिकारी क्या किसी नौसीखिए कथित राष्ट्र्वादी का साथ दे सकते हैं ? अगर पुलिस की थ्योरी में वाकई दम है तो ये साफ़ संकेत है देश के हुक्मरानों के लिए कि जनता का शासकों पर भ्ररोसा दिन ब दिन कम होता जा रहा है । सियासी दांव - पेंचों में अवाम की आवाज़ और दर्द कहीं पीछे छूटता जा रहा है

लेकिन अकेले सरकार को ही कसूरवार ठहराना काफ़ी नहीं । दरअसल आतंकवाद को मज़हबी चश्मे से देखना भी आतंकवाद से कम खतरनाक नहीं है । बल्कि एक तरह से दहशतगर्दी को खाद - पानी देने जैसा है । आतंकवाद संवेदनशील मुद्दा है । ये देश की इस दौर की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है । इस संजीदा मसले को फ़िरकापरस्ती का रंग देकर हल्का करना देश पर भारी पड सकता है । मज़हबी नज़रिए से जहां ये मुद्दा पेचीदा होता जा रहा है , वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे मध्यमार्गी दलों की तुष्टिकरण की नीति के चलते बेहद खतरनाक मोड पर आ पहुंचा है । इसे कानून व्यवस्था, शांति और सुरक्षा की समस्या मानकर ईमानदारी से हल करने की कोशिश होना चाहिए , क्योंकि आंतरिक सुरक्षा का मसला देश के विकास से सीधे तौर पर जुडा है ।

मेरे कांधे पे बैठा कोई
पढता रहता है इंजीलो-कुरानो-वेद
मक्खियां कान में भनभनाती हैं
ज़ख्मी हैं कान
अपनी आवाज़ कैसे सुनूं ।

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

हिन्दू अतिवाद की सियासत में सेना बनी मोहरा

’ ये तेरा सच ,ये मेरा सच , किसी को देखना है गर
तो पहले आकर मांग ले मेरी नज़र ,तेरी नज़र । ’
देश में इन दिनों हालात कुछ ऎसे ही हैं । हर शख्स हरेक घटना को अपने नज़रिए से देखने का आदी हो चुका है । हिन्दू आतंकवाद के नए चेहरे के खुलासे के बाद से तथाकथित सेक्युलर दलों की बांछें खिलीं हुईं हैं । फ़िज़ा में चारों तरफ़ हिन्दू कट्टरवाद के दिल दहला देने सच के बेनकाब होने की किस्सागोई फ़ैली हुई है । समाचार चैनलों ने साध्वी प्रज्ञा सिंह और सेना के पूर्व अधिकारियों को जिस अंदाज़ में पेश किया है , लगता है मानो पूरा देश इनकी ही बदौलत बारुद के ढेर पर बैठा हो ।

राजनीतिक नफ़े नुकसान को ध्यान में रखकर गढी गई शाब्दिक परिभाषाओं का सच अब खुद- ब-खुद सामने आने लगा है । बहुसंख्यकों की बात करने वाले को शक की निगाह से देखा जाता है । अब अल्पसंख्यकों की चिंता में घडियाली आंसू बहाना धर्म निरपेक्श्ता और बहुसंख्यकों के बुनियादी मसलों की चर्चा सांप्रदायिकता है । हालात इतने बिगड चुके हैं कि ८० करोड लोगों के बारे में बोलना कट्टरवादी या सांप्रदायिक होने का लेबल लगाने का पर्याप्त आधार बन गया है ।

महाराष्ट्र एटीएस जांच के बहाने मीडिया ने प्रज्ञा सिंह को रातों रात हिन्दू अतिवादी बना दिया है । इसमें साज़िश की बू आती है । मालेगांव और मोडासा बम धमाकों का आरोप मढने के पीछे मकसद देश की बडी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना है । ज्वलंत समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए रची गई इस राजनीतिक साज़िश के नतीजे खतरनाक होने वाले हैं । ओछी राजनीति ने देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्शा को भी दांव पर लगा दिया है ।

बटला हाउस एनकाउंटर पर मचे बवाल ने पुलिस का मनोबल तोडा है । ज़बानी युद्ध लडने वाले नेताओं ने जांबाज़ अफ़सर की कुर्बानी पर सवाल खडॆ कर सियासी फ़ायदा भले ही ले लिया हो ,लेकिन देश की आंतरिक हिफ़ाज़त में जुटे तबके को निराशा से भर दिया है । लगता है इन घर फ़ूंक तमाशबीनों की तबियत इससे भी नहीं भरी । अब ये सैन्य अधिकारियों को आतंकी साज़िश का हिस्सा बताने पर तुले हैं । सेना के पूर्व अधिकारियों के साथ सेवारत अफ़सरों को भी लपेटे में लिया जा रहा है । हिन्दू अतिवादियों का मददगार बता कर सेना के खिलाफ़ मीडिया पर दिन - दिन भर चलाई जा रही खबरों का असर कहां - कहां तक और कितना गंभीर होगा ,इस पर सोचा है किसी ने ?

देश की सीमाओं की हिफ़ाज़त करने वाले जांबाज़ों की ओर उठने वाली शक भारी निगाहें क्या गुल खिलाएंगी । इसकी कल्पना मात्र से मन चिंता और डर से भर जाता है । अब तो सेना में मज़हब आधारित सर्वे का शिगूफ़ा भी इसी साज़िश का हिस्सा नज़र आता है । जब केंद्र में कमज़ोर शासक होता है , सूबे के सियासतदान अपने फ़ौरी फ़ायदों के लिए सिर उठाने लगते हैं । मज़हब , प्रांत , भाषा की लडाइयां इसी का नतीजा हैं । देश में लंबे समय से वैसे ही आपसी संघर्ष के हालात हैं । ऎसे में इस नई चुनौती का सामना करने की कुव्वत क्या देश में बाकी है ?

हादिसा कितना कडा है कि सरे - मंज़िले - शौक
काफ़िला चंद गिरोहों में बंटा जाता है
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
इक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नज़र आता है