गृहमंत्री पी. चिदम्बरम पर जूता फ़ेंकने का मामला वक्त बीतने के साथ तूल पकड़ता जाएगा । हालाँकि गृह मंत्री की माफ़ी के बाद पत्रकार को छोड़ दिया गया है । लेकिन इस घटनाक्रम के साथ ही एक साथ कई सवाल हवा में तैरने लगे हैं । ज़्यादातर लोग मन ही मन प्रफ़ुल्लित होने के बावजूद पत्रकार जरनैल सिंह को दुनिया के सामने जी भरकर धिक्कारेंगे । वैसे खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिये ऎसा ही रवैया अख्तियार करना वक्त की माँग है ।
माजिद मेमन जैसे जानेमाने वकील लोकतंत्र में आस्था बनाये रखने के लिये जरनैल सिंह को कड़ी से कड़ी सज़ा की देने की बात कह रहे हैं । वे कहते हैं कि लोकतंत्र को ज़िन्दा रखने के लिये इस तरह की आवाज़ों को कुचलना ज़रुरी है । ये वही मेमन साहब हैं , जो मुम्बई बम कांड में दाउद इब्राहीम और उसके गुर्गों की पैरवी कर रहे हैं । देश में जो भी विघटनकारी तत्व हैं वे अपने बचाव के लिये देश के इन काबिल वकील से संपर्क करते हैं । लेकिन जरनैल के मामले में मेमन साहब एकदम अलग और कड़ा रुख अख्तियार किये हुए हैं । वे कहते हैं कि लोकतंत्र में आस्था रखते हुए लोगों को कानून का दरवाज़ा खटाखटाना चाहिए ।
सवाल यह भी है कि न्याय के इंतज़ार के लिए पच्चीस साल बहुत होते हैं । एक पीढ़ी के इंतज़ार के बावजूद जब ठोस सबूत ही इकट्ठा नहीं हो पाये , तो न्याय की उम्मीद क्या खाक रहेगी । जिस जाँच एजेंसी को साक्ष्य जुटाने का ज़िम्मा सौंपा गया था , उसकी कार्यशैली किसी से छिपी नहीं है । ’सरकार का नमक अदा’ करने में माहिर अधिकारियों ने मायावती, अमर सिंह , मुलायम सिंह , शिबू सोरेन , जयललिता , लालू यादव सरीखे नेताओं से जुड़े मामलों को आनन-फ़ानन में निपटा कर अपनी ’नमक हलाली’ का पुख्ता सबूत पेश किया है । इन हालात में इंसाफ़ की उम्मीद करना मृग मरीचिका से ज़्यादा कुछ नहीं ।
जरनैल सिंह का आक्रोश शुरुआती बानगी है । नेताओं ने पुलिस और जाँच एजेंसियों को अपनी चौखट पर बाँध तो लिया है , वो शायद भूल गये हैं कि जब भी कानून का गला घोंटा गया है मजबूरन लोगों ने कानून हाथ में लिया है । न्याय की बात तभी अच्छी लग सकती है ,जब समय पर और सच्चा न्याय मिले । जन आक्रोश सड़कों पर आ गया तो सबसे ज़्यादा इन नेताओं को ही मुश्किल का सामना करना होगा , जिनकी साँसे और धड़कनें जनता में बसी होती हैं ।
कानून अँधा नहीं होता है । ये और बात है कि निष्पक्षता के लिहाज़ से उसने आँखों पर पट्टी बाँध रखी है । लेकिन नेताओं का कानों में रुई ठूँस लेना आने वाले समय में उन्हीं पर भारी पड़ेगा । अंग्रेज़ सरकार की आँखें खोलने और कानों तक आवाज़ पहुँचाने के लिये शहीदे आज़म भगतसिंह को असेम्बली में पर्चे फ़ेंकने के अलावा धमाके भी करने पड़े थे । आज के दौर के मोटी चमड़ी वाले नेताओं पर शायद इस तरह के नुस्खे कारगर साबित नहीं हो सकते । ऎसे में आम जनता के पास आखिर क्या रास्ता बचता है ।
विद्वात्त जन लोकतंत्र की महानता की दुहाई देते नहीं थकते ,लेकिन आखिर ये लोकतंत्र है कहाँ ...? अगर है भी तो क्या आम जनता को इसका फ़ायदा मिल पाता है ..? कल जो भाजपा में था वो आज काँग्रेस में है ,जो काँग्रेसी था वो अब बीजेपी का भगवा चोला धारण कर चुका है । थाली के बैंगन की तरह लालू , मुलायम , पासवान और अमर सिंह जैसे नेता "जिधर दम उधर हम" को ही अपना सूत्र वाक्य बनाकर राजनीति करते रहे हैं ।
लोकतंत्र का असली मज़ा तो ये नेता , नौकरशाह , उद्योगपति और प्रबुद्धजन ही लूट रहे हैं । व्यवस्था के गतिरोध हटाने के लिये लीक से हट कर ही कुछ करना ज़रुरी हो गया है । जरनैल सिंह के जूते के निशाने पर देश के गृह मंत्री नहीं मौजूदा व्यवस्था है । ये चुनौती है उस सोये समाज को ,जो "जहाँ है ,जैसा है" की संस्कृति में रच- बस चुका है । नीम बेहोशी तोड़ने के लिये ढ़ोल-ढ़माकों की नहीं झन्नाटेदार चाँटे की ही ज़रुरत होती है , वो भी एक नहीं पूरी की पूरी श्रृंखला ........... ।
8 टिप्पणियां:
लेख के आखिरी वाक्य से पूर्ण सहमति, हम भी उसी कोशिश में लगे हैं… शायद नीम बेहोशी टूटे हिन्दुओं की…
मेरे भी कुछ मिलते-जुलते विचार हैं। कृपया प्याले पर आएं....
शायद अब नींद से जागे ये नेता ... रोलर चलने वाले नेता कम से कम जूते से घबराएंगे ..
अनुराग
http://prawah.blogspot.com/
सच तो यह है की एक जूता फ़ैकने से व्यव्स्था मे कोई बद्लाव नहि आएगा। अंग्रेजी मे कहावत है,न्याय मे देरी न्याय को नकारना है।सीबीआई सत्ता पक्ष का औजार हो और सरकारी तन्त्र खरीदा गुलाम तब जो वे चाहेंगें वही होगा,संसद पर हमले की सजीश करने वाले जेल मे मजे से रहे, फ़ासीं लम्बित रहे कोई बात नही। शब्दो से राष्ट्रीय सुरक्षा पर बडा खतरा होजाता है। टाइट्लर तो एक नाम है सूची बहुत बडी हो सकती है,विचारीये हम कहां जा रहे है। जनर्ल सीह का जूता इस देश के कर्णधारो की मुर्छा तोड सके । मगंलपांडे ने एक गोली से क्रान्ती की शुरुआत की थी, काश एक जूते से शासक वर्ग की समग्र चेतना जाग्रत हो।
patrkaron ke kam karne ka trika alag hota hai.
व्यवस्था को हम आप सब मिलकर ही तो बदल सकते हैं. लेकिन उसकी भी सीमायें तो हैं.
हमारे लोकतंत्र में जूतावृष्टि की यह घटना ऐतिहासिक है .कोई कोई तो कह रहा है कि यह २००९ की अराज़क कठपुतली व्यवस्था और पक्षपाती जांच व्यवस्था के खिलाफ जूताक्रन्ति की शुरुवात हैं . कुछ लोग खेद जता कह रहे हैं कि जरनैल सिंह का यह विरोध और तरीका गलत था और उन जैसे पत्रकार को पत्रकार ही बने रहना चाहिए था विद्रोही नहीं . उन्हें लॉन्ग मार्च निकालने वाले और तानाशाही शासन की अवहेलना करने वाले अवज्ञाकारी पाकिस्तानी वकीलों की तरह अपनी सीमा को लांघना नहीं चाहिए था .पर जरनैल सिंह ने खुद अफ़सोस जताते हुए कहा कि २५ साल तक सारे तरीके आजमा लेने के बाद अब और कोई तरीका नहीं बच रहा था.
निश्चित चिदंबरम काफी शालीन और विद्वान व्यक्ति है और जूते के काबिल कतई नहीं .खैर चिदंबरम तो एक माध्यम भर हैं .यह जूता चिदंबरम को चूकते हुए सीबीआई ,व्हाइट-(क)लर,बड़ी दंगाई पार्टियाँ और पूरे राजनैतिक खेमे पर जाकर लगी है जो कानून को रौंदकर व्यवस्था का राजनैतिक दुरुपयोग करते हैं .उनका जूता खाना असंभव नहीं है यह देखकर नेताओं में हड़कंप मचा है और वो ये सोचने पर विवश हो चुके हैं कि आखिर कौन सी चीज़ उन्हें जूते खाने के स्तर पर पहुंचा चुकी है .यह एक बेहद सकारात्मक परिवर्तन है .
खैर हमे भारतीय जूता क्रांति के पिता जरनैल सिंह को आत्मग्लानी में नहीं ढकेलना चाहिए .उन्होंने गांधीगिरी के अलावा कुछ भी तो नहीं किया है.उनके जूते से न तो कोई हिंसा हुयी है और ना ही उन्होंने असत्य का समर्थन लिया है.
आपके गुस्से पर न्यौछावर। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप 'पी एम इन वेटिंग' या कि 'छोटे सरादार' को भूल ही जाएं। जब आप लिखती हैं - '' ’सरकार का नमक अदा’ करने में माहिर अधिकारियों ने मायावती, अमर सिंह , मुलायम सिंह , शिबू सोरेन , जयललिता , लालू यादव सरीखे नेताओं से जुड़े मामलों को आनन-फ़ानन में निपटा कर अपनी ’नमक हलाली’ का पुख्ता सबूत पेश किया है ।'' तब छोटे सरदार का भी हक बनता है कि आप इन सपूतों में उन्हें भी शरीक करें। सीबीआई ने 'छोटे सरदार' का ध्यान न रखा होतो बाबर ध्वंस मामले में अब तक वे भी अन्दर हो चुके होते।
इस पोस्ट का यह वाक्य आसमान पर लिख दिया जाना चाहिए - जरनैल सिंह के जूते के निशाने पर देश के गृह मंत्री नहीं मौजूदा व्यवस्था है ।
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