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गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

इठलाती , बल खाती , गुनगुनाती .......


पूर्ब से पश्चिम की तरफ़ जाने वाली नर्मदा देश की एकमात्र ऎसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है । नर्मदा परिक्रमा के अनुष्ठान की परंपरा कब शुरु हुई ये कह पाना तो ज़रा मुश्किल होगा । लेकिन हर साल करीब पांच लाख से ज़्यादा श्रद्धालु नर्मदा की परिक्रमा पर निकलते है । आमतौर पर अमरकंटक से यात्री अपना सफ़र शुरु करते हैं और रेवा सागर संगम तक करीब १३३५ किलोमीटर का रास्ता तय कर पहले चरण को अंजाम तक पहुंचाते हैं । दूसरे चरण में उत्तर तट से अमरकंटक तक १८३६ किलोमीटर की यात्रा होती है ।
सरदार सरोवर , ओंकारेश्वर और रानी अवंतिबाई बांध बनने से परिक्रमा मार्ग का बडा हिस्सा डूब चुका है । बची खुची कसर प्रस्तावित महेश्वर बांध पूरी कर देगा । नर्मदा में आस्था रखने वालों के लिए राज्य सरकार ने बडे ज़ोर शोर से सर्वे कराया । परिक्रमा मार्ग को व्यवस्थित और सुविधाओं भरा बनाने के लिये नामचीन हस्तियों की कमेटी का एलान हुआ और भारी - भरकम कार्य योजना का खाका तैयार किया गया । मगर हमेशा की तरह नतीजा सिफ़र ।
नर्मदा के भक्त तो तमाम मुश्किलात के बावजूद अपनी मंज़िल तक पहुंच ही जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के कामकाज के लिए बस यही कहा जा सकता है - नौ दिन चले अढाई कोस । दरअसल सरकार ने नर्मदा के तीरे जगह - जगह होटल , ढाबे और यात्री निवास बनाने के साथ पक्का परिक्र्मा मार्ग तैयार करने का प्रस्ताव बनाया है । यानी लोग तीर्थाटन के बहाने पर्यटन का लुत्फ़ भी ले सकेंगे । लेकिन परिक्रमा मार्ग तय करने में नौकरशाही का अडंगा श्रद्धालुओं की परेशानी का सबब बन गया है । सरकारी मशीनरी की कछुआ चाल के चलते लोगों को अपनी तीर्थयात्रा को सुगम बनाने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड सकता है ।
नदियों से हमारे जीवन का आध्यात्मिक पहलू भी जुडा है । हालांकि बदलते वक्त में पाप - पुण्य की परिभाषा भी उलट गई है । ऎसे में ये कह पाना बडा ही मुश्किल है कि नर्मदा में डुबकी लगाते ही पाप नष्ट होते हैं या नहीं । हां ,इतना ज़रुर है कि सतत प्रवाहिणी रेवा की जलधारा जीवन की कठिनाइयों से बैचेन मन का ताप हर लेती है । रेवा तट पर प्राक्रतिक सौंदर्य से लबरेज़ कई जगहें हैं जहां सुकून मिलने के अलावा कुदरत के साथ एकाकार होने का एहसास होता है । पवित्र धार्मिक ग्रंथों में आता है कि गंगा में स्नान करने से पापों का नाश होता है , जबकि नर्मदा का दर्शन मात्र ही जन्म - मरण के चक्र से मुक्ति देता है । किंवदंती है कि गंगा भी साल में एक बार काली गाय के रुप में नर्मदा में स्नान करने आती है ।
क़रीब तेरह सौ किलोमीटर के सफ़र में नर्मदा मध्य प्रदेश , गुजरात और महाराष्ट्र के बडे हिस्से में प्रवाहित होती है । भडौंच के नज़दीक खंबात की खाडी में अपने अस्तित्व को अथाह सागर में समाहित करने वाली नर्मदा वन अंचलों से लेकर ग्रामीण इलाकों तक समान रुप से वंदनीय है । गायन और संगीत प्रधान सामवेद में नर्मदा की महिमा का बखान किया गया है । नर्मदा भी सागर तक की अपनी यात्रा गाते - गुनगुनाते हुए करती है । कहते हैं गंगा कनखल और सरस्वती कुरुख्शेत्र में सबसे अधिक पवित्र मानी जाती है । परंतु नर्मदा की महिमा का कोई पार नहीं । वो तो गांव - गांव और डगर - डगर , सब जगह हर रुप में पवित्र हैं ।
मैदानी इलाकों में शांत और गंभीर नज़र आने वाली ये पुण्य सलिला वनांचलों के बीच कहीं चट्टानों से टकराकर उन्हें शिकस्त देने के मद में इठलाती हुई आगे बढती है । अपनी मंज़िल तक पहुंचने की बेताबी में कुंलाचे भरती रेवा ऊंची चट्टानों की परवाह भी नहीं करती । यहीं देखा जा सकता है जल प्रपातों का अदभुत सौंदर्य । चट्टानों से टकराकर ,उछल - उछल कर ’ रव ’ यानी ’ध्वनि’ करती है , इसीलिए तो रेवा कहलायी ।
कभी नज़र से नज़र मिलाकर , कभी नज़र से नज़र बचाकर
डुबो रही थी , मिटा रही थी , पिला रही थी , छका रही थी ।