शनिवार, 20 दिसंबर 2008

सियासी गलियारों में लडखडाहट भरे आगे बढते कदम

आज भोपाल में शिवराज मंत्रिमंडल का गठन हो गया । लोगों की उम्मीद के मुताबिक ज़्यादातर मंत्रियों के चेहरे जाने पहचाने हैं । मंत्रिमंडल में बडे पैमाने पर रद्दोबदल ना तो मुख्यमंत्री के बूते की बात है और ना ही पार्टी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र कोई बडा जोखिम लेने की स्थिति में है । शिवराज सिंह ने अपनी टीम में दो महिला विधायकों को भी शामिल किया है , लेकिन ये आंकडा आधी दुनिया की नुमाइंदगी के लिहाज से नाकाफ़ी लगता है ।

प्रदेश में सर्वाधिक 85 हज़ार 362 वोट बटोर कर बुरहानपुर सीट जीतने वाली अर्चना चिटनीस को मंत्री बनाया गया है । इसी तरह मनावर से जीती रंजना बघेल को राज्यमंत्री के तौर पर जगह मिली है । 13 वीं विधान सभा में राज्य की जनता ने 25 महिलाओं को अपने क्षेत्र की आवाज़ बुलंद करने का दायित्व सौंपा है । 230 सीटों की विधान सभा में 25 का आंकडा काफ़ी छोटा मालूम देता है , लेकिन प्रदेश में ऎसा तीसरी बार हुआ है ,जब दस फ़ीसदी से अधिक महिलाओं को विधान सभा में दाखिल होने का मौका मिल सका है ।

मध्यप्रदेश के इतिहास में विधान सभा पहुंचने वाली महिलाओं का आंकडा हमेशा ही निराशाजनक रहा है । अब तक सबसे अधिक 11.80 फ़ीसदी प्रत्याशी 1957 में जीतीं थी ,लेकिन इन आंकडों से तुलना बेमानी होगा क्योंकि तब छत्तीसगढ भी प्रदेश का ही हिस्सा था और सीटों की कुल संख्या 320 थी हालांकि ये संख्या काबिले गौर भी है ,क्योंकि ये उस दौर की बात है जब महिलाओं के लिए समाज में आगे बढने के अवसर बेहद सीमित थे । घर की चहारदीवारी में कैद महिलाओं के लिए सियासी मसले पेचीदा माने जाते रहे और राजनीति में महिलाओं के दखल को समाज में खास तवज्जो भी नही दी जाती थी । मौजूदा दौर में महिलाओं पर आधुनिकता का रंग तो खूब चढा लेकिन विधान सभा की दहलीज़ पर कदम रखने में अभी भी हिचकिचाहट बरकरार है ।

उत्साहजनक बात ये है कि इस बार 25 महिलाएं चुनकर आई हैं , जबकि पिछली मर्तबा 19 महिला विधायक थीं । बीजेपी से 15 महिलाओं को सफ़लता मिली है , जबकि 8 महिलाएं विधान सभा में कांग्रेस की नुमाइंदगी करेंगी । उमा भारती की भारतीय जन शक्ति और समाजवादी पार्टी ने भी एक - एक महिला विधायक को सदन तक पहुंचाने में कामयाबी पाई है ।

हाल ही में विधानसभा चुनावो में भाजपा को महिला मतदाताओं से मिलने वाले वोटों में इज़ाफ़ा हुआ है । सांगठनिक ढांचे में 33 फ़ीसदी आरक्षण देने वाली भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर मानते हैं ,“ भाजपा मानती है कि जब तक देश की 50 फ़ीसदी महिलाओं की आबादी सक्षम नहीं होगी तब तक देश का विकास अधूरा रहेगा ।”
तू फ़लातूनो- अरस्तू है तू ज़ुहरा परवीं
तेरे कब्ज़े में है गर्दूं , तेरी ठोकर में ज़मीं
हां , उठा , जल्द उठा पाए -मुकद्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं ,वक्त भी रुकने का नहीं
लडखडाएगी कहां तक कि संभलना है तुझे ।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

दो लोगों ने लिख दी दो मुल्कों की तकदीर ......

लम्हों ने खता की थी , सदियों ने सज़ा पाई ।
यह शेर भारत के मौजूदा हालात के मद्देनज़र बिल्कुल मौजूं है । चंद सियासतदानों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की कीमत लाखॊं जानों ने तब चुकाई और आने वाली कई पीढियां ना जाने कब तक इस फ़ैसले से उपजे वैमनस्य का विषपान करती रहेंगी ।

जिस तरह आज भारत के ज़ाती मामलों के फ़ैसले अमेरिका और ब्रिटेन ले रहे हैं , उसी तरह देश छोड कर जाते वक्त भी मुल्क के बँटवारे का फ़ैसला अंग्रज़ों ने ही अपने तईं ले लिया । हिंदुस्तान को अपनी मिल्कियत समझ अपना हक मांगने की चाहत में नेहरु - जिन्ना ने अखंड भारत के बाज़ू काटने में अंग्रेज़ हुकूमत की भरपूर मदद की । आज हालात बताते हैं कि
ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम
ना इधर के रहे , ना उधर के हम ।

हाल ही में कुछ ऎसे दस्तावेज़ों का खुलासा हुआ है ,जो भारत-पाकिस्तान बँटवारे की त्रासदी पर नई रोशनी डालते हैं । मुल्क के बँटवारे के गवाह रहे एक ब्रिटिश नौकरशाह के अप्रकाशित दस्तावेजों के मुताबिक़ सिर्फ़ दो लोगों ने भारत के बँटवारे और दो मुल्कों की तक़दीर को तय किया था
नौकरशाह क्रिस्टोफ़र बोमांट 1947 में ब्रिटिश न्यायाधीश सर सिरिल रेडक्लिफ़ के निजी सचिव थे रेडक्लिफ़ भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा निर्धारण आयोग के अध्यक्ष थे सचिव होने के नाते बोमांट इस विभाजन का अहम हिस्सा रहे क्रिस्टोफ़र के पुत्र राबर्ट बोमांट ने इन दस्तावेजों के आधार पर दावा किया कि लार्ड माउंटबेटन के निजी सचिव सर जार्ज एबेल की 1989 में मृत्यु के बाद अब सिर्फ़ वह ही दोनों देशों के विभाजन का सच जानते हैं । क्रिस्टोफ़र बोमांट की मृत्यु 2002 में हो गई थी ।

दस्तावेज़ों के मुताबिक़ हिन्दुस्तान के तत्कालीन वायरसराय लार्ड माउंटबेटेन और रेडक्लिफ़ ने ही मिलकर दोनों देशों के बंटवारे का खाक़ा खीच दिया था । ब्रिटिश जज रैडक्लिफ़ को दोनों देशों के बीच सीमा का निर्धारण करने का दायित्व सौंपा गया था ।
रैडक्लिफ़ न तो इससे पहले भारत आए थे और न ही इसके बाद कभी आए । इसके बावजूद उन्होंने दोनों देशों के बीच जो सीमारेखा खींची उससे करोड़ों लोगों अंसतुष्ट हो गए ।

जल्दबाज़ी में किए गए इस विभाजन ने 20वीं शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक को जन्म दिया । धार्मिक आधार पर हुए इस बँटवारे में चालीस करोड़ लोगों की तक़दीर तय की गई । इन दस्तावेज़ों में " ब्रिटिश भारत " के आख़िरी दिनों की स्थिति का विश्लेषण किया गया है । इसमें कहा गया कि बँटवारे के काम को बेहद जल्दबाज़ी में अंज़ाम दिया गया था ।

बोमांट ने दस्तावेज़ों में लिखा है कि वायसराय माउंटबेटन को पंजाब में हुए भीषण नरसंहार का ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , जिसमें महिलाओँ, बच्चों समेत लगभग पाँच लाख लोग मारे गए थे. एक अनुमान के अनुसार बँटवारे में दोनों ओर से लगभग 1 करोड 45 लाख लोग पलायन को मज़बूर हुए थे ।

आज़ादी के दो दिन बाद ही जब यह घोषणा हो गई कि सीमाएं कहाँ होंगी , तो पंजाब हिंसा की आग में जल उठा । ट्रेनों में सीमा पार कर रहे लोगों की लाशें भेजी जाने लगीं और कई बार तो उनके अंग भी क्षत-विक्षत होते थे. दोनो तरफ ही महिलाएं हिंसा और बलात्कार की शिकार हुईं ।

भारत की आबादी पाकिस्तान की तीन गुनी थी और ज़्यादातर लोग हिंदू थे । करोड़ों मुस्लिम सीमा के एक तरफ़ और हिंदू-सिख दूसरी तरफ पहुँच गए । भारी संख्या में दोनों तरफ़ के लोगों को सीमा के पार जाना पड़ा । तनाव बढ़ा और सांप्रदायिक संघर्ष शुरू हो गए. इसमे कितने लोग मारे गए इसका सही आँकड़ा कोई नहीं बता सका । इतिहासकार मानते हैं कि पाँच लाख से अधिक लोग मारे गए । 10 हज़ार महिलाओं के साथ या तो बलात्कार हुआ या फिर उनका अपहरण हो गया । एक करोड़ से भी अधिक लोग शरणार्थी हो गए जिसका असर आज भी दक्षिण एशिया की राजनीति और कूटनीति पर दिखता है ।

''एक बड़े क्षेत्र के बहुसंख्यकों को उनकी इच्छा के विपरीत एक ऐसी सरकार के शासन में रहने के लिए बाध्य नहीं किया सकता जिसमें दूसरे समुदाय के लोगों का बहुमत हो और इसका एकमात्र विकल्प है विभाजन ।''

इन शब्दों के साथ ही भारत में ब्रिटेन के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने घोषणा की कि ब्रिटेन एक देश को नहीं बल्कि दो देश को स्वतंत्रता देने जा रहा है । तब भारत की एकता बनाए रखने के साथ ही मुसलमानों के हितों को सुरक्षित रखने के ब्रिटेन के सभी संवैधानिक फॉर्मूले विफ़ल हो चुके थे ।

माउंटबेटन ने अपना यह बयान 3 जून 1947 को दिया था और उसके 10 सप्ताह बाद ही उन्होंने दोनों देशों के स्वतंत्रता दिवस समारोह में भाग भी लिया । 14 अगस्त को कराची में वे स्पष्ट मुस्लिम पहचान के साथ गठित राष्ट्र के गवाह बने और इसके अगले दिन दिल्ली में भारत के पहले स्वतंत्रता दिवस समारोह में हिस्सा ले रहे थे ।
भारत पिछली शताब्दी से ही स्वशासन की माँग कर रहा था और वर्ष 1920 से लेकर 1930 के बीच में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में इसने ज़ोर पकड़ा । भारत के मुस्लिम समुदाय में से कई लोगों की राय में हिंदू बहुल देश में रहना फ़ायदेमंद नहीं था । मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने इस माँग को काफ़ी मज़बूती से उठाया । मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अलग देश की माँग करने लगी थी. विश्व युद्ध के बाद राज्यों में हुए चुनावों में मुस्लिम लीग के मज़बूत प्रदर्शन के बाद यह स्पष्ट हो गया था कि अलग पाकिस्तान की माँग ज़्यादा दिनों तक नज़र अंदाज़ नहीं की जा सकती है ।

इसके बाद से यह बहस का विषय बना हुआ है कि विभाजन सही था या ग़लत, इससे बचा जा सकता था या नहीं । लेकिन दक्षिण एशिया के इतिहासकार मानते हैं कि अगर ब्रिटेन ने विभाजन के लिए इतनी जल्दबाज़ी नहीं दिखाई होती और इसे थोड़ी तैयारी के साथ अंजाम दिया जाता तो काफ़ी हद तक कत्लेआम को टाला जा सकता था ।

जम्मू-कश्मीर मसले की वजह से दोनों देशों के बीच संघर्ष बढ़ा. यह राज्य भारत और पाकिस्तान की सीमा पर मुस्लिम बहुल राज्य था लेकिन यह किस देश के साथ जुड़े ये फ़ैसला जम्मू-कश्मीर के हिंदू शासक को करना था । आज़ादी के कुछ ही महीनों बाद कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान में युद्ध शुरू हो गया लेकिन इस विवाद का अब तक कोई हल नहीं निकल पाया ।

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

राष्ट्र चिंतन पर सांप्रदायिकता का कलंक

सरस्वती शिशु मंदिरों में पढाए जा रहे पाठ्यक्रम को केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय सांप्रदायिक करार देने पर तुला है । हाल ही में एक कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में मंत्रालय की पेशकश का ही समर्थन किया है । सरसरी तौर पर लगता है वाकई इन स्कूलों में समाज में वैमनस्य फ़ैलाने का काम बडे पैमाने पर हो रहा है ।

हकीकत इससे एकदम उलट है । ये बात दावे के साथ मैं इस लिए कह सकती हूं क्योंकि मैंने भी सरस्वती शिशु मंदिर में ही पढाई की । हालांकि ये भी सच है कि इन शिक्षा संस्थानों में बहुत ही गैरज़रुरी और गैरकानूनी काम होता है वो है राष्ट्र भक्ति की भावना जगाना और उसे पल्लवित -पुष्पित करने के लिए उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराना । रानी लक्ष्मीबाई , चेल्लम्मा , रानी दुर्गावती , आज़ाद , भगतसिंह ,रामप्रसाद बिस्मिल जैसे राष्ट्र्भक्तों के जीवन चरित्र पर आधारित पाठ कभी चरित्र निर्माण के लिए पढाए जाते थे । लेकिन अब वीर रस के राष्ट्र भक्तिपूर्ण गीत सांप्रदायिकता की श्रेणी में डाल दिए गये हैं ।

बदले माहौल में कई मर्तबा लगता है कि ये सब कुछ फ़िज़ूल है । ठोक -बजा कर दिलो दिमाग में भरे गये संस्कारों का अब कोई मोल ही नहीं रहा , इनके अनमोल होने की कौन कहे ...? सच तो ये है कि जब राष्ट्र के तौर पर हमारा कोई चरित्र ही नहीं बचा , राष्ट्र प्रेम की ज़रुरत ही कहां रही .....?

खैर , आज बात वैदिक ज्ञान की ओर विदेशियों के बढते रुझान की । देश में आज माहौल ऎसा हो गया है कि धार्मिक ग्रंथ संप्रदाय विशेष की मिल्कियत बन कर रह गये हैं , जबकि दूसरे मुल्क इन्हीं ग्रंथों को आधार बना कर पाठ्यक्रम तैयार कर रहे हैं । भारत में भले ही वैदिक पाठ्यक्रम का विरोध होता हो , लेकिन अमेरिका के न्यू जर्सी में 1856 में स्थापित स्वायत्त कैथोलिक सेटन हाल यूनिवर्सिटी में सभी छात्रों के लिए गीता पढना ज़रुरी कर दिया गया है । दुनिया में अपनी तरह का यह पहला निर्णय है । यहां ये जानना दिलचस्प होगा कि विश्वविद्यालय में लगभग तीन चौथाई छात्र ईसाई हैं ।

इधर ’हकीकी गीता’ के रुप में गीता का उर्दू अनुवाद तैयार करने वाले जाने माने शायर मुनीर बख्श ’आलम’ गीता को इंसानी बिरादरी की शरीयत बताते हैं । वे कहते हैं कि यह किसी खास ज़ात या धर्म की किताब नहीं है । गीता को सबसे बडा धर्म शास्त्र बताने वाले मुनीर बख्श कहते हैं " वेद , कुरान ,बाइबल सभी का चिंतन इसमें मौजूद है । राजनीति की उठापटक से बेज़ार और नाउम्मीद हो चुके बख्श साहब ईश्वर से कुछ इस अंदाज़ में दुआ मांगते हैं ........
कश्मकश में है वक्त का अर्जुन
इनको गीता का ज्ञान दे मौला ।

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

इस बार रोटी के पडेंगे लाले .......


देश भर में फ़ैली मालवी गेंहू की खुशबू इस बार मालवा के लोगों को ही मिल जाए तो बहुत बडी बात होगी । कम बरसात के कारण आधे से ज़्यादा खेतों में गेंहू की बुवाई ही नहीं हो पाई है । कुछ लोगों ने कम पानी वाली किस्मों की बोवनी की हिम्मत जुटाई है ,लेकिन उनमें मालवी गेंहू की वो खासियत कहाँ....?

’पग - पग रोटी . डग - डग नीर’ के लिए मशहूर मालव प्रदेश की धरती का आंचल सूख चुका है । प्यासी धरा से लोगों का पेट भरने लायक अनाज की उम्मीद भी दिन पर दिन फ़ीकी पडती जा रही है । मालवा में किसानों ने करीब 21 हज़ार हैक्टेयर में गेंहू की बनिस्बत 45, 600 हेक्टेयर में चना बोया है । कम पानी की दरकार के कारण किसानों को चने की फ़सल फ़ायदेमंद लग रही है । जल्दी ही इस समस्या से निपटने के उपाय नहीं तलाशे गये , तो गृहिणियों को पाक कला के नए गुर सीखना होंगे । आने वाले वक्त में गेंहू का होगा बेसन और चने का बनेगा आटा .....।

इस बीच अगले साल गेंहू की पैदावार में कमी के आसार ने लोगों के होश उडा दिये हैं । कई इलाकों में कम बारिश से गेंहू की बुवाई पर खासा असर पडा है । राज्य में 42 लाख हेक्टेयर के तय लक्ष्य से करीब चार लाख हेक्टेयर कम ज़मीन में गेंहू की बोवनी की बात कही जा रही है । प्रदेश में प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन दस से पंद्रह क्विंटल है । इस हिसाब से गेंहू उत्पादन तकरीबन पचास लाख क्विंटल कम होने की आशंका है । कृषि महकमा भी मान रहा है कि पानी की कमी रबी फ़सलों पर भारी पड रही है । नतीजतन बीस ज़िलों में गेंहू की कम बोवनी हुई है । मालवा , निमाड , मध्य भारत आदि अंचल सर्वाधिक प्रभावित हैं ।

विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर कुछ दिन और तापमान यूं ही बना रहा तो गेंहू के उत्पादन में 20 से 25 फ़ीसदी की गिरावट होगी । अन्य फ़सलों की पैदावार पर भी मौसम के बदलते तेवरों की परछाईं दिखाई देगी । मौसम की बेदर्दी से आई उत्पादन में कमी अनाज के दामों को बेकाबू कर देगी । ऎसे में मंदी की मार से टूटे लोगों पर मंहगाई का हंटर कहर बरपाएगा ।

ठंड के मौसम में सूरज के कडे तेवरों ने प्रदेश में रबी फ़सलों पर असर दिखाना शुरु कर दिया है । फ़सलों की बढवार रुक गई है। समय से पहले फ़सल पकने की आशंका ने किसान को चिंता में डाल दिया है । मौसम का मिजाज़ इस कदर बिगडा है कि दिसंबर के महीने में ठंड से निजात दिलाने वाली धूप इस मर्तबा परेशानी का सबब बन गई है । दोपहर में लोग तीखी धूप से बचने के तरीके तलाशते नज़र आते हैं ।

मौसम की बेरहमी गर्मी में हालत खराब कर सकती है । इस साल कम बारिश की वजह से प्रदेश में अभी से अकाल की आहट सुनाई देने लगी है । राज्य के 31 ज़िलों की 110 तहसीलों पर सूखे की मार ने लोगों के कंठ सुखा दिये हैं । इन जगहों पर पीने के पानी का ज़बरदस्त संकट पैदा हो गया है । सोना उगलने वाली धरती भी प्यासी है और उसने भी हाथ खडे कर दिये हैं ।

वर्षा की स्थिति और उसके असर पर ज़िलों से मंगाई गई रिपोर्ट में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं । सूबे के 139 नगरीय निकायों में एक दिन या उससे भी ज़्यादा अंतराल पर पीने का पानी मुहैया कराया जा रहा है । गांवों में तो स्थिति और भी विकट है । प्रशासनिक अमला भी गर्मी में पानी की मारामारी को लेकर परेशान है । पुलिस महकमे के आला अफ़सरान मानते हैं कि आने वाली गर्मियों में पानी का मसला कानून व्यवस्था के लिए सबसे बडा सिरदर्द होगा ।

मिल गया समंदर
फ़िर भी प्यास बाकी है
खारे पानी से ना बुझेगी
तलाश बाकी है
तपती दोपहर में भी
चातक की आंखें
लगी हैं नीले आसमान पर
आस अभी बाकी है ।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

आतंकी कसाब के मानव अधिकारों का वास्ता ........

आजकल मन में बडी ऊहापोह है । मुम्बई हमले का एकमात्र ज़िंदा पकडा गया चरमपंथी एकाएक मुझे हालात का मारा निरीह प्राणी नज़र आने लगा है । अपने मन की बात मैं किससे कहूँ ? और चुप भी कैसे रहूँ ? क्योंकि दिल की बात ज़बान पर आते ही देशप्रेमी जमात मेरी जान की दुश्मन हो जाएगी और चुप्पी की घुटन मुझे चैन से जीने नहीं देगी ।

ये भी संभव है कि इस साफ़गोई के बाद मेरा सिर कलम करने के लिए कई राष्ट्र भक्त फ़तवा जारी कर दें । लेकिन अब मुझे कोई परवाह नहीं क्योंकि मेरे साथ है देश का मीडिया ....। आखिर मैं उन्हीं की मुहिम को आगे बढाने का काम ही तो करुंगी ।

चैनलों को देख - देख कर ही मेरा ’ब्रेन वॉश’ हुआ है और हकीकत सामने आ सकी है । खबरची लगातार बता रहे हैं कि मोहम्मद अजमल आमिर कसाब को अमिताभ बच्चन की फ़िल्में पसंद हैं । वह लज़ीज़ मांसाहारी खाने का शौकीन है । यानि वो पूरी तरह बिल्कुल हमारी - आपकी तरह है । गरीबी का मारा कसाब बस कुछ पैसों के लालच में झाँसे में आ गया । आखिर उसकी उम्र ही क्या है ? लडकपन में तो ऎसी गल्तियां हो ही जाती हैं , तो क्या उसकी भूल पर रहमदिली नहीं अपनाना चाहिए ।

हाल ही में मानव अधिकार दिवस गुज़रा है । इस दिन हुई तमाम गोष्ठियों और सेमिनारों ने मेरी आँखें खोल दी हैं । मैंने जान लिया है कि मानवता ही जीवन का सार है । कोई कितना ही बडा अपराध क्यों ना कर दे हमें मानवतावाद का दामन थामे रहना चाहिए । इसी नाते हमें कसाब के साथ नरम रुख अख्तियार करना चाहिए । क़साब पर मुंबई पुलिस ने हत्या, हत्या का प्रयास, देश के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने, षड़यंत्र करने और विस्फोटक एवं हथियार अधिनियम कि विभिन्न धाराओं के तहत 12 मामले दर्ज़ किए हैं ।

चैनलों के ज़रिए मिली खबरों ने मुझे कसाब के प्रति अपना नज़रिया बदलने पर मजबूर किया है । हाल ही में जागृत मेरा मानव अधिकारवादी मन कसाब के हक में सरकार से मांग करता है कि उसके लिए हर रोज़ बेहतरीन मुगलई दस्तरखान सजाया जाए । डीवीडी पर मनपसंद फ़िल्में देखने की इजाज़त दी जाए । उसकी पैरवी के लिए जानेमाने वकीलों की टीम मुहैया कराई जाए । कसाब अम्मी को खत लिखना चाहता है , मगर टेक्नालाजी के इस दौर में सीधे हाट लाइन पर बात करने में भी क्या हर्ज़ है ?

अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के मानवतावादी यह मुद्दा हथियाएं , उससे पहले हमें इसे लपक लेना चाहिए । आप महानुभाव भी इस पुण्य कार्य में हाथ बंटाना चाहें , तो तहे दिल से स्वागत है आपका । तन ,मन खासतौर पर धन से दिल खोलकर मदद कीजिए । याद रखिए आज का निवेश कल की सुरक्षा ....। कल को देश दुनिया में नाम भी हो सकता है और विदेशी फ़ंडिंग की मार्फ़त दाम भी बढिया मिलेगा ..। तो फ़िर देर किस बात की ....? हाथ बढाइये । हाथ से हाथ मिलाइये ....।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

’राम राज्य’ की आस में शिव को सौंपा ताज

शिवराजसिंह चौहान की ताजपोशी के साथ बीजेपी सरकार की नई पारी की शुरुआत हो गई है । भोपाल के जम्बूरी मैदान पर उमडे अथाह जनसैलाब ने भाजपा को स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि छप्पर फ़ाड कर वोट देने के बाद जनता सरकार से जमकर काम लेने के लिए कमर कस चुकी है ।

प्रदेश की जनता ने जिस निष्ठा और विश्वास के साथ शिवराजसिंह चौहान पर भरोसा जताया है , उसकी कसौटी पर खरा उतरने के लिए मुख्यमंत्री को सूबे की कमान संभालते ही काम में जुट होगा । भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को दरकिनार कर राज्य की बागडोर भाजपा को सौंपने के पीछे सिर्फ़ एक ही कारण नज़र आता है कि मतदाताओं को शिवराज की कोशिशों में ईमानदारी दिखाई दी । लोगों ने ना पार्टी और ना ही स्थानीय नेता को चुना , बल्कि उन्होंने तो शिवराज के विकास के नारे पर अपने भरोसे की मोहर लगाई है ।

इस चुनाव में मतदाता ने स्पष्ट कर दिया है कि ना तो उसे बीजेपी से कोई खास लगाव है और ना ही कांग्रेस से कोई बैर । उसे मतलब है सिर्फ़ काम से । अच्छा काम करने की बात और विकास का वायदा तो लगभग सभी पार्टियों ने किया लेकिन मतदाताओं ने वायदा करने वालों की विश्वसनीयता को जांचा - परखा । यही वजह रही कि एक दूसरे को नीचा दिखाने में मशगूल कांग्रेस नेताओं के प्रति जनता ने बेरुखी अख्तियार कर ली । लोगों को लगा कि जब तक कांग्रेस अपना घर व्यवस्थित नहीं कर लेती , उसे प्रदेश का ज़िम्मा सौंपना ठीक नहीं होगा ।

दूसरी अहम बात रही शिवराज की विनम्र और ज़मीन से जुडे व्यक्ति की छबि । उन्होंने अपनी कमियाँ स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई । शायद इसीलिए तमाम खामियों के बावजूद शिवराज का जननायक के रुप में ’कायान्तरण” संभव हो सका । लेकिन अभी यह सफ़र का महज़ आगाज़ है । आगे का रास्ता काफ़ी कंटीला और दुर्गम है और यहीं से शुरु होगा जननायक की असली परीक्षा का दौर ...?

मध्यप्रदेश चुनावों की कुछ विशिष्टताओं पर विचार ज़रुरी है । हालांकि भाजपा के कई धडॆ इसे मानने को तैयार नहीं लेकिन हकीकतन आम जनता पर ’शिवराज फ़ेक्टर” हद दर्ज़े तक हावी रहा । गुजरात का ’मोदी माडल’ अपनी जगह है , मगर समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने के लिए वायदों की बरसात के ’ शिवराज फ़ार्मूला’ का कामयाब होना आगामी चुनावों की रणनीति पर सभी दलों को फ़िर से काम करने के लिए बाध्य करेगा । इस माडल की खामियां और खूबियां तो अगले पांच साल ही बता सकेंगे , लेकिन फ़िलहाल यह माडल मोदी माडल की तुलना में ज़्यादा कारगर साबित हुआ है ।

जनता ने ज़्यादातर शिवराज को वोट दिया है फ़िर चाहे उम्मीदवार कोई भी रहा हो । अममून देखा गया है कि लोकप्रियता का बढता ग्राफ़ संकट का स्रोत भी बन जाता है । जनता जहाँ असीमित आशाएँ- अपेक्षाएँ पाल लेती है , वहीं पार्टी के भीतर भी ईर्ष्या और द्वेष के नाग फ़न फ़ैलाने लगते हैं । ऎसे में उन्हें खुद के बनाए माडल से भी सावधान और चौक्कना रहना होगा ।

शिवराज सरकार के सामने कडी चुनौती होगी चुनावी घोषणा पत्र में किए गये वायदों को पूरा करने की । बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र ’जन संकल्प पत्र’ में जो वायदे किए हैं यदि वे सारे के सारे आने वाले पाँच साल में पूरे कर दिए जाते हैं तो मध्यप्रदेश हकीकत में स्वर्ग बन जाएगा ।

पिछले कार्यकाल में शिवराज ने राजधानी में किस्म - किस्म की महापंचायतें आयोजित कर ज़बानी जमा खर्च की तमाम रेवडियाँ बाँटी । प्रदेश का एक बडा हिस्सा उन घोषणाओं को लेकर तरह तरह के सपने बुन कर बैठा है । वायदों को हकीकत में बदलने के लिए सरकार को आर्थिक मोर्चे पर विशेष कोशिशें करना होंगी । योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए आय के नए स्रोत तलाशने के साथ ही वित्तीय स्थिति में मज़बूती के लिए मितव्ययिता अपनाना होगी । लेकिन सूबे के मुखिया के ’राजतिलक” पर दिल खॊलकर किए गए खर्च को देखते हुए फ़िलहाल वित्तीय अनुशासन की बात कहना बेमानी लगता है ।

बहरहाल शिवराज एकछत्र नेता के रुप में उभरे हैं । उन्हें सकारात्मक समर्थन मिला है ,लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या वे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर सकारात्मक राजनीति और रचनात्मक सुशासन का माडल तैयार कर सकेंगे.....?

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अकसर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का ।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

नेताओं के आगे प्रजातंत्र की शिकस्त

सत्ता के सेमीफ़ायनल का नतीजा आ चुका है । कहा जा सकता है कि मुकाबला बराबरी का रहा । कांग्रेस के पास खोने को सिर्फ़ दिल्ली था , लेकिन दिल्ली के साथ राजस्थान मे मिली जीत ने पार्टी को उम्मीद से दुगना पाने के एहसास भर दिया है । बीजेपी तीन राज्यों की सत्ता फ़िसलने की आशंका से घिरी थी , मगर हार मिली सिर्फ़ राजस्थान में । यानि दोनों ही खेमों के पास खुशियां और गम मनाने के कारण मौजूद हैं ।

हिन्दी बेल्ट के मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ , राजस्थान और दिल्ली के नतीजों से जो बात उभर कर आई है , वह ये कि देश की राजनीति में व्यक्तिवाद की पुनर्स्थापना । इन चारों राज्यों में चुनाव कुछ व्यक्तियों के इर्द - गिर्द ही केन्द्रित रहे । इन सभी प्रदेशों में पार्टियां और उनके सिद्धांत भी हाशिए पर चले गए ।

फ़ौरी तौर पर व्यक्तिवाद भले ही राजनीतिक दलों के लिए फ़ायदेमंद साबित हो , लेकिन आगे चलकर यह पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कतई फ़ायदेमंद नहीं कहा जा सकता । भले ही चुनाव हो गये , लेकिन मुद्दे अनुत्तरित हैं । वैसे जनतंत्र में लीडर से बडी पार्टी होती है लेकिन इन सबसे ऊपर है देश ...।

चुनाव नतीजों को लेकर बैचेनी काफ़ी बढ गई है । कई लोगों से बातचीत के बाद सामने आए तथ्य हैरान कर देने वाले हैं । कुछ साल पहले तक भ्रष्टाचार सामाजिक रुप से अनैतिक माना जाता था । धीरे - धीरे इसे मान्यता मिलने लगी और अब तो आलम ये है कि भ्रष्टाचारी ही समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित है ।

मतदाताओं के लिए भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा ही नहीं है । हर शख्स चाहता है कि उसका हरेक काम , गलत हो या सही , हर हाल में होना ही चाहिए , चाहे फ़िर इसकी कोई भी कीमत चुकाना पडे । मुम्बई हमले पर हाहाकार मचाने वाला यह देश सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों से ईमानदारी चाहता है , लेकिन खुद कदम - कदम पर घूस लेना चाहता है । गलत को सही का जामा पहनाने के लिए पैसे का ज़ोर आज़माने से भी कोई परहेज़ नहीं ।

पैसों का लेन देन अब दस्तूर बन चुका है । इस लिए मंहगाई भी कोई मुद्दा नहीं रही । इस चुनाव में देश में अमन चैन यानि आतंकवाद से निजात के मसले पर निजी हित भारी पडते दिखाई दिए । लोगों की सोच इतनी संकुचित हो गई है कि देशहित कहीं पीछे ,काफ़ी पीछे छूट गया है । कुछ युवाओं से बातचीत में पता चला कि उन्होंने सत्तारुढ दल को लाने के लिए थोकबंद वोट दिए , ताकि कालेज में संचालित पाठ्यक्रम पर लटक रही स्टे की तलवार से छुटकारा मिल सके । कुछ ने नियमित होने की लालसा और कुछ ने गली की सडक के सुधरने की आस में मौजूदा सरकार को ही दोबारा सत्ता सौंपने का फ़ैसला लिया ।

नेताओं ने इसे जनतंत्र की जीत बताया है । लेकिन क्या वाकई गणतंत्र जीत गया । नेताओं के छलावे में आकर बडे मुद्दों को दरकिनार करके देश कितने सालों तक प्रजातंत्र का जश्न मना सकेगा ...? कल चाहे जो भी पार्टियां जीती हों लेकिन देश एक बार फ़िर हार गया । जनतंत्र की इतनी करारी हार पर मन बहुत व्यथित है । चुनाव परिणाम डॉक्टर की उस जांच रिपोर्ट की मानिंद लगते हैं , जिसमें मरीज़ को लाइलाज बीमारी से ग्रस्त पाया गया हो । ६३ बरस के भारत की जर्जर - बीमार देह को भलिभांति सेवा टहल की सख्त ज़रुरत है । लेकिन बूढों के लिए आश्रम बनाने वाले इस खुदगर्ज़ समाज से क्या ये उम्मीद वाजिब है ............?
मियाँ मैं हूँ शेर , शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहज़ा नर्म भी कर लूं, तो झुंझलाहट नहीं जाती
किसी दिन बेखयाली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ , मुँह की कडवाहट नहीं जाती