सूरज की तपिश बढ़ने के साथ ही भोपाल की बड़ी झील का आकार घटता जा रहा है । तालाब की बदहाली पर आँसू और गेंती-फ़ावड़ा लेकर श्रमदान में पसीना बहाने वाले तो कई मिल जाएँगे , लेकिन इन हालात के मूल कारणों को ना तो कोई जानना चाहता है और ना ही इन पर बात करना । जैसे - जैसे तालाब का अस्तित्व सिमट रहा है , झील की मौत का जश्न मनाने वालों की बाँछें खिलने लगी हैं ।
’अमृतम जलम’ , ’अपनी झील-अपनी धरोहर’ और ’जल सत्याग्रह’ के ज़रिए झील को नया जीवन देने के कागज़ी दावे किये जा रहे हैं । मीडिया घरानों के एफ़ एम रेडियो पर दिन भर तालाब के लिये पसीना बहाने का चर्चा रहता है । अखबारों के दबाव में नेता और सरकारी अधिकारी भी चुप लगाये तमाशा देख रहे हैं । अखबारों के पन्ने प्रतिदिन श्रमदान की तस्वीरों और खबरों से रंगे होते हैं । लगता है गेंती- फ़ावड़ा चलाते लोगों का पसीना ही तालाब लबालब कर देगा ।
‘ताल तो भोपाल का और सब तलैया‘ की देश भर में मशहूर कहावत जिस झील की शान में रची गई, वह अब बेआब और बेनूर हो गई है । इस पहाड़ी शहर की प्यास बुझाने के लिए राजा भोज ने 11वीं सदी में बड़ी झील बनवाई थी 17वीं शताब्दी में नवाब छोटे खां ने निस्तार के लिए छोटे तालाब का निर्माण कराया । इसके मूल में बड़े तालाब को संरक्षित रखने की सोच थी ।
बड़े-बूढे उम्रदराज़ी की दुआ देने के लिए कहा करते थे - "जब तक भोपाल ताल में पानी है, तब तक जियो ।" क़रीब एक हज़ार साल पुराने `भोपाल ताल´ का जिक्र लोगों की इस मान्यता का गवाह है कि बूढ़ा तालाब कभी सूख नहीं सकता । मगर हम अपने लालच पर काबू नहीं रख पाए और अंतत: बूढ़े तालाब की साँसें धीरे-धीरे टूटने की कगार पर हैं । शहर की गंदगी, कचरे और मिट्टी के जमाव ने झील को उथला कर दिया है जिससे इसकी जल भंडारण क्षमता घट गई है। 31 वर्ग किलोमीटर के विशाल दायरे से सिमटकर तालाब महज 5 वर्ग किलोमीटर रह गया है । वैसे बड़े तालाब का भराव क्षेत्र 31 वर्ग किलोमीटर और कैचमेंट एरिया 361 वर्ग किलोमीटर है।
बड़े तालाब का तकरीबन 26 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र खाली हो चुका है। आसपास के लोगों के अलावा भू-माफिया ने भी मौके का फ़ायदा उठा अवैध कब्जा कर अधिकांश हिस्से में खेती शुरू कर दी । इतना ही नहीं कुछ इलाकों में अतिक्रमण कर पक्के मकान बना लिए गए हैं। बेजा कब्जों और अवैध निर्माणों से भी झील का जल भराव क्षेत्र घटा है।
भोपाल की छोटी और बड़ी झील को प्रदूषण मुक्त करने और उनके संरक्षण के लिए जापान की मदद से वर्ष 1995 में भोज वेटलैंड परियोजना शुरु की गई थी । जेबीआईसी के सहयोग से भोपाल के तमाम छोटे -बड़े तालाबों के संवर्धन और प्रबंधन संबंधी कामों पर 247 करोड़ रुपए खर्च हुए । वर्ष 2004 में पूरी हुई इस परियोजना में तालाब गहरीकरण, जलकुंभी हटाने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने, हाई लेवल ब्रिज के निर्माण जैसे कार्य किए जाने की बात कही जा रही थी। परियोजना तो खत्म हो गई ,लेकिन तालाब के हालात बद से बदतर होते गए । सीवेज का पानी आज भी तालाब में मिल रहा है । भोपाल की झीलों की संरक्षण और प्रबंधन परियोजना
A. Date of agreement - 28 February 1995
B. Contract period - 12 April 2002
C. Project implementation period - April 1995 to March 2001
(Extended upto March 2002)
D. Project Cost - 247.02 Crore (8300 million yen)
1. Loan Amount by JBIC ( 85%) - 7055 million yen
(exchange rate 1 Rs. = 3.36 yen)
2. State Government Contribution - Rs. 370.5 million (1245 million yen)
3. Expenditure of State Govt. before 01.04.1995 - Rs. 243.7 million
4. Project Expenditure from 01.04.1995 to 31.05.2001 (in Indian Rupees) - Rs. 1006.5 million
5. Project Expenditure from 01.04.1995 to 31.05.2001 (Commitment procedure in yen) - Rs. 187.
"एप्को " से साभार
तहज़ीब का शहर माने जाने वाले भोपाल को तालों की नगरी भी कहा जाता है। यहाँ नवाबी दौर में वॉटर रिचार्ज सिस्टम के 14 तालाब हुआ करते थे । इनमें से अब केवल पाँच तालाब ही बचे हैं । अतिक्रमण ने शहर के नौ तालाबों को लील लिया है । मोतिया तालाब और मुंशी हुसैन खाँ तालाब के बीच बने सिद्दीक हसन खाँ में अब पानी की जगह घास-फ़ूस और झाड़-झँखाड़ हैं ही , आलीशान अट्टालिकाएँ भी शासन-प्रशासन को मुँह चिढा़ रही हैं । अच्छे खाँ की तलैया , गुरुबख्श की तलैया ,लेंडिया तालाब अब इतिहास के पन्नों में दफ़्न हो चुके हैं । चार सौ से ज़्यादा छोटी-बड़ी बावड़ियाँ शहर के लोगों की पीने के पानी और निस्तार की ज़रुरतों को पूरा करती थीं ।
ज़ुबानी जमा खर्च से ना तो आज तक कभी कुछ बदला है और ना ही आगे भी ऎसा होगा । तालाब बचाने की चाहत किसे है ? देश में जब भी कहीं आपदा आती है चील गिद्धों की फ़ौज की जीभें लपलपाने लगती हैं । भोपाल की झील की मौत का मातम नहीं जश्न मनाया जा रहा है । सिवाय ढोंग के कुछ नहीं हो रहा । ढाई सौ करोड रुपए खर्च होने के बाद अगर झील की ऎसी दुर्दशा है तो कौन ज़िम्मेदार है ? भोजवेट लैंड परियोजना के कर्ता धर्ताओं को तो सीखचों के पीछे होना चाहिए । फ़िलहाल जो नाटक चल रहा है उसके पीछे भी किसी बडे फ़ंड की जुगाड़ और उसे हज़म करने की साज़िश है । वरना कुछ अखबार मालिकों को अचानक जल ही जीवन है या फ़िर अमृतम जलम की सुध क्यों आ गई ? खैर इस देश में कभी कुछ नहीं बदलेगा । हर मौत किसी के लिए सौगात बन कर आती रही है आती रहेगी ।