मंगलवार, 1 अप्रैल 2008
गर्मी के मौसम ने अपनी तूफ़ानी आमद दर्ज़ करा दी है। इसी के साथ लोगों के चेहरों का नूर भी फ़ीका पड्ने लगा है । बरसात और सर्दी के खुशगवार दिनों को याद कर लोग सूरज की तपिश पर आग बबूला होते नज़र आ जाएंगे ,लेकिन कोई भी इन हालात के पीछे के कारणों को न तो जानने की कॊशिश करना चाहता है और ना ही इनसे निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति तैयार करने में कोई दिलचस्पी नज़र आती है । हाल ही में एक खबर सुनने को मिली कि मध्यप्रदेश के छतरपुर ज़िले के जंगल में पानी के लिए भालू और इंसानों के बीच जमकर संघर्ष हुआ । उपजाऊ ज़मीनों पर कांक्रीट का जंगल खडा कर अपनी तरक्की पसंद सोच पर इतराने वाले इस दो पैर वाले जानवर ने दिनॊंदिन सिकुड़ते जंगलॊं पर फ़िर से अतिक्रमण शुरू कर दिया है । आधुनिकता के पर्याय बन चुके उपकरणों ने भलॆ ही हमें तात्कालिक सुख मुहैया करा दिया हो ,लेकिन हमारा आत्मिक आनंद छीन लिया है । विकास की इस आत्मघाती दौड़ में कहीं हम मानव सभ्यता को ही तो खतरे में नहीं डाल रहे ?
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