सोमवार, 23 मार्च 2009

काँग्रेस ही बनायेगी वरुण को बड़ा नेता

देश में आजकल मुद्दों पर राजनीति नहीं गर्माती । अब तो सियासत होती है खेलों , पुरस्कारों और बयानों पर । मालूम होता है भारत में चारों तरफ़ खुशहाली है । मुद्दे कोई शेष नहीं इसलिए लोग शगल के लिए बहस मुबाहिसे करते हैं । आई पी एल देश में हो या सात समुंदर पार इससे आम जनता को क्या ? लेकिन धनपशुओं का खेल दुनिया भर में भारत की नाक का सवाल बन गया है ।

खेलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाकामी हाथ आने पर नेता एक ही बात कहते सुनाई देते हैं कि खेलों को राजनीति से दूर रखा जाये , लेकिन खेल के मैदान राजनीति के अखाड़ों में तब्दील हो गये हैं । आईपीएल को लेकर चल रही उठापटक में अब तक राज्यों के पाले में गेंद डाल रहे गृहमंत्री पी. चिदाम्बरम नरेन्द्र मोदी के बयान के बाद आज अचानक मीडिया से मुखातिब हुए । गुजरात के मुख्यमंत्री ने अपने चिरपरिचित अँदाज़ में आईपीएल को देश की प्रतिष्ठा के प्रश्न से जोड़्कर केन्द्र को आड़े हाथों क्या लिया , यूपीए सरकार को मामले में सियासत की गँध आने लगी ।

दरअसल इस मुद्दे पर पहली चाल तो काँग्रेस ने ही चली थी । शरद पवार से महाराष्ट्र में सीटों के बँटवारे को लेकर चल रही खींचतान में दबाव की राजनीति के चलते आईपीएल को मोहरे की तरह इस्तेमाल करने का दाँव खुद काँग्रेस पर उलट गया । ना तो शरद पवार झुके और ना ही दबाव काम आया । बाज़ी पलटते देख केन्द्र सरकार को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है ।

लगता है काँग्रेस के ग्रह नक्षत्र आज कल ठीक नहीं चल रहे । ’ उल्टी हो गई सब तदबीरें कुछ ना दवा ने काम किया ’ की तर्ज़ पर जहाँ हाथ डाला , वहीं बाज़ी उलट गई ।वरुण गाँधी को पीलीभीत में भड़काऊ भाषण देने के मामले में ऊपरी तौर पर यह चुनाव आयोग से जुड़ा मामला नज़र आता है लेकिन इसके सूत्र कहीं और से संचालित होते दिखाई दे रहे हैं । देश में पहली मर्तबा ऎसा हुआ है जब चुनाव आयोग ने सीधे किसी पार्टी को यह सलाह दे डाली है कि वह अमुक उम्मीदवार को टिकट ना दे ।

संविधान के जानकारों की राय में आयोग का दायित्व चुनाव प्रक्रिया के संचालन तक सीमित है ।गौर करने वाली बात यह भी है कि देश में इससे पहले क्या किसे ने तीखे भाषण नहीं दिये ? कहा तो यह भी जाता है कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी का एक बयान दिल्ली में सिखों के कत्ले आम का सबब बना । ऎसा लगता है कि वरुण की बढ़ती लोकप्रियता ने किसी "माँ" की चिंताएँ बढ़ा दी हैं । दलितों के घर भोजन करके और सिर पर मिट्टी ढ़ोकर भी राहुल बाबा का राजनीतिक कद बढ़ना मुमकिन नहीं हो पाया है । एक आम भारतीय माँ की तरह सोनिया मैडम भी अपनी आँखों के सामने बेटे को सफ़लता से सत्तासूत्र सम्हाले देखना चाहती हैं , तो इसमें किसी को क्या दिक्कत है ?

" हारेगा जब कोई बाज़ी तभी तो होगी किसी की जीत " इसलिये राहुल को सत्ताशीर्ष तक पहुँचाने में एकाएक आ खड़ी हुई बाधा को किसी भी तरह से दूर तो करना ही होगा । असली - नकली गाँधी की लड़ाई में राजमोहन गाँधी की बजाय जनता ने भले ही दत्तक पुत्र के वंशजों को चुन लिया हो लेकिन अब जबकि इन्हीं वंशजों में से किसी एक को चुनने की बारी आएगी , तो जनता योग्यता के आधार चुनाव करेगी । सियासत में योग्यता का पैमाना लटके- झटके नहीं जनता के बीच पैठ होता है ।

मीडिया की मदद और सरकारी लवाजमे की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद राहुल गाँधी उस मुकाम पर अब तक नहीं पहुँच पाये हैं , जहाँ बरसो से निर्वासित जीवन जी रही मेनका गाँधी का बेटा एक झटके में पहुँच गया । यहाँ एक सवाल और भी है कि हिन्दू शब्द क्या वाकई भड़काऊ है ? अबू आज़मी , अमरसिंह , सैयद शहाबुद्दीन , बनातवाला , आज़म खाँ ऎसे नाम हैं जो जनसभाओं में तो आग उगलते ही रहे , संसद के भीतर भी ज़हर उगलने से बाज़ नहीं आये ।

अब तक ह्त्या,लूट, डकैती ,फ़िरौती ,धोखाधड़ी के मामलों में सज़ायाफ़्ता या अनुभवी जेल यात्री ही चुनाव लड़ते रहे हैं । लम्बे समय बाद कोई नेता सियासी दाँवपेंचों के चलते जेल की हवा खा ही आये , तो भी क्या ...? इससे लोकतंत्र का सीना गर्व से चौड़ा ही होगा । इन सभी बातों पर गौर करने के बाद हिन्दूवादियों से आग्रह है कि वे इसे "कहानी घर-घर की" समझ कर ही प्रतिक्रिया दें ।

हर मोर्चे पर लगातार पिट रही काँग्रेस को वरुण मामले में भी मुँह की खाना पड़ेगी । चाहे-अनचाहे मीडिया की नेगेटिव पब्लिसिटी धीरे-धीरे गाँधी खानदान के नवोदित सितारे को स्थापित कर देगी । ऎसे में जेल यात्रा का सौभाग्य मिल गया तो भाजपा की बल्ले-बल्ले और वरुण की चाँदी ही चाँदी .....????? लगता है काल का चक्र घूम रहा है । सियासी कुरुक्षेत्र में वक्त रुपी कृष्ण वरुण के पक्ष में खड़ा है ।

मामला ऎसे दिलचस्प मोड़ पर आ गया है कि हर हाल में फ़ायदा वरुण को ही मिलता दिखाई देता है । कहते हैं बुरे वक्त में साया भी साथ छोड़ देता है । पाँच साल सरकार में रहकर गलबहियाँ करने वाले क्षेत्रीय दलों ने चुनाव से पहले ठेंगा दिखा दिया है । जो कल तक हमसफ़र थे वे अब रक़ीब हैं ।

शनिवार, 21 मार्च 2009

उम्मीदवारों को लेकर काँग्रेस में घमासान

भाजपा में राजनीतिक स्तर पर सहमति बनने के बाद पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल की शनिवार 21 मार्च को भोपाल में विधिवत घर वापसी हो गई । पार्टी से नाराज़ प्रहलाद ने उमा भारती के साथ मिलकर भारतीय जन शक्ति का गठन किया था । वे उमा के कामकाज के तौर तरीकों से खफ़ा थे । उमा से अनबन के चलते विधान सभा चुनावों से पहले भी उनकी बीजेपी में वापसी को लेकर अटकलें लगाई जा रही थीं ।

आज पार्टी मुख्यालय में प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में प्रहलाद ने अपने दल - बल के साथ पार्टी में पुनर्प्रवेश कर लिया । बीजेपी में इस बात को लेकर कश्मकश है कि पार्टी प्रहलाद का उपयोग किस तरह करे ? उन्हें छिंदवाड़ा से काँग्रेस उम्मीदवार कमलनाथ के खिलाफ़ मैदान में उतारने की चर्चाएँ भी चल रही हैं । हालाँकि श्री पटेल ने चुनाव लड़ने से इंकार किया है , लेकिन पार्टी ने फ़िलहाल छिंदवाड़ा ,खजुराहो और सीधी सीट पर प्रत्याशियों के नाम की घोषणा अब तक नहीं की है । इसके अलावा बालाघाट और बैतूल के लिए घोषित उम्मीदवारों को बदलने पर भी विचार चल रहा है ।

लोधी वोट बैंक में प्रहलाद और उमा की अच्छी पैठ है । उत्तर प्रदेश में कल्याणसिंह के बीजेपी से बाहर होने के बाद बुंदेलखंड, महाकौशल और यूपी के लोधी-लोधा मतदाताओं को पार्टी के पक्ष में लाने के लिए भारी माथापच्ची चल रही थी । बालाघाट प्रहलाद का प्रभाव क्षेत्र है , जहाँ से बीजेपी को अच्छी बढ़त मिलने की उम्मीद बन गई है ।

इधर बीजेपी का कुनबा फ़िर से भरापूरा दिखाई देने लगा है । विधानसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफ़लता ने नेता-कार्यकर्ताओं के हौंसले बुलंद कर दिये हैं , वहीं अँदरुनी उठापटक से काँग्रेस की हालत पतली है । बीजेपी ने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा में भी बढ़त ले ली है । बहुजन समाज पार्टी ने भी सभी उनतीस सीटों से प्रत्याशी उतारने की तैयारी कर ली है , जबकि काँग्रेस अब तक बीस सीटों पर ही उम्मीदवार तय कर पाई है । बची हुई नौ में से सात सीटों पर भारी घमासान है । भोपाल और होशंगाबाद में मुस्लिम नेता बाग़ी तेवरों के साथ टिकट का दावा ठोक रहे हैं ।

जिन क्षेत्रों के लिए नामों की घोषणा हुई है , वहाँ असंतोष फ़ूट पड़ा है । पैराशूटी उम्मीदवारों को लेकर उपजी नाराज़गी सड़कों पर आ गई है । सागर, मंदसौर और खजुराहो में विरोध प्रदर्शन के साथ ही पुतले जलाने का दौर भी खूब चला । सागर में असलम शेर खान को टिकट देने के विरोध में एक कार्यकर्ता ने अपनी कार ही आग के हवाले कर दी ।विरोध में कार्यकर्ताओं ने न सिर्फ़ पुतले जलाये बल्कि काँग्रेस कार्यालय में पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष का एक बैनर भी लटका दिया । इसमें मैडम झपकी लेती दिखाई पड़ती हैं , उनकी नींद पाँच साल बाद टूटने की उम्मीद जताई गई है ।

इसी तरह युवक काँग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मीनाक्षी नटराजन को मंदसौर सीट की प्रत्याशी बनाना भी पार्टी का सिरदर्द बन गया है । नीमच क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के एक वर्ग ने उन्हें थोपा हुआ नेता बता कर पुतले फ़ूँके । खजुराहो प्रत्याशी राजा पटैरिया के लिए भी स्थानीय नेता का मुद्दा भारी पड़ रहा है । हटा(दमोह) के निवासी पटैरिया को लोग बाहरी नेता करार दे रहे हैं । प्रदर्शन और जमकर नारेबाज़ी ने उनकी चिंताएँ बढ़ा दी हैं ।

मैदाने जंग में जाने से पहले ही आपसी कलह ने काँग्रेस कार्यकर्ताओं के हौसले पस्त कर दिये हैं । मध्यप्रदेश में काँग्रेस दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही । हाल के विधानसभा चुनावों से भी पार्टी ने कोई सबक नहीं सीखा । बीजेपी के खिलाफ़ मुद्दों की भरमार है लेकिन काँग्रेस के पास अब ऎसे नेता नहीं जो इन मुद्दों को वोट में तब्दील कर सकें । पिछली मर्तबा बीजेपी पच्चीस सीटों पर काबिज़ थी । चार सीटों से संतोष करने वाली काँग्रेस यदि वक्त रहते नहीं चेती तो प्रदेश में पार्टी का नामलेवा नहीं बचेगा ।

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

उमा के बदले रुख से खिला कमल

चुनाव की तारीख की ओर बढ़ते हुए सियासत भी रफ़्तार पकड़ रही है । नाराज़ प्रहलाद पटेल ’ घर ’ लौटने के लिए बेताब हैं । मित्तल मामले में कोप भवन में जा बैठे जेटली भी ज़िद छोड़ने को तैयार हो गये हैं । कल तक आडवाणी को पानी पी-पी कर कोस रही साध्वी भी गिले - शिकवे भुलाकर ’हम साथ-साथ हैं’ का एलान कर रही हैं । कुल मिलाकर भाजपा में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से घूम रहा है कि सारा परिदृश्य बदला हुआ नज़र आ रहा है ।

मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी उमा भारती ने सुलह की पाती भेजकर आडवाणी के नेतृत्व में आस्था जताने का दाँव खेलकर कइयों के होश उड़ा दिये हैं । उमा ने आडवाणी से मुलाकात के बाद यह कह कर सबको चौंका दिया कि पीएम इन वेटिंग का समर्थन राष्ट्र धर्म है । वे कहती हैं कि आडवाणी का समर्थन कर उन्होंने भाजपा पर कोई एहसान नहीं किया है , केवल राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है । साथ ही बीजेपी में वापसी के कयास को उन्होंने सिरे से खारिज भी कर दिया है ।

"साफ़ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं " की तर्ज़ पर उमा भाजपा में आने की हर मुमकिन कोशिश करती हैं लेकिन पूछने पर साफ़ मुकर जाती हैं । लुका छिपी के इस खेल में उमा की राजनीतिक हैसियत कम से कमतर होती चली जा रही है । लेकिन उनकी ठसक कम नहीं होती । अड़ियल रवैये और ’पल में तोला- पल में माशा’ वाले तेवरों के कारण भाजपा में उनके दोस्त कम और दुश्मन ज़्यादा हैं ।

उधर, उमा की खाली जगह भरने के लिए सुषमा स्वराज ने डेरा डालने की ग़रज से भोपाल में होली पर दीवाली मनाकर बँगले में प्रवेश क्या किया , अटकलों का बाज़ार गर्माने लगा । प्रदेश की राजनीति पर पैनी निगाह रखने वालों का कहना है कि सिविल लाइन का बँगला , जो अब सुषमा स्वराज का निवास है , हमेशा ही सत्ता का केन्द्र रहा है । कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनाव बाद प्रदेश में मुखिया बदलने की भूमिका तैयार हो रही है । फ़िलहाल सुषमा विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं । मिथक है कि विदिशा से जीतने वाले नेता की सियासी गाड़ी तेज़ रफ़्तार से दौड़ने लगती है ।

यहाँ से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मीडिया हस्ती रामनाथ गोयनका तक अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। वर्ष 1991 में हुए 10 वीं लोकसभा के चुनाव में वाजपेयी विदिशा और लखनऊ सीट पर एक साथ लडे थे । दोनों ही सीटों से जीतने के कारण वाजपेयी को लखनऊ भाया और उन्होंने विदिशा सीट छोड दी थी। इसके बाद उपचुनाव में शिवराजसिंह चौहान पहली बार सांसद बने थे। विदिशा का कुछ हिस्सा विजयाराजे सिंघिया के संसदीय क्षेत्र में आने के कारण वे भी इस क्षेत्र का प्रतिनिघित्व कर चुकी हैं। अब एक बार फिर भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज को प्रत्याशी बनाकर विदिशा को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया है।

प्रदेश स्तर पर विदिशा का दबदबा पहले से ही कायम है। लगातार 5 बार क्षेत्र का प्रतिनिघित्व करने वाले शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री की कमान संभाले हैं । वहीं विदिशा से सांसद रह चुके राघवजी के पास प्रदेश की वित्त व्यवस्था का ज़िम्मा हैं। भाजपा का गढ कहलाने वाले विदिशा संसदीय क्षेत्र में सुषमा स्वराज को मैदान में उतारे जाने से एक बार फिर काँग्रेस की मुश्किलें बढ गई हैं ।

बहरहाल प्रदेश में भाजपा की राजनीति उबाल पर है । लम्बे इंतज़ार के बाद आखिरकार पूर्व केन्द्रीय मंत्री और भारतीय जनशक्ति के नेता प्रहलाद पटेल की भाजपा में वापसी का रास्ता लगभग साफ़ हो गया है । उम्मीद है कि कल 21 मार्च को ग्यारह बजे प्रहलाद पटेल पूरे लाव-लश्कर के साथ चार हज़ार कार्यकर्ताओं की फ़ौज लेकर विधिवत तौर पर घर वापसी करेंगे । मुख्यमंत्री ने भी इसकी पुष्टि कर दी है । भाजपा में आने के बाद उन्हें खजुराहो या छिंदवाड़ा से चुनावी जंग में उतारने के आसार है , मगर प्रहलाद फ़िलहाल चुनाव लड़ने की अटकलों को नकार रहे हैं ।

भाजश के दो दिग्गज नेताओं की वापसी की संभावनाओं ने प्रदेश की उन्तीस में से छब्बीस संसदीय सीटों पर जीत का दावा कर रही भाजपा नेताओं के चेहरे कमल की मानिंद खिला दिये हैं । हालाँकि विधानसभा चुनाव में भाजश कुछ खास नहीं कर पाई , लेकिन कई जगह भाजपा के वोटों में सेंधमारी में कामयाब रही थी । इसका खमियाज़ा जीत के अंतर में कमी और कई जगह काँग्रेस को बढ़त के तौर पर भाजपा को उठाना पड़ा था ।

रुठों के मान जाने से भाजपा में जोश का माहौल है , वहीं गुटबाज़ी से परेशान काँग्रेस अब तक दमदार उम्मीदवारों की तलाश भी पूरी नहीं कर पाई है । विधानसभा चुनाव में नाकामी से भी पार्टी के क्षत्रपों ने कोई सबक नहीं सीखा । कमलनाथ , ज्योतिरादित्य सिंधिया ,कांतिलाल भूरिया सरीखे नेता अब अपनी सीट बचाने की जुगत में लग गये हैं । मैदाने जंग में उतरने से पहले ही हार की मुद्रा में आ चुके काँग्रेस के दिग्गज नेता अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश में हैं । आज हालत ये है कि प्रदेश में काँग्रेस की स्थिति दयनीय है । हाल- फ़िलहाल मध्यप्रदेश में मुकाबला पूरी तरह से एकतरफ़ा दिखाई देता है ।

बुधवार, 18 मार्च 2009

परायी खुशियों पर थिरकते कदम

करीला की जानकी मैया की कृपा से जुड़ी किंवदंतियाँ दूर - दूर तक मशहूर हैं । अशोकनगर ज़िले के करीला गाँव का जानकी मंदिर हर साल रंगपंचमी पर घुँघरुओं की झनकार और ढ़ोल की थाप से गूँज उठता है । माता जानकी के शरण स्थल और लव-कुश की जन्मभूमि माने जाने वाले करीला के मेले की प्रसिद्धि में लगातार इजाफा हो रहा है। इसी के चलते यहां हर साल पहले की तुलना में ज्यादा श्रद्धालु मां जानकी के दरबार में मनोकामनाओं को लेकर पहुंचने लगे हैं । माँ जानकी की कृपावर्षा से जुड़े किस्से कहने -सुनने वालों की तादाद लाखों में पहुँच चुकी है । मनौती माँगने वालों का सिलसिला साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है । अगर कुछ नहीं बदला है तो सिर्फ़ दूसरों की मनौतियाँ पूरी होने की खुशियों में झूम-झूमकर नाचती बेड़नियों की तकदीर ।

कैसी विडम्बना है कि जिन नर्तकियों के पैरों की थिरकन पर रीझ कर जानकी माता मुँह माँगी मुराद पूरी कर देती हैं , उनके अँधेरे जीवन में आज तक उम्मीद की किरण नहीं फ़ूट पाई । करीला के मेले मे इस बार फ़िर एक बेबस माँ ने पेट की खातिर अपनी चौदह साल की बेटी नेहा के पैरों में घुँघरु बाँध दिए । मशाल की रोशनी में माँ और बहन के साथ अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए नेहा ने लोगों की खूब दाद बटोरी और भरपूर ईनाम भी पाया ।

हालाँकि नेहा को पढ़ना-लिखना पसंद है ,लेकिन उसकी माँ का कहना भी ग़लत नहीं कि पेट की आग किताबी ज्ञान से नहीं बुझती । उसकी नज़र में पैसा पढ़ाई से बड़ा है और पैसा आता है हुनरमंदी से । इसलिए शायद उसने नेहा को कमसिन उम्र में ही ’राई’ की सारी बारीकियों से वाकिफ़ करा दिया है । पतली कमर की लचक और ढ़ोल की थाप पर अंग-प्रत्यंग की थिरकन उसके परिपक्व राई नृत्यांगना होने की पुष्टि करते हैं ।

दूसरी बार करीला आई नेहा भी मानती है कि मैया के दरबार में नृत्य करने से मुरादें ज़रुर पूरी होती हैं । उसका यह विश्‍वास उधार के अनुभवों पर आधारित है ना कि खुद का तज़ुर्बा । दर्शकों की दाद को सबसे बड़ा ईनाम बताने वाली नेहा के मासूम चेहरे पर झलकता आत्मवि‍श्‍वास बताता है कि उसने नियति के फ़ैसले को पूरी शिद्दत और मज़बूती के साथ मंज़ूर कर लिया है ।

करीला के मंदिर में मन्नत पूरी होने पर ’राई’ कराने की परंपरा है । राई बुँदेलखण्ड का नृत्य है ,जिसमें बेड़नियाँ मशाल की रोशनी में रात पर मृदंग,रमतूला,झंझरा, ढपला,नगड़िया और तासे की धुन पर नाचती हैं । मान्यता है कि इस मंदिर में आकर कोई अपनी मनोकामना के साथ राई कराने का संकल्प ले , तो उसकी इच्छा ज़रुर पूरी होती है । मनौती के वक्त राई नर्तकियों की संख्या कबूलना भी ज़रुरी होता है । यह आँकड़ा एक से लेकर एक सौ एक तक कुछ भी हो सकता है । मनौती पूरी होने पर लोग अपनी हैसियत के मुताबिक बेड़नियाँ नचाते हैं ।

आमतौर पर सीता के साथ श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की जाती हैं लेकिन इस मंदिर में माता जानकी के साथ ऋषि वाल्मिकी और लव-कुश की प्रतिमाएँ हैं । मेला प्रबंधकों के मुताबिक रंगपंचमी की रात सैकड़ों बेड़नियाँ अपने पैरों की थिरकन को पल भर भी नहीं थमने देतीं । यूँ तो राई किसी भी दिन कराई जा सकती है , मगर श्रद्धालुओं के लिए रंगपंचमी सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त होता है ।

बेशक "राई" बेहद खूबसूरत और मनमोहक नृत्य शैली है। मृदंग की थाप और नर्तकी के शरीर की लोच के साथ पैरों की चपलता का अद्भुत सम्मिश्रण माहौल में सुरुर घोल देता है । लेकिन देवी माँ को प्रसन्न करने के लिए बेड़नियाँ नचाने वाला समाज ही उन्हें अच्छी निगाह से नहीं देखता ।

साल में एक दिन मंदिर परिसर में भले ही अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए इस कला के कद्रदान मिल जाएँ , मगर बाकी समय इन कलाकारों को रसिकजनों की खिदमत के लिए वो सब करना पड़ता है जिसे सभ्य समाज वेश्यावृत्ति का नाम देता है । बाली उम्र में नेहा का ’ राई’ नर्तकी के तौर पर पहचान बनाना चिंता का विषय है । साथ ही मन में एक जिज्ञासा भी है कि ईश्‍वर मज़लूमों -मजबूरों की आवाज़ को नज़रअँदाज़ करने का साहस कैसे बटोर पाता होगा...? कला के खरीददार अगर दाम चुका कर खुशियाँ पा सकते हैं , तो कलाकार को ही क्यों इन खुशियों पर हक हासिल नहीं ? क्या ऊपर वाला भी पूँजीवादी व्यवस्था का हामी है...? क्या सिक्कों की खनक बेबस लोगों की आहों- सिसकियों से ज़्यादा तेज़ सुनाई देती है ? सवाल कई , जवाब कोई नहीं, कहीं नहीं , कभी नहीं ...।

सोमवार, 16 मार्च 2009

झील की मौत पर जश्‍न का माहौल

सूरज की तपिश बढ़ने के साथ ही भोपाल की बड़ी झील का आकार घटता जा रहा है । तालाब की बदहाली पर आँसू और गेंती-फ़ावड़ा लेकर श्रमदान में पसीना बहाने वाले तो कई मिल जाएँगे , लेकिन इन हालात के मूल कारणों को ना तो कोई जानना चाहता है और ना ही इन पर बात करना । जैसे - जैसे तालाब का अस्तित्व सिमट रहा है , झील की मौत का जश्‍न मनाने वालों की बाँछें खिलने लगी हैं ।

’अमृतम जलम’ , ’अपनी झील-अपनी धरोहर’ और ’जल सत्याग्रह’ के ज़रिए झील को नया जीवन देने के कागज़ी दावे किये जा रहे हैं । मीडिया घरानों के एफ़ एम रेडियो पर दिन भर तालाब के लिये पसीना बहाने का चर्चा रहता है । अखबारों के दबाव में नेता और सरकारी अधिकारी भी चुप लगाये तमाशा देख रहे हैं । अखबारों के पन्ने प्रतिदिन श्रमदान की तस्वीरों और खबरों से रंगे होते हैं । लगता है गेंती- फ़ावड़ा चलाते लोगों का पसीना ही तालाब लबालब कर देगा ।

‘ताल तो भोपाल का और सब तलैया‘ की देश भर में मशहूर कहावत जिस झील की शान में रची गई, वह अब बेआब और बेनूर हो गई है । इस पहाड़ी शहर की प्यास बुझाने के लिए राजा भोज ने 11वीं सदी में बड़ी झील बनवाई थी 17वीं शताब्दी में नवाब छोटे खां ने निस्तार के लिए छोटे तालाब का निर्माण कराया । इसके मूल में बड़े तालाब को संरक्षित रखने की सोच थी ।

बड़े-बूढे उम्रदराज़ी की दुआ देने के लिए कहा करते थे - "जब तक भोपाल ताल में पानी है, तब तक जियो ।" क़रीब एक हज़ार साल पुराने `भोपाल ताल´ का जिक्र लोगों की इस मान्यता का गवाह है कि बूढ़ा तालाब कभी सूख नहीं सकता । मगर हम अपने लालच पर काबू नहीं रख पाए और अंतत: बूढ़े तालाब की साँसें धीरे-धीरे टूटने की कगार पर हैं । शहर की गंदगी, कचरे और मिट्टी के जमाव ने झील को उथला कर दिया है जिससे इसकी जल भंडारण क्षमता घट गई है। 31 वर्ग किलोमीटर के विशाल दायरे से सिमटकर तालाब महज 5 वर्ग किलोमीटर रह गया है । वैसे बड़े तालाब का भराव क्षेत्र 31 वर्ग किलोमीटर और कैचमेंट एरिया 361 वर्ग किलोमीटर है।


बड़े तालाब का तकरीबन 26 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र खाली हो चुका है। आसपास के लोगों के अलावा भू-माफिया ने भी मौके का फ़ायदा उठा अवैध कब्जा कर अधिकांश हिस्से में खेती शुरू कर दी । इतना ही नहीं कुछ इलाकों में अतिक्रमण कर पक्के मकान बना लिए गए हैं। बेजा कब्जों और अवैध निर्माणों से भी झील का जल भराव क्षेत्र घटा है।


भोपाल की छोटी और बड़ी झील को प्रदूषण मुक्त करने और उनके संरक्षण के लिए जापान की मदद से वर्ष 1995 में भोज वेटलैंड परियोजना शुरु की गई थी । जेबीआईसी के सहयोग से भोपाल के तमाम छोटे -बड़े तालाबों के संवर्धन और प्रबंधन संबंधी कामों पर 247 करोड़ रुपए खर्च हुए । वर्ष 2004 में पूरी हुई इस परियोजना में तालाब गहरीकरण, जलकुंभी हटाने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने, हाई लेवल ब्रिज के निर्माण जैसे कार्य किए जाने की बात कही जा रही थी। परियोजना तो खत्म हो गई ,लेकिन तालाब के हालात बद से बदतर होते गए । सीवेज का पानी आज भी तालाब में मिल रहा है । भोपाल की झीलों की संरक्षण और प्रबंधन परियोजना
A. Date of agreement - 28 February 1995
B. Contract period - 12 April 2002
C. Project implementation period - April 1995 to March 2001
(Extended upto March 2002)
D. Project Cost - 247.02 Crore (8300 million yen)
1. Loan Amount by JBIC ( 85%) - 7055 million yen
(exchange rate 1 Rs. = 3.36 yen)
2. State Government Contribution - Rs. 370.5 million (1245 million yen)
3. Expenditure of State Govt. before 01.04.1995 - Rs. 243.7 million
4. Project Expenditure from 01.04.1995 to 31.05.2001 (in Indian Rupees) - Rs. 1006.5 million
5. Project Expenditure from 01.04.1995 to 31.05.2001 (Commitment procedure in yen) - Rs. 187.
"एप्को " से साभार
तहज़ीब का शहर माने जाने वाले भोपाल को तालों की नगरी भी कहा जाता है। यहाँ नवाबी दौर में वॉटर रिचार्ज सिस्टम के 14 तालाब हुआ करते थे । इनमें से अब केवल पाँच तालाब ही बचे हैं । अतिक्रमण ने शहर के नौ तालाबों को लील लिया है । मोतिया तालाब और मुंशी हुसैन खाँ तालाब के बीच बने सिद्दीक हसन खाँ में अब पानी की जगह घास-फ़ूस और झाड़-झँखाड़ हैं ही , आलीशान अट्टालिकाएँ भी शासन-प्रशासन को मुँह चिढा़ रही हैं । अच्छे खाँ की तलैया , गुरुबख्श की तलैया ,लेंडिया तालाब अब इतिहास के पन्नों में दफ़्न हो चुके हैं । चार सौ से ज़्यादा छोटी-बड़ी बावड़ियाँ शहर के लोगों की पीने के पानी और निस्तार की ज़रुरतों को पूरा करती थीं ।
ज़ुबानी जमा खर्च से ना तो आज तक कभी कुछ बदला है और ना ही आगे भी ऎसा होगा । तालाब बचाने की चाहत किसे है ? देश में जब भी कहीं आपदा आती है चील गिद्धों की फ़ौज की जीभें लपलपाने लगती हैं । भोपाल की झील की मौत का मातम नहीं जश्‍न मनाया जा रहा है । सिवाय ढोंग के कुछ नहीं हो रहा । ढाई सौ करोड रुपए खर्च होने के बाद अगर झील की ऎसी दुर्दशा है तो कौन ज़िम्मेदार है ? भोजवेट लैंड परियोजना के कर्ता धर्ताओं को तो सीखचों के पीछे होना चाहिए । फ़िलहाल जो नाटक चल रहा है उसके पीछे भी किसी बडे फ़ंड की जुगाड़ और उसे हज़म करने की साज़िश है । वरना कुछ अखबार मालिकों को अचानक जल ही जीवन है या फ़िर अमृतम जलम की सुध क्यों आ गई ? खैर इस देश में कभी कुछ नहीं बदलेगा । हर मौत किसी के लिए सौगात बन कर आती रही है आती रहेगी ।

रविवार, 15 मार्च 2009

सुदर्शन चाहते हैं मौजूदा संविधान नष्ट करना

आरएसएस के सरसंघ चालक के एस सुदर्शन ने अँग्रेज़ों और दूसरे देशों की मदद से बनाए गए भारतीय संविधान को नष्ट कर देने की पैरवी की है । कल भोपाल में भारतीय विचार संस्थान के बौद्धिक कार्यक्रम में सुदर्शन ने कहा कि कुछ लोगों के निजी स्वार्थों के लिए ही यह संविधान बनाया गया था । आँबेडकर भी इस से संतुष्ट नहीं थे , इसीलिए उन्होंने कहा था कि बस चले तो संविधान में आग लगा दूँ । इससे किसी का भला नहीं होने वाला ।

उनसठ साल पुराने संविधान पर गाहे - बगाहे सवाल उठते रहे हैं । लंबे समय से नए व्यावहारिक और मज़बूत संविधान की ज़रुरत महसूस की जा रही है । भारत रक्षा संगठन ने नया संविधान बनाने के लिए संघर्ष का रास्ता चुनने की घोषणा की है वहीं प्रज्ञा संस्थान और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन भी नए संविधान का पक्षधर है ।

गणराज्य के जिस संविधान को हमने 26 जनवरी 1950 को अँगीकार किया था , बदलते सामाजिक और आर्थिक दौर में उसकी प्रासंगिकता खत्म हो चली है । ऎसी आवाज़ उठाने वाले भारतीय संविधान के 59 साल के सफ़र को विफ़ल करार देते हुए नए संविधान की माँग कर रहे हैं ।इनमें कुछ संगठन शामिल हैं , तो कुछ संविधान विशेषज्ञ ।

सच तो यह भी है कि जो संविधान हमें मिला वह आज़ादी के आंदोलन के दौरान घोषित स्वतंत्र भारत के लक्ष्य के अनुरुप नहीं था । महात्मा गाँधी ने भी ग्राम स्वराज की ओर बढने की बात को संविधान में शामिल नहीं करने पर कड़ी आपत्ति की थी । वास्तव में संविधान समग्र रुप से भारतीय स्वभाव और तासीर से मेल नहीं खाने के कारण असहज हो गया और धीरे-धीरे पूरा तंत्र बीमार होता चला गया । आज हालत ये है कि जन और तंत्र के बीच की खाई दिन ब दिन चौड़ी होती जा रही है ।

गौर से देखा जाए तो आमजन को केवल मत डालने का अधिकार दिया गया है । शासन में उसे किसी भी तरह की भागीदारी नहीं दी गई और ना ही उसकी कोई भूमिका तय की गई । संविधान से जुड़े प्रश्‍नों की फ़ेहरिस्त लगातार लम्बी होती जा रही है , जिनका उत्तर हमारे संविधान में ढूँढ पाना नामुमकिन होता जा रहा है । इनके लिए या तो संशोधन करना पड़ता है या फ़िर कोई व्यवस्था देने के लिए न्यायालय को आगे आना पड़ता है । कई मर्तबा संसद अपने मन मुताबिक प्रक्रिया शुरु कर देती है । संविधान से स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं मिलने के कारण आज गणतंत्र पटरी से उतर गया है । चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री , अराजकता तथा अँधेरगर्दी का बोलबाला है ।

संविधान का पहला संशोधन 1951 में किया गया और अब तक 90 से ज़्यादा संशोधनों का विश्‍व कीर्तिमान बन गया है , जबकि सवा दो सौ साल पुराने अमेरिकी संविधान में अब तक महज़ 26 बदलाव किये गये हैं । दर असल जिस संविधान की दुहाई देते हम नहीं थकते , उसकी सच्चाई यही है कि यह ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर और उसके बाद अँग्रेज़ सरकार के कानूनों का ही विस्तारित रुप है । कुछ लोग इसे 1773 के रेग्युलेशन एक्ट से लेकर 1935 के भारतीय शासन अधिनियम तक का मिलाजुला रुप बताते हैं ।

राजनीति के अपराधीकरण , चाँद-फ़िज़ा जैसे मामलों से समाज में बढती अराजकता और आरक्षण से फ़ैलते सामाजिक विद्वेष के मूल में कहीं ना कहीं संविधान का लचीलापन और मौन ही ज़िम्मेदार है । शासन - प्रशासन में बढ़ते भ्रष्टाचार और देश में कानून का राज कायम कराने में नाकाम न्याय व्यवस्था से राष्ट्रीय चरित्र का संकट खड़ा हो गया है ।

अपना दायित्व भूलकर दूसरे के काम में दखलंदाज़ी के बढ़ते चलन ने देश में असंतुलन और निरंकुशता का माहौल बना दिया है । बदलते दौर में संविधान में छिटपुट बदलाव करते रहने की बजाय सख्त और सक्षम कानून बनाने की ज़रुरत है । यह काम वक्त रहते कर लिया जाए , तो देश की तस्वीर और तकदीर भी सुनहरे हर्फ़ों में लिखी जा सकेगी । "एक मुल्क -एक कानून" ही देश में समरसता का माहौल बना सकता है । सभी वर्गों को न्याय के तराज़ू पर बराबरी से रखकर ही सांप्रदायिकता के दानव से छुटकारा मिल सकता है ।

मैं तो बेचैन हक़ीक़त को ज़ुबाँ देता हूँ ।
आप कहते हैं बग़ावत को हवा देता हूँ ।
निज़ाम कैसा ये खूशबू को नहीं आज़ादी ?
सुर्ख फ़ूलों को दहकने की दुआ देता हूँ ।

शनिवार, 14 मार्च 2009

अब बाघिनें भी चलीं ससुराल.........


बाघों का कुनबा बढ़ाने की अफ़लातूनी कवायद से मध्यप्रदेश के प्रकृति प्रेमी खासे नाराज़ और वन्य जीव विशेषज्ञ हैरान हैं । बाघों की तादाद बढाने के लिए शुरु की गई मुहिम को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं । लेकिन वन विभाग के आला अफ़सरान इन आपत्तियों को सिरे से खारिज कर बाघों की संख्या बढाने की दुहाई दे रहे हैं । ये और बात है कि जब से प्रोजेक्ट टाइगर शुरु हुआ है बाघों की मौत का सिलसिला तेज़ हो गया है । गोया यह परियोजना बाघों की मौत सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई गई है ।

हेलीकॉप्टर से बाघिन पहुँचाने की परियोजना सरिस्का के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शुरु की गई है । लेकिन परियोजना का उद्देश्य अपनी मोटी बुद्धि में तो घुसता ही नहीं । इधर प्रदेश में बाघों की वंशवृद्धि के लिए नई तरकीबें आज़मायी जा रही हैं , उधर बाघों की मौतों के बढते ग्राफ़ ने तमाम सवाल भी खड़े कर दिये हैं ।

हाल ही में सुरक्षा के सख्त इंतज़ाम के बीच वायुसेना के उड़नखटोले से बाघिन को पन्ना लाया गया । कान्हा नेशनल पार्क में सैलानियों को लुभा रही बाघिन अब अपने पिया के घर पन्ना नेशनल पार्क की रौनक बन गई है । इससे पहले तीन मार्च को बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में गुमनाम ज़िन्दगी गुज़ार रही बाघिन सड़क के रास्ते पन्ना पहुँची । पन्ना के बाघ महाशय के लिए पाँच दिनों में दो बाघिन भेजकर वन विभाग योजना की सफ़लता के "दिवा स्वप्न” देख रहा है ।

मध्यप्रदेश में आए दिन बाघों के मरने की खबरें आती हैं । पिछले हफ़्ते कान्हा नेशनल पार्क में एक बाघ की मौत हो गई । वन विभाग ने स्थानीय संवाददाताओं की मदद से इस मौत को दो बाघों की लड़ाई का नतीजा बताने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया । वीरान घने जंगल में मरे जानवर की मौत के बारे में बिना किसी जाँच पड़ताल के तुरंत उसे बाघों का संघर्ष करार दे देना ही संदेह की पुष्टि का आधार बनता है । खैर , वन विभाग के जंगल नेताओं और अधिकारियों की चारागाह में तब्दील हो चुके हैं , अब इसमें कहने- सुनने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा ।

पिछले दो माह के दौरान कान्हा में बाघ की मौत की यह तीसरी घटना है । इसी अवधि में बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में भी बाघ की मौत हो चुकी है । बुधवार को इंदौर चिड़ियाघर में भी "बाँके" नाम के बाघ ने फ़ेंफ़ड़ों में संक्रमण के कारण एकाएक दम तोड़ दिया । भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार में भी अब तक संभवतः तीन से ज़्यादा बाघों की मौत हो चुकी हैं । पन्ना नेशनल पार्क में बाघों की तादाद तेज़ी से घटी है । वर्ष 2005 में यहाँ 34 बाघ थे । इनमें 12 नर और 22 मादा थीं । 2006-2007 की भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की गणना में यह आँकड़ा 24 रह गया ।

बाघिन को स्थानांतरित करने की मुहिम पर स्थानीय लोगों ने ही नहीं , देश के जानेमाने वन्यजीव विशेषज्ञों ने भी आपत्ति उठाई है । उन्होंने प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को खत लिखकर अभियान रोकने की गुज़ारिश की थी । वन्य संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञ बृजेन्द्र सिंह ,वाल्मिक थापर , डॉक्टर उल्हास कारंत , डॉक्टर आर. एस. चूड़ावत , पी. के. सेन , बिट्टू सहगल , फ़तेह सिंह राठौर और बिलिन्डा राइट ने बाघिन को बाँधवगढ़ से पन्ना ले जाने के बाद 7 मार्च को पत्र भेजा था । इसमें राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और जानेमाने बाघ विशेषज्ञों से इस मुद्दे पर राय मशविरा नहीं करने पर एतराज़ जताया गया है ।

विशेषज्ञों ने वन कानून और अपने अनुभव के आधार पर कई अहम मुद्दे रखे हैं , जिनके मुताबिक पन्ना की मौजूदा परिस्थितियाँ बाघिनों के स्थान परिवर्तन के लिए कतई अनुकूल नहीं हैं । साथ ही ऎसा मुद्दा भी उठाया है जो वन विभाग की पूरी कवायद पर ही सवालिया निशान लगाता है । पत्र में पिछले एक महीने में पन्ना टाइगर रिज़र्व में किसी भी बाघ के नहीं दिखने का ज़िक्र किया गया है ।

हालाँकि पूरी कवायद फ़िलहाल अँधेरे में तीर चलाने जैसी है । जो सूरते हाल सामने आए हैं , उसके मुताबिक वन विभाग ही आश्‍वस्त नहीं है कि पन्ना में कोई बाघ बचा भी है या नहीं ....? तमाम विरोध और भारी मशक्कत के बीच दो बाघिनें पन्ना तक तो पहुँच गईं , मगर नेशनल पार्क में नर बाघ होने को लेकर वन विभाग भी संशय में है । दरअसल पार्क का इकलौता नर बाघ काफ़ी दिनों से नज़र नहीं आ रहा है ।

प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉक्टर पी. बी. गंगोपाध्याय का कहना है कि ज़रुरी हुआ तो एक-दो नर बाघ भी पन्ना लाये जा सकते हैं । बाघों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए पिछले दिनों भारतीय वन्यजीव संस्थान ने कैमरे लगाये थे , जिनसे पता चला कि पार्क में सिर्फ़ एक ही बाघ बचा है ।

बाघ संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे बाँधवगढ़ फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष पुष्पराज सिंह इस वक्त बाघिन के स्थानांतरण को जोखिम भरा मानते हैं । गर्मियों में पन्ना के जलाशय सूख जाने से बाघों को शाकाहारी वन्यजीवों का भोजन मिलना दूभर हो जाता है । ऎसे में वे भटकते हुए गाँवों के सीमावर्ती इलाकों में पहुँच जाते हैं और कभी शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या फ़िर ग्रामीणों के हाथों मारे जाते हैं । कान्हा की बाघिन को पन्ना ले जाने से रोकने में नाकाम रहे वन्यप्राणी प्रेमियों ने अब बाघिन की सुरक्षा को मुद्दा बना लिया है । अधिकारियों की जवाबदेही तय कराने के लिए हाईकोर्ट में अर्ज़ी लगाई गई है ।

जानकारों का ये तर्क एकदम जायज़ लगता है कि पन्ना को सरसब्ज़ बनाने का सपना देखने और इसकी कोशिश करने का वन विभाग को हक तो है , मगर साथ ही यह दायित्व भी है कि वह उन कारणों को पता करे जो पन्ना से बाघों के लुप्त होने का सबब बने । बाहर से लाये गये बाघ-बाघिनों की हिफ़ाज़त के लिहाज़ से भी इन कारणों का पता लगना बेहद ज़रुरी हो जाता है ।

मध्यप्रदेश के वन विभाग के अफ़सरों की कार्यशैली के कुछ और नमूने पेश हैं ,जो वन और वन्य जीवों के प्रति उनकी गंभीरता के पुख़्ता सबूत हैं -
सारे भारत में वेलंटाइन डे को लेकर हर साल बवाल होता है , लेकिन वन विभाग के उदारमना अफ़सरों का क्या कीजिएगा जो वन्य प्राणियों के लिए भी "वेलंटाइन हाउस" बनवा देते हैं । भोपाल के वन विहार के जानवर पर्यटकों की आवाजाही से इस कदर परेशान रहते हैं कि वे अपने संगी से दो पल भी चैन से मीठे बोल नहीं बोल पाते । एकांत की तलाश में मारे-मारे फ़िरते इन जोड़ों ने एक दिन प्रभारी महोदय के कान में बात डाल दी और उन महाशय ने आनन-फ़ानन में तीन लाख रुपए ख़र्च कर इन प्रेमियों के मिलने का ठिकाना "वेलंटाइन हाउस" खड़ा करा दिया । कुछ सीखो बजरंगियों,मुथालिकों,शिव सैनिकों ....। प्रेमियों को मिलाने से पुण्य मिलता है और अच्छी कमाई भी होती है ।

इन्हीं अफ़सर ने वन्य प्राणियों की रखवाली के लिए वन विहार की ऊँची पहाड़ी पर दस लाख रुपए की लागत से तीन मंज़िला वॉच टॉवर बनवा दिया । भोपाल का वन विहार यूँ तो काफ़ी सुरक्षित है , लेकिन जँगली जानवर होते बड़े चालाक हैं । वन कर्मियों की नज़र बचा कर कभी भालू , तो कभी बंदर , तो कभी मगर भोपालवासियों से मेल मुलाकात के लिए निकल ही पड़ते हैं । तिमँज़िला वॉच टॉवर पर टँगा कर्मचारी बेचारा चिल्लाता ही रह जाता है ।