मंगलवार, 3 मार्च 2009

धूमधाम से मनेगा शिवराज का "प्रकटोत्सव"

सामंती युग में राज परिवारों में सालगिरह मनाने का रिवाज़ था । लोग तोहफ़े - नज़राने देकर राजा के प्रति अपनी निष्ठा का मुज़ाहिरा पेश करते थे । अब ज़माना कुछ और है । कहते - कहते ज़ुबान थक गई है , फ़िर भी याद बताना ज़रुरी है कि भारत में अब भी लोकतंत्र बरकरार है । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री तो इतने विनम्र और सेवाभावी हैं कि वे खुद को हमेशा जनता का सेवक बताते नहीं थकते । उनकी निगाह में जनता ही उनकी भगवान है और वे उस के सच्चे सेवक.....??????

बहरहाल , इस तरह की विनम्रता सिर्फ़ शिवराजजी को ही शोभा देती है । कहते हैं ना कि जिसमें जितनी गुरुता वो उतना विनम्र ..। सो पाँव - पाँव भैया भले ही उड़न खटोला खरीदने की हैसियत वाले हो गये हैं लेकिन विनम्रता का लबादा ओढे रहने में भी वे बेमिसाल हैं ।

अब आते हैं मूल मुद्दे पर । वन - वन भटकने वाले श्रीराम की तुलना में माखन चोर , चितचोर नटखट नटवर नागर , कन्हैया का जन्मदिन बड़े पैमाने पर धूमधाम से मनाने की प्राचीन परंपरा रही है । जय हो .. मीडिया की , जिसकी मेहरबानी से भोलेशंकर के विवाह उत्सव भी पूरे तामझाम के साथ धूमधड़ाके से मनाने की परंपरा भी अब ज़ोर पकड़ने लगी है । लेकिन फ़िर भी थोड़ी कसर तो रह ही गई , शिवशंकर का जन्मदिन धूमधाम से मनाने की । मगर मध्यप्रदेश के शिवराज भी किसी "भोले भंडारी" से कम नहीं । इसलिए पाँच मार्च को प्रदेश के उत्साही भाजपाइयों ने उनका पचासवाँ जन्मदिन हर्षोल्लास से मनाने की तैयारी कर ली है ।

राजसी ठाट बाट से शपथ ग्रहण के बाद अब भाजपा सरकार के मुखिया का जन्मदिन भी शानोशौकत से मनाने के लिए राजधानी के व्यापारियों से सहयोग की गुज़ारिश की गई है । हो सकता है ऎसा ही सहयोग हर छोटे बड़े शहर के व्यापारियों से भी माँगा जा रहा हो । पाँच मार्च को पूरा भोपाल शिवराज का जन्मदिन मनाता दिखे , इसके लिए जगह - जगह होर्डिंग- बैनर लगाने की योजना है । भाजपाइयों ने महाभोज की तैयारी भी की है ।

’ जिसकी जितनी श्रद्धा , उसका उतना चढावा और बदले में उतनी ही परसादी ’ की तर्ज़ पर व्यापारियों से कहा गया है कि वे शकर ,आटा ,चावल सहित अन्य ज़रुरी सामग्री पहुँचायें ।शिवराज के मुख्यमंत्री बनने से पहले तक पाँच मार्च एक गुमनाम तारीख थी लेकिन पिछले तीन सालों से जन्मदिन मनाने की भव्यता के साथ ही इसकी व्यापकता भी विस्तार पा रही है । पिछले साल तीन हज़ार भाजपाई ही " शिवराज जन्मोत्सव " के छप्पन भोग का रसास्वादन कर पाये थे । लेकिन " बर्थ डे ब्वाय " इस मर्तबा चाहे जितनी ना नुकुर कर लें , दस हज़ार कार्यकर्ताओं को "जिमाने" के लिए रसद पानी का इंतज़ाम तो जनता को करना ही होगा ।

जुम्मा - जुम्मा चार दिन नहीं बीते जब शिवराज तामझाम नहीं काम की सीख देते घूम रहे थे । सार्वजनिक मंचों पर फ़ूलमालाओं से होने वाले स्वागत - सत्कार से भी परहेज़ की बात करने वाले शिवराज का इस जन्मोत्सव के बारे में क्या खयाल है ? भई हम तो कुछ नहीं कहेंगे । चुप ही रहेंगे । मन ही मन गुनगुनाएँगे - भये प्रकट कृपाला दीनदयाला , कौसल्या (भाजपा) हितकारी , हर्षित महतारी मुनि मन हारी अदभुत रुप बिचारी ।

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

सारी दुनिया छह हज़ार लोगों की मुट्ठी में...........

यकीन करना थोड़ा मुश्किल है लेकिन हक़ीक़त यही है कि पूरी दुनिया महज़ 6000 लोगों की मर्ज़ी की ग़ुलाम है । दूसरे शब्दों में सारी दुनिया इनकी मुट्ठी में है । ये ही वो लोग हैं जो तय करते हैं दुनिया की तकदीर । आजकल एक नई किताब ’सुपर क्लास’ चर्चा में है । डेविड रॉथ कॉफ़ की इस किताब में कहा गया है कि विश्व भर में अतिविशिष्ट व्यक्तियों का ऎसा वर्ग है जो तय करता है कि दुनिया कैसे चलेगी ।

श्री कॉफ़ का मानना है कि हर दस लाख लोगों में से एक में वो काबीलियत होती है जो उसे इस अतिविशिष्ट वर्ग का सदस्य बनने में मदद देती है । लगातार बदलते ’ पॉवर सर्किल ’ में कुछ साल रहने के बाद लोग खुद ही इससे दूर हो जाते हैं । हालाँकि अपवाद स्वरुप कुछ लोग ऎसे भी हैं जो कई दशकों तक उतने ही ताकतवर बने रहते हैं ।

इस पुस्तक के मुताबिक राजनीति , उद्योग जगत , वित्तीय संस्थाएँ , सैन्य उपक्रम , लेखन और सिनेमा से जुड़े लोगों का सुपर क्लास में दबदबा देखा गया है । दुनिया की रीति- नीति तय करने में पैसा और सेना का ’ हार्ड पॉवर ’ काम करता है । नई संस्कृति गढ़ने और नई जीवन शैली तैयार करने में नामीगिरामी लेखकों और चमत्कारिक व्यक्तित्व के मालिक लोकप्रिय सिनेमाई कलाकारों का प्रभाव काम करता है ।

कुछ धार्मिक नेता भी इसी श्रेणी में आते हैं , जिनकी बात करोड़ों लोगों का दिलो दिमाग बदल डालने की ताकत रखती है । ये भी आम लोगों की सोच - समझ पर खासा असर डालते हैं । लोग अपने निजी फ़ैसलों से लेकर सामूहिक मामलों से जुड़े फ़ैसले भी इन्हीं से प्रभावित होकर लेते हैं । ऎसे लोगों की फ़ेहरिस्त में रोमन कैथोलिक पोप और ईरान के धार्मिक नेता मरहूम अयातुल्लाह खुमैनी और उनके बेटे अयातुल्लाह अली खुमैनी का नाम शामिल है ।

इन मुट्ठी भर लोगों में पूरी दुनिया को मुट्ठी में कर लेने की शक्ति है । बल्कि इसे यूँ कहें कि दुनिया जंग के ज़रिये तबाही के रास्ते पर आगे बढेगी या अमन के फ़ूल खिलाकर धरती पर चमन सजाएगी , इसका फ़ैसला लेने का अख्तियार इन छह हज़ार लोगों को ही है । अतिविशिष्ट वर्ग के हाथ में इतना कुछ है कि इनकी मर्ज़ी के बग़ैर पत्ता भी नहीं खड़कता । अगर ये ना चाहें , तो बड़े से बड़ा युद्ध टाला जा सकता है । लेकिन इन्होंने ठान ली तो जंग होने से कोई रोक भी नहीं सकता । कुछ मामलों में इन्हीं के हितों की रक्षा के लिए लड़ाइयाँ लड़ी गईं ।

देशों के कानून भी वास्तव में इन्हीं प्रभावी लोगों के फ़ायदे को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं । ये और बात है कि आम लोगों का भरोसा वोट के रुप में पाकर ही ये लोग संसदों में पहुँचते हैं । लेखक का दावा है कि देश की व्यवस्था पर ही नहीं इस वर्ग का दबदबा विदेशी सरकारों पर भी रहता है ।

कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मालिक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी सरकारी मामलों में ना सिर्फ़ दिलचस्पी लेते हैं , बल्कि सरकारी फ़ैसलों पर भी अप्रत्यक्ष्र रुप से असर डालते हैं । यूरोपीय और अमरीकी लोगों का दबदबा समूचे विश्व में कायम है । बहरहाल मुकेश अंबानी और रतन टाटा भी सुपर क्लास का हिस्सा हैं । ये भी यूरोप और अमरीका के शक्तिशाली लोगों के बीच उठते - बैठते हैं । यानी लाख दावे किये जाएँ लेकिन हकीकतन देश कोई हो , सरकार किसी की भी बने, होंगी महज़ कठपुतलियाँ ही..........। दुनिया को चलाने वाले छह हज़ार बाज़ीगरों के हाथ का खिलौना .....!!!!!!!! इन सर्वशक्ति संपन्न बाज़ीगरों का एक ही नारा है - कर लो दुनिया मुट्ठी में !

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

देश में फ़िर हो सकता है आतंकी हमला

देश अब भी बारुद के मुहाने पर बैठा है । जल्दी ही आम चुनावों की घोषणा हो जाएगी और पूरा देश लोकतंत्र के जश्‍न में डूब जाएगा । मंदी की मार के चलते नौकरी से हाथ धो बैठे कई युवाओं को काम मिल जाएगा और बचे खुचे लोग इस उत्सवी माहौल में अपना ग़म ग़लत करते नज़र आएँगे । ऎसे ही किसी शानदार मौके की राह तक रहे हैं -दहशतगर्द । जब पूरा देश चुनावी रंग में सराबोर होकर बेखबर होगा , तब आईएसआई के आतंकी रंग में भंग डालने का साज़ो सामान लेकर टूट पडे़गे कई ठिकानों पर ।

खुफ़िया एजेंसियों की रिपोर्ट कहती है कि आईएसअआई की शह पर भारत में अफ़रा-तफ़री फ़ैलाने की साज़िश को अंजाम देने की पूरी तैयारी है । हालाँकि पहले भी इस तरह की सूचनाएँ मिलती रही हैं ,लेकिन हर बार चेतावनियों को अनदेखा कर देने का खमियाज़ा आम नागरिक ने उठाया है । सरकार ने 26 / 11 के मुम्बई हमले पर अब तक "नौ दिन चले अढ़ाई कोस" का रवैया अपना रखा है । ऎसे में दहशतगर्दों के हौंसले बुलंद हों , तो कोई आश्‍चर्य की बात नहीं होगी ।

इधर खबर ये भी है कि ओबामा का अमेरिका पाकिस्तान को तालिबानियों की गिरफ़्त में फ़ँसा "बेचारा" मानने की तैयारी कर चुका है । इस लाचारगी से बाहर लाने के लिए जल्दी ही करोंड़ों डॉलर की इमदाद भी पहुँचाई जाएगी , ताकि पाकिस्तान इस "मुसीबत" से उबर सके । "शरीफ़ पाक" ज़्यादा कुछ नहीं थोड़े आतंकी और थोड़ा रसद पानी खरीदेगा इस पैसे से और ज़ाहिर तौर पर इसका इस्तेमाल होगा भारत के भीतर घुसकर भारत के लोगों को गाजर - मूली की तरह काटने में ।

खुफिया एजेंसियों को अल कायदा के आतंकी अबू जार के फोन इंटरसेप्ट के ज़रिए साजिश का पता चला है। इस साजिश में अल कायदा, जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा समेत कई आतंकी संगठन भागीदार हैं। इनका मकसद केवल भारत में धमाके करना ही नहीं है । वैसे तो भारत-पाक रिश्तों में अब पहले सी गर्मी नहीं रही लेकिन आतंकी रिश्तों के तनाव की चिन्गारी को भभकती लपटों की शक्ल देना चाहते हैं । संदेश को पकड़ने के बाद सुरक्षा एजेंसियों की नींद उड़ गई है।

यह हमला कार बम के जरिए करने की बात कही गई है। देश की सभी गुप्तचर एजेंसियों ने एक ही संकेत दिया हैं कि आईएसआई के आतंकवादी भारत में कई सुरक्षित ठिकानों पर मौजूद हैं और किसी बड़े शहर पर किसी बड़े हादसे के लिए सही वक्त की टोह ले रहे हैं। इनमें से कई के नाम पते और शिनाख्त भी खुफ़िया तंत्र के पास हैं। संदेश में अबू जार ने अपने साथियों से दिल्ली पर हमले करने के लिए तैयारियाँ शुरू करने को कहा है।

सुरक्षा एजेंसियों के मुताबिक अबू जार का मकसद कश्मीर घाटी समेत समूचे भारत में आतंकी वारदात करने का है। अल कायदा आतंकी अबू जार पर 2001 में जम्मू विधानसभा में बम विस्फोट, 6 सितंबर 2003 में जम्मू के एक इलाके में बम विस्फोट और 16 नवंबर 2006 को जम्मू-कश्मीर के एक बैंक में बम विस्फोट कर कई लोगों की जान लेने का आरोप है।

कश्मीर के कांजीकोला इलाके में सक्रिय अबू जार कार बम के इस्तेमाल में माहिर माना जाता है। वह कश्मीर के आतंकियों के छोटे -छोटे गुटों को इकट्ठा कर देश में हमले कराने की फिराक में है। अल-कायदा आतंकी का मकसद दोनों देशों में युद्ध जैसे हालात पैदा करने का है।

पाकिस्तान की भारत के प्रति खुन्नस किसी से छिपी नहीं है । दरअसल वह हज़ार घावों से लहूलुहान हिन्दुस्तान देखना चाहता है , लेकिन अमेरिका की ख्वाहिश भी कुछ अलग नहीं । पूरा देश बराक ओबामा के चुने जाने पर बौरा रहा था लेकिन जिस तरह से आउट सोर्सिंग पर रोक लगाने का फ़रमान सामने आया है , मालूम होता है भारत का दुनिया में बढता रसूख अमेरिका की आँख की किरकिरी बन गया है । मंदी ने पूरी दुनिया में ज़लज़ला ला दिया है । इसमें तीस लाख से ज़्यादा भारतीय रोज़गार गवाँ बैठे हैं , लेकिन नेता ’ओम शांति, शांति ,शांति......... जपते हुए चुनावी रणभेरी फ़ूँकने की कवायद में मशगूल हैं ।

( चुनाव पूर्व चेतावनी - नीम बेहोशी से जागो । अब भी नहीं तो कभी नहीं । मोमबत्तियाँ जलाने वालों , गुलाबी चड्डियों के गिफ़्ट बाँटने वालों ,बेवजह सड़क पर दौड़ लगाने वालों ,हवा में मुक्के लहराने वालों , हस्ताक्षर के ज़रिए व्यवस्था बदलने का दावा करने वालों कोई तो रास्ता सोचो । छोटे - बड़े अपराधी में से चुनाव की भूल मत दोहराओ । देश बचाओ ,लोकतंत्र बचाओ )

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

मप्र के आदिवासी देशी खेती सीखने जाएँगे परदेस....!

"कोई भरम मत पालिये । साफ़ बात यह है कि लेखक दुनिया नहीं बदलता । वह बदल ही नहीं सकता । दुनिया बदलने वाले दुनिया बदलते हैं ।"

लीजिए साहब , अब मध्य प्रदेश के किसान खेती की बेहतर तकनीक सीखने के लिए सात समुंदर पार भेजे जाएँगे । आदिम जाति कल्याण विभाग आदिवासियों को विदेशों में खेती किसानी सिखाने भेजने की तैयारी में जुट गया है । राज्य के किसान अमेरिका ,चीन ,जापान सहित कई देशों से खेती के गुर सीख कर आएँगे । शुरुआती दौर में दस किसान खरीफ़ मौसम में पंद्रह दिन से एक महीने का प्रशिक्षण लेने भेजे जाएँगे । अधिकारियों का कहना है कि चावल की अच्छी माँग होने के कारण धान की जैविक खेती के बारे में जानकारी दी जाएगी ।

खेती - किसानी के मामले में आज भी भारत कई देशों से आगे है । लोकोक्तियाँ और कहावतें मौसम के मिजाज़ को समझने और उसके मुताबिक फ़सल लेने तक का सटीक ज्ञान देने में सक्षम हैं । अनुभवी किसान हवा का रुख देख कर भाँप जाता है कि बरसात कब- कब होगी और कितनी । इतना ही नही नक्षत्रों और मिट्टी की किस्म से ग्रामीण फ़सल का अनुमान लगा सकते हैं । लेकिन हम अपने देश के वैदिक और पारंपरिक ज्ञान के प्रति हमेशा से लापरवाह रहे हैं । "फ़ॉरेन रिटर्न" की मानसिकता इस कदर हावी है कि देश की चीज़ जब तक विदेशी ठप्पा लगवाकर नहीं आये , हम उसे संदेह की निगाह से ही देखते हैं ।

वैज्ञानिकों ने गायत्री मंत्र के ज़रिए उपचारित बीजों से हैरत में डाल देने वाला फ़सल उत्पादन हासिल होने की बात स्वीकारी है । लोगों की बेरुखी के कारण सड़कों पर पन्नियाँ खा कर दम तोड़ती गायें भी खेती की मूलभूत ज़रुरत में से एक है । गाय का मूत्र और गोबर जमीन की उर्वरा शक्ति बढाता है । साथ ही फ़सलों को नुकसान पहुँचाने वाले अनगिनत जीवाणुओं और कीड़ों की रोकथाम करता है । अनुभवी कहते हैं गौमूत्र के नियमित छिड़काव से पथरीली ज़मीन भी उपजाऊ और भुरभुरी हो जाती है ।

गायत्री शक्तिपीठ ने खेती को भारतीय पद्धति से करने के कई सफ़ल प्रयोग किये हैं और जैविक खेती की तकनीक पर शोध भी किये हैं । मेरे अपने प्रदेश में ऎसे कई प्रगतिशील किसान हैं , जिन्होंने अपनी हिकमत और हिम्मत से खेती के पारंपरिक स्वरुप को नया जीवनदान दिया है । इतना ही नहीं ये साबित भी किया है कि प्राकृतिक नुस्खे अपना कर खेती की लागत घटा कर भरपूर पैदावार ली जा सकती है ।

अब सवाल ये कि जिस विषय के बारे में हमारे यहाँ ज्ञान का भंडार मौजूद है ,उसके लिए विदेश का रुख करना कहाँ तक जायज़ है ? वास्तव में हमारे नेता और अफ़सर कभी बीमारी , तो कभी प्रशिक्षण के नाम से सरकारी खर्च पर दूसरे देशों के सैर सपाटे का बहाना तलाशते रहते हैं । ज़ाहिर सी बात है कि गाँव की पगडंडी छोड़कर शहर की सड़कों तक आने में घबराने वाले ठेठ ग्रामीण परिवेश से निकले ये आदिवासी अकेले तो विदेश जा नहीं सकेंगे........। अँग्रेज़ीदाँ वातावरण में किसानों को समझाने और हौसला देने के लिए हो सकता है अधिकारियों की लम्बी चौड़ी फ़ौज भी साथ जाए ।

वैसे एक और जानकारी काबिले गौर है । शिवरात्रि पर भोपाल के नज़दीक प्रसिद्ध स्थल भोजपुर में उत्सव के उदघाटन समारोह में मुख्यमंत्री ने एक जानकारी दी । उन्होंने बताया कि पिछले साल संस्कृति विभाग के ज़रिए 17 करोड़ रुपए प्रदेश की सभी पंचायतों की भजन मंडलियों को दिये गये । यानी प्रदेश का लोक कलाकार भी खासा अमीर हो गया शिवराज के राज में .....?????? क्या वाकई ....????? और हाँ संस्कृति मंत्री ने समारोह में लोक कलाकारों की पंचायत बुलाने की माँग भी कर डाली । हाल ही में "घोषणावीर मुख्यमंत्री" हाथठेला और रिक्शा चालकों की पंचायत कर चुके हैं । पिछले कार्यकाल में उन्होंने सत्रह पंचायतें कीं । इन लोगों का कितना भला हो सका ये शोध का विषय है, लेकिन अधिकारियों और इंतज़ाम में लगे ठेकेदारों को तत्काल लाभ मिल ही गया ।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

संस्कृति बचाने का तुगलकी फ़रमान

मानव मन के उल्लास और उमंग को अभिव्यक्त करने के कई अनूठे तौर तरीके अनादि काल से चले आ रहे हैं । समय - समय पर भरने वाले मेले सामयिक संदर्भों से जुड़ने की जीवंत परंपरा के साथ ही विभिन्न अँचलों में ग्राम और लोक देवताओं को याद करने के बहाने होते हैं ।

देश की मौलिक संस्कृति में मेलों की सतरंगी छटा चारों ओर बिखरी दिखाई देती है । मेलों का ग्राम्य स्वरुप प्रचलित भी है और प्रसिद्ध भी । हालाँकि अब शहरों में भी मेलों का आकर्षण बढने लगा है लेकिन उनमें गाँव के मेलों सा सौंधापन कहाँ......? इन मेलों के मूल में कोई अन्तर्कथा है ,संवेदना है और आदि लोक परंपरा है । यही कारण है कि इन आयोजनों का "लोक आस्था का मूल तत्व" तमाम अपसंस्कृति के बावजूद अब तक मिट नहीं सका है ।

मेले का अनूठापन ही है कि लोग स्वतः स्फ़ूर्त प्रेरणा से नियत तिथि और निश्‍चित स्थल पर साल दर साल जुड़ते रहते हैं , बगैर आमंत्रण की प्रतीक्षा किए ....। दशकों क्या सदियों से यही परंपरा चली आई है । लेकिन आज एक समाचार पढ़कर मन आशंकाओं से भर गया । एक साथ कई सवाल उठने लगे ज़ेहन में । मध्यप्रदेश में हर साल छोटे - बड़े करीब डेढ़ हज़ार मेले लगते हैं । धार्मिक ,सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े इन मेलों पर अब राज्य सरकार का रहमो करम होने जा रहा है । दर असल यही सरकारी पहल ऊहापोह का सबब बनी है ।

मध्यप्रदेश लोककला और संस्कृतियों की विविधता को समेटे हुए है । प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में लगने वाले मेलों पर नज़र रखने के लिए राज्य सरकार मई तक मेला प्राधिकरण बनाने की तैयारी में है । यह सरकारी महकमा मेलों के इंतज़ाम के अलावा कलाकार जुटाने और पैसे के हिसाब किताब का ज़िम्मा भी सम्हालेगा । यूँ तो ये प्राधिकरण संस्कृति विभाग के अधीन ही काम करेगा मगर इसकी एक अलग समिति होगी । हर ज़िले में उप समितियाँ बनाई जाएँगी । दलील दी जा रही है कि मेलों में अश्लीलता के नाम पर जम कर विवाद होते रहे हैं । सरकार के मुताबिक इन घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए प्राधिकरण बनाने की ज़रुरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी । संस्कृति विभाग चाहता है कि धार्मिक मेले धर्ममय होने चाहिए ।

अब इन दलीलों पर क्या कहा जाए ? मेरे शहर में कई मेले लगते हैं । इनमें मुम्बइया आइटम गर्ल्स के धमाल और दर्शकों के बवाल पर किसी की निगाह नहीं जाती । राजधानी में सरकारी ज़मीन पर बड़े- बड़े उद्योग घराने बरसों से निजी किस्म के मेले लगाते चले आ रहे हैं । व्यापारियों से स्टॉल लगाने के एवज़ में मोटी रकम लेते हैं और सरकार से तमाम तरह की छूट भी । हाल के सालों में इन बेशकीमती ज़मीनों को आयोजन समितियों के हवाले करने की माँग भी ज़ोर पकड़ने लगी है , जबकि ये मेले शुद्धतः व्यापारिक लाभ के लिए लगाये जाते हैं । इनमें संस्कृति या परंपरा को बचाये रखने जैसा कोई सरोकार नहीं है ।

ग्रामीण मेले लम्बे समय से बिना किसी व्यवधान के बेहतरीन ढंग से लगते चले आ रहे हैं । वैसे भी ग्रामीण अँचल की संस्कृति से जुड़े मेलों में अब तक तो कोई ऎसी शिकायतें सुनने में नहीं आईं । लगता है -" पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए ।" ग्रामीण संस्कृति को बचाने के लिए वाकई ईमानदार कोशिश करना है , तो उसे सरकारी नियंत्रण से दूर ही रखना होगा । पंचायतों के ज़रिए गाँवों तक स्वराज पहुँचाने के ख्वाब का हश्र इस बात की पुष्टि करता है ।

कल ही मैं एक प्रादेशिक चैनल पर देख रही थी कि टीकमगढ ज़िले में किस तरह गाँव के लोगों ने बिना किसी सरकारी मदद के लम्बी चौड़ी नहर खोद डाली । जब सूबे के कई बड़े शहरों में पानी के लिए हाहाकार मचा है ,तब इस इलाके के कई गाँव ना सिर्फ़ अपनी और अपने मवेशियों की प्यास बुझा रहे हैं , बल्कि खेतों को लहलहाता देखकर आह्लादित भी हैं । सरकारी मदद के भरोसे ना जाने कितने वित्तीय साल बीत जाते ...? बजट आता लेकिन काग़ज़ी योजना को हकीकत में शायद कभी नहीं बदल पाता । मेरी राय में योजना के खर्च का एस्टीमेट ईमानदारी से बना कर पैसा उन सभी लोगों में बाँट दिया जाना चाहिए , जिन्होंने इस भगीरथी प्रयास को अंजाम दिया ।

एक तरफ़ तो योजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है । दूसरी तरफ़ नेताओं और अधिकारियों की जेबें भरने के लिए प्राधिकरण बनाया जा रहा है । क्या यह फ़ैसला " तुगलकी फ़रमान" नहीं ....?
( चुनाव पूर्व चेतावनी - राजनीतिक दलों तक अपनी बात पहुँचाएँ , उन्हें बताएँ कि अब मतदाता पार्टी को नहीं ईमानदार और साफ़ छबि वाले उम्मीदवार को वोट देगा । पार्टियाँ जिस दिन इस बात को जान जाएँगी, तब " जीत की गारंटी वाला " आपराधिक छबि का प्रत्याशी चुनना आपकी मजबूरी नहीं होगी । यानी दिखावे पर ना जाएँ अपनी अकल लगाएँ । )

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

नमक के बाद अब शिवराज का " कोयला सत्याग्रह "

लोकसभा चुनाव की दस्तक ने सियासी दाँव- पेंच तेज़ कर दिये हैं । मध्यप्रदेश में ज़बरदस्त बहुमत के साथ दोबारा सत्ता में लौटी भाजपा पर " सिर मुँडाते ही ओले पड़े" कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही है । साम - दाम - दंड - भेद की नीति पर चल कर सत्ता सुख हासिल करने में भले ही भाजपा कामयाब रही हो ,लेकिन प्रकृति के कड़े तेवरों ने पार्टी के हाथ - पाँव फ़ुला दिये हैं ।

पूरे प्रदेश में पानी के लिए हाहाकार मचा है । हालाँकि सूरज ने तो अभी अपनी भृकुटी तानना तो छोड़िए , निगाहें तिरछी भी नहीं की हैं । पानी नहीं , तो बिजली नहीं । इधर चुनावी मौसम की गर्मी बढेगी , उधर बिजली -पानी की कमी से दो चार होती जनता का पारा चढेगा । राज्य सरकार ने हालात पर काबू पाने के सभी दरवाज़े बँद होते देख सारी मुसीबतों का ठीकरा केन्द्र सरकार के सिर फ़ोड़ने का मन बना लिया है ।

’पाँव- पाँव वाले भैया’ के नाम से मशहूर शिवराज सिंह ने अब गेंद केन्द्र के पाले में डालने के लिए ’सत्याग्रह’ का रास्ता चुना है । एक सत्याग्रह गाँधीजी कर गये और अब दूसरा शिवराज कर रहे हैं । वे नमक के लिए लड़े , ये कोयले के लिए । लेकिन भारत में "नमक" का नाता आन- बान - शान से है । मगर कोयले की शोहरत कुछ अच्छी नहीं.........! कोयले की दलाली में हाथ काले करने वालों को कभी भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता ।

शिवराज का कहना है कि आँख पर पट्टी बाँधे बैठी केन्द्र सरकार पर आग्रह , धरना , उपवास , प्रदर्शनों का तो कोई असर हो नहीं रहा । प्रधानमंत्री को राज्य के हालात से रुबरु कराने का हर नुस्खा नाकाम हो जाने के बाद अब वे ’न्याय यात्रा’ के माध्यम से बात पहुँचाएँगे । कल भोपाल से शुरु हुई उनकी यह न्याय यात्रा मंडीदीप , औबेदुल्लागंज , बुधनी , होशंगाबाद होते हुए इटारसी और सारणी (बैतूल) पहुँची । उन्होंने सारणी से पाथाखेड़ा तक का सफ़र पैदल तय किया । इस पाँच किलोमीटर की ऎतिहासिक यात्रा को नाम दिया गया - कोयला सत्याग्रह ।

वैसे कोयले और बिजली के कोटे में कटौती के अलावा भी कई ऎसे मसले हैं , जिन पर केन्द्र और राज्य सरकार में ठनी है । मुख्यमंत्री की शिकायत है कि सूखा राहत , समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न की खरीद के लिए अनुदान , सर्व शिक्षा अभियान के लिए धन राशि समेत कई मदों में प्रदेश को केन्द्र की ओर से दी जाने वाली आर्थिक मदद समय पर नहीं मिल रही है । केन्द्र से पैसा मिलने की आस में ब्याज पर उठाया गया कर्ज़ भी दिन ब दिन बढता ही जा रहा है । इससे प्रदेश का बजट ही गड़बड़ा गया है । जिससे केन्द्र- राज्य के बीच की खाई गहरी होती जा रही है ।

प्रदेश सरकार के मुताबिक सर्व शिक्षा अभियान में इस साल 980 करोड़ रुपए खर्च किए गये । इसमें से 650 करोड़ रुपए केन्द्र से मिलना थे , मगर अब तक केवल 300 करोड़ रुपए ही मिले । इसी तरह समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न खरीदी के लिए अक्टूबर 2008 से इस वर्ष मार्च तक मिलने वाले अनुदान की राशि 741 करोड़ रुपए भी अब तक नहीं मिल पाए हैं । राज्य सरकार ने अनाज खरीदी के लिए रिज़र्व बैंक से 13 फ़ीसदी पर कर्ज़ लिया है , जिस पर कर्ज़ की अदायगी समय से नहीं होने के कारण एक प्रतिशत का दांडिक ब्याज भी लग रहा है ।

मुख्यमंत्री के ’ कोयला सत्याग्रह’ को लेकर भाजपा उत्साहित है , ऎसे में काँग्रेस भी कब पीछे रहने वाली है । काँग्रेस ने पलटवार करते हुए शिवराज को पाँच सवालों पर खुली बहस की चुनौती दे डाली है । यानी तू डाल - डाल मैं पात- पात का खेल लगातार जारी है ।

बेचारी जनता कभी उस ओर आस भरी निगाहों से ताकती है , तो कभी इधर टकटकी लगाए निहारती है । नेता भी बेचारे क्या करें चुनाव होने तक टाइम पास भी करना है और जनता को भरमाए भी रखना है । हम तो दर्शक हैं । कभी मज़ा लेते हैं । कभी ताली पीटते हैं । मन आये तो वाहवाही करने लगते हैं या फ़िर पाला बदल - बदल कर अपना अनुभव बढाते रहते हैं । पब्लिक जो ठहरे .......! सो नौटंकी , खेल - तमाशा ,बाज़ीगरी जो चाहे कहिए , सभी कुछ जारी है ।
( चुनाव पूर्व चेतावनी - चोर- लुटेरों की फ़ौज से किसी को भी चुनने की बजाय " वोट" बेकार करने का हुनर सीखिए और इन तत्वों से छुटकारा पाइए )

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

युवाओं के खिलाफ़ शिवराज का फ़रमान

मध्यप्रदेश सरकार ने एक बार फ़िर उदारता का मुज़ाहिरा किया है । दक्षिणपंथी विचारधारा के लेखकों और कलाकारों को दरकिनार कर वामपंथियों को सिर माथे बिठाने वाली भाजपा सरकार ने प्रदेश के दरवाज़े बाहरी छात्रों के लिए खोल दिए हैं । अब मप्र लोक सेवा आयोग की परीक्षा में प्रदेश से बाहर के उम्मीदवार भी हिस्सा ले सकेंगे । केबिनेट के इस फ़ैसले से राज्य के युवाओं के लिए प्रतिस्पर्धा कडी हो जाएगी ।

वर्ष 1996 से प्रदेश में नियम था कि पीएससी परीक्षा में वे ही प्रत्याशी शामिल हो सकेंगे जो मप्र के मूल निवासी होंगे । इसके लिए उम्मीदवार का मध्यप्रदेश से हायर सेकंडरी या डिग्री लेना ज़रुरी था । शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल में भी ये मामला केबिनेट में आया था , लेकिन कुछ मंत्रियों ने इस प्रस्ताव की जमकर मुखालफ़त की थी । उस वक्त मंत्रिमंडल सदस्य अखंडप्रताप सिंह ने इस मुद्दे पर अपनी ही सरकार को जमकर लताडा था ।

सुनने में आया है कि सामान्य प्रशासन विभाग ने इस बारे में अपने स्तर पर ही आदेश जारी कर दिए थे । मामला सामने आने पर उसे कानूनी जामा पहनाने के लिए केबिनेट में भेज दिया गया । इस मामले से दो बातें तो एकदम साफ़ हैं । पहली तो ये कि करोडों रुपए फ़ूँक कर कार्पोरेट कल्चर में रंग जाने को बेताब सरकार निहायत ही निकम्मी और काठ की उल्लू है । बजरबट्टू नेता पूरी तरह नौकरशाहों के शिकंजे में फ़ँसे हुए हैं । साथ ही इनके पास राज्य के विकास के लिए कोई समग्र सोच नहीं है । एक ही काम है इन नेताओं का ...। भज कलदारम , भज कलदारम हो गया प्रदेश का बंटाढारम .....।

प्रदेश में शिक्षा की स्थिति शर्मनाक हो चुकी है । बच्चों का भविष्य राम भरोसे है । मेरे घर के नज़दीक ,बल्कि उसे ऎसे कहें कि शिक्षा मंत्री के बंगले से महज़ दो - ढाई किलोमीटर की दूरी पर एक ऎसा स्कूल है , जहाँ एक कमरे में पाँच कक्षाएँ लगती हैं । यह स्कूल कम और रेलवे स्टेशन का क्लॉक रुम ज़्यादा नज़र आता है । पढाई की तो बात ही मत कीजिए । शिक्षिका के पसीने छूट जाते हैं ,बच्चों को चुप बैठाए रखने में । इतना ही नहीं प्रदेश का हर चौथा स्कूल एक शिक्षक के भरोसे है । डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि प्रदेश के 84 हज़ार से ज़्यादा प्राइमरी स्कूलों में से 27 हज़ार में महज़ एक टीचर तैनात है ।

स्कूली शिक्षा के हाल बताते हैं प्रदेश की शिक्षा का स्तर , जबकि दूसरे राज्यों में पढाई का स्तर काफ़ी ऊँचा है । ज़ाहिर तौर पर ऎसे में प्रतियोगी परीक्षाओं में दूसरे राज्यों के छात्र बाज़ी मार ले जाएँगे । बढते क्षेत्रवाद के चलते दूसरे प्रदेशों में मप्र के युवाओं के लिए वैसे भी अवसर ना के बराबर ही हैं । अपने ही मतदाताओं के हक पर कुठाराघात करने वाली सरकार की अकल पर पडे पाले ने लोगों को सन्न कर दिया है ।

इस मसले पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भाजपा पर युवाओं के हितों को तिलांजलि देने का आरोप लगाते हुए शिवराज सिंह को पत्र लिखा है । मुख्यमंत्री ने दलील दी है कि हाईकोर्ट का आदेश मानना सरकार की मजबूरी थी । इस सफ़ाई ने सरकार की निर्णय क्षमता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । सरकार युवाओं के हित में कानूनी लडाई लडने के लिए इच्छा शक्ति प्रदर्शित कर सकती थी । मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकती थी ।

युवा हैरान हैं सरकार के फ़ैसले से । वे जानना चाहते हैं कि यदि उन्हें अपने ही प्रदेश में ठौर नहीं मिलेगा तो कहाँ जाएँगे......? जो सरकार जनता की पालनहार होने का ,उसके दुख दर्द समझने का दावा करती हो ,यदि वही दर्द देने पर आमादा हो जाए , तो आम जनता अपनी फ़रियाद लेकर किसके पास जाए........????? गरीबों की सुनवाई नहीं । बिजली नहीं ,पानी के लिए पूरे प्रदेश में हाहाकार । किसान बेज़ार । कर्मचारी सरकार की वायदा खिलाफ़ी से खफ़ा । और अब युवाओं के खिलाफ़ जाता ये सरकारी फ़रमान .....। क्या करना चाहती है ये सरकार ....????? दो महीनों में ये हाल .....। " इब्तदाए इश्क है रोता है क्या , आगे - आगे देखिए होता है क्या ? "